चैप्टर 2 मझली दीदी : शरत चंद्र चट्टोपाध्याय का उपन्यास | Chapter 2 Majhli Didi Novel By Sharat Chandra Chattopadhyay

Chapter 2 Majhli Didi Novel By Sharat Chandra Chattopadhyay

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दोनों भाइयों ने पैतृक मकान आपस में बांट लिया था।

पास वाला दो मंजिला मकान मंझले भाई विपिन का है। छोटे भाई की बहुत दिन पहले मृत्यु हो गई थी। विपिन भी धान और चावल का ही व्यापार करता है, तो उसकी स्थिति भी अच्छी है, लेकिन बड़े भाई नवीन जैसी नहीं है। तो भी उसका मकान दो मंजिला है। मंझली बहू हेमांगिनी शहर की लड़की है। वह दास-दासी रखकर चार आदमियों को खिला-पिलाकर ठाठ से रहना पसंद करती है। वह पैसा बचाकर गरीबों की तरह नहीं रहती, इसीलिए लगभग चार साल पहले दोनों देवरानी जिठानी कलह करके अलग-अलग हो गई थीं। तब से अब तक खुलकर कई बार झगड़े हुए हैं और मिट भी गए हैं, लेकिन मनमुटाव एक दिन के लिए भी कभी नहीं मिटा। इसका कारण एकमात्र जिठानी कादम्बिनी के हाथ में था। वह खूब पक्की है और भली-भांति समझती है कि टूटी हुई हांडी में कभी जोड़ नहीं लग सकता, लेकिन मनमुटाव एक दिन के लिए भी कभी नहीं मिटा। इसका कारण एकमात्र जिठानी कादम्बिनी के हाथ में था। वह खूब पक्की है और भली-भांति समझती है कि टूटी हुई हांडी में कभी जोड़ नहीं लग सकता, लेकिन मंझली बहू इतनी पक्की नहीं है। वह इस ढंग से सोच भी नहीं सकती। यह ठीक है कि झगड़े का आरंभमंझली बहू करती है। लेकिन फिर मिटाने के लिए, बातें करने के लिए और खिलाने-पिलाने के लिए वह मन-ही-मन छटपटाया भी करती है और फिर एक दिन धीरे से पास आ बैठती है। अंत में हाथ-पैर जोड़कर, रो-धोकर, क्षमा-याचना करके जिठानी को अपने घर पकड़कर ले जाती है और खूब आदर स्नेह करती। दोनों के इतने दिन इसी तरह कट आरहे है।

आज लगभग तीन-साढ़े तीन बजे हेमांगिनी इस मकान में आ पहुँची। कुएं के पास ही सीमेंट के चबूतरे पर धूप में बैठा किशन ढेर सारे कपड़ों में साबून लगाकर उन्हें साफ कर रहा था। कादम्बिनी दूर खड़ी थोड़े साबुन से शरीर की अधिक ताकत लगाकर कप़़ड़े धोने का कौशल सिखा रही थी। कैसे गंदे और मैले-कुचैले कपड़े पहनकर आया है।

बात ठीक थी। किशन जैसी लाल किनारी की धोती पहनकर और दुपट्टा ओढ़कर कोई अपनी रिश्तेदारी में नहीं जाता। उन दोनों कपड़ों को साफ करने की ज़रूरत अवश्य थी, लेकिन धोबी के अभाव के कारण सबसे अधिक आवश्यकता थी पुत्र पांचू गोपाल के दो जोड़ी और उसके पिता के दो जोड़ी कपड़ों को साफ करने की, और किशन वही कर रहा था। हेमांगिनी देखते ही समझ गई थी कि कपड़े किसके हैं, लेकिन इस बात की कोई चर्चा न करके उसने पूछा, “जीजी, यह लड़का कौन है?”

लेकिन इससे पहले ही वह अपने घर में बैठी आड़ से सारी बातें सुन चुकी थी। जिठानी को टालमटोल करते देख, उसने फिर कहा, “लड़का तो बहुत सुंदर है। इसका चेहरा तो बिलकुल तुम्हारे जैसा है जीजी। क्या तुम्हारे मैके का ही कोई है?”

कादम्बिनी ने बड़े विरक्त भाव से चेहरे पर गंभीरता लाकर कहा, “हूं, मेरा सौतेला भाई है। अरे ओ किशना, अपनी मंझली बहन को प्रणाम तो कर, राम-राम! कितना असभ्य है। बड़ों को प्रणाम करना होता है, क्या यह भी तेरी अभागिनी माँ सिखाकर नहीं मरी?”

किशन हड़बड़ाकर उठ खड़ा हुआ और कादम्बिनी के पैरों के पास आकर प्रणाम करना ही चाहता था कि वह बिगड़कर बोली, “अरे मरा, क्या पागल और बहरा है? किसे प्रणाम करने को कहा और किसे प्रणाम करने लगा।”

असल में जब से किशन यहाँ आया है, तभी से निरंतर होते तिरस्कार और अपमान की चोटों से उसका दिमाग ठिकाने नहीं रह गया है। उस फटकार से परेशान और हितबुद्धि-सा होकर ज्यों ही उसने हेमांगिनी के पैरों के पास आकर सिर झुकाया, त्यों ही उसने हाथ पकड़कर उसे उठा लिया और उसकी ठोढ़ी छूकर आशीर्वाद देते हुए बोली, “बस, बस, बस! रहने दो भैया, हो चुका। तुम जीते रहो।”

किशन मूर्ख की तरह उसके चहरे की ओर देखता रहा। मानो यह बात उसके दिमाग में बैठी ही न हो कि इस देश में कोई इस तरह भी बातें कह सकता है।

उसका वह कुंठित, भयभीत और असहाय मुख देखते ही हेमांगिनी का कलेजा हिल गया। अंदर से रूलाई-सी फूट पड़ी। वह अपने आपको संभाल नहीं सकी। जल्दी से उस अभागे अनाथ बालक को खींचकर सीने से चिपटा लिया और उसका थकान तथा पसीने से डूबा चेहरा अपने आचंल से पोंछते हुए जिठानी से बोली, “हाय हाय जीजी! भला इससे कपड़े धुलवाये जाते हैं। किसी नौकर को क्यों नहीं बुला लिया?”

कादम्बिनी सहसा आवाक् रह गई। उत्तर न दे सकी, लेकिन दूसरे ही पल अपने-आपको संभालकर बोली, “मंझली बहू, मैं तुम्हारी तरह धनवान नहीं हूँ, जो घर में दस-बीस नौकर-चाकर रख सकूं। हमारे गृहस्थों के घर…!”

लेकिन उसकी बात समाप्त होने से पहले ही हेमांगिनी अपने घर की ओर मुँह करके लड़की को ज़ोर से पुकार कर बोली, “उमा, शिब्बू को तो यहाँ भेज दे बेटी! ज़रा आकर जेठानी के और पांचू के मैले कपड़े ताल में धोकर लाए और सुखा दे।”

इसके बाद उसने जिठानी की ओर मुड़कर कहा, ‘आज शाम को किशन और पांचू-गोपाल दोनों ही मेरे यहाँ खायेंगे। पांचू के स्कूल से आते ही मेरे यहाँ भेज देना। तब तक मैं इसे लिये जाती हूँ।’

इसके बाद उसने किशन से कहा, ‘किशन, इनकी तरह मैं भी तुम्हारी बहन हूँ, आओ मेरे साथ आओ।’

कहकर वह किशन का हाथ पड़कर अपने घर ले गई।

कादम्बिनी ने कोई बाधा नहीं डाली। उल्टे उसने हेमांगिनी का दिया हुआ इतना बड़ा ताना भी चुपचाप हजम कर लिया, क्योंकि जिसने ताना दिया था उससे इस जून का खर्च भी बचा दिया था। कादम्बिनी के लिए संसार में पैसे से बढ़कर और कुछ नहीं था, इसलिए गाय दूध देते समय अगर लात मारती है, तो वह उसे भी सहन कर लेती है।

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शरत चंद्र चट्टोपाध्याय के उपन्यास :

देवदास ~ शरत चंद्र चट्टोपाध्याय 

बिराज बहू ~ शरत चंद्र चट्टोपाध्याय 

बड़ी दीदी ~ शरत चंद्र चट्टोपाध्याय 

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