उन्नीसवां बयान कुसुम कुमारी देवकीनन्दन खत्री का उपन्यास | Unneesva Bayan Kusum Kumari Devaki Nandan Khatri Ka Upanyas

उन्नीसवां बयान कुसुम कुमारी देवकीनन्दन खत्री का उपन्यास, Unneesva Bayan Kusum Kumari Devaki Nandan Khatri Ka Upanyas, Kusum Kumari Novel By Devaki Nandan Khatri

Unneesva Bayan Kusum Kumari Devaki Nandan Khatri

Unneesva Bayan Kusum Kumari Devaki Nandan Khatri

इस कमरे में बीस जोड़ी दुशाखी दीवारगीरें लगी हुई थीं जिनमें इस समय मोमबत्तियां जल रही थीं, इसके सिवाय और कोई शीशा आईना या रोशनी का सामान कमरे में न था और न फर्श वगैरह ही बिछा हुआ था। सैकड़ों किस्म के खुशरंग पत्थर के टुकड़े जमीन पर इस खूबसूरती से जमाए हुए थे कि बेशकीमत गलीचे का गुमान होता था और वहां दिखाई फूल पत्तियों पर असली होने का धोखा होता था। चारों तरफ दीवारों पर मुसौवरों की अनोखी कारीगरी दिखाई देती थी अर्थात् इस खूबी की तसवीरें बनी हुई थीं कि यकायक इस कमरे के अंदर जाते ही रनबीरसिंह को मालूम हुआ कि सैकड़ों आदमी इस कमरे में मौजूद हैं। एक तरफ दीवार से कुछ हटकर संगमरमर की चौकियों पर दो पत्थर की मूरतें बैठाई हुई थीं जिनकी पोशाक और सजावट देखने से मालूम होता था कि ये दोनों राजे हैं, जो अभी बोला ही चाहते हैं। इन्हीं दोनों मूरतों पर देर तक रनबीरसिंह की निगाह अटकी रही और सकते के आलम में ये भी पत्थर की मूरत की तरह देर तक बिना हाथ पैर हिलाए खड़े रहे क्योंकि इन दोनों मूरतों में एक मूरत इनके पिता की थी।

थोड़ी देर बाद जब रनबीरिसिंह की बदहवासी कुछ कम हुई तो उन्होंने कुसुम कुमारी की तरफ घूमकर देखा और दोनों मूरतों में से एक की तरफ इशारा करके कहा–‘‘यह मेरे प्यारे पिता की मूरत है। मुझ पर बड़ा ही प्रेम रखते थे, न मालूम इस समय कहां और किस अवस्था में होगें, दुश्मनों के हाथ से छुट्टी मिली या बैकुंठ तो आज उसे बड़ा ही कष्ट उठाना पड़ता!!’’

इतना कहते हुए रनबीरसिंह उस मूरत के पास जाकर रोने लगे मगर उनकी बातें बेचारी कुसुम कुमारी की समझ में कुछ भी न आईं और न वह इनको कुछ धीरज ही दे सकीं, उनकी हालत देख इस बेचारी की आंखों में भी आंसू भर आए और वह चुपचाप खड़ी रनबीरसिंह का मुंह देखने लगी।

कुछ देर बाद रनबीरसिंह ने सामने की दीवार पर निगाह दौड़ाई और बोले, ‘‘क्या आश्चर्य है! जिधर देखो उधर ही मेरे मतलब की तसवीरें दिखाई पड़ती हैं। प्यारी कुसुम, क्या तुम इन तसवीरों का हाल और जो-जो मैं पूछूं बता सकोगी?’’

कुसुम–जी नहीं।

रनबीर–सो क्यों?

कुसुम–इसीलिए कि इनके बारे में मैं कुछ भी नहीं जानती।

रनबीर–तब कौन जानता है?

कुसुम–इस समय सबसे ज्यादे जानकर दीवान साहब हैं जिन्होंने मुझे अपने गोद में खिलाया है, मेरे पिता ने इस कमरे की ताली भी उन्हीं के सुपुर्द की थी और अब तक उन्हीं के पास थी, कल मैंने मंगा ली है।

रनबीर–जब दीवान साहब ने तुम्हें गोद में खिलाया है, तो उनसे पर्दा क्यों करती हो?

कुसुम–केवल राज्य नियम निबाहने के लिए, नहीं तो मुझे कोई पर्दा नहीं है।

रनबीर–तो मैं उन्हें यहां बुलवाऊं!

कुसुम–बुलवाइए।

रनबीरसिंह ने बीरसेन की तरफ देखा, वह मतलब समझकर तुरंत दीवान साहब को बुलाने के लिए चले गए। जब तक दीवान साहब न आए तब तक रनबीरसिंह चारों तरफ की तसवीरों को बड़े गौर से देखते रहे जिससे उनके लड़कपन की बहुत सी बातें उन्हें इस तरह याद आ गई जैसे वे सब घटनाएं आज ही गुजरी हों।

थोड़ी ही देर में दीवान साहब भी आ मौजूद हुए। उन्हें देखते ही रनबीरसिंह ने कहा, ‘‘दीवान साहब, इस कमरे में आने से आश्चर्य ने मुझे चारों तरफ से ऐसा घेर लिया है कि मेरी बुद्धि ठिकाने न रही। लड़कपन से होश सम्हालने तक की बातें मुझे इस तरह याद आ रही हैं जैसे मेरे सामने एक ही दिन में किसी दूसरे पर बीती हों, अब मेरी हैरानी और परेशानी सिवाय आपके कोई नहीं मिटा सकता।’’

दीवान–ठीक है, इन तसवीरों का हाल यहां मुझसे ज्यादे कोई दूसरा नहीं जानता, क्योंकि ये सब मेरे सामने बल्कि मेरी मुस्तैदी में बनवाई गई हैं और इसकी ताली भी बहुत दिनों तक बतौर मिल्कियत के मेरे ही अमानत रही है।

रनबीर–तो आप मेहरबानी करके इन तसवीरों का हाल ठीक-ठीक मुझसे कहें।

दीवान–बहुत खूब! (कुसुम कुमारी की तरफ देखकर) आप भी मेरी बातों को गौर से सुनें क्योंकि इनका जानना जितना जरूरी रनबीरसिंह के लिए है उतना ही आपके लिए भी।

कुसुम–बेशक ऐसा ही है और उनसे ज्यादे सुनने की चाह मुझे है क्योंकि इसके पहले मैं एक दफे और भी इस कमरे में आ चुकी हूं और तभी से हैरानी मेरा आंचल पकड़े हुए है।

दीवान–(रनबीरसिंह की तरफ देखकर) अच्छा तो इन तसवीरों का हाल आप अलग-अलग मुझसे पूछेंगे या मैं खुद कह चलूं?

रनबीर–उत्तम तो यही होगा कि आप कहते जाएं और मैं सुनता जाऊं

दीवान–बहुत अच्छा ऐसा ही होगा। (बीरसेन की तरफ देखकर) तुम भी ध्यान देकर सुनो।

बीरसेन–जरूर सुनूंगा।

दीवान साहब ने हाथ के इशारे से बता-बताकर यों कहना शुरू किया, ‘‘पहले इन दो बड़ी मूरतों पर ध्यान दीजिए जिनमें से एक को आप बखूबी जानते हैं क्योंकि वह आपके पिता इंद्रनाथ की मूरत है और मूरत जिसकी है उसे भी आप कई दफे देख चुके हैं, वह कुसुम कुमारी के पिता कुबेरसिंह की मूरत है। ये दोनों आपस में लड़कपन ही से सच्चे और दिली दोस्त थे मगर मैं इन दोनों का किस्सा पीछे कहूंगा पहले चारों तरफ दीवारों पर खिंची हुई तसवीरों का हाल कहता हूं बल्कि इसके भी पहले यह कह देना मुनासिब समझता हूं (दोनों मूरतें दिखाकर) इन दोनों दोस्तों ने अपनी जिंदगी ही में आपकी शादी कुसुम कुमारी के साथ कर दी थी। इस बात को कुसुम कुमारी बखूबी जानती है बल्कि यहां के सैकड़ों आदमी जानते हैं। आप भी अपनी शादी का हाल भूले न होंगे, मगर आप खयाल करते होंगे कि आपकी शादी किसी दूसरी लड़की से हुई थी क्योंकि कुसुम की सूरत किसी कारण से आपको दिखाई नहीं गई थी।’’

रनबीर–हां ठीक है, मैं इस दूसरी मूरत को भी पहचानता हूं मेरे पिता से मिलने के लिए ये अक्सर आया करते थे और मुझ पर बहुत ही प्रेम रखते थे। उस समय मेरी अवस्था केवल सात वर्ष की थी तो भी मुझे शादी का दिन बखूबी याद है, बाकी भूली हुई बातों की (हाथ के इशारे से बातकर) देखिए वह दीवार पर खिंची तसवीरें याद दिलाती हैं! (दीवार के पास जाकर और एक तस्वीर पर उंगली रखकर) दुश्मनों के हाथ से सताए हुए मेरे पिता इसी मकान में मुझे लेकर रहते थे, इस मकान के आगे यह छोटा-सा बाग है जिसमें मैं दुष्ट जसवंत के साथ खेला करता था, उस नालायक की तसवीर भी यह देखिए मौजूद है।

दीवान–जी हां, और आगे यह देखिए आपके ब्याह के समय की तसवीरें हैं, दोनों दोस्त यह पेड़ के नीचे बैठे हैं, पंडितजी आपकी शादी करा रहे हैं, घूंघट से मुंह छिपाए यह आपके बगल में कुसुम बैठी हुई है और यह देखिए आपके पिता के पीछे सिपाहियाना ठाठ से एक आदमी खड़ा है, आप पहचानते हैं?

रनबीर–(गौर से देखकर) इसे तो मैं नहीं पहचानता।

दीवान–याद न होगा क्योंकि बचपन में इसे आपने दो ही एक दफे देखा है। तमाम फसाद इसी दुष्ट का मचाया हुआ है, इसी की बदौलत आपके पिता…

रनबीर–हां हां कहिए–मेरे पिता क्या? आप रुक क्यों गए?

दीवान–यह हाल पीछे कहेंगे, पहले इधर देखिए।

रनबीर–नहीं, पहले मेरे पिता का हाल कह लीजिए।

दीवान–(कुछ हुकूमत के ढंग पर) इसके लिए आपको जिद न करना चाहिए, पहले जो मैं कहता हूं उसे सुनिए।

रनबीर–खैर, जैसा मुनासिब समझिए।

दीवान–इधर आइए, पहले इस तरह की तसवीरों से शुरू कीजिए।

वीरसेन–(यकायक रोककर) सुनिए तो! यह शोरगुल की आवाज कैसी आ पड़ी है?

बीरसेन के टोकने से कुसुम कुमारी दीवान साहब और रनबीरसिंह भी चौंक पड़े और कान लगाकर सुनने लगे।

पहर रात से ज्यादे जा चुकी थी। तीनों आदमी दीवान साहब की बातें सुनने और तसवीरों के देखने में ऐसा मग्न हो रहे थे कि तनोबदन की सुध भुला बैठे थे मगर इस शोरगुल की आवाज ने उन लोगों को दीवान साहब की बातों और तसवीरों का आनन्द नहीं लेने दिया, लाचार चारों आदमी कमरे के बाहर निकल आए और उस तरफ देखने लगे जिधर से ‘मार-मार’ की आवाज आ रही थी।

पांच-सात लौंडियां बदहवास रोती और चिल्लाती हुई वहां पहुंची जहां से चारों इस बात का पता लगाने के लिए खड़े थे कि शोरगुल की आवाज कहां से और क्यों आ रही है। ये लौंडियां खून से तर-बतर हो रही थीं, इनके पैर खौफ से कांप रहे थे और इनकी आवाज घबराहट से लड़खड़ा रही थी।

दीवान–यह कैसा हंगामा मचा हुआ है? तुम लोगों की ऐसी दशा क्यों हो रही है?

एक लौंडी–हमारे बहुत से दुश्मन हाथ में नंगी तलवारें लिए महल में आ पहुंचे है, न मालूम कहां से और किस राह से आए हैं। यह कह-कहकर लौंडी गुलामों को मार रहे हैं कि यही कुसुम है, यही रनबीर है, कई लौंडी और गुलामों की लाशें इधर-उधर पड़ी तड़प रही है और हम लोगों की यह दशा हो गई है!

यह सुनकर दीवान साहब सोच में पड़ गए, रनबीरसिंह को बहादुरी का जोश चढ़ आया, बीरसेन का बदन गुस्से के मारे कांपने लगा, और बेचारी कुसुम कुमारी रनबीरसिंह को खाली हाथ देख अफसोस करने लगी।

इस समय केवल बीरसेन की कमर से एक तलवार लटक रही थी जिसे रनबीरसिंह ने फुर्ती से निकाल लिया और उस तरफ बढ़े जिधर से घबड़ाई हुई लौंडियां आई थीं। रनबीरसिंह को इस तरह जाते देख बीरसेन और दीवान साहब खाली ही हाथ उनके पीछे दौड़े, मगर दूर जाने की नौबत न आई क्योंकि दुश्मनों का झुंड धूम और फसाद मचाता हुआ उसी जगह आ पहुंचा, जहां ये लोग थे। उन लोगों ने चारों तरफ से इनको घेर लिया। बेचारे खाली हाथ दीवान साहब एक ही हाथ तलवार का खाकर जमीन पर गिर पड़े। बीरसेन ने अपने पर वार करते हुए एक दुश्मन के हाथ से तलवार छीन ली और तीन-चार दुष्टों को बात की बात में यमलोक पहुंचा दिया। रनबीरसिंह की तलवार तो इस समय कालरूप हो रही थी, जिसकी गर्दन के साथ छू जाती उसका सर काटकर फेंक देती थी, जिसके मोढ़े पर बैठ जाती उसको साफ जनेवा काटकर दो टुकड़े कर देती थी, जिसकी खोपड़ी पर पहुंच जाती उसकी कमर तक ककड़ी की तरह काटती हुई उतर जाती थी।

रनबीरसिंह और बीरसेन के बदन पर भी छोटे-छोटे कई जख्म लगे, मगर इनकी बेतरह काटने वाली तलवारों ने थोड़ी ही देर में दुश्मनों को परेशान कर दिया और विश्वास दिला दिया कि जो थोड़ी देर भी वहां ठहरेगा बेशक अपनी जान से हाथ धो बैठेगा। भागने की फिक्र में कोई तो छत के नीचे गिरकर हाथ-पैर तोड़ बैठा, कोई सीढ़ियों ही पर लुढ़ककर हुआ नीचे पहुंचकर बदहवास हो गया, और कोई अपनी जान सलामत लेकर भाग निकला।

लड़ते-ही-लड़ते रनबीरसिंह ने यह भी देख लिया कि कई दुश्मन उस तरफ जा पहुंचे हैं जिधर बेचारी कुसुम कुमारी खड़ी रनबीरसिंह की बहादुरी देख रही थी। दुश्मनों पर फतह पाए हुए रनबीरसिंह इसलिए वहां गए जिसमें बेचारी कुसुम को किसी तरह की तकलीफ न पहुंचने पावे, मगर रनबीरसिंह को कुसुम कुमारी न मिली और ये घबरा कर चारों तरफ ढूंढ़ने लगे। तसवीर वाले कमरे के दरवाजे पर कुसुम कुमारी की ओढ़नी मिली जिसे इन्होंने उठा लिया, हाथ में लेते ही मालूम हो गया कि यह खून से तर है।

रनबीरसिंह समझ गए कि दुश्मनों के हाथ से बेचारी कुसुम की जख्मी हुई। थोड़ी ही देर में लोगों के यह कहने से कि–तमाम महल में ढूंढ़ डाला मगर महारानी का पता न लगा रनबीरसिंह को विश्वास हो गया कि यह दुश्मनों के कब्जे में आ गई। इस गम में उनका दिमाग चक्कर खाने लगा और वे बदहवास होकर जमीन पर गिर पड़े।

बीरसेन ने बेहोश रनबीरसिंह को उसी तरह छोड़ दिया, चारों तरफ कुसुम की खोज में दौड़ती बदहोश और रोती लौंडियों की तरफ कुछ भी ध्यान न दिया, और तुरन्त महल से बाहर निकल एक तरफ को रवाना हो गए।

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