इक्कीसवां बयान कुसुम कुमारी देवकीनन्दन खत्री का उपन्यास | Ikkeesva Bayan Kusum Kumari Devaki Nandan Khatri Ka Upanyas

इक्कीसवां बयान कुसुम कुमारी देवकीनन्दन खत्री का उपन्यास | Ikkeesva Bayan Kusum Kumari Devaki Nandan Khatri Ka Upanyas, Kusum Kumari Devaki Nandan Khatri Novel In Hindi 

Ikkeesva Bayan Kusum Kumari Devaki Nandan Khatri

Ikkeesva Bayan Kusum Kumari Devaki Nandan Khatri

जिस समय बीरसेन पीपल के पेड़ के नीचे पहुंचा और उस साईस ने इन्हें देखा जो घोड़ों की हिफाजत कर रहा था तो उठ खड़ा हुआ और बीरसेन को बड़े गौर से अपनी तरफ देखते पा कुछ घबड़ाना-सा हो गया, क्योंकि बीरसेन का सिपाहियाना ठाठ और उनकी बेशकीमती और चमकती हुई पोशाक साधारण मनुष्यों के योग्य न थी, परन्तु उस समय उसे कुछ ढाढ़स भी हुई जब उसने और दो आदमियों को सामने से अपनी तरफ आते देखा क्योंकि वह तुरन्त समझ गया कि ये दोनों वही हैं जिनके लिए मैं इस जगह दो घोड़ो को लिए मुस्तैद हूं।

इस समय आसमान पर चमकते हुए तारों की रोशनी कुछ कम हो गई थी क्योंकि पूरब तरफ की सफेदी चन्द्रमा की अवाई का इशारा कर रही थी। बीरसेन से साईस से डपट कर पूछा, ‘‘ये घोड़े किसके हैं?’’ इसके जवाब में वह साईस कुछ बोल तो न सका मगर उसने उन दोनों आदमियों की तरफ हाथ का इशारा किया तो अब इस पेड़ के पास पहुंचना ही चाहते थे। आखिर बीरसेन को कुछ ठहर कर वह देखनी ही पड़ी। जब वे दोनों भी वहां पहुंच गए तो बीरसेन ने म्यान से तलवार निकाल ली और डपटकर कहा, ‘‘मैं पहले अपना नाम बीरसेन सेनापति बताकर तुम दोनों का नाम पूछता हूं!’’

बीरसेन सेनापति का नाम सुनकर साईस तो पहले से भी ज्यादे घबरा गया और कालिन्दी भी डर के मारे कांपने लगी, मगर उस आदमी ने अपना दिल कड़ा करके अदब से सलाम किया और कहा ‘‘मेरा नाम तारासिंह है और मैं गयाजी का रहने वाला हूं।’’

बीरसेन–यह औरत जो तुम्हारे साथ है कौन और कहां की रहने वाली है?

तारा–मैं इसे नहीं पहचानता। इसने मेरे ये दोनों घोड़े किराये पर लिए हैं और इसी के लिए…।

बीरसेन–बस-बस, मैं समझ गया, ज्यादा बातचीत करना मैं नहीं चाहता, तुमको इसी समय मेरे साथ किले में चलना होगा।

तारा–बहुत खूब, मैं चलने को तैयार हूं, मगर यह औरत…?

बीरसेन–इसे भी मेरे साथ चलना होगा! (औरत की तरफ देखकर) चल आगे बढ़!

कालिन्दी–मैं तुम्हारे साथ किले में क्यों जाऊं?

बीरसेन–इसका जवाब मैं कुछ भी न दूंगा।

कालिन्दी–(अपने साथी का तरफ देखकर) क्या तुम इसीलिए मेरे साथ आए हो?

आदमी–तो क्या मैं अपनी जान देने के लिए तुम्हारे साथ आया हूं? ये यहां के मालिक हैं, मैं इनके इलाके में रहता हूं इसलिए जो ये हुक्म देंगे वही मैं करूंगा।

बीरसेन–(कालिन्दी से) तू अपने को किसी तरह छिपा नहीं सकती, मैं खूब पहचानता हूं कि तू कालिन्दी है। वही कालिन्दी जिसने अपने कुल में दाग लगाया और वही कालिन्दी जिसने अपने मालिक के साथ नमकहारामी की। खैर, तिस पर भी मैं तुझे छोड़ देता हूं और हुक्म देता हूं कि जहां तेरा जी चाहे चली जा, मैं देखना चाहता हूं कि ईश्वर तेरे पापों की तुझे क्या सजा देता है। (उसके साथी की तरफ देखकर) देर मत कर और मेरे आगे-आगे चल!

इस समय साईस को तो सिवाय भागने के और कुछ न सूझा–वह अपनी जान लेकर एकदम वहां से भागा!

बीरसेन ने भी इसकी कुछ परवाह न की और उस आदमी को फिर अपने आगे-आगे चलने के लिए कहा।

आदमी–अच्छा एक घोड़े पर आप सवार हो लीजिए और दूसरे पर मैं सवार होकर आपके साथ चलता हूं।

बीरसेन–नहीं तुझे पैदल ही चलना होगा।

आदमी–एक तो मैं बीमार हूं दूसरे बहुत दूर से पैदल आने के कारण थक गया हूं।

बीरसेन–(क्रोध से) चलता है या बातें बनाता है?

आदमी–(घोड़े की तरफ बढ़कर) पैदल तो मैं नहीं चल सकता।

बीरसेन ने क्रोध में आकर उसे एक लात मारी साथ ही उसने भी म्यान से तलवार निकाल ली और बीरसेन पर वार किया। बीरसेन ने फुर्ती से बगल में हटकर अपने को बचा लिया और एक हाथ तलवार का ऐसा लगाया कि उसकी दाहिनी कलाई जिसमें तलवार थी कट कर जमीन पर गिर पड़ी और वह आदमी हक्का-बक्का होकर सामने खड़ा रह गया। बीरसेन ने कहा, ‘‘अब भी चलेगा या इसी तरह अपनी जान देगा!!’’

मगर वह आदमी भी बड़ा ही साहसी था। कलाई कट जाने से भी वह सुस्त न हुआ बल्कि उसने अपने कमर से एक रूमाल निकाल कर कटी हुई कलाई के ऊपर लपेटा और बीरसेन के आगे-आगे किले की तरफ रवाना हुआ। थोड़ी दूर चलकर बीरसेन ने उससे कहा, ‘‘इसमें कोई सन्देह नहीं कि महारानी के गायब होने का हाल तू जानता है, बल्कि उस बुरे काम में तू भी साथी रहा है। यदि इसी जगह उसका पूरा-पूरा हाल बता दे, तो मैं तुझे छोड़ दूंगा, नहीं तो समझ रख कि थोड़ी ही देर में तेरा सर धड़ से अलग कर दिया जाएगा।

आदमी–आप यदि प्रतिज्ञा करें कि महारानी का पता बता देने और हर तरह की मदद देने पर आप मेरी जान छोड़ देंगे तो मैं इसमें जो कुछ भेद है आपसे कहूं और महारानी का ठीक-ठीक पता भी आपको बता दूं क्योंकि मुझसे भूल तो हो ही चुकी है और यह भी निश्चय हो गया कि अब किसी तरह जान नहीं बचेगी। हां, इसके साथ ही आपको यह प्रतिज्ञा भी करनी होगी कि होगी कि आप लोग मेरा नाम और पता न पूछेंगे।

बीरसेन–यद्यपि तू इस योग्य नहीं है तथापि मैं प्रतिज्ञा करता हूं कि महारानी यदि जीती-जागती मिल जाएंगी तो तेरी जान छोड़ दूंगा, मगर इस बात को भी खूब याद रखिए कि अगर तू धोखा देने का उद्योग करेगा तो तेरी जान बहुत बुरी तरह से ली जाएगी। और मैं यह प्रतिज्ञा करता हूं कि तेरा नाम और पता जानने के लिए जबरदस्ती न की जाएगी।

आदमी–आप क्षत्रिय हैं, आपकी प्रतिज्ञा कभी झूठी नहीं हो सकती न मालूम कौन से क्रूर ग्रह आ पड़े थे कि हम लोग कालिन्दी के धोखे में आ गए और इतना बड़ा अनर्थ कर बैठे। हाय निःसन्देह वह काली नागिन है। खैर, जो होना था हो गया, अब विलम्ब करना उचित नहीं है। अभी तक महारानी बहुत दूर न गई होगी क्योंकि जो लोग उन्हें ले गए हैं थोड़ी ही दूर पर एक नियत स्थान पर ठहर कर मेरे और कालिन्दी के आने की राह देखते होंगे। अब खटका केवल दो बातों का है, एक तो यह कि कालिन्दी जो सब बखेड़े की जड़ है और जिसे आपने छोड़ दिया है वहां पहुंचकर लोगों को बहका न दे या इस बात की खबर कहीं बालेसिंह को न पहुंच जाए जिसकी फौज किले के सामने वाले मैदान में पड़ी हुई है। साथ ही इसके इतना और भी कहे देता हूं कि केवल आप ही अकेले चलकर महारानी को उन दुष्टों के हाथ से नहीं छुड़ा सकते क्योंकि वे लोग लड़ने और जान देने के लिए तैयार हो जाएंगे।

इतना ही कहते-कहते वह आदमी सुस्त होकर जमीन पर बैठ गया क्योंकि उसकी कटी हुई कलाई में जख्म ठण्डा हो जाने के कारण दर्द ज्यादे हो गया था।

इस समय बीरसेन तरदुद्द के मारे किले की तरफ इस तरह देखने लगे मानो किसी के आने की उम्मीद हो।

अब आसमान पर चांद अच्छी तरह निकल आया था जिसकी रोशनी में किले की तरफ से बहुत से आदमियों को अपनी तरफ आते हुए बीरसेन ने देखा और बोले–‘‘लो रनबीरसिंह भी आ पहुंचे!’’

आदमी–(खड़ा होकर और किले की तरफ देखकर) अब आप अपना काम बखूबी कर सकेंगे।

बीरसेन–तू इस समय कलाई कट जाने के कारण तकलीफ में है इसलिए मैं अपने साथ तुझे वहां ले जाना उचित नहीं समझता, जहां महारानी के मिलने की आशा है, अस्तु वहां का पता मुझे अच्छी तरह बता दे और तू मेरे आदमियों के साथ किले में जा, वहां तेरे जख्म पर दवा लगाई जाएगी।

आदमी–बहुत अच्छा, मैं आपको पता बताए देता हूं। (हाथ का इशारे से) आप सीधे इसी तरफ चले जाइए, यहां से कोस भर चले जाने के बाद एक गांव मिलेगा।

बीरसेन–हां-हां, वह गांव हमारा ही है, उसका नाम पालमपुर है।

आदमी–ठीक है, उस गांव के किनारे ही पर आम की एक बारी है। उसी में आप उन लोगों को पावेंगे जिनके पंजे में इस समय महारानी हैं।

बीरसेन–मैं उस आम की बारी को भी अच्छी तरह जानता हूं।

इस बीच रनबीरसिंह भी अपने साथ सौ सिपाहियों को लिए हुए वहां आ पहुंचे और बीरसेन की तरफ देखकर बोले, ‘‘शुक्र है, तुमसे बहुत जल्द मुलाकात हो गई तुम्हारे खास आदमी ने मुझे इत्तिला दी थी और उसी के कहे मुताबिक मैं सौ आदमियों को साथ लेकर आ रहा हूं।

बीरसेन–जी हां, मैं अपने आदमी से ताकीद कर आया था कि वह सब हाल आपसे कह कर आपको इधर आने के लिए कहे। उस समय आप होश में न थे जब मुझे अपनी कार्रवाई के लिए मजबूरन वहां से निकलना पड़ा।

बीरसेन ने पिछला हाल बहुत थोड़े में कहा जिसे रनबीरसिंह गौर से सुनकर बोले, ‘‘कम्बख्त कालिन्दी को तुमने अब भी छोड़ दिया। खैर, अब वहां चलने में देर न करनी चाहिए।’’

पांच आदमियों के साथ उस अपरिचित व्यक्ति को जिसकी कलाई कट गई थी, किले की तरफ रवाना करके बीरसेन रनबीरसिंह अपने बहादुर सिपाहियों को साथ लिए हुए तेजी के साथ पालमपुर की तरफ रवाना हुए और थोड़ी ही देर में उस आम की बारी में जा पहुंचे। इन लोगों के वहां पहुंचते-पहुंचते तक साफ सवेरा हो गया था इसलिए काम में बहुत हर्ज न हुआ।

महारानी कैदियों की तरह जकड़ी हुई एक डोली के अन्दर जिसे बीस आदमी के लगभग घेरे हुए थे, पाई गई थीं। इन लोगों के पहुंचने में अगर आधी घड़ी की भी देर होती तो फिर कुसुम कुमारी का पता न लगता क्योंकि सवेरा हो जाने के कारण बदमाश लोग डोली उठवाकर दो ही कदम आगे बढ़े थे कि बीरसेन और रनबीरसिंह वगैरह ने पहुंच कर उन लोगों को घेर लिया। मगर अफसोस, उसी समय नमकहराम जसवंतसिंह और पांच सौ सिपाहियों को साथ लिए हुए दुष्ट बालेसिंह भी उस जगह आ पहुंचा और बीरसेन और रनबीरसिंह वगैरह को चारों तरफ से घेर कर उस डोली पर झुक पड़ा जिसमें बेचारी कुसुम कुमारी थी।

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