अठारहवां बयान कुसुम कुमारी देवकीनन्दन खत्री का उपन्यास | Atharahva Bayan Kusum Kumari Devaki Nandan Khatri Ka Upanyas

अठारहवां बयान कुसुम कुमारी देवकीनन्दन खत्री का उपन्यास, Atharahva Bayan Kusum Kumari Devaki Nandan Khatri Ka Upanyas, Kusum Kumari Novel By Devaki Nandan Khatri

Atharahva Bayan Kusum Kumari Devaki Nandan Khatri

Atharahva Bayan Kusum Kumari Devaki Nandan Khatri

शाम का वक्त है, ठंडी-ठंडी हवा चल रही है, महारानी कुसुम कुमारी के महल के पीछेवाला नजरबाग खूब रौनक पर है, खिले हुए फूलों की खुशबू हवा छोटा-सा संगमरमर का खूबसूरत चबूतरा है तिस पर महारानी कुसुम कुमारी, रनबीरसिंह और बीरसेन बैठे धीरे-धीरे कुछ बातें कर रहे हैं, इनकी बातों को सुननेवाला कोई चौथा आदमी यहां मौजूद नहीं है, महारानी की लौंडियां कुछ दूर पर फैली हुई जरूर नजर आ रही हैं।

रनबीर–उस समय मारे हंसी के मेरा पेट फटा जाता था, यह बीरसेन भी बड़ा मसखरा है!

बीरसेन–(हंसकर) जसवंत डर के मारे कैसा दुम दबाकर भागा कि बस कुछ न पूछिए, बड़ी मुश्किल से मैंने हंसी रोकी!

कुसुम–एक तो वह कब्रिस्तान बड़ा ही भयानक है, दूसरे रात के सन्नाटे में इस तरह भूत-प्रेत बनकर आप लोगों ने उन्हें डराया, ऐसी हालत में अपने को सम्हालना जरूर मुश्किल काम है!

बीरसेन–दीवान साहब मुझ पर बड़ा बिगड़े, कहने लगे तुम लोगों ने जसवंत को छोड़ा तो छोटा मगर कालिंदी को क्यों न उठा लाए, मैं अपने हाथ से उसका सिर काट अपनी प्रतिज्ञा पूरी करता।

रनबीर–कालिंदी पर विशेष क्रोध के कारण उन्होंने ऐसा कहा! ऐसा नहीं है कि दीवान साहब हम लोगों की इस कार्रवाई से नाखुश हों और इस बात को न समझ गए हों कि हम लोगों ने उस कब्रिस्तान में जसवंत और कालिंदी को सिर्फ डरा ही कर छोड़ देने में क्या फायदा विचारा था।

कुसुम–बेशक समझ गए होंगे, वे बड़े ही चतुर आदमी हैं।

बीरसेन–इसमें तो कोई शक नहीं।

कुसुम–जसवंत और कालिंदी में अब कभी नहीं बन सकती और कालिंदी अपने किए पर जरूर पछताती होगी।

रनबीर–(कुसुम की तरफ देखकर) खैर, इन बातों को जाने दो, मैं एक दूसरी बात पूछता हूं, सच-सच कहना देखो झूठ न बोलना।

कुसुम–मैं आपसे झूठ कदापि न बोलूंगी, इसे आप निश्चय जानिए।

रनबीर–मेरे साथ तुम्हारा इस तरह का बर्ताव करना क्या तुम्हारे सरदारों और कारिंदों को बुरा न लगता होगा? वह यह न कहते होंगे कि कुसुम बड़ी निर्लज्ज है?

कुसुम–किसी को बुरा न मालूम होता होगा, हां उन लोगों के बारे में मैं कुछ नहीं कह सकती जो नए मुलाजिम हैं।

रनबीर–मैं कैसे विश्वासं करूं?

बीरसेन–(रनबीर से) इसमें आप शक न कीजिए, इतना तो मैं भी कह सकता हूं कि हमारे यहां जितने पुराने मुलाजिम हैं और एक छिपे हुए भेद को जानते हैं, वह आप दोनों को कभी बुरा नहीं कर सकते बल्कि वे लोग बड़े ही खुश होंगे।

रनबीर–भेद कैसा!

कुसुम–भैया देखो अभी मौका नहीं है।

कुसुम की बात सुन बीरसेन चुप हो गया मगर रनबीरसिंह अपनी बात का जवाब न पाने और कुसुम के मना करने से चौंक पड़े और सोचने लगे कि वह कौन-सा भेद है जिसके बारे में बीरसेन ने इशारा किया मगर कुसुम के टोकने से चुप हो रहा उसे खोल न सका।

रनबीरसिंह–(कुसुम से) खैर तुम ही कहो वह क्या भेद है?

कुसुम–कुछ भी नहीं, इसने यों ही कह दिया।

रनबीर–बेशक कोई भेद है जो तुम छिपाती हो, खैर जब मैं तुम्हारे यहां के भेदों को नहीं जान सकता तो इतनी खातिरदारी भी व्यर्थ है और मुझे किसी तरह की उम्मीद तुमसे रखना मुनासिब नहीं!

इतना कहकर रनबीरसिंह चुप हो रहे और उनके चेहरे पर उदासी छा गई, जिसे देख कुसुम कुमारी का जी बेचैन हो गया और वह बीरसेन का मुंह ताकने लगीं। बीरसेन ने कहा, ‘‘बहन, अगर हम लोग आज ही इस भेद को खोल दें तो किसी तरह का नुकसान नहीं, आखिर कभी-न-कभी तो यह भेद खुलेगा ही, फिर इतना दिल दुखाने की क्या जरूरत है!’’

कुसुम–खैर, जो मुनासिब समझो, मुझे यह मंजूर नहीं कि यह किसी तरह उदास हों।

बीरसेन–(रनबीर से) आप यह न समझिए कि हम लोग कोई भेद आपसे छिपाते हैं या छिपावेंगे, बल्कि जिस भेद के बारे में आप पूछ रहे हैं वह ऐसा नहीं कहेंगी और बिना किसी के समझाए आप समझ जाएंगे।

रनबीर–तुम भी क्या मसखरापन करते हो, बिना समझाए मैं समझ जाऊंगा!!

बीरसेन–जी हां ऐसा ही है।

कुसुम–खैर तब बहुत कहने-सुनने की कोई जरूरत नहीं, इस बखेड़े को भी तय ही कर डालना चाहिए।

बीरसेन–अच्छा तो…

कुसुम–(अपने आंचल से एक ताली खोल और बीरसेन को देकर) लो तुम जाओ, वहां रोशनी का इतंजाम कर आओ तो हम लोग चलें।

‘‘अच्छा मैं जाता हूं, बहुत जल्द लौटूंगा!’’ कह बीरसेन वहां से उठे और महल की तरफ चले गए। भेद जानने के लिए रनबीर की तबीयत घबड़ा रही थी, इन लोगों की अनोखी बातचीत ने उनकी उत्कंठा और भी बढ़ा दी थी, यहां तक कि थोड़ी देर के लिए भी सब्र न कर सके और बीरसेन के जाने के बाद अधीर हो कुसुम कुमारी का हाथ पकड़ पूछने लगे–‘‘भला कुछ तो बताओ कि क्या मामला है, सुनने के लिए जी बेचैन हो रहा है?’’

कुसुम–अब क्या घबड़ा रहे हैं, दम भर में सब मालूम ही हुआ जाता है, बीरसेन आ लें तो चल के जो कुछ है दिखा देते हैं।

रनबीर–जब तक बीरसेन आवें तब तक कुछ बातचीत तो होनी चाहिए।

कुसुम–तो क्या एक यही बातचीत रह गई है?

लाचार बीरसेन के आने तक रनबीरसिंह को सब्र करना ही पड़ा। जब बीरसेन लौट आए तो दोनों से बोले–‘‘चलिए सब तैयारी हो चुकी।’’ झट रनबीरसिंह उठ खड़े हुए और हाथ थाम कुसुम कुमारी को उठाया। तीनों आदमी महल की तरफ रवाना हुए और बहुत जल्द उस कमरे में पहुंचे जो खास कुसुम कुमारी के बैठने का था। लौंडियां हटा दी गईं और किवाड़ बंद कर दिए गए।

जिस जगह कुसुम कुमारी के बैठने की गद्दी बिछी हुई थी उसी जगह तकिए के पीछे दीवार में एक दरवाजा बना हुआ था। बीरसेन ने उसका ताला खोला। तीनों एक लंबे-चौड़े सजे हुए कमरे में पहुंचे जिसमें दीवारगीरों में मोमबत्तियां जल रही थीं और दिन की तरह उजाला हो रहा था। चारों तरफ दीवारों पर नजर डालते ही रनबीरसिंह चौंके और एकदम बोल उठे, ‘‘वाह वाह! यह क्या तिलिस्म है!!’’

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