चैप्टर 11 गोदान : मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास | Chapter 11 Godan Novel By Munshi Premchand Read Online

Chapter 11 Godan Novel By Munshi Premchand

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दूसरी मोटर आ पहुँची और मिस्टर खन्ना उतरे, जो एक बैंक के मैनेजर और शक्करमिल के मैनेजिंग डाइरेक्टर हैं। दो देवियाँ भी उनके साथ थीं। राय साहब ने दोनों देवियों को उतारा। वह जो खद्दर की साड़ी पहने बहुत गम्भीर और विचारशील-सी हैं, मिस्टर खन्ना की पत्नी, कामिनी खन्ना हैं। दूसरी महिला जो ऊँची एड़ी का जूता पहने हुए हैं और जिनकी मुख-छवि पर हँसी फूटी पड़ती है, मिस मालती हैं। आप इंग्लैंड से डाक्टरी पढ़ आयी हैं और अब प्रैक्टिस करती हैं। ताल्लुक़ेदारों के महलों में उनका बहुत प्रवेश है। आप नवयुग की साक्षात् प्रतिमा हैं। गात कोमल, पर चपलता कूट-कूट कर भरी हुई। झिझक या संकोच का कहीं नाम नहीं, मेक-अप में प्रवीण, बला की हाज़िर-जवाब, पुरुष-मनोविज्ञान की अच्छी जानकार, आमोद-प्रमोद को जीवन का तत्व समझने वाली, लुभाने और रिझाने की कला में निपुण। जहाँ आत्मा का स्थान है, वहाँ प्रदर्शन; जहाँ हृदय का स्थान है, वहाँ हाव-भाव; मनोद्गारों पर कठोर निग्रह, जिसमें इच्छा या अभिलाषा का लोप-सा हो गया।

आपने मिस्टर मेहता से हाथ मिलाते हुए कहा – ‘सच कहती हूँ, आप सूरत से ही फ़िलासफ़र मालूम होते हैं। इस नयी रचना में तो आपने आत्मवादियों को उधेड़कर रख दिया। पढ़ते-पढ़ते कई बार मेरे जी में ऐसा आया कि आपसे लड़ जाऊं। फ़िलासफ़रों में सहृदयता क्यों ग़ायब हो जाती है?’

मेहता झेंप गये। बिना-ब्याहे थे और नवयुग की रमिणयों से पनाह मांगते थे। पुरुषों की मंडली में ख़ूब चहकते थे; मगर ज्यों ही कोई महिला आयी और आपकी ज़बान बंद हुई। जैसे बुद्धि पर ताला लग जाता था। स्त्रियों से शिष्ट व्यवहार तक करने की सुधि न रहती थी।

मिस्टर खन्ना ने पूछा – ‘फ़िलासफ़रों की सूरत में क्या ख़ास बात होती है देवीजी?’

मालती ने मेहता की ओर दया-भाव से देखकर कहा – ‘मिस्टर मेहता बुरा न मानें, तो बतला दूं। खन्ना मिस मालती के उपासकों में थे। जहाँ मिस मालती जाये, वहाँ खन्ना का पहुँचना लाज़िम था। उनके आस-पास भौंरे की तरह मंडराते रहते थे। हर समय उनकी यही इच्छा रहती थी कि मालती से अधिक-से-अधिक वही बोले, उनकी निगाह अधिक-से-अधिक उन्हीं पर रहे।‘

खन्ना ने आँख मारकर कहा – ‘फ़िलासफ़र किसी की बात का बुरा नहीं मानते। उनकी यही सिफ़त है।‘

‘तो सुनिए, फ़िलासफ़र हमेशा मुर्दा-दिल होते हैं, जब देखिये, अपने विचारों में मगन बैठे हैं। आपकी तरफ़ ताकेंगे, मगर आपको देखेंगे नहीं; आप उनसे बातें किये जायें, कुछ सुनेंगे नहीं। जैसे शून्य में उड़ रहे हों।’

सब लोगों ने क़हक़हा मारा। मिस्टर मेहता जैसे ज़मीन में गड़ गये।

 ‘आक्सफ़ोर्ड में मेरे फ़िलासफ़ी के प्रोफ़ेसर मिस्टर हसबैंड थे … ‘

खन्ना ने टोका – ‘नाम तो निराला है।‘

‘जी हाँ, और थे कुंवारे…।’

‘मिस्टर मेहता भी तो कुंवारे हैं…’

‘यह रोग सभी फ़िलासफ़रों को होता है।’

अब मेहता को अवसर मिला। बोले – ‘आप भी तो इसी मरज़ में गिरफ़्तार हैं?’

‘मैंने प्रतिज्ञा की है किसी फ़िलासफ़र से शादी करूंगी और यह वर्ग शादी के नाम से घबराता है। हसबैंड साहब तो स्त्री को देखकर घर में छिप जाते थे। उनके शिष्यों में कई लड़कियाँ थीं। अगर उनमें से कोई कभी कुछ पूछने के लिए उनके आफ़िस में चली जाती थी, तो आप ऐसे घबड़ा जाते, जैसे कोई शेर आ गया हो। हम लोग उन्हें ख़ूब छेड़ा करते थे, मगर थे बेचारे सरल-हृदय। कई हज़ार की आमदनी थी, पर मैंने उन्हें हमेशा एक ही सूट पहने देखा। उनकी एक विधवा बहन थी। वही उनके घर का सारा प्रबंध करती थीं। मिस्टर हसबैंड को तो खाने की फ़िक्र ही न रहती थी। मिलने-वालों के डर से अपने कमरे का द्वार बंद करके लिखा-पढ़ी करते थे। भोजन का समय आ जाता, तो उनकी बहन आहिस्ता से भीतर के द्वार से उनके पास जाकर किताब बंद कर देती थीं, तब उन्हें मालूम होता कि खाने का समय हो गया। रात को भी भोजन का समय बंधा हुआ था। उनकी बहन कमरे की बत्ती बुझा दिया करती थीं। एक दिन बहन ने किताब बंद करना चाहा, तो आपने पुस्तक को दोनों हाथों से दबा लिया और बहन-भाई में ज़ोर-आज़माई होने लगी। आख़िर बहन उनकी पहियेदार कुर्सी को खींच कर भोजन के कमरे में लायी।’

राय साहब बोले – ‘मगर मेहता साहब तो बड़े ख़ुशमिज़ाज और मिलनसार हैं, नहीं इस हंगामे में क्यों आते।‘

‘तो आप फ़िलासफ़र न होंगे। जब अपनी चिंताओं से हमारे सिर में दर्द होने लगता है, तो विश्व की चिंता सिर पर लादकर कोई कैसे प्रसन्न रह सकता है!’

उधर संपादकजी श्रीमती खन्ना से अपनी आर्थिक कठिनाइयों की कथा कह रहे थे — बस यों समझिए श्रीमतीजी, कि सम्पादक का जीवन एक दीर्घ विलाप है, जिसे सुनकर लोग दया करने के बदले कानों पर हाथ रख लेते हैं। बेचारा न अपना उपकार कर सके न औरों का। पब्लिक उससे आशा तो यह रखती है कि हर-एक आंदोलन में वह सबसे आगे रहे, जेल जाये, मार खाये, घर के माल-असबाब की क़ुर्क़ी कराये, यह उसका धर्म समझा जाता है, लेकिन उसकी कठिनाइयों की ओर किसी का ध्यान नहीं। हो तो वह सब कुछ। उसे हर-एक विद्या, हर-एक कला में पारंगत होना चाहिए; लेकिन उसे जीवित रहने का अधिकार नहीं। आप तो आजकल कुछ लिखती ही नहीं। आपकी सेवा करने का जो थोड़ा-सा सौभाग्य मुझे मिल सकता है, उससे क्यों मुझे वंचित रखती हैं? मिसेज़ खन्ना को कविता लिखने का शौक़ था। इस नाते से संपादकजी कभी-कभी उनसे मिल आया करते थे; लेकिन घर के काम-धंधों में व्यस्त रहने के कारण इधर बहुत दिनों से कुछ लिख नहीं सकी थी। सच बात तो यह है कि संपादकजी ने ही उन्हें प्रोत्साहित करके कवि बनाया था। सच्ची प्रतिभा उनमें बहुत कम थी।

‘क्या लिखूं कुछ सूझता ही नहीं। आपने कभी मिस मालती से कुछ लिखने को नहीं कहा? ‘

संपादकजी उपेक्षा भाव से बोले – ‘उनका समय मूल्यवान है कामिनी देवी! लिखते तो वह लोग हैं, जिनके अंदर कुछ दर्द है, अनुराग है, लगन है, विचार है, जिन्होंने धन और भोग-विलास को जीवन का लक्ष्य बना लिया, वह क्या लिखेंगे।‘

कामिनी ने ईर्ष्या-मिश्रित विनोद से कहा – ‘अगर आप उनसे कुछ लिखा सकें, तो आपका प्रचार दुगना हो जाये। लखनऊ में तो ऐसा कोई रसिक नहीं है, जो आपका ग्राहक न बन जाये।‘

‘अगर धन मेरे जीवन का आदर्श होता, तो आज मैं इस दशा में न होता। मुझे भी धन कमाने की कला आती है। आज चाहूं, तो लाखों कमा सकता हूँ; लेकिन यहाँ तो धन को कभी कुछ समझा ही नहीं। साहित्य की सेवा अपने जीवन का ध्येय है और रहेगा।’

‘कम-से-कम मेरा नाम तो ग्राहकों में लिखवा दीजिये।’

‘आपका नाम ग्राहकों में नहीं, संरक्षकों में लिखूंगा।’

‘संरक्षकों में रानियों-महारानियों को रखिये, जिनकी थोड़ी-सी ख़ुशामद करके आप अपने पत्र को लाभ की चीज़ बना सकते हैं।’

‘मेरी रानी-महारानी आप हैं। मैं तो आपके सामने किसी रानी-महारानी की हक़ीक़त नहीं समझता। जिसमें दया और विवेक है, वही मेरी रानी है। ख़ुशामद से मुझे घृणा है।’

कामिनी ने चुटकी ली – ‘लेकिन मेरी ख़ुशामद तो आप कर रहे हैं संपादक जी!’

संपादकजी ने गंभीर होकर श्रद्धा-पूर्ण स्वर में कहा – ‘यह ख़ुशामद नहीं है देवीजी, हृदय के सच्चे उद्गार हैं।‘

राय साहब ने पुकारा – ‘संपादक जी, ज़रा इधर आइयेगा। मिस मालती आपसे कुछ कहना चाहती हैं।‘

संपादक जी की वह सारी अकड़ ग़ायब हो गयी। नम्रता और विनय की मूर्ति बने हुए आकर खड़े हो गये।

मालती ने उन्हें सदय नेत्रों से देखकर कहा – ‘मैं अभी कह रही थी कि दुनिया में मुझे सबसे ज़्यादा डर संपादकों से लगता है। आप लोग जिसे चाहें, एक क्षण में बिगाड़ दें। मुझी से चीफ़ सेक्रेटरी साहब ने एक बार कहा — अगर मैं इस ब्लडी ओंकारनाथ को जेल में बंद कर सकूं, तो अपने को भाग्यवान समझूं।‘

ओंकारनाथ की बड़ी-बड़ी मूँछें खड़ी हो गयीं। आँखों में गर्व की ज्योति चमक उठी। यों वह बहुत ही शांत प्रकृति के आदमी थे; लेकिन ललकार सुनकर उनका पुरुषत्व उत्तेजित हो जाता था। दृढ़ता भरे स्वर में बोले – ‘इस कृपा के लिए आपका कृतज्ञ हूँ। उस बज़्म में अपना ज़िक्र तो आता है, चाहे किसी तरह आये। आप सेक्रेटरी महोदय से कह दीजियेगा कि ओंकारनाथ उन आदमियों में नहीं है, जो इन धमकियों से डर जाये। उसकी क़लम उसी वक़्त विश्राम लेगी, जब उसकी जीवन-यात्रा समाप्त हो जायेगी। उसने अनीति और स्वेच्छाचार को जड़ से खोदकर फेंक देने का ज़िम्मा लिया है।‘

मिस मालती ने और उकसाया – ‘मगर मेरी समझ में आपकी यह नीति नहीं आती कि जब आप मामूली शिष्टाचार से अधिकारियों का सहयोग प्राप्त कर सकते हैं, तो क्यों उनसे कन्नी काटते हैं? अगर आप अपनी आलोचनाओं में आग और विष ज़रा कम दें, तो मैं वादा करती हूँ कि आपको गवर्नमेंट से काफ़ी मदद दिला सकती हूँ। जनता को तो आपने देख लिया। उससे अपील की, उसकी ख़ुशामद की, अपनी कठिनाइयों की कथा कही, मगर कोई नतीजा न निकला। अब ज़रा अधिकारियों को भी आज़मा देखिए। तीसरे महीने आप मोटर पर न निकलने लगें, और सरकारी दावतों में निमंत्रित न होने लगें तो मुझे जितना चाहें कोसियेगा। तब यही रईस और नेशनलिस्ट जो आपकी परवाह नहीं करते, आपके द्वार के चक्कर लगायेंगे।‘

ओंकारनाथ अभिमान के साथ बोले – ‘यही तो मैं नहीं कर सकता देवीजी! मैंने अपने सिद्धान्तों को सदैव ऊँचा और पवित्र रखा है, और जीते-जी उनकी रक्षा करूंगा। दौलत के पुजारी तो गली-गली मिलेंगे, मैं सिद्धांत के पुजारियों में हूँ।‘

‘मैं इसे दंभ कहती हूँ।’

‘आपकी इच्छा।’

‘धन की आपको परवाह नहीं है? ‘

‘सिद्धांतों का ख़ून करके नहीं। ‘

‘तो आपके पत्र में विदेशी वस्तुओं के विज्ञापन क्यों होते हैं? मैंने किसी भी दूसरे पत्र में इतने विदेशी विज्ञापन नहीं देखे। आप बनते तो हैं, आदर्शवादी और सिद्धांतवादी, पर अपने फ़ायदे के लिए देश का धन विदेश भेजते हुए आपको ज़रा भी खेद नहीं होता? आप किसी तर्क से इस नीति का समर्थन नहीं कर सकते।’

ओंकारनाथ के पास सचमुच कोई जवाब न था। उन्हें बग़लें झांकते देखकर राय साहब ने उनकी हिमायत की – ‘तो आख़िर आप क्या चाहती हैं? इधर से भी मारे जायें, उधर से भी मारे जायें, तो पत्र कैसे चले? मिस मालती ने दया करना न सीखा था। पत्र नहीं चलता, तो बंद कीजिए। अपना पत्र चलाने के लिए आपको विदेशी वस्तुओं के प्रचार का कोई अधिकार नहीं। अगर आप मज़बूर हैं, तो सिद्धांत का ढोंग छोड़िये। मैं तो सिद्धांतवादी पत्रों को देखकर जल उठती हूँ। जी चाहता है, दियासलाई दिखा दूं। जो व्यक्ति कर्म और वचन में सामंजस्य नहीं रख सकता, वह और चाहे जो कुछ हो सिद्धांतवादी नहीं है।’

मेहता खिल उठे। थोड़ी देर पहले उन्होंने ख़ुद इसी विचार का प्रतिपादन किया था। उन्हें मालूम हुआ कि इस रमणी में विचार की शक्ति भी है, केवल तितली नहीं। संकोच जाता रहा।

‘यही बात अभी मैं कह रहा था। विचार और व्यवहार में सामंजस्य का न होना ही धूर्तता है, मक्कारी है।’

मिस मालती प्रसन्न मुख से बोली – ‘तो इस विषय में आप और मैं एक हैं, और मैं भी फ़िलासफ़र होने का दावा कर सकती हूँ।‘

खन्ना की जीभ में खुजली हो रही थी। बोले – ‘आपका एक-एक अंग फ़िलासफ़ी में डूबा हुआ है।‘

मालती ने उनकी लगाम खींची – ‘अच्छा, आपको भी फ़िलासफ़ी में दख़ल है। मैं तो समझती थी, आप बहुत पहले अपनी फ़िलासफ़ी को गंगा में डुबो बैठे। नहीं, आप इतने बैंकों और कम्पनियों के डाइरेक्टर न होते।‘

राय साहब ने खन्ना को संभाला – ‘तो क्या आप समझती हैं कि फ़िलासफ़रों को हमेशा फ़ाकेमस्त रहना चाहिए।‘

‘जी हाँ। फ़िलासफ़र अगर मोह पर विजय न पा सके, तो फ़िलासफ़र कैसा? ‘

‘इस लिहाज़ से तो शायद मिस्टर मेहता भी फ़िलासफ़र न ठहरें!’

मेहता ने जैसे आस्तीन चढ़ाकर कहा – ‘मैंने तो कभी यह दावा नहीं किया राय साहब! मैं तो इतना ही जानता हूँ कि जिन औजारों से लोहार काम करता है, उन्हीं औजारों से सोनार नहीं करता। क्या आप चाहते हैं, आम भी उसी दशा में फलें-फूलें जिसमें बबूल या ताड़? मेरे लिए धन केवल उन सुविधाओं का नाम है, जिनमें मैं अपना जीवन सार्थक कर सकूं। धन मेरे लिए बढ़ने और फलने-फूलने वाली चीज़ नहीं, केवल साधन है। मुझे धन की बिल्कुल इच्छा नहीं, आप वह साधन जुटा दें, जिसमें मैं अपने जीवन का उपयोग कर सकूं।‘

ओंकारनाथ समिष्टवादी थे। व्यक्ति की इस प्रधानता को कैसे स्वीकार करते? ‘ इसी तरह हर एक मज़दूर कह सकता है कि उसे काम करने की सुविधाओं के लिए एक हज़ार महीने की ज़रूरत है। ‘

‘अगर आप समझते हैं कि उस मज़दूर के बग़ैर आपका काम नहीं चल सकता, तो आपको वह सुविधायें देनी पड़ेंगी। अगर वही काम दूसरा मज़दूर थोड़ी-सी मज़दूरी में कर दे, तो कोई वजह नहीं कि आप पहले मज़दूर की ख़ुशामद करें।’

‘अगर मज़दूरों के हाथ में अधिकार होता, तो मज़दूरों के लिए स्त्री और शराब भी उतनी ही ज़रूरी सुविधा हो जाती जितनी फ़िलासफ़रों के लिये।’

‘तो आप विश्वास मानिये, मैं उनसे ईर्ष्या न करता। ‘

‘जब आपका जीवन सार्थक करने के लिए स्त्री इतनी आवश्यक है, तो आप शादी क्यों नहीं कर लेते? ‘

मेहता ने निस्संकोच भाव से कहा – ‘इसीलिए कि मैं समझता हूँ, मुक्त भोग आत्मा के विकास में बाधक नहीं होता। विवाह तो आत्मा को और जीवन को पिंजरे में बंद कर देता है।‘

खन्ना ने इसका समर्थन किया – ‘बंधन और निग्रह पुरानी थ्योरियाँ हैं। नयी थ्योरी है मुक्त भोग।‘

मालती ने चोटी पकड़ी – ‘तो अब मिसेज़ खन्ना को तलाक़ के लिए तैयार रहना चाहिए।‘

‘तलाक़ का बिल पास तो हो। ‘

‘शायद उसका पहला उपयोग आप ही करेंगे। ‘

कामिनी ने मालती की ओर विष-भरी आँखों से देखा और मुँह सिकोड़ लिया, मानो कह रही है – ‘खन्ना तुम्हें मुबारक रहें, मुझे परवाह नहीं।‘
मालती ने मेहता की तरफ़ देखकर कहा – ‘इस विषय में आपके क्या विचार हैं मिस्टर मेहता?’

मेहता गंभीर हो गये। वह किसी प्रश्न पर अपना मत प्रकट करते थे, तो जैसे अपनी सारी आत्मा उसमें डाल देते थे।

‘विवाह को मैं सामाजिक समझौता समझता हूँ और उसे तोड़ने का अधिकार न पुरुष को है न स्त्री को। समझौता करने के पहले आप स्वाधीन हैं, समझौता हो जाने के बाद आपके हाथ कट जाते हैं।’

‘तो आप तलाक़ के विरोधी हैं, क्यों? ‘

‘पक्का।’

‘और मुक्त भोग वाला सिद्धांत? ‘

‘वह उनके लिए है, जो विवाह नहीं करना चाहते। ‘

‘अपनी आत्मा का संपूर्ण विकास सभी चाहते हैं; फिर विवाह कौन करे और क्यों करे? ‘

‘इसीलिए कि मुक्ति सभी चाहते हैं; पर ऐसे बहुत कम हैं, जो लोभ से अपना गला छुड़ा सकें।’

‘आप श्रेष्ठ किसे समझते हैं, विवाहित जीवन को या अविवाहित जीवन को? ‘

‘समाज की दृष्टि से विवाहित जीवन को, व्यक्ति की दृष्टि से अविवाहित जीवन को। ‘

धनुष-यज्ञ का अभिनय निकट था। दस से एक तक धनुष-यज्ञ, एक से तीन तक प्रहसन, यह प्रोग्राम था। भोजन की तैयारी शुरू हो गयी। मेहमानों के लिए बंगले में रहने का अलग-अलग प्रबंध था। खन्ना-परिवार के लिए दो कमरे रखे गये थे। और भी कितने ही मेहमान आ गये थे। सभी अपने-अपने कमरों में गये और कपड़े बदल-बदलकर भोजनालय में जमा हो गये। यहाँ छूत-छात का कोई भेद न था। सभी जातियों और वर्णो के लोग साथ भोजन करने बैठे। केवल संपादक ओंकारनाथ सबसे अलग अपने कमरे में फलाहार करने गये। और कामिनी खन्ना को सिर दर्द हो रहा था, उन्होंने भोजन करने से इंकार किया। भोजनालय में मेहमानों की संख्या पच्चीस से कम न थी। शराब भी थी और मांस भी। इस उत्सव के लिए राय साहब अच्छी क़िस्म की शराब ख़ास तौर पर खिंचवाते थे? खींची जाती थी दवा के नाम से; पर होती थी ख़ालिस शराब। मांस भी कई तरह के पकते थे, कोफ्ते, कबाब और पुलाव। मुरग़, मुग़िर्याँ, बकरा, हिरन, तीतर, मोर, जिसे जो पसंद हो, वह खाये।

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