Chapter 4 Majhli Didi Novel By Sharat Chandra Chattopadhyay
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हेमांगिनी को बीच-बीच में सर्दी के कारण बुखार हो जाता था और दो-तीन दिन रहकर आप-ही-आप ठीक हो जाता था। कुछ दिनों के बाद उसे इसी तरह बुखार हो आया। शाम के समय वह अपने बिस्तर पर लेटी हुई थी। घर में और कोई नहीं था, अचानक उसे लगा कि बाहर खिड़की की आड़ में खड़ा कोई अंदर की ओर झांक रहा है। उसने पुकारा ‘बाहर कौन खड़ा है? ललित?’
किसी ने उत्तर नहीं दिया। जब उसने फिर उसी तरह पुकारा तब उत्तर मिला, ‘मैं हूँ।’
‘कौन?…. मैं कौन? आ, अंदर आ।’
किशन बड़े संकोच से कमरे में आकर दीवार के साथ सटकर खड़ा हो गया। हेमांगिनी उठकर बैठ गई और उसे अपने पास बुलाकर बड़े प्यार से बोली, “क्यों रे किशन…! क्या बात है?”
किशन कुछ और आगे खिसक आया और अपने मैले दुपट्टे का छोर खोल कर दो अधपके अमरूद निकालकर बोला, ‘बुखार में यह बहुत फायदा करते हैं।’
हेमांगिनी ने बड़े आग्रह से हाथ बढ़ाकर पूछा, ‘यह तुझे कहाँ मिले? मैं तो कल से लोगों की कितनी खुशामद कर रही हूँ, लेकिन किसी ने लाकर नहीं दिये।’
यह कहकर हेमांगिनी ने अमरूद सहित किशन का हाथ पकड़कर उसे अपने पास बैठा लिया, मारे लज्जा और आनंद के किशन का झुका हुआ चेहरा लाल पड़ गया। हालांकि यह अमरूद के दिन नहीं थे और हेमांगिनी अमरूद खाने के लिए बिल्कुल लालायित भी नहीं थी। तो भी यह दो अमरूद खोजकर लाने में दोपहर की सारी धूप किशन ने अपने सिर पर से निकाली थी।
हेमांगिनी ने पूछा, ‘हां रे किशन, तुझसे किसने कहा था कि मुझे बुखार आया है?’
किशन ने कोई उत्तर नहीं दिया।
हेमांगिनी ने फिर पूछा, ‘और यह किसने कहा कि मैं अमरूद खाना चाहती हूँ?’
किशन ने इसका भी कोई उत्तर न दिया। उसने जो सिर नीचा किया, सो फिर उस ऊपर उठाया ही नहीं।
हेमांगिनी ने पहले ही जान लिया था कि लड़का स्वभाव से बहुत ही डरपोक और लज्जालु है। उसने उसके सिर पर हाथ फेरकर बड़े प्यार से भैया कहा और न जाने कितनी चतुराई से उसका भय दूर करके उससे बहुत-सी बातें जान ली। उसने पहले तो बड़ी जिज्ञासा प्रदर्शित करके बड़े प्यार से पूछा कि तुम्हे यह अमरूद कहाँ और किस तरह मिले और फिर धीरे-धीरे उसने गाँव-घर की बातें, माँ के बारे में, यहाँ तक कि खाने-पीने की व्यवस्था और दुकान पर उसे जो-जो काम करने पड़ते हैं, उन सबका विवरण एक-एक करके पूछ लिया और तब अपनी आँखें पोंछते हुए बोली, ‘देख किशन, तू अपनी इस मंझली बहन से कभी कोई बात मत छिपाना। जब भी जिस चीज की भी ज़रूरत हो, चुपचाप यहाँ आकर मांग लेना। मांग लेना न?’
किशन ने बड़ी प्रसन्नतापूर्वक सिर हिलाकर कहा, ‘अच्छा!’
वास्तविक स्नेह किसे कहते है? यह किशन ने अपनी गरीब माता से सीखा था। इस मंझली बहन में उसी स्नेह की झलक पाकर उसका रुका हुआ मातृ शोक पिघलकर बहने लगा। उठते समय उसने मंझली बहन के चरणों की धूल अपने माथे लगाई और फिर जैसे हवा पर उड़ता हुआ बाहर निकल गया।
लेकिन उसकी बड़ी बहन की अप्रसन्नता और क्रोध दिन-पर-दिन बढ़ता ही गया, क्योंकि वह सौतेली माँ का लड़का है। बिल्कुलब असहाय और मजबूर है। ज़रूरी होने पर भी बदनामी के डर से घर से भगाया नहीं जा सकता और किसी को दिया भी नहीं जा सकता, इसलिए जब उसे घर में रखना ही है, तो जितने दिन उसका शरीर चले, उतने दिन उससे खूब कसकर मेहनत करा लेना ही ठीक है।
घर लौटकर आते ही बहन पीछे पड़ गई, ‘क्यों रे किशन, तू दुकान से भागकर सारी दोपहर कहाँ रहा?’
किशन चुप रहा। कादम्बिनी ने बहुत ही बिगड़कर कहा, ‘बता जल्दी।’
लेकिन किशन ने फिर भी कोई उत्तर नहीं दिया।
कादम्बिनी उन लोगों में से नहीं थी, जिनका क्रोध किसी को चुप रहते देखकर कम हो जाता है, इसलिए वह बात उगलवाने के लिए जितनी ज़िद करती गई, बात न उगलवा पाने के कारण उसका क्रोध उतना ही बढ़ता गया। अंत में उसने पांचू गोपाल को बुलाकर उसके कान मलवाये और रात को उसके लिए हांडी में चावल भी नहीं डाले।
चोट चाहे कितनी ही गहरी क्यों न हो, लेकिन यदि उसे छुआ न जाये, तो महसूस नहीं होता। पर्वत की चोटी से गिरते ही मनुष्य के हाथ, पांव नहीं टूट जाते। वह तभी टूटते हैं, जब पैरों के नीचे की कठोर धरती उस वेग को रोक देती है। ठीक यही बात किशन के बारे में हुई। माता की मृत्यु ने जिस समय उसके पैरों के नीचे का आधार एकदम खिसका दिया था, तब से बाहर की कोई भी चोट उसे धूल में नहीं मिला सकी थी। वह गरीब का लड़का ज़रूर था, फिर भी उसने कभी दुःख नहीं भोगा था और घुड़की-झिड़की से भी उसका कभी परिचय नहीं हुआ था। तो भी यहाँ आने के बाद से अब तक उसने कादम्बिनी द्वारा दिए गए कठोर दुःख और कष्टों को चुपचाप झेल लिया था, क्योंकि उसके पैरों के नीचे कोई सहारा नहीं था, लेकिन आज वह इस अत्याचार को सहन नहीं कर पाया, क्योंकि आज वह हेमांगिनी के मातृ-स्नेह की मजबूत दीवार पर खड़ा था और इसीलिए आज के इस अत्याचार और अपमान ने उसे एकदम धूल में मिला दिया। माता और पुत्र दोनों मिलकर उस निरपराध बालक पर शासन करके, झिड़कियाँ देकर, अपमान करके दंड देकर चले गये और वह अंधेरे में जमीन पर पड़ा बहुत दिनों के बाद अपनी माँ की याद करके और मंझली बहन का नाम ले-लेकर फूट-फूटकर रोता रहा।
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शरत चंद्र चट्टोपाध्याय के उपन्यास :
देवदास ~ शरत चंद्र चट्टोपाध्याय
बिराज बहू ~ शरत चंद्र चट्टोपाध्याय
बड़ी दीदी ~ शरत चंद्र चट्टोपाध्याय