सत्रहवां बयान कुसुम कुमारी देवकीनन्दन खत्री का उपन्यास | Satrahva Bayan Kusum Kumari Devaki Nandan Khatri Ka Upanyas

सत्रहवां बयान कुसुम कुमारी देवकीनन्दन खत्री का उपन्यास | Satrahva Bayan Kusum Kumari Devaki Nandan Khatri Ka Upanyas Novel In Hindi

Satrahva Bayan Kusum Kumari Devaki Nandan Khatri

Satrahva Bayan Kusum Kumari Devaki Nandan Khatri

जसवंत घोड़े पर सवार हो उस कब्रिस्तान से बेतहाशा भागा। जब तक वह अपने खेमे में न पहुंचा उसके हवास दुरुस्त न हुए। उसके पाजीपने ने उसके दिल को कितना डरपोक और बेकाम कर दिया था इसका वही जानता होगा, सुबह होते-होते वह अपने खेमे में पहुंचा और बेदम होकर अपने पलंग पर लेट रहा। उसके दिल में तरह-तरह के खयालात पैदा होने लगे क्योंकि उसे विश्वास हो गया था कि जरूर कालिंदी ने धोखा दिया और वह कब्रिस्तान किसी सुरंग का रास्ता नहीं है।

कायदे की बात है कि डरपोक और भूत-प्रेत के माननेवालों के दिल में जो-जो बातें रात के वक्त पैदा होते हैं वह दिन को कभी नहीं पैदा होतीं। वे जितना रात को डरते हैं उतना दिन को नहीं। वही हालत जसवंत की भी थी। इस समय उसके दिल में यह बात नहीं जम रही थी कि उस कब्रिस्तान में मुर्दे बोल रहे थे या भूत-प्रेत उसकी जान लिया चाहते थे, हां, यह गुमान जरूर होता था कि कालिंदी मेरी मुहब्बत में अपने घर से नहीं आई बल्कि मुझे धोखा देकर मेरी जान की ग्राहक बनकर आई थी और अपनी मालिक कुसुम कुमारी का काम खूबसूरती से करके खैरख्वाह बना चाहती थी, अच्छा ही हुआ जो मैं वहां से भाग आया नहीं तो जान जाने में क्या कसर थी, खैर अब वह हरामजादी मिलेगी तब मैं समझूंगा!

ऐसी-ऐसी बहुत-सी बातें पड़ा-पड़ा जसवंत सोच रहा था सूर्य निकल आने पर भी अपने खय में अकेला जसवंतसिंह है, वहां पहुंचकर उसे होशियार कर दिया और सुना दिया कि बालेसिंह खुद आपसे मिलने के लिए यहां चले आ रहे हैं।

जसवंत घबड़ाकर उठ बैठा और बालेसिंह के इस्तकबाल (अगवानी) के लिए झट खेमे के बाहर निकल आया, तब तक बालेसिंह भी पहुंच चुका था। साहब सलामत के बाद दोनों खेमे के अंदर गए और बातचीत करने लगे।

बालेसिंह–कहिए क्या हाल है? मैंने सुना रात आप दोनों उस सुरंग का पता लगाने गए थे, फिर अकेले क्यों लौटे और कालिंदी कहां गई?

जसवंत–कुछ न पूछिए, उसने तो मुझे पूरा धोखा दिया! अभी आपकी खिदमत मेरी किस्मत में बदी हुई थी इसीलिए जान बच गई, नहीं तो मरने में कोई कसर बाकी न थी।

बालेसिंह–सो क्या? कालिंदी तो तुम्हारे प्रेम में उलझकर आई थी, फिर उसने धोखा क्यों दिया?

जसवंत–वह मेरे प्रेम में उलझकर नहीं आई थी बल्कि मेरी मौत बनकर आई थी और मुझे मारकर अपने मालिक की खैरख्वाही उत्तम रीति से किया चाहती थी!

बालेसिंह–इसी से मैंने इस काम में तुम्हारा साथ नहीं दिया दुश्मन के घर से आए हुए किसी के साथ यकायक इस तरह घुलमिल जाना बेवकूफी नहीं तो क्या है, तिस पर तुम अपने को बड़ा चालाक लगाते हो!

जसवंत–बेशक मुझसे भूल हुई, अब कभी ऐसा न करूंगा। अगर कोई मर्द रहता तो मैं कभी धोखे में न आता मगर उस औरत की सूरत ने मुझे दीवाना बना दिया!

बालेसिंह–खैर, जो हुआ सो हुआ यह बताओ कि वह तुम्हें कहां ले गई थी और किस तरह की दगाबाजी उसने तुम्हारे साथ की?

जसवंत ने कालिंदी के साथ अपने जाने का हाल पूरा-पूरा बालेसिंह को कह सुनाया जिसे सुन बालेसिंह देर तक सोचता रहा, फिर भी वह किसी तरह यह निश्चय न कर सका कि कालिंदी धोखा ही देने के लिए आई थी या सच्चे प्रेम ने उसकी मान-मर्यादा का मुंह काला किया था। आखिर उसने जसवंत से कहा–

‘‘इस बारे में मेरा दिल अभी किसी तरफ गवाही नहीं देता। न तो मुझे कालिंदी के झूठे होने का यकीन है और न यही कह सकता हूं कि वह सच्ची थी। खैर, जो हो आज तुम मुझे उस कब्रिस्तान में ले चलो, देखो मैं क्या तमाशा करता हूं। डरो मत मैं बहुत से आदमी अपने साथ लेकर चलूंगा!’’

थोड़ी देर तक और बातचीत करने के बाद बालेसिंह वहां से उठा और जसवंत को साथ ले अपने खेमे में चला गया।

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