चैप्टर 6 गोदान : मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास | Chapter 6 Godan Novel By Munshi Premchand Read Online

Chapter 6 Godan Novel By Munshi Premchand

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हीरा को भी ख़बर मिली कि चौधरी और पुनिया में लड़ाई हो रही है। चौधरी ने पुनिया को धक्का दिया। पुनिया ने उसे तल्लियों से पीटा। उसने पुर वहीं छोड़ा और औंगी लिए घटनास्थल की ओर चला। गाँव में अपने क्रोध के लिए प्रसिद्ध था। छोटा डील, गठा हुआ शरीर, आँखें कौड़ी की तरह निकल आयी थीं और गर्दन की नसें तन गयी थी; मगर उसे चौधरी पर क्रोध न था, क्रोध था पुनिया पर। वह क्यों चौधरी से लड़ी? क्यों उसकी इज़्ज़त मिट्टी में मिला दी? बंसोर से लड़ने-झगड़ने का उसे क्या प्रयोजन था? उसे जाकर हीरा से सारा समाचार कह देना चाहिए था। हीरा जैसा उचित समझता, करता। वह उससे लड़ने क्यों गयी? उसका बस होता, तो वह पुनिया को पर्दे में रखता। पुनिया किसी बड़े से मुँह खोलकर बातें करे, यह उसे असह्य था। वह ख़ुद जितना उद्दंड था, पुनिया को उतना ही शांत रखना चाहता था। जब भैया ने पंद्रह रूपये में सौदा कर लिया, तो यह बीच में कूदने वाली कौन! आते ही उसने पुन्नी का हाथ पकड़ लिया और घसीटता हुआ अलग ले जाकर लगा लातें जमाने – ‘हरामज़ादी, तू हमारी नाक कटाने पर लगी हुई है! तू छोटे-छोटे आदमियों से लड़ती फिरती है, किसकी पगड़ी नीची होती है बता! (एक लात और जमाकर) हम तो वहाँ कलेऊ की बाट देख रहे हैं, तू यहाँ लड़ाई ठाने बैठी है। इतनी बेसर्मी! आँख का पानी ऐसा गिर गया! खोदकर गाड़ दूंगा।

पुन्नी हाय-हाय करती जाती थी और कोसती जाती थी,  ‘तेरी मिट्टी उठे, तुझे हैज़ा हो जाय, तुझे मरी आये, देवी मैया तुझे लील जायें, तुझे इन्पलुएंजा हो जाये। भगवान् करे, तू कोढ़ी हो जाये। हाथ-पाँव कट-कट गिरें।’

और गालियाँ तो हीरा खड़ा-खड़ा सुनता रहा, लेकिन यह पिछली गाली उसे लग गयी। हैज़ा, मरी आदि में विशेष कष्ट न था। इधर बीमार पड़े, उधर विदा हो गये, लेकिन कोढ़! यह घिनौनी मौत, और उससे भी घिनौना जीवन। वह तिलमिला उठा, दाँत पीसता हुआ फिर पुनिया पर झपटा और झोटे पकड़कर फिर उसका सिर ज़मीन पर रगड़ता हुआ बोला – ‘हाथ-पांव कटकर गिर जायेंगे, तो मैं तुझे लेकर चाटूंगा! तू ही मेरे बाल-बच्चों को पालेगी? ऐं! तू ही इतनी बड़ी गिरस्ती चलायेगी? तू तो दूसरा भरतार करके किनारे खड़ी हो जायेगी।‘

चौधरी को पुनिया की इस दुर्गति पर दया आ गयी। हीरा को उदारतापूर्वक समझाने लगा – ‘हीरा महतो, अब जाने दो, बहुत हुआ। क्या हुआ, बहू ने मुझे मारा। मैं तो छोटा नहीं हो गया। धन्य भाग कि भगवान् ने यह तो दिखाया। हीरा ने चौधरी को डांटा – ‘तुम चुप रहो चौधरी, नहीं मेरे क्रोध में पड़ जाओगे तो बुरा होगा। औरत जात इसी तरह बकती है। आज को तुमसे लड़ गयी, कल को दूसरों से लड़ जायेगी। तुम भले मानस हो, हँसकर टाल गये, दूसरा तो बरदास न करेगा। कहीं उसने भी हाथ छोड़ दिया, तो कितनी आबरू रह जायेगी, बताओ।‘

इस ख़याल ने उसके क्रोध को फिर भड़काया। लपका था कि होरी ने दौड़कर पकड़ लिया और उसे पीछे हटाते हुए बोला – ‘अरे हो तो गया। देख तो लिया दुनिया ने कि बड़े बहादुर हो। अब क्या उसे पीसकर पी जाओगे?’

हीरा अब भी बड़े भाई का अदब करता था। सीधे-सीधे न लड़ता था। चाहता तो एक झटके में अपना हाथ छुड़ा लेता; लेकिन इतनी बेअदबी न कर सका। चौधरी की ओर देखकर बोला – ‘अब खड़े क्या ताकते हो। जाकर अपने बांस काटो। मैंने सही कर दिया। पंद्रह रूपये सैकड़े में तय है।‘

कहाँ तो पुन्नी रो रही थी। कहाँ झमककर उठी और अपना सिर पीटकर बोली – ‘लगा दे घर में आग, मुझे क्या करना है। भाग फूट गया कि तुम-जैसी क़साई के पाले पड़ी। लगा दे घर में आग!’ उसने कलेऊ की टोकरी वहीं छोड़ दी और घर की ओर चली।

हीरा गरजा – ‘वहाँ कहाँ जाती हैं, चल कुएं पर, नहीं ख़ून पी जाऊंगा।‘

पुनिया के पाँव रुक गये। इस नाटक का दूसरा अंक न खेलना चाहती थी। चुपके से टोकरी उठाकर रोती हुई कुएं की ओर चली। हीरा भी पीछे-पीछे चला। होरी ने कहा – ‘अब फिर मार-धाड़ न करना। इससे औरत बेसरम हो जाती है।‘

धनिया ने द्वार पर आकर हांक लगायी – ‘तुम वहाँ खड़े-खड़े क्या तमाशा देख रहे हो। कोई तुम्हारी सुनता भी है कि यों ही शिक्षा दे रहे हो। उस दिन इसी बहू ने तुम्हें घूंघट की आड़ में डाढ़ीजार कहा था, भूल गये। बहुरिया होकर पराये मरदों से लड़ेगी, तो डांटी न जायेगी।‘

होरी द्वार पर आकर नटखटपन के साथ बोला – ‘और जो मैं इसी तरह तुझे मारूं?’

‘क्या कभी मारा नहीं है, जो मारने की साध बनी हुई है?’

‘इतनी बेदरदी से मारता, तो तू घर छोड़कर भाग जाती! पुनिया बड़ी ग़मख़ोर है।’

‘ओहो! ऐसे ही तो बड़े दरदवाले हो। अभी तक मार का दाग़ बना हुआ है। हीरा मारता है तो दुलारता भी है। तुमने ख़ाली मारना सीखा, दुलार करना सीखा ही नहीं। मैं ही ऐसी हूँ कि तुम्हारे साथ निबाह हुआ।’

‘अच्छा रहने दे, बहुत अपना बखान न कर! तू ही रूठ-रूठकर नैहर भागती थी।‘

‘जब महीनों ख़ुशामद करता था, तब जाकर आती थी!’

‘जब अपनी गरज सताती थी, तब मनाने जाते थे लाला! मेरे दुलार से नहीं जाते थे।’

‘इसी से तो मैं सबसे तेरा बखान करता हूँ।’

वैवाहिक जीवन के प्रभात में लालसा अपनी गुलाबी मादकता के साथ उदय होती है और हृदय के सारे आकाश को अपने माधुर्य की सुनहरी किरणों से रंजित कर देती है। फिर मध्याह्न का प्रखर ताप आता है, क्षण-क्षण पर बगूले उठते हैं, और पृथ्वी कांपने लगती है। लालसा का सुनहरा आवरण हट जाता है और वास्तविकता अपने नग्न रूप में सामने आ खड़ी है। उसके बाद विश्राममय संध्याआती है, शीतल और शांत, जब हम थके हुए पथिकों की भांति दिन-भर की यात्रा का वृत्तान्त कहते और सुनते हैं तटस्थ भाव से, मानो हम किसी ऊँचे शिखर पर जा बैठे हैं, जहाँ नीचे का जनरूरव हम तक नहीं पहुँचता।

धनिया ने आँखों में रस भरकर कहा – ‘चलो-चलो, बड़े बखान करने वाले। ज़रा-सा कोई काम बिगड़ जाये, तो गरदन पर सवार हो जाते हो।‘

होरी ने मीठे उलाहने के साथ कहा – ‘ले, अब यही तेरी बेइंसाफ़ी मुझे अच्छी नहीं लगती धनिया! भोला से पूछ, मैंने उनसे तेरे बारे में क्या कहा था?’

धनिया ने बात बदलकर कहा – ‘देखो, गोबर गाय लेकर आता है कि ख़ाली हाथ।‘

चौधरी ने पसीने में लथ-पथ आकर कहा – ‘महतो, चलकर बांस गिन लो। कल ठेला लाकर उठा ले जाऊंगा।‘

होरी ने बांस गिनने की ज़रूरत न समझी। चौधरी ऐसा आदमी नहीं है। फिर एकाध बांस बेसी ही काट लेगा, तो क्या। रोज़ ही तो मंगनी बांस कटते रहते हैं। सहालगों में तो मंडप बनाने के लिए लोग दरजनों बांस काट ले जाते हैं। चौधरी ने साढ़े सात रुपए निकालकर उसके हाथ में रख दिये। होरी ने गिनकर कहा – ‘और निकालो। हिसाब से ढाई और होते हैं।’

चौधरी ने बेमुरौवती से कहा – ‘पंद्रह रुपये में तय हुए हैं कि नहीं?’

‘पंद्रह रूपये में नहीं, बीस रूपये में।’

‘हीरा महतो ने तुम्हारे सामने पंद्रह रूपये कहे थे। कहो तो बुला लाऊं।’

‘तय तो बीस रूपये में ही हुए थे चौधरी! अब तुम्हारी जीत है, जो चाहो कहो। ढाई रूपये निकलते हैं, तुम दो ही दे दो।’

मगर चौधरी कच्ची गोलियाँ न खेला था। अब उसे किसका डर। होरी के मुँह में तो ताला पड़ा हुआ था। क्या कहे, माथा ठोंककर रह गया। बस इतना बोला – ‘यह अच्छी बात नहीं है, चौधरी, दो रूपये दबाकर राजा न हो जाओगे।‘

चौधरी तीक्ष्ण स्वर में बोला – ‘और तुम क्या भाइयों के थोड़े-से पैसे दबाकर राजा हो जाओगे? ढाई रूपये पर अपना ईमान बिगाड़ रहे थे, उस पर मुझे उपदेस देते हो। अभी परदा खोल दूं, तो सिर नीचा हो जाये।‘

होरी पर जैसे सैकड़ों जूते पड़ गये। चौधरी तो रूपये सामने ज़मीन पर रखकर चला गया; पर वह नीम के नीचे बैठा बड़ी देर तक पछताता रहा। वह कितना लोभी और स्वार्थी, इसका उसे आज पता चला। चौधरी ने ढाई रूपये दे दिये होते, तो वह ख़ुशी से कितना फूल उठता। अपनी चालाकी को सराहता कि बैठे-बैठाये ढाई रूपये मिल गये। ठोकर खाकर ही तो हम सावधानी के साथ पग उठाते हैं। धनिया अंदर चली गयी थी। बाहर आयी तो रूपये ज़मीन पर पड़े देखे, गिनकर बोली – ‘और रूपये क्या हुए, दस न चाहिए?’

होरी ने लंबा मुँह बनाकर कहा – ‘हीरा ने पंद्रह रूपये में दे दिये, तो मैं क्या करता।‘

‘हीरा पाँच रूपये में दे दे। हम नहीं देते इन दामों।’

‘वहाँ मार-पीट हो रही थी। मैं बीच में क्या बोलता।’

होरी ने अपनी पराजय अपने मन में ही डाल ली, जैसे कोई चोरी से आम तोड़ने के लिए पेड़ पर चढ़े और गिर पड़ने पर धूल झाड़ता हुआ उठ खड़ा हो कि कोई देख न ले। जीतकर आप अपनी धोखेबाज़ियों की डींग मार सकते हैं; जीत से सब-कुछ माफ़ है। हार की लज्जा तो पी जाने की ही वस्तु है। धनिया पति को फटकारने लगी। ऐसे सुअवसर उसे बहुत कम मिलते थे। होरी उससे चतुर था; पर आज बाज़ी धनिया के हाथ थी। हाथ मटकाकर बोली – ‘क्यों न हो, भाई ने पंद्रह रूपये कह दिये, तो तुम कैसे टोकते। अरे राम-राम! लाड़ले भाई का दिल छोटा हो जाता कि नहीं। फिर जब इतना बड़ा अनर्थ हो रहा था कि लाड़ली बहू के गले पर छुरी चल रही थी, तो भला तुम कैसे बोलते। उस बखत कोई तुम्हारा सरबस लूट लेता, तो भी तुम्हें सुध न होती।‘

होरी चुपचाप सुनता रहा। मिनका तक नहीं। झुंझलाहट हुई, क्रोध आया, ख़ून खौला, आँख जली, दांत पिसे; लेकिन बोला नहीं। चुपके-से कुदाल उठायी और ऊख गोड़ने चला। धनिया ने कुदाल छीनकर कहा – ‘क्या अभी सबेरा है जो ऊख गोड़ने चले? सूरज देवता माथे पर आ गये। नहाने-धोने जाओ। रोटी तैयार है।‘

होरी ने घुन्नाकर कहा – ‘मुझे भूख नहीं है।‘

धनिया ने जले पर नोन छिड़का – ‘हाँ काहे को भूख लगेगी। भाई ने बड़े-बड़े लड्डू खिला दिये हैं न! भगवान् ऐसे सपूत भाई सबको दें।‘
होरी बिगड़ा। क्रोध अब रस्सियाँ तुड़ा रहा था – ‘तू आज मार खाने पर लगी हुई है।‘

धनिया ने नक़ली विनय का नाटक करके कहा – ‘क्या करूं, तुम दुलार ही इतना करते हो कि मेरा सिर फिर गया है।‘

‘तू घर में रहने देगी कि नहीं? ‘

‘घर तुम्हारा, मालिक तुम, मैं भला कौन होती हूँ, तुम्हें घर से निकालने वाली।’

होरी आज धनिया से किसी तरह पेश नहीं पा सकता। उसकी अक्ल जैसे कुंद हो गयी है। इन व्यंग्य-बाणों के रोकने के लिए उसके पास कोई ढाल नहीं है। धीरे से कुदाल रख दी और गमछा लेकर नहाने चला गया। लौटा कोई आध घंटे में; मगर गोबर अभी तक न आया था। अकेले कैसे भोजन करे। लौंडा वहाँ जा कर सो रहा। भोला की वह मदमाती छोकरी है न झुनिया। उसके साथ हँसी-दिल्लगी कर रहा होगा। कल भी तो उसके पीछे लगा हुआ था। नहीं गाय दी, तो लौट क्यों नहीं आया। क्या वहाँ ढई देगा। धनिया ने कहा – ‘अब खड़े क्या हो? गोबर सांझ को आयेगा।‘

होरी ने और कुछ न कहा। कहीं धनिया फिर न कुछ कह बैठे। भोजन करके नीम की छाँह में लेट रहा। रूपा रोती हुई आई नंगे बदन एक लंगोटी लगाये, झबरे बाल इधर-उधर बिखरे हुए। होरी की छाती पर लोट गयी। उसकी बड़ी बहन सोना कहती है – ‘गाय आयेगी, तो उसका गोबर मैं पाथूंगी।‘

रूपा यह नहीं बरदाश्त कर सकती। सोना ऐसी कहाँ की बड़ी रानी है कि सारा गोबर आप पाथ डाले। रूपा उससे किस बात में कम है। सोना रोटी पकाती है, तो क्या रूपा बरतन नहीं मांजती? सोना पानी लाती है, तो क्या रूपा कुएं पर रस्सी नहीं ले जाती? सोना तो कलसा भरकर इठलाती चली आती है। रस्सी समेटकर रूपा ही लाती है। गोबर दोनों साथ पाथती हैं। सोना खेत गोड़ने जाती है, तो क्या रूपा बकरी चराने नहीं जाती? फिर सोना क्यों अकेली गोबर पाथेगी? यह अन्याय रूपा कैसे सहे?’

होरी ने उसके भोलेपन पर मुग्ध होकर कहा – ‘नहीं, गाय का गोबर तू पाथना सोना गाय के पास जाये तो भगा देना।‘

रूपा ने पिता के गले में हाथ डालकर कहा – ‘दूध भी मैं ही दुहूंगी।‘

‘ हाँ-हाँ, तू न दुहेगी, तो और कौन दुहेगा?’

‘वह मेरी गाय होगी। ‘

‘हाँ, सोलहो आने तेरी। ‘

रूपा प्रसन्न होकर अपनी विजय का शुभ समाचार पराजिता सोना को सुनाने चली गयी। गाय मेरी होगी, उसका दूध मैं दुहूंगी, उसका गोबर मैं पाथूंगी, तुझे कुछ न मिलेगा।‘

सोना उम्र से किशोरी, देह के गठन में युवती और बुद्धि से बालिका थी, जैसे उसका यौवन उसे आगे खींचता था, बालपन पीछे। कुछ बातों में इतनी चतुर कि ग्रेजुएट युवतियों को पढ़ाये, कुछ बातों में इतनी अल्हड़ कि शिशुओं से भी पीछे। लंबा, रूखा, किन्तु प्रसन्न मुख, ठोड़ी नीचे को खिंची हुई, आँखों में एक प्रकार की तृप्ति न केशों में तेल, न आँखों में काजल, न देह पर कोई आभूषण, जैसे गृहस्थी के भार ने यौवन को दबाकर बौना कर दिया हो। सिर को एक झटका देकर बोली – ‘जा तू गोबर पाथ। जब तू दूध दुहकर रखेगी, तो मैं पी जाऊंगी।‘

‘मैं दूध की हांड़ी ताले में बंद करके रखूंगी।’

‘मैं ताला तोड़ कर दूध निकाल लाऊंगी।’

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