बीसवां बयान कुसुम कुमारी देवकीनन्दन खत्री का उपन्यास | Beesva Bayan Kusum Kumari Devaki Nandan Khatri Ka Upanyas

बीसवां बयान कुसुम कुमारी देवकीनन्दन खत्री का उपन्यास | Beesva Bayan Kusum Kumari Devaki Nandan Khatri Ka Upanyas

Beesva Bayan Kusum Kumari Devaki Nandan Khatri

Beesva Bayan Kusum Kumari Devaki Nandan Khatri

यह छोटा-सा शहर जो महारानी कुसुम कुमारी के कब्जे में था, एक मजबूत चारदीवारी के अन्दर बसा हुआ था। इसके बाहर खाई के बाद तीन तरफ गांव था जिसकी आबादी घनी तो थी मगर सभी मकान कच्चे तथा फूस और खपड़े की छावनी के थे जिनमें छोटे जमींदार और खेती के ऊपर निर्भर रहकर समय बिताने वाले गरीब लोग रहा करते थे। चौथी तरफ जिधर शहर का दरवाजा था बिलकुल मैदान था। किले से बाहर निकलते ही चौड़ी सड़क मिलती थी जिसके दोनों तरफ आम के पेड़ लगे हुए थे और इधर ही से एक छोटी सड़क घूमती हुई बराबर उस गांव तक चली गई थी जिसका हाल अभी ऊपर लिख चुके हैं।

इसी छोटी-सी सड़क पर जो गांव में चली गई है, एक आदमी कम्बल ओढ़े बड़ी तेजी के साथ कदम बढाए चला जा रहा है, रात आधी से ज्यादे जा चुकी है, गांव में चारों तरफ सन्नाटा है, आकाश में चन्द्रमा के दर्शन तो नहीं होते मगर मालूम होता है कि चन्द्रमा ने अपनी रोशनी चमक या कला जो कुछ भी कहिए इन छोटे-छोटे गरीब मुहताज तारों को बांट दी है जिससे खुश हो ये बड़ी तेजी के साथ चमक रहे हैं और इस बात को बिलकुल भूले हुए हैं कि यह चमक-दमक बहुत जल्द ही जाती रहेगी और कलयुगी राजों की तरह चन्द्रमा भी धीरे-धीरे पहुंच कर अपनी दी हुई चमक के साथ ही उनकी पहली आब भी जो प्रकृति ने उन्हें दे रखी है लेकर सूर्य का मुकाबला करने को तैयार हो जाएगा अर्थात कहेगा कि आज मैं भी इस रात को दिन की तरह बना कर छोड़ूंगा।

यह स्याह कम्बल ओढ़े हुए जाने वाला आदमी गांव में झोंपड़ियों की गिरती हुई परछाईं के तले अपने को हर तरह से छिपाता हुआ जा रहा है जिससे मालूम होता है कि इसे इससे भी ज्यादे अंधेरी रात की जरूरत है। कभी-कभी यह अटक कर कान लगा कुछ सुनने की कोशिश करता और पीछे फिर कर देखता है कि कोई आ तो नहीं रहा है।

धीरे-धीरे वह एक ऐसी झोंपड़ी के पास पहुंचा जिसके पीछे की तरफ छप्पर से जमीन को एक देने वाली लता बहुत ही घनी फैली हुई थी। वह उसी जगह जाकर खड़ा हो गया और पत्तों की आड़ में छिपकर चारों तरफ देखने लगा, जब कोई नजर न आया तो उसने धीरे-धीरे दो-चार दफे चुटकी बजाई। थोड़ी देर बाद उस झोंपड़ी से एक औरत निकलकर उस तरफ आई जिधर वह खड़ा था। उस औरत को देखते ही वह पत्तों की आड़ से बाहर निकला और दोनों ने मैदान का रास्ता लिया।

ये दोनों जब तक गांव की हद से दूर न निकल गए बिलकुल चुप थे, बहुत दूर निकल जाने के बाद यों बातचीत होने लगी–

औरत–मैं बहुत देर से तुम्हारी राह देख रही थी, जैसे-जैसे देर होती थी कलेजा धक-धक करता था।

मर्द–तुम्हारे लिए मैंने अपनी जान आफत में डाल दी, अब देखें तुम मेरे साथ किस तरह निबाह करती हो।

औरत–मेरी बात में कभी फर्क न पड़ेगा, पहले भी कई दफे कह चुकी हूं और फिर कहती हूं कि मैं तुम्हारी हो चुकी, जिस तरह रखोगे रहूंगी मेरी मुराद तुमने पूरी की, अब मैं किसी तरह तुम्हारे हुक्म से बाहर नहीं हो सकती।

मर्द–अभी मैं कैसे कहूं की तुम्हारी मुराद पूरी हो गई।

औरत–(चौंककर) क्या कुसुम कुमारी हाथ नहीं लगी।

मर्द–कुसुम तो हाथ लग गई मगर मेरे कई साथी मारे गए और अभी न मालूम क्या-क्या होगा!

औरत–अगर कुसुम किले के बाहर हो गई तो अब हम लोगों को भी कुछ डर नहीं है।

मर्द–कुसुम को तो हमारा एक दोस्त लेकर दूर निकल गया, मगर फिर भी हम अपने को तब तक बचा हुआ नहीं समझ सकते जब तक यह न सुन लें कि चंचलसिंह पर कोई आफत न आई। (हाथ का इशारा करके) देखो उसी पेड़ के नीचे वे दोनों घोड़े मौजूद हैं जिन पर सवार होकर हम और तुम भागेंगे और जहां तक जल्द हो सकेगा पटना पहुंच कर अपनी जान बचावेंगे मगर देखों कालिन्दी, अब पटना पहुंचकर कुसुम को अपने हाथ से मारकर अपनी प्रतिज्ञा जल्द पूरी कर लो, जब तक वह जीती रहेगी हम लोग निश्चित नहीं हो सकते।

कालिंदी–घर पहुंचते ही में अपनी प्रतिज्ञा पूरी करूंगी।

अब तो पाठक समझ ही गए होंगे कि यह औरत कालिन्दी है और यह बिलकुल बखेड़ा इसी का मचाया हुआ है, मगर यह मर्द कौन है? इसका हाल आगे मालूम होगा। जब तक ये दोनों उस पीपल के नीचे पहुंच कर घोड़ों पर सवार हों तब तक आइए हम लोग बीरसेन की खबर लें और मालूम करें कि बेहोश रनबीरसिंह और जख्मी दीवान साहब को उसी तरह छोड़ वे कहां गए या किस काम में उलझे।

शहर के पिछली तरफ शहर से बाहर निकल जाने के लिए एक छोटा-सा दरवाजा था, जो चोर दरवाजे के नाम से मशहूर था। इस दरवाजे के बाहर निकलते ही जल से भरी हुई खाई मिलती थी और समय पर काम देने के लिए छोटी-सी किश्ती भी बराबर इस जगह रहा करती थी। इस छोटे मगर मजबूत दरवाजे की चौकसी बीस सिपाहियों के साथ चंचलसिंह नामी एक राजपूत करता था।

बीरसेन ने यह सोचकर कि महारानी को ले जाने वाले दुश्मनों को किले से बाहर हो जाने का सुबीता इस चोर दरवाजे के और कोई नहीं हो सकता सीधे इसी तरफ का रास्ता लिया। रास्ते ही में बीरसेन का मकान भी था। यह फौज के सेनापति थे इसलिए इनका मकान आलीशान था और उसके चारों तरफ सैकड़ों फौजी सिपाही रहा करते थे मगर इस समय इन्होंने अपने मकान की तरफ कुछ ध्यान न दिया और सीधे चोर दरवाजे की तरफ बढ़ते चले गए।

अपने मकान से कुछ ही आगे बढ़े थे कि सामने से एक आदमी आता हुआ दिखाई पड़ा जो इनको अपनी तरफ लपकता आता देखकर सहमकर अपने को छिपाने की नीयत से एक मकान की आड़ हो गया। बीरसेन ने तो उसे देख ही लिया था, उसे दीवार की आड़ में हो जाते देख इनको शक पैदा हुआ और इन्होंने उसके पास पहुंचकर ललकारा।

बीरसेन को पहचानते ही डर के मारे उसकी अजीब हालत हो गई, थर-थर कांपने लगा और कुछ बोल न सका। उसके पास एक गठरी थी जिसे उसी जगह फेंक कर भागा, मगर बीरसेन के हाथ से बचकर न जा सका। इन्होंने लपक कर उसे पकड़ लिया और गठरी समेत अपने मकान की तरफ लौटे तथा फाटक पर पहुंच कर खड़े हो गए जहां कई सिपाही नंगी तलवार लिए पहरा दे रहे थे और कई भीतर की तरफ पहरा बदलने के लिए तैयार हो रहे थे।

बीरसेन ने उस चोर को एक सिपाही के हवाले किया और दूसरे को गठरी खोलकर देखने का हुक्म दिया। सिपाही ने चौंक कर कहा, ‘‘हुजूर इसमें तो जड़ाऊ गहने हैं!’’

बीरसेन–हैंऽ! जड़ाऊ गहने!!

सिपाही–जी हां।

बीरसेन–इधर तो लाओ, देखें!

फाटक पर रोशनी बखूबी हो रही थी, बीरसेन ने उन गहनों को देखते ही पहचान लिया कि ये कालिन्दी के हैं। इसके बाद उस चोर पर गौर किया तो मालूम हुआ कि यह उन सिपाहियों में से हैं जो चोर फाटक के पहरेदार चंचलसिंह के मातहत हैं। बहुत थोड़ी देर खड़े रहकर बीरसेन कुछ सोचते रहे, इसके बाद गठरी और चोर को हिफाजत से रखने के लिए ताकीद कर दस सिपाहियों को अपने साथ ले चोर फाटक की तरफ रवाना हुए और अपने पहरे वालों से कहते गए कि–बहुत जल्द और बीस सिपाहियों को चोर फाटक पर भेजो।

बीरसेन ने चोर फाटक पहुंचकर दस-बारह सिपाहियों को बैठे और चंचलसिंह को टहलते पाया, ललकार कर पूछा, ‘‘क्यों जी चंचलसिंह! क्या हो रहा है?’’

चंचल–जी कुछ नहीं, देखिए पहरे पर मुस्तैद हूं!

बीरसेन–तुम्हारे मातहत के सिपाही कहां है?

चंचल–जी इसी जगह तो हैं, दो-चार कहीं इधर-उधर गए होंगे।

बीरसेन–अच्छा इधर आओ, तुमसे कुछ बात करना है।

इस तरह यकायक बीरसेन को पहुंचते देख चंचलसिंह घबड़ा गया और ठीक तरह से बातचीत न कर सका। बीरसेन ने थोड़ी देर तक उसे बातों में लगाया, तब तक वे बीस सिपाही भी वहां पहुंच गए जिन्हें जल्द भेजने के लिए वे कह आए थे। उन सिपाहियो के पहुंचते ही बीरसेन ने हुक्म दिया कि चंचलसिंह और उसके मातहती के सब सिपाहियों की मुश्कें बांध लो और हमारे घर ले जाकर खूब हिफाजत से रखो।

इसके बाद अपने दस सिपाहियों को कई बातें समझाकर चोर फाटक के पहरे पर तैनात किया और दरवाजा खोलकर बाहर निकले। उस छोटी किश्ती पर पहुंचे जो जरूरत पर काम देने के लिए खाई के किनारे बंधी हुई थी। डांड उठा कर देखा तो गीला पाया, कुछ ऊंची आवाज में बोले–बेशक वही हुआ जो मैं सोचता हूं!

एक सिपाही को अपने पास बुला लिया और डोंगी खेकर पार उतरने के बाद उस डोंगी को फिर अपने ठिकाने ले जाकर बांध देने का हुक्म दिया।

बीरसेन सीधे मैदान की तरफ कदम बढ़ाए चले गए और घण्टे भर बाद उस पीपल के पेड़ के पास पहुंचे जिसके नीचे कसे-कसाए दो घोड़े बंधे थे और एक साईस खड़ा था।

पाठक समझ ही गए होंगे कि इसी पीपल के पेड़ के नीचे एक मर्द को साथ लिए कालिन्दी पहुंचने वाली थी, बल्कि यों कहना चाहिए कि इन्हीं घोड़ों पर सवार हो वे दोनों भागने वाले थे। देखिए अपने साथी मर्द का हाथ थामे वह कालिन्दी भी आ रही है, बीरसेन पहले ही पहुंच चुके हैं, देखे क्या करते हैं।

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