चैप्टर 5 गोदान : मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास | Chapter 5 Godan Novel By Munshi Premchand Read Online

Chapter 5 Godan Novel By Munshi Premchand

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होरी को रात भर नींद नहीं आयी। नीम के पेड़-तले अपनी बांस की खाट पर पड़ा बार-बार तारों की ओर देखता था। गाय के लिए एक नांद गाड़नी है।

बैलों से अलग उसकी नांद रहे, तो अच्छा। अभी तो रात को बाहर ही रहेगी; लेकिन चौमासे में उसके लिए कोई दूसरी जगह ठीक करनी होगी। बाहर लोग नज़र लगा देते हैं। कभी-कभी तो ऐसा टोना-टोटका कर देते हैं कि गाय का दूध ही सूख जाता है। थन में हाथ ही नहीं लगाने देती। लात मारती है। नहीं, बाहर बांधना ठीक नहीं। और बाहर नांद भी कौन गाड़ने देगा? कारिन्दा साहब नज़र के लिए मुँह फुलायेंगे। छोटी-छोटी बात के लिए राय साहब के पास फ़रियाद ले जाना भी उचित नहीं और कारिन्दे के सामने मेरी सुनता कौन है। उनसे कुछ कहूं, तो कारिन्दा दुश्मन हो जाये। जल में रहकर मगर से बैर करना लड़कपन है। भीतर ही बांधूगा। आँगन है तो छोटा-सा; लेकिन एक मड़ैया डाल देने से काम चल जायेगा। अभी पहला ही ब्यान है। पाँच सेर से कम क्या दूध देगी। सेर-भर तो गोबर ही को चाहिए। रुपिया दूध देखकर कैसी ललचाती रहती है। अब पिये जितना चाहे। कभी-कभी दो-चार सेर मालिकों को दे आया करूंगा। कारिन्दा साहब की पूजा भी करनी ही होगी। और भोला के रूपये भी दे देना चाहिये। सगाई के ढकोसले में उसे क्यों डालूं। जो आदमी अपने ऊपर इतना विश्वास करे, उससे दग़ा करना नीचता है। अस्सी रूपये की गाय मेरे विश्वास पर दे दी। नहीं यहाँ तो कोई एक पैसे को नहीं पतियाता। सन में क्या कुछ न मिलेगा? अगर पच्चीस रूपये भी दे दूं, तो भोला को ढाढ़स हो जाये। धनिया से नाहक़ बता दिया। चुपके से गाय लेकर बांध देता, तो चकरा जाती। लगती पूछने, किसकी गाय है? कहाँ से लाये हो? ख़ूब दिक करके तब बताता; लेकिन जब पेट में बात पचे भी। कभी दो-चार पैसे ऊपर से आ जाते हैं; उनको भी तो नहीं छिपा सकता और यह अच्छा भी है। उसे घर की चिंतारहती है; अगर उसे मालूम हो जाय कि इनके पास भी पैसे रहते हैं, तो फिर नख़रे बघारने लगे। गोबर ज़रा आलसी है, नहीं मैं गऊ की ऐसी सेवा करता कि जैसी चाहिए। आलसी-वालसी कुछ नहीं है। इस उमिर में कौन आलसी नहीं होता। मैं भी दादा के सामने मटरगस्ती ही किया करता था। बेचारे पहर रात से कुट्टी काटने लगते। कभी द्वार पर झाड़ू लगाते, कभी खेत में खाद फेंकते। मैं पड़ा सोता रहता था। कभी जगा देते, तो मैं बिगड़ जाता और घर छोड़कर भाग जाने की धमकी देता था। लड़के जब अपने माँ-बाप के सामने भी ज़िन्दगी का थोड़ा-सा सुख न भोगेंगे, तो फिर जब अपने सिर पड़ गयी तो क्या भोगेंगे? दादा के मरते ही क्या मैंने घर नहीं संभाल लिया? सारा गाँव यही कहता था कि होरी घर बरबाद कर देगा; लेकिन सिर पर बोझ पड़ते ही मैंने ऐसा चोला बदला कि लोग देखते रह गये। सोभा और हीरा अलग ही हो गये, नहीं आज इस घर की और ही बात होती। तीन हल एक साथ चलते। अब तीनों अलग-अलग चलते हैं। बस, समय का फेर है। धनिया का क्या दोष था? बेचारी जब से घर में आयी, कभी तो आराम से न बैठी। डोली से उतरते ही सारा काम सिर पर उठा लिया। अम्मा को पान की तरह फेरती रहती थी। जिसने घर के पीछे अपने को मिटा दिया, देवरानियों से काम करने को कहती थी, तो क्या बुरा करती थी। आख़िर उसे भी तो कुछ आराम मिलना चाहिये। लेकिन भाग्य में आराम लिखा होता तब तो मिलता। तब देवरों के लिए मरती थी, अब अपने बच्चों के लिए मरती है। वह इतनी सीधी, ग़मख़ोर, निर्छल न होती, तो आज सोभा और हीरा जो मूँछों पर ताव देते फिरते हैं, कहीं भीख मांगते होते। आदमी कितना स्वार्थी हो जाता है। जिसके लिए लड़ो वही जान का दुश्मन हो जाता है। होरी ने फिर पूर्व की ओर देखा। साइत भिनसार हो रहा है। गोबर काहे को जगने लगा। नहीं, कहके तो यही सोया था कि मैं अंधेरे ही चला जाऊंगा। जाकर नांद तो गाड़ दूं, लेकिन नहीं, जब तक गाय द्वार पर न आ जाये, नांद गाड़ना ठीक नहीं। कहीं भोला बदल गये या और किसी कारन से गाय न दी, तो सारा गाँव तालियाँ पीटने लगेगा, चले थे गाय लेने। पट्ठे ने इतनी फुर्ती से नांद गाड़ दी, मानो इसी की कसर थी। भोला है तो अपने घर का मालिक; लेकिन जब लड़के सयाने हो गये, तो बाप की कौन चलती है। कामता और जंगी अकड़ जाये, तो क्या भोला अपने मन से गाय मुझे दे देंगे, कभी नहीं। सहसा गोबर चौंककर उठ बैठा और आँखें मलता हुआ बोला – ‘अरे! यह तो भोर हो गया। तुमने नांद गाड़ दी दादा?’

होरी गोबर के सुगठित शरीर और चौड़ी छाती की ओर गर्व से देखकर और मन में यह सोचते हुए कि कहीं इसे गोरस मिलता, तो कैसा पट्ठा हो जाता, बोला – ‘नहीं, अभी नहीं गाड़ी। सोचा, कहीं न मिले, तो नाहक़ भद्द हो।‘

गोबर ने त्योरी चढ़ाकर कहा – ‘मिलेगी क्यों नहीं?’

‘उनके मन में कोई चोर पैठ जाये? ‘

‘चोर पैठे या डाकू, गाय तो उन्हें देनी ही पड़ेगी। ‘

गोबर ने और कुछ न कहा। लाठी कंधे पर रखी और चल दिया। होरी उसे जाते देखता हुआ, अपना कलेजा ठंठा करता रहा। अब लड़के की सगाई में देर न करनी चाहिये। सत्रहवाँ लग गया; मगर करें कैसे? कहीं पैसे के भी दरसन हों। जब से तीनों भाइयों में अलगौझा हो गया, घर की साख जाती रही। महतो लड़का देखने आते हैं, पर घर की दशा देखकर मुँह फीका करके चले जाते हैं। दो-एक राज़ी भी हुए, तो रूपये मांगते हैं। दो-तीन सौ लड़की का दाम चुकाये और इतना ही ऊपर से ख़र्च करे, तब जाकर ब्याह हो। कहाँ से आये इतने रूपये। रास खलिहान में तुल जाती है। खाने-भर को भी नहीं बचता। ब्याह कहाँ से हो? और अब तो सोना ब्याहने योग्य हो गयी। लड़के का ब्याह न हुआ, न सही। लड़की का ब्याह न हुआ, तो सारी बिरादरी में हँसी होगी। पहले तो उसी की सगाई करनी है, पीछे देखी जायेगी।

एक आदमी ने आकर राम-राम किया और पूछा – ‘तुम्हारी कोठी में कुछ बाँस होंगे महतो?’

होरी ने देखा, दमड़ी बंसार सामने खड़ा है, नाटा काला, ख़ूब मोटा, चौड़ा मुँह, बड़ी-बड़ी मूँछें, लाल आँखें, कमर में बांस काटने की कटार खोंसे हुये। साल में एक-दो बार आकर चिकें, कुरसियाँ, मोढ़े, टोकरियाँ आदि बनाने के लिए कुछ बांस काट ले जाता था। होरी प्रसन्न हो गया। मुट्ठी गर्म होने की कुछ आशा बंधी। चौधरी को ले जाकर अपनी तीनों कोठियाँ दिखायीं, मोल-भाव किया और पच्चीस रूपये सैकड़े में पचास बांसों का बयाना ले लिया। फिर दोनों लौटे।

होरी ने उसे चिलम पिलायी, जलपान कराया और तब रहस्यमय भाव से बोला – ‘मेरे बांस कभी तीस रूपये से कम में नहीं जाते; लेकिन तुम घर के आदमी हो, तुमसे क्या मोल-भाव करता। तुम्हारा वह लड़का, जिसकी सगाई हुई थी, अभी परदेस से लौटा कि नहीं?’

चौधरी ने चिलम का दम लगाकर खांसते हुए कहा – ‘उस लौंडे के पीछे तो मर मिटा महतो! जवान बहू घर में बैठी थी और वह बिरादरी की एक दूसरी औरत के साथ परदेस में मौज करने चल दिया। बहू भी दूसरे के साथ निकल गयी। बड़ी नाकिस जात है, महतो, किसी की नहीं होती। कितना समझाया कि तू जो चाहे खा, जो चाहे पहन, मेरी नाक न कटवा, मुदा कौन सुनता है। औरत को भगवान् सब कुछ दे, रूप न दे, नहीं वह क़ाबू में नहीं रहती। कोठियाँ तो बंट गयी होंगी? होरी ने आकाश की ओर देखा और मानो उसकी महानता में उड़ता हुआ बोला – ‘सब कुछ बंट गया चौधरी! जिनको लड़कों की तरह पाला-पोसा, वह अब बराबर के हिस्सेदार हैं; लेकिन भाई का हिस्सा खाने की अपनी नीयत नहीं है। इधर तुमसे रूपये मिलेंगे, उधर दोनों भाइयों को बांट दूंगा। चार दिन की ज़िन्दगी में क्यों किसी से छल-कपट करूं। नहीं कह दूं कि बीस रूपये सैकड़े में बेचे हैं, तो उन्हें क्या पता लगेगा। तुम उनसे कहने थोड़े ही जाओगे। तुम्हें तो मैंने बराबर अपना भाई समझा है। व्यवहार में हम ‘ भाई’ के अर्थ का कितना ही दुरुपयोग करें, लेकिन उसकी भावना में जो पवित्रता है, वह हमारी कालिमा से कभी मलिन नहीं होती। होरी ने अप्रत्यक्ष रूप से यह प्रस्ताव करके चौधरी के मुँह की ओर देखा कि वह स्वीकार करता है या नहीं।

उसके मुख पर कुछ ऐसा मिथ्या विनीत भाव प्रकट हुआ जो भिक्षा मांगते समय मोटे भिक्षुकों पर आ जाता है। चौधरी ने होरी का आसन पाकर चाबुक जमाया – ‘हमारा तुम्हारा पुराना भाई चारा है महतो, ऐसी बात है भला; लेकिन बात यह है कि ईमान आदमी बेचता है, तो किसी लालच से। बीस रूपये नहीं, मैं पंद्रह रुपए कहूंगा; लेकिन जो बीस रूपये के दाम लो। होरी ने खिसियाकर कहा – ‘तुम तो चौधरी अंधेर करते हो, बीस रूपये में कहीं ऐसे बांस जाते हैं?’

‘ऐसे क्या, इससे अच्छे बांस जाते हैं दस रूपये पर, हाँ दस कोस और पच्छिम चले जाओ। मोल बांस का नहीं है, शहर के नगीच होने का है। आदमी सोचता है, जितनी देर वहाँ जाने में लगेगी, उतनी देर में तो दो-चार रूपये का काम हो जायेगा।’

सौदा पट गया। चौधरी ने मिरज़ई उतार कर छान पर रख दी और बांस काटने लगा। ऊख की सिंचाई हो रही थी। हीरा-बहू कलेवा लेकर कुएं पर जा रही थी। चौधरी को बांस काटते देखकर घूंघट के अंदर से बोली – ‘कौन बांस काटता है? यहाँ बांस न कटेंगे।‘

चौधरी ने हाथ रोककर कहा – ‘बांस मोल लिए हैं, पंद्रह रूपये सैकड़े का बयाना हुआ है। सेंत में नहीं काट रहे हैं।‘

हीरा-बहू अपने घर की मालकिन थी। उसी के विद्रोह से भाइयों में अलगौझा हुआ था। धनिया को परास्त करके शेर हो गयी थी। हीरा कभी-कभी उसे पीटता था। अभी हाल में इतना मारा था कि वह कई दिन तक खाट से न उठ सकी, लेकिन अपनी पदाधिकार वह किसी तरह न छोड़ती थी। हीरा क्रोध में उसे मारता था; लेकिन चलता था उसी के इशारों पर, उस घोड़े की भांति जो कभी-कभी स्वामी को लात मारकर भी उसी के आसन के नीचे चलता है। कलेवे की टोकरी सिर से उतार कर बोली – ‘पंद्रह रूपये में हमारे बांस न जायेंगे।‘

चौधरी औरत-जात से इस विषय में बात-चीत करना नीति-विरुद्ध समझते थे। बोले – ‘जाकर अपने आदमी को भेज दे। जो कुछ कहना हो, आकर कहें।‘

हीरा-बहू का नाम था पुन्नी। बच्चे दो ही हुए थे। लेकिन ढल गयी थी। बनाव-सिंगार से समय के आघात का शमन करना चाहती थी, लेकिन गृहस्थी में भोजन ही का ठिकाना न था, सिंगार के लिए पैसे कहाँ से आते। इस अभाव और विवशता ने उसकी प्रकृति का जल सुखाकर कठोर और शुष्क बना दिया था, जिस पर एक बार फावड़ा भी उचट जाता था। समीप आकर चौधरी का हाथ पकड़ने की चेष्टा करती हुई बोली – ‘आदमी को क्यों भेज दूं। जो कुछ कहना हो, मुझसे कहो न। मैंने कह दिया, मेरे बांस न कटेंगे।‘

चौधरी हाथ छुड़ाता था, और पुन्नी बार-बार पकड़ लेती थी। एक मिनट तक यही हाथा-पाई होती रही। अंत में चौधरी ने उसे ज़ोर से पीछे ढकेल दिया। पुन्नी धक्का खाकर गिर पड़ी; मगर फिर संभली और पाँव से तल्ली निकालकर चौधरी के सिर, मुँह, पीठ पर अंधाधुंध जमाने लगी। बंसोर होकर उसे ढकेल दे? उसका यह अपमान! मारती जाती थी और रोती भी जाती थी। चौधरी उसे धक्का देकर – ‘नारी जाति पर बल का प्रयोग करके — गच्चा खा चुका था। खड़े-खड़े मार खाने के सिवा इस संकट से बचने की उसके पास और कोई दवा न थी। पुन्नी का रोना सुनकर होरी भी दौड़ा हुआ आया। पुन्नी ने उसे देखकर और ज़ोर से चिल्लाना शुरू किया। होरी ने समझा, चौधरी ने पुनिया को मारा है। ख़ून ने जोश मारा और अलगौझे की ऊँची बांध को तोड़ता हुआ, सब कुछ अपने अंदर समेटने के लिए बाहर निकल पड़ा। चौधरी को ज़ोर से एक लात जमाकर बोला – ‘अब अपना भला चाहते हो चौधरी, तो यहाँ से चले जाओ, नहीं तुम्हारी लहास उठेगी। तुमने अपने को समझा क्या है? तुम्हारी इतनी मजाल कि मेरी बहू पर हाथ उठाओ।‘

चौधरी क़समें खा-खाकर अपनी सफ़ाई देने लगा। तल्लियों की चोट में उसकी अपराधी आत्मा मौन थी। यह लात उसे निरपराध मिली और उसके फूले हुए गाल आँसुओं से भींग गये। उसने तो बहू को छुआ भी नहीं। क्या वह इतना गंवार है कि महतो के घर की औरतों पर हाथ उठायेगा। होरी ने अविश्वास करके कहा – ‘आँखों में धूल मत झोंको चौधरी, तुमने कुछ कहा नहीं, तो बहू झूठ-मूठ रोती है? रूपये की गर्मी है, तो वह निकाल दी जायेगी। अलग हैं तो क्या हुआ, हैं तो एक ख़ून। कोई तिरछी आँख से देखे, तो आँख निकाल लें।‘

पुन्नी चंडी बनी हुई थी। गला फाड़कर बोली – ‘तूने मुझे धक्का देकर गिरा नहीं दिया? आ जा अपने बेटे की क़सम’!

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