चैप्टर 5 गाइड आर. के. नारायण का उपन्यास, Chapter 5 The Guide R K Narayan Novel In Hindi, The Guide R. K. Narayan Ka Upanyas
Chapter 5 The Guide R K Narayan Novel
एक दिन सुबह इमली के पेड़ से दूर स्टेशन की इमारत तैयार हो गई। फौलाद की पटरियाँ धूप में चमकने लगीं। लाल और हरी बत्तियों वाले सिगनल खड़े हो गए; और हमारी दुनिया दो हिस्सों में बँट गई, एक हिस्सा स्टेशन के इस तरफ था, और दूसरा स्टेशन के दूसरी तरफ । सारी तैयारियाँ मुकम्मल हो गई थीं। फुर्सत के वक्त हम लोग आधी मील दूर पुलिया तक रेलवे लाइन के साथ-साथ चलते, और अपने स्टेशन के प्लेटफार्म पर चहलकदमी करते। स्टेशन के अहाते में गुलमोहर का एक पौधा लगाया गया था । हम लोग बरामदे में जाकर स्टेशनमास्टर के कमरे में झाँककर देखते।
“‘एक दिन हम सब लोगों को छुट्टी दी गई। लोग कह रहे थे, “आज हमारे शहर में ट्रेन आएगी।” स्टेशन को झंडियों और बन्दनवारों से सजाया गया था। शहनाई और बैण्ड बाजे बज रहे थे। रेल की पटरियों पर नारियल फोड़े जा रहे थे। इसी वक्त भक भक करता हुआ एक इंजन आया, जिसके पीछे दो डिब्बे लगे थे। शहर के बहुत-से बड़े-बड़े लोग वहाँ मौजूद थे। कलक्टर, पुलिस सुपरिण्टेण्डेण्ट, म्युनिसपल कमेटी का चेयरमैन और हाथों में हरे रंग के निमन्त्रण-पत्र लिए स्थानीय व्यापारी भी इकट्ठे थे । प्लेटफार्म पर पुलिस का पहरा था और जनता को भीतर जाने की इजाज़त नहीं थी। मुझे लगा कि मेरे साथ धोखा किया गया है। मुझे इस बात का गुस्सा था कि कैसे कोई मुझे प्लेटफार्म पर जाने से रोक सकता था। प्लेटफार्म के सबसे परले सिरे की रेलिंग में से निकलकर मैं भी इंजन का स्वागत करने वालों की भीड़ में शामिल हो गया । शायद मैं इतना छोटा था कि मेरी तरफ किसी का ध्यान न गया। बरामदे में मेजें सजाई गई थीं, जिनके गिर्द बैठे अफसर लोग जलपान कर रहे थे। इसके बाद कुछ लोगों ने खड़े होकर लेक्चर दिया। पूरे लेक्चर में सिर्फ ‘मालगाड़ी’ शब्द मेरे पल्ले पड़ रहा था । लेक्चर खत्म होने पर लोगों ने तालियाँ बजाई, बैण्ड बजने लगा, इंजन ने सीटी मारी, स्टेशन की घंटी बजने लगी, गार्ड ने सीटी बजाई और जलपान करने वाले लोग जाकर ट्रेन में बैठ गए। मैं भी उनके पीछे जाना चाहता था, लेकिन पुलिसवालों ने मुझे रोक दिया। ट्रेन चलने लगी और जल्दी ही आँखों से ओझल हो गई। बाहर खड़ी भीड़ को अब प्लेटफार्म पर आने की इजाजत मिल गई। उस दिन मेरे पिता की दुकान पर इतनी बिक्री हुई, जितनी पहले कभी नहीं हुई थी। हमारे घर के ऐन सामने स्टेशन के पिछवाड़े बने पत्थर के एक छोटे से मकान में जब स्टेशन मास्टर और एक खलासी आकर रहने लगे, उस वक्त तक मेरे पिता इतने सम्पन्न हो गए थे कि उन्होंने शहर से सामान खरीदकर लाने के लिए एक तांगा और घोड़ा खरीद लिया था। मेरी माँ ने रत्ती भर उत्साह नहीं दिखाया । वे बोलीं, “दो भैंसों को सम्भालना तो मुश्किल हो रहा है, फिर तुमने यह नई इल्लत क्यों पाल ली ? घोड़ा लिया है, तो उसके लिए दाने का भी बन्दोबस्त करना पड़ेगा।’ पिता ने माँ की बात का ब्योरेवार जवाब नहीं दिया। उन्होंने सिर्फ इतना कहा, “तुम्हें इन बातों का कुछ पता नहीं। मुझे रोज शहर में इतना काम रहता है और अकसर बैंक भी जाना पड़ता है।” उन्होंने ‘बैंक’ शब्द पर गर्व से ज़ोर दिया, लेकिन मेरी माँ पर इसका कोई असर न पड़ा ।
“‘अब हमारे अहाते में छप्पर डालकर एक अस्तबल बनाया गया, जिसमें कत्थई रंग का घोड़ा बाँधा जाता था । उसकी देखभाल के लिए मेरे पिता कहीं से एक साईस भी ले आए थे। घोड़ा-तांगा आने के बाद से सारे शहर में हमारी चर्चा होने लगी थी, लेकिन मेरी माँ इससे कभी खुश नहीं हुई । वह इसे मेरे पिता के असाधारण अहंकार का प्रदर्शन समझती थी और पिता के समझाने का उन पर कोई असर नहीं होता था । माँ का ख्याल था कि दरअसल मेरे पिता को इतना काम-काज नहीं रहता। जब भी पिता घर रहते और तांगा बेकार खड़ा रहता, तो माँ उन्हें जली-कटी सुनातीं । शायद माँ चाहती थीं कि मेरे पिता हर वक्त तांगे में बैठकर गलियों के चक्कर काटते रहें। शहर में उन्हें मुश्किल से एक घंटे का काम होता था और वे ठीक वक्त पर आकर दुकान चलाते थे। तब पिताजी दिन में कई घंटों तक दुकान को एक दोस्त की देखभाल में छोड़ दिया करते थे । मेरा ख्याल है कि माँ की जली-कटी बातों का उनपर असर होने लगा था, क्योंकि उनका गुस्सा कम हो गया और जब भी तांगा और घोड़ा इमली के पेड़ तले बेकार खड़े रहते या पिताजी देर से घर लौटते, तो वे क्षमा-याचना करने लगते। वे अक्सर माँ से कहते, “तुम चाहो, तो तांगा लेकर बाज़ार चली जाओ।” लेकिन माँ इन्कार कर देतीं । “रोज मुझे कहाँ जाना होता है ? हो सकता है तुम्हारे तांगे में बैठकर मैं किसी शुक्रवार को मन्दिर जाऊँ, लेकिन क्या मन्दिर जाने के लिए साल भर इतना खर्च बाँधना ठीक है? जानते हो, घास और चने का कितना खर्च है ?”
माँ के लगातार विरोध से तंग आकर पिता ने घोड़ा बेचने की बात पर गम्भीरतापूर्वक सोचा और उन्हें एक ‘विलक्षण’ तरकीब सूझी। वे तांगा तुड़वाकर स्प्रिंगदार बैलगाड़ी बनवाना चाहते थे। बाज़ार के फाटक के पास बैठने वाले लुहार ने ऐसी बैलगाड़ी बनाने का वायदा किया था।
“‘साईस ने इस विचार का मज़ाक उड़ाते हुए मेरे पिताजी को यह यकीन दिलाने की कोशिश की कि लुहार तांगे को मेज-कुर्सी बनाकर छोड़ देगा, जो सिर्फ इमली के पेड़ तले रखने के काबिल होगा। इसी तरह कोई घोड़े को बैल में बदलने का वादा भी कर सकता है।” फिर उसने एक ऐसा सुझाव दिया जो मेरे पिता की व्यावसायिक बुद्धि को बहुत अच्छा लगा । “मैं भाड़े पर इस तांगे को बाज़ार में चलाऊँगा । घोड़े की घास और चनों का खर्चा मेरे जिम्मे रहा। मैं रोज़ आकर आपको दो रुपये दे दिया करूँगा । आप सिर्फ मुझे अपना शेड इस्तेमाल करने दीजिए, शेड का किराया मैं एक रुपया महीने के हिसाब से दे दिया करूँगा और दो रुपये से ज़्यादा जितनी आमदनी होगी वह मेरी होगी।” यह बड़ा मज़ेदार सुझाव था। मेरे पिता को जिस वक्त भी ज़रूरत पड़ती, तांगा मिल जाता, बिना किसी झंझट के रोज़ किराया भी मिल जाता था। धीरे-धीरे तांगेवाले ने आकर सवारियाँ न मिलने का रोना शुरू किया। हमारे घर के सामने, सांझ के झुटपुटे में मेरे पिता तांगेवाले से बहस करते और अपने दो रुपये वसूल करने की कोशिश करते थे । अन्त में मेरी माँ भी झगड़े में हिस्सा लेने लगीं। “इन लोगों पर भरोसा मत करो। आज मेले के दिन भी यह कहता है कि इसने पैसे नहीं बनाए। हम इसपर कैसे यकीन कर सकते हैं?” मेरी माँ को यकीन था कि तांगेवाला अपनी कमाई शराब में फूँक डालता है। मेरे पिता तपाक से कहते, “शराब पीता है तो हमें क्या? हमें इस बात से कोई सरोकार नहीं।” हर रोज यही काण्ड होता था। रात के वक्त तांगेवाला इमली के पेड़ तले खड़ा होकर रिरियाता था । साफ जाहिर कि वह हमारे पैसे हड़प रहा था। कुछ दिनों के बाद आकर उसने कहा, “घोड़ा बहुत मरियल हो गया है, उससे अब अच्छी तरह भागा नहीं जाता, उसका दिमाग सही काम नहीं करता । बेहतर होगा कि इस घोड़े को बेचकर हम नया घोड़ा खरीद लें क्योंकि मुसाफिर अब कम किराया देते हैं। उन्हें तकलीफ पहुँचती हैं । पहियों के स्प्रिंग भी बदलवाने होंगे।” वह बार-बार सुझाव देता था कि यह तांगा बेचकर नया तांगा खरीदना चाहिए । जब भी मेरी माँ यह बात सुनती तो आग बबूला होकर चिल्लाने लगतीं कि एक घोड़ा और तांगा खरीदकर ही उन्हें काफी तजुर्बा हो गया है। इन सब बातों से तंग आकर मेरे पिता कहते कि उन्होंने खामखाह इल्लत पाल ली है, तांगेवाले ने कहा कि एक आदमी घोड़े और तांगे के लिए सत्तर रुपये देने को तैयार है। मेरे पिता ने बढ़वाकर कीमत सत्तर से पचहत्तर रुपये करवा ली और अन्त में तांगेवाला नकद रुपये लेकर आ गया और खुद तांगा चलाने लगा। मालूम होता था कि इस काम के लिए उसने हमारे पैसों में से काफी रकम बचा ली थी। खैर, तांगे से छुटकारा पाकर हमें खुशी हुई। तांगेवाले ने बड़ी चालाकी से सौदा किया था, क्योंकि जब रेलगाड़ियाँ नियमित रूप से हमारे स्टेशन पर आने लगीं तो हमने देखा कि हमारा तांगा शहर में सवारियाँ भरकर ले जाता था और तांगेवाले को खूब आमदनी होने लगी थी ।
‘ “मेरे पिता को रेलवे स्टेशन में दुकान चलाने की इजाजत मिल गई। वह कितनी शानदार दुकान थी! उसका फर्श सीमेण्ट का था और दीवारों में अल्मारियाँ बनी हुई थीं। इस दुकान में इतनी जगह थी कि जब मेरे पिता झोंपड़ी की पुरानी दुकान का सारा सामान वहाँ ले गए तो भी मुश्किल से एक-चौथाई जगह भर सकी। अल्मारियों के इतने ज़्यादा खाने खाली थे कि उन्हें देखकर मेरे पिता उदास हो जाते थे, उन्हें पहली बार यह एहसास हुआ था कि इनका पहला कारोबार कोई खास ज़्यादा बड़ा नहीं था। मेरी माँ भी नई दुकान को देखने आई थीं और बोलीं, “बस इतने से सामान के बूते पर तुम मोटरकार और न जाने क्या-क्या खरीदने चले थे।” मेरे पिता ने कभी भी मोटरकार खरीदने का इरादा नहीं प्रकट किया था, लेकिन उनसे झगड़ा करने में माँ को मज़ा आता था। बापू ने क्षीण स्वर में कहा, “क्यों अब उन पुरानी बातों को बीच में घसीट रही हो?” वे सारी स्थिति पर गौर कर रहे थे। “इस जगह को भरने के लिए मुझे कम से कम पाँच सौ रुपये का सामान खरीदना पड़ेगा ।” बूढ़ा स्टेशन मास्टर, जो सिर पर हरी पगड़ी बाँधे रहता था और चाँदी की कमानीवाला चश्मा पहनता था, दुकान का निरीक्षण करने आया। मेरे पिता ने स्टेशन मास्टर के प्रति आदरपूर्ण रुख अपनाया। उसके पीछे नीली कमीज और पगड़ी पहने कड़िया खलासी खड़ा था। मेरी माँ विनीत भाव से भीतर घर में चली गई ।
“‘स्टेशन मास्टर सिर तिरछा करके दूरी से इस तरह दुकान को देखने लगा, जैसे कोई कलाकार किसी कलाकृति को देख रहा हो। वफादार खलासी भी स्टेशन मास्टर की हर बात का समर्थन करने के लिए तैयार हो गया। स्टेशन मास्टर ने कहा, “यह सारी जगह सामान से भर जानी चाहिए, वरना ए. टी. एस. आकर तरह-तरह के सवाल पूछेगा और हमारे सभी मामलों में दखल देगा। तुम्हें यह दुकान दिलाने में बड़ी परेशानी उठानी पड़ी थी…।” मेरे पिता मुझे दुकान में बैठाकर सामान खरीदने के लिए शहर चले गए। स्टेशन मास्टर ने सलाह दी थी, “बहुत ज़्यादा चावल और वैसी चीज़ों की नुमाइश की यहाँ ज़रूरत नहीं है…. दूसरी दुकान में ये चीजें रखी जा सकती हैं? सफर के दौरान मुसाफिर इमली और दालों की माँग नहीं करेंगे,” मेरे पिता ने स्टेशन मास्टर की हिदायतों का पूरी तरह से पालन किया । अब वह मेरे पिता की नज़रों में ईश्वर बन गया था और मेरे पिता खुशी-खुशी उसके हर हुक्म को बजा लाते थे। अब स्टेशनवाली दुकान में कीलों से केलों के बड़े-बड़े गुच्छे लटकने लगे। मेम्पू सन्तरे, बड़े-बड़े बर्तनों में तली चीजें, बोतलों में पिपरमेण्ट की रंगीन गोलियाँ, मिठाइयाँ, डबल- रोटियाँ और बन्ज दिखाई देने लगे। चीज़ों को इतने आकर्षक ढंग से सजाया गया था कि देखते ही भूख लगने लगती थी। अलमारी के बहुत-से खाने सिगरेटों से भरे थे। बापू को हर किस्म के ग्राहक को सन्तुष्ट रखने के लिए पहले से सारा इन्तज़ाम करना पड़ता था। पुरानी झोंपड़ीवाली दुकान पर उन्होंने मुझे बैठा दिया। उनके पुराने ग्राहक अभी भी अपनी आदत के अनुसार वहीं चीजें खरीदने और गपशप करने के लिए आते थे, मैं उन्हें सन्तुष्ट नहीं कर पाता था। मुकद्दमेबाजी और सिंचाई की बातें सुनकर मैं ऊब जाता था। अभी मेरी उम्र छोटी थी, इसलिए मैं उनकी समस्याओं को और उनके कारोबार की बारीकियों को समझने में असमर्थ था। मैं गुमसुम होकर उनकी बातें सुनता रहता। जल्द ही वे भाँप गए कि मैं उनका साथ नहीं दे सकता। वे मुझे छोड़कर मेरे पिता के पास दूसरी दुकान में चले जाते लेकिन वहाँ भी उनकी मुराद पूरी न होती। नई दुकान उन्हें अजब और फैशनेबल मालूम होती और उन्हें अपनापन महसूस न होता ।
“‘कुछ दिनों बाद मेरे पिता विनीत भाव से अपनी पुरानी दुकान पर आकर बैठ गए और उन्होंने मुझे नई दुकान सम्भालने के लिए भेज दिया। जब मलगुड़ी वाला पुल तैयार हो गया, तो हमारी लाइन पर नियमित रूप से गाड़ियाँ आने लगीं। जब स्टेशन मास्टर और नीली कमीज़वाला खलासी दिन में दो-दो गाड़ियों को ‘रिसीव’ और ‘लाइन क्लीयर’ देते थे तो देखने में बड़ा मजा आता था। दोपहर की ट्रेन मद्रास से आती थी और शाम की ट्रेन त्रीची से। नई दुकान में मैं बड़ी फुर्ती से काम करता। पाठकों ने अनुमान लगा लिया होगा कि परिवार के कारोबार बढ़ने से मेरी एक आकांक्षा की पूर्ति हुई थी – बिना किसी झंझट के मेरा स्कूल छूट गया था।’
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गुनाहों का देवता धर्मवीर भारती का उपन्यास