चैप्टर 7 मझली दीदी : शरत चंद्र चट्टोपाध्याय का उपन्यास | Chapter 7 Majhli Didi Novel By Sharat Chandra Chattopadhyay


Chapter 7 Majhli Didi Novel By Sharat Chandra Chattopadhyay

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पांच-छः दिन बाद एक दिन तीसरे पहर विपिन ने झल्लाले हुए चेहरे से घर में कदम रखते ही कहा, ‘आखिर तुमने यह क्या बखेड़ा शुरू कर रखा है? किशन तुम्हारा कौन है, जो उस पराये लड़के के लिए दिन-रात अपने आदमियों से झगड़ा किया करती हो? मैंने आज देखा कि भैया तक सख्त नाराज़ हैं।’

इससे कुछ देर पहले अपने घर में बैठकर कादम्बिनी ने अपने पति को सुनाकर और मंझली बहू को निशाना बनाकर खूब जोर-जोर से चिल्ला-चिल्लाकर अपशब्दों के जो तीर छोड़े थे, उनमें से एक भी निष्फल नहीं गया था। उन सभी तीरों ने हेमांगिनी को छेद डाला था और हर तीर ने अपनी नोक से हेमांगिनी के शरीर में इतना जहर भर दिया था कि उसकी आग उसे बूरी तरह जला रही थी, लेकिन बीच में जेठजी बैठे थे, इसलिए सब कुछ सहने के सिवा उनसे बचने और उन्हें रोकने का उसे कोई मार्ग नहीं मिल सका था।

प्राचीन काल में जिस तरह यवन युद्ध में विजय प्राप्त करने के लिए गाय को समाने खड़ा करके पीछे से राजपूतों की सेना पर बाणोंकी वर्षा करते थे, कादम्बिनी भी मंझली बहू पर आजकल इसी तरह वार किया करती थी।

पति की बात से हेमांगिनी भड़क उठी। उसने कहा, ‘कहते क्या हैं? जेठजी तक नाराज़ हो गए हैं। इतने बड़े आश्चर्य की बात पर एकदम तो विश्वास नहीं होता। अब बताओ, क्या करने से उनका क्रोध शांत हो सकता है?’

विपिन मन-ही-मन बहुत नाराज़ हुए, लेकिन अपनी नाराज़गी प्रकट करने का उनका स्वभाव नहीं था, इसीलिए उन्होंने मन का भाव मन में ही छिपाकर सहज भाव से कहा, ‘हजार हो, फिर भी बड़ों के संबंध में क्या…?’

बात पूरी भी नहीं होने पाई थी कि हेमांगिनी ने कहा, ‘मैं सब जानती हूँ। कोई अनजान बच्ची नहीं हूँ, जो बड़ों की मान-मर्यादा ने समझती होऊं, लेकिन मैं इस लड़के को चाहती हूँ, इसलिए वह मुझे उस पर दिखा-दिखाकर उस पर दिन-रात अत्याचार करती रहती है।’

उसकी आवाज कुछ नर्म हो गई, क्योंकि अचानक जेठ के संबंध में ताना मार कर यह कुछ सकपका गई थी, लेकिन उसके शरीर में आग लग रही थी, इसलिए क्रोध पर काबू न पा सकी। विपिन अंदर-ही-अंदर उन लोगों के पक्ष में थे, क्योंकि एक पराये लड़के के लिए अपने बड़े भाई से बेकार ही झगड़ा करना उन्हें पसंद नहीं था। पत्नी की इस सकपकाहट को देखकर मौका पाकर उन्होंने कुछ ज़ोर देकर कहा, ‘अत्याचार कुछ भी नहीं करते, अपने लड़के को कायदे में रखते हैं। काम-धंधा सिखाते हैं। इसमें अगर तुम्हें कष्ट हो, तो कैसे काम चलेगा? और फिर वह ठहरे बड़े लोग, जो भी चाहे करें।’

हेमांगिनी अपने पति की बात सुनकर पहले तो हैरान रह गई, क्योंकि वह इस गृहस्थी को पिछले पंद्रह-सोलह वर्षों से चला रही थी, लेकिन इससे पहले उसने अपने पति में भाई के प्रति इतनी भक्ति-भावना कभी नहीं देखी थी। उसके समूचे शरीर में आग-सी लग गई। उसने कहा, ‘अगर वह पूज्य हैं, बड़े हैं, तो मैं भी माँ हूँ। अगर बड़े लोग अपना सम्मान आप ही नष्ट कर डालेंगे, तो मैं कहाँ से उनकी भरपाई करूंगी?’

विपिन शायद इसका कुछ उत्तर देना चाहते थे, लेकिन रूक गए, क्योंकि तभी दरवाजे के बाहर किसी ने दुःखी आवाज में बड़ी विनम्रता से पुकारा, ‘मंझली बहन!’

पति-पत्नी ने एक दूसरे की ओर देखा। विपिन कुछ हँसे, लेकिन उस हँसी में स्नेह नहीं था। पत्नी होंठ दबाकर दरवाजे के पास पहुँच गई और चुपचाप किशन के चेहरे की ओर देखने लगी। उसे देखते ही किशन का चेहरा खुशी से चमक उठा। उसके मुँह से पहले ही यही निकला, ‘मंझली बहन, तबियत कैसी है?’

हेमांगिनी पल भर तो कुछ बोल नहीं सकी। जिसके लिए अभी-अभी पति-पत्नी में इतना झगड़ा हुआ था, अचानक उसी को सामने पाकर झगड़े का सारा क्रोध उसी के सिर पर बरस पड़ा। हेमांगिनी ने धीरे से लेकिन कठोर स्वर से कहा, ‘क्यों क्या है? तू रोज यहाँ क्यों आता है?’

किशन का कलेजा धड़क उठा। हेमांगिनी का यह कठोर स्वर उसे वास्तव में इतना कठोर सुनाई दिया कि उस अभागे बालक को यह समझने में देर नहीं लगी कि हेमांगिनी नाराज़ है।

भय, आश्चर्य और लज्जा से उसका चेहरा काला पड़ गया। उसने धीरे से कहा, ‘देखने आया हूँ।’

विपिन ने हँसकर कहा, ‘तुम्हें देखने के लिए आया है।’

इस हँसी से जैसे मुँह चिढ़ाकर उसने नज़रे फेर लीं और किशन से बोली, ‘अब तू यहाँ मत आना, जा’

‘अच्छा, ’ किशन ने इतना कहकर अपने चेहरे पर बिखरी कालिमा को हँसी से ढकने का प्रयत्न किया, लेकिन इससे उसका चेहरा और भी स्याह और भद्दा बन गया। वह मुँह नीचा करके चला गया।

उस चेहरे की काली छाया अपने चेहरे पर लिए हेमांगिनी ने एक बार पति की ओर देखा और जल्दी से कमरे से निकल गई।

चार-पांच दिन बीत गये, लेकिन हेमांगिनी का ज्वर कम न हुआ। डॉक्टर पिछले दिन कह गया था कि सीने  में सर्दी बैठ गई है।

अभी-अभी शाम का दिया जला था। तभी ललित अच्छे-अच्छे कपड़े पहन कर कमरे में आकर बोला, ‘माँ, आज दत्त बाबू के यहाँ कठपुतली का नाच होगा। मैं जाकर देख आऊं?’

माँ ने कुछ हँसकर कहा, ‘क्यों रे ललित, आज पांच-छः दिन से तेरी माँ बीमार पड़ी है, तू कभी एक बार भी पास आकर नहीं बैठा।’

ललित लज्जित होकर सिरहाने आ बैठा। माँ ने बड़े प्यार से बेटे की पीठ पर हाथ रखकर पूछा, ‘अगर मेरी बीमारी अच्छी न हो और मैं मर जाऊं, तो तू क्या करेगा? खूब रोयेगा न?’

‘हटो, तुम अच्छी हो जाओगी,’ इतना कहकर ललित ने माँ के सीने पर हाथ रख दिया।

माँ बेटे का हाथ अपने हाथ में लेकर चुप हो गई। ज्वर के समय पुत्र के हाथ का यह स्पर्श उसके समूचे बदन को शीतल करने लगा। जी चाहा यह इसी तरह बैठा रहे, लेकिन थोड़ी देर बाद ही ललित जाने के लिए छटपटाने लगा। शायद कठपूलियों का नाच शरू हो गया हो। यह सोचते-साचते उसका मन अंदरर-ही-अंदर अस्थिर हो उठा। बेटे के मन की बात समझकर माँ ने मन-ही-मन हँसते हुए कहा, ‘अच्छा जा, देख आ, लेकिन ज्यादा रात मत करना।’

‘नहीं माँ, मैं जल्दी ही आ जाऊंगा।’

इतना कहकर ललित चला गया, लेकिन दो मिनट बाद ही वह लौट आया और बोला, ‘माँ, एक बात कहूं?’

माँ ने हँसते हुए कहा,‘एक रूपया चाहिए न? उस ताक पर रखे हैं, ले ले, लेकिन एक से ज्यादा मत लेना।’

‘नहीं माँ, रुपया नहीं चाहिए। बताओ मेरी बात मानोगी?’

माँ ने आश्चर्य से कहा, ‘रुपया नहीं चाहिए, तो फिर क्या बात है?’

ललित खिसक कर माँ के और भी पास पहुँच गया और बोला, ‘ज़रा किशन को आने दोगी? कमरे में नहीं आयेंगे। दरवाजे के पास ही एक बार तुम्हें देखकर चले जायेंगे। वह कल भी बाहर आकर बैठे थे। आज भी बैठे हुए हैं।’

हेमांगिनी हड़बड़ा कर उठ बैठी और बोली, ‘जा जा ललित! अभी बुला ला। हाय! हाय बेचारा बाहर बैठा है और तुम लोगों ने मुझे बताया भी नहीं।’

‘डर के मारे अंदर आना नहीं चाहते।’ इतना कहकर ललित चला गया। एक ही मिनट के बाद किशन कमरे में आया और जमीन की ओर सिर झुका कर दीवार के सहारे खड़ा हो गया।

हेमांगिनी ने कहा, ‘आ भैया आ!’

किशन उसी तरह चुपचाप खड़ा रहा। तब हेमांगिनी ने खुद ही उठकर उसका हाथ पकड़ा और बिछौने पर बैठा लिया। फिर उसकी पीठ पर हाथ फेरते हुए कहा, ‘हां रे किशन, उस दिन बकझक की थी। इसलिए शायद तू अपनी मंझली बहन को भूल गया।’

सहसा किशन फूट-फूट कर रोने लगा। हेमांगिनी को कुछ आश्चर्य हुआ क्योंकि आज तक किशन को किसी ने रोते हुए नहीं देखा था। अनेक दुःख और यातनायें मिलने पर भी वह चुपचाप सिर झुका लेता है। कभी किसी के सामने रोता नहीं है। उसके स्वभाव से हेमांगिनी परिचित थी, इसलिए आश्चर्य से बोली, ‘छिः! रोना किसलिए? राजा बेटे कहीं आँसू बहाया करते है?’

उत्तर में किशन ने धोती के छोर को मुँह में भरकर यथाशक्ति रुलाई को रोकने की कोशिश करते हुए कहा, ‘ड़ॉक्टर ने कहा है कि कलेजे में सर्दी बैठ गयी है?’

हेमांगिनी हँसते हुए बोली, ‘बस इसलिए? राम-राम, तू भी कैसा लड़का है?’

इतना कहते ही हेमांगिनी की आँखों से टप-टप दो बूंद आँसू टपक पड़े। उन्हें बायें हाथ से पोंछकर उसके माथे पर हाथ रखते हुए कहा, ‘सर्दी बैठ गई है। डॉक्टर ने भले यह कहा हो। अगर मैं मर जाऊं, तो तू और ललित दोनों मिलकर मुझे गंगा जी तो पहुँचा आओगे? क्यों, पहुँचा आओगे ना?’

उसी समय ‘मंझली बहू, आज कैसी तबीयत है?’ कहती हुई कादम्बिनी आकर दरवाजे पर खड़ी हो गई।

थोड़ी देर तक तो वह किशन की ओर घूरकर देखती रही, फिर बोली, ‘लो यह तो यहाँ बैठा है? और यह क्या मंझली बहू के सामने रोकर दुलार हो रहा है। यह ढोंगी कितने छल-छंद जानता है?’

बहुत थक जाने के कारण हेमांगिनी अभी-अभी तकिये के सहारे लेटी थी, लेकिन तत्काल तीर की तरह सीधी होकर उठ बैठी और बोली, ‘जीजी, मुझे आज छः-सात दिन से बुखार आ रहा है। तुम्हारे पैरों पड़ती हूँ। इस समय तुम चली जाओ।’

कादम्बिनी पहले तो कुछ सकपकाई, लेकिन तुरन्त ही अपने-आपको संभालकर बोली, ‘मंझली बहू, तुमसे तो कुछ नहीं कहा। अपने भाई को डांट रही हूँ। इस पर तुम काटने को क्यों दौड़ रही हो?’

हेमांगिनी ने कहा, ‘तुम्हारी डांट-डपट तो रात-दिन चलती ही रहती है। उसे घर जाकर करना। यहाँ मेरे सामने करने की ज़रूरत नहीं है और न मैं करने दूंगी।’

‘क्यों, क्या तुम घर से निकाल दोगी?’

हेमांगिनी ने हाथ जोड़कर कहा, ‘जीजी, मेरी तबीयत खराब है। मैं तुम्हारे पैरों पड़ती हूँ, या तो चुप रहो या चली जाओ।’

कादम्बिनी बोली, ‘अपने भाई से भी कुछ नहीं कह सकती?’

हेमांगिनी ने उत्तर दिया, ‘अपने घर जाकर कहना।’

‘हां, सो तो अच्छी तरह कहूंगी। मेरे नाम खूब लगाई-बुझाई की जाती है। वह सब मैं आज निकाल दूंगी। बदजात, झूठा कहीं का। मैंने कहा था कि गाय के गले में बांधने के रस्सी नहीं है किशन! ज़रा जाकर दो अंटिया पाट काट लो,’ तो बोला, ‘बहन, तुम्हारे पैरों पड़ता हूँ। ज़रा कठपुतली का नाच देख आऊं। यही न कठपुतली का नाच देखा जा रहा है?’

यह कहकर कादम्बिनी छम-छम पैर पटकती हुई वहाँ से चली गई।

हेमांगिनी कुछ देर तक काठ ही तरह बैठी रही। फिर लेटकर बोली, ‘किशन, तू कठपुतली का नाच देखने क्यों नहीं गया? चला गया होता, तो वह सब बातें न सुननी पड़ती। जब वह लोग तुझे नहीं आने देते, तब भैया हमारे यहाँ तू मत आया कर।’

किशन बिना कुछ कहे-सुने चुपचाप चला गया, लेकिन थोड़ी देर बाद ही लौट आया और बोला, ‘बहन, हमारे गाँव की विशालाक्षी देवी की बहुत ही जागती कला है। पूजा देने से सारे रोग, शोक दूर हो जाते हैं। मंझली बहन, दे दो न उनकी पूजा?’

अभी-अभी बेकार ही झगड़ा हो जाने के कारण हेमांगिनी का मन बहुत हो झल्ला उठा था। लड़ाई-झगड़ा होता ही रहता है, लेकिन ऐसा बढ़िया बहाना मिल जाने पर इस अभागे की क्या दर्दशा होगी, यह सोचकर उसकी छाती दुःख, क्रोध और बेबसी से जल उठी थी। किशन जब फिर लौटकर आया, तो हेमांगिनी उठकर बैठ गई। उसे अपने पास बैठा कर उसकी पीठ पर हाथ फेरती हुई रो पड़ी। फिर आँसू पोंछकर बोली, ‘अच्छी हो जाऊंगी, तब तुझे बुलाकर पूजा देने के लिए भेज दूंगी। अकेले जा तो सकेगा न?’

किशन प्रसन्नता से ऑंखें फाड़कर बोला, ‘बड़े मजे से अकेला चला जाऊंगा मंझली बहन! तुम आज ही मुझे एक रुपया देकर भेज दो न, मैं कल सवेरे ही पूजा देकर तुम्हें प्रसाद ला दूंगा। उसे खाते ही तुम्हारे रोग दूर हो जायेंगे। मुझे आज ही भेज दो न मंझली बहन।’

हेमांगिनी ने देखा कि अब उससे ठहरा नहीं जा रहा। बोली, ‘लेकिन कल लौटने पर यह लोग तुझे बहुत मारेंगे।’

मार-पीट का नाम सुनकर पहले तो किशन कुछ सहम उठा, लेकिन फिर खुश होकर बोला, ‘भले ही मारें, तुम्हारा रोग तो दूर हो जायेगा।’

हेमांगिनी की आँखों से फिर आँसू बहने लगे। उसने कहा, ‘क्यों रे, किशन! मैं तो तेरी कोई भी नहीं हूँ। फिर मेरे लिए तुझे इतनी चिंता क्यों हैं?’

भला इस प्रश्न का उत्तर किशन कहाँ से खोज पाता? वह कैसे समझाये कि उसका दुःखी और पीड़ित मन रात-दिन रो-रोकर अपनी माँ को खोजता फिरता है।

थोड़़ी देर तक हेमांगिनी की ओर देखकर बोला, ‘तुम्हारा रोग जो दूर नहीं होता है, मंझली बहन! छाती में सर्दी बैठ गई है।’

हेमांगिनी हँस पड़ी, ‘मेरी छाती में सर्दी बैठ गई है, तो इससे तुझे क्या? तुझे इतनी चिंता क्यों है?’

किशन ने हैरानी से कहा, ‘मुझे चिंता न होगी मंझली बहन! छाती में सर्दी बैठ जाना बहुत ही खराब है। अगर बीमारी बढ़ जाये तो?’

‘तो फिर तुझे बुलवा लूंगी, लेकिन बिना बुलाए मत आना भैया!’

‘क्यों मंझली बहन?’

हेमांगिनी ने सिर हिलाकर दृढ़ता से कहा, ‘नहीं, अब मैं तुझे यहाँ नहीं आने दूंगी। बिना बुलाए अगर तू आयेगा, तो मैं बहुत नाराज़ होऊंगी।’

किशन ने उसके मुँह की ओर देखकर डरते हुए पूछा, ‘अच्छा तो बताओ कल सवेरे कब बुलाओगी?’

‘क्या, कल सवेरे तुझे फिर आना चाहिए?’

किशन ने विवश होकर कहा, ‘अच्छा सवेरे न सही, दोपहर को आ जाऊंगा। ठीक है मंझली बहन!’

उस समय उसकी आँखों में और चेहरे पर ऐसी आकुल प्रार्थना फूट पड़ी कि हेमांगिनी को मन-ही-मन बहुत दुःख हुआ, लेकिन अब बिना कठोर हुए काम नहीं चल सकता। सभी ने मिलकर इस मासूम और एकदम असहाय बालक को जो यातनायें देनी आरंभ की हैं, उसे किसी भी तरह और बढ़ा देने से काम नहीं चल सकता। शायद वह उस सह सकता है। मंझली बहन के पास आने-जाने का दंड कितना ही भारी क्यों न हो उसे सह लेने से तो शायद वह पीछे नहीं हटेगा, लेकिन हेमांगिनी इसे कैसे सह पायेगी?

हेमांगिनी की आँखों से आँसू बहने लगे। मुँह फेरकर रूखे स्वर में बोली, ‘मुझे तंग न कर किशन! यहाँ से चला जा। जब बुलाऊं तब आना। इस तरह जब जी चाहे आकर मुझे तंग मत करना।’

‘नहीं, तंग तो मैं नहीं करता….!’

इतना कहकर अपना भयभीत और लज्जित मुख नीचा करसे जल्दी से चला गया।

हेमांगिनी की आँखों से झरने की तरह आँसू झड़ने लगे। उसे स्पष्ट दिखाई देने लगा कि वह अनाथ और बेसहारा बालक अपनी माँ को गंवाकर मुझे अपनी माँ समझने लगा है। मेरे आंचल का थोड़ा-सा भाग अपने माथे पर खींच लेने के लिए कंगाल की तरह जाने क्या-क्या करता फिरता है।

हेमांगिनी ने आँसू पोंछकर मन-ही-मन ‘किशन, तू यहाँ से इतना उदास और दुःखी होकर चला गया भाई! लेकिन तेरी मंझली बहन तो तुझसे भी बढ़कर बेबस है। उसमें इतनी भी सामर्थ्य नहीं हे कि तुझे जबरदस्ती खींचकर कलेजे से लगा ले।’

उमा ने आकर कहा, ‘माँ, कल किशन मामा तगाहे को न जाकर तुम्हारे पास आ बैठे थे, इसलिए उन्हें ताऊजी ने इतना मारा कि नाक से…!’

हेमांगिनी ने धमकाकर कहा, ‘अच्छा, अच्छा, हो गया। रहने दे, तू भाग जा यहाँ से।’

अचानक झिड़की खाकर उमा चौंक पड़ी। वह चुपचाप जाने लगी तो माँ ने पुकार कर पूछा, ‘अरी सुन तो, क्या नाक से बहुत खून निकला है?’

‘नहीं, बहुत-सा नहीं, थोड़ा-सा,’ उमा लौटकर बोली।

दरवाजे के पास पहुँचते ही उमा बोली उठी, ‘माँ, किशन मामा तो यहाँ ही खड़े हैं।’

किशन ने यह बात सुन ली। इसे बुलावा समझकर शर्मीली हँसी के साथे बोला, ‘मंझली बहन, कैसा जी है?’

दुःख, अभिमान और क्षोम से हेमांगिनी पागलों की तरह चीख उठी, ‘यहाँ क्या करने आया है? जा, जल्दी जा यहाँ से। कहती हूँ दूर हो जा…!’

किशन मूर्ख की तरह आंखें फाड़-फाड़कार देखने लगा, हेमांगिनी ने और भी चिल्लाकर कहा, ‘कमबख्त, फिर भी खड़ा है, गया नहीं?’

‘जाता हूँ।’, किशन ने सिर झुकाकर कहा और चला गया।

उसके जाने के बाद हेमांगिनी बेजान-सी बिछौने के एक किनारे पड़ गई और बड़बड़ाते हुए कहने लगी, ‘कमबख्त से सौ बार कह दिया कि मेरे पास मत आया कर, फिर भी वह ‘मंझली बहन…’ उमा जाकर शिब्बू से कह दे कि अब उसे घर के अंदर न आने दिया करे।’

उमा चुपचाप बाहर चली गई।

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शरत चंद्र चट्टोपाध्याय के उपन्यास :

देवदास ~ शरत चंद्र चट्टोपाध्याय 

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