चैप्टर 6 मझली दीदी : शरत चंद्र चट्टोपाध्याय का उपन्यास | Chapter 6 Majhli Didi Novel By Sharat Chandra Chattopadhyay

Chapter 6 Majhli Didi Novel By Sharat Chandra Chattopadhyay

Chapter 6 Majhli Didi Novel By Sharat Chandra Chattopadhyay

Chapter 1 | 2 | || | | 7 | 8

Prev | Next | All Chapters

दूसरे दिन सवेरे खिड़की खोलते ही हेमांगिनी के कानों में जेठानी के तीखे स्वर की झंकारर पड़ी । वह पति से कह रही थी, ‘यह लड़का कल से ही भागा हुआ है। तुमने उसकी बिलकुल ही खोज-खबर नहीं ली है।’

पति ने उत्तर दिया, ‘चूल्हे में चला जाये। खोज-खबर लेने की ज़रूरत ही क्या है?’

पत्नी मुहल्ले भर को सुनाती हुई बोली, ‘अब तो निंदा के मारे इस गाँव में रहना कठिन हो जायेगा। हमारे यहाँ दुश्मनों की भी कमी नहीं है। अगर कहीं गिर पड़कर मर-मरा गया, तो कहे देती हूँ, छोटे-बड़े सबको जेलखाना जाना पड़ेगा।’

हेमांगिनी ने सारी बातें समझ लीं और खिड़की बंद करके एक लंबी सांस लेकर दूसरे कमरे में चली गई।

दोपहर के समय यह रसोई के बरामदे में बैठी खाना खा रही थी कि सामने से चारों की तरह दबे पांव किशन आ खड़ा हुआ। उसके बाल रूखे थे और मुँह सूखा था।

हेमांगिनी ने पूछा, ‘कहाँ भाग गया थे रे, किशन?’

‘भागा तो नहीं था। कल शाम के बाद दुकान पर ही सो गया था, जब नींद खुली तो देखा, आधी रात हो गयी है। मंझली बहन, भूख लगी है।’

‘जा उसी घर में जाकर खा।’ कह कर हेमांगिनी खाना खाने लगी।

लगभग एक मिनिट तक चुपचाप खड़ा रहने के बाद जब किशन जाने लगा, तो हेमांगिनी ने उसे बुलाकर बैठाया और रसोईदारिन से उसे वहीं जगह करके उस भात परोस देने के लिए कहा।

किशन अभी आधा ही खा पाया था कि बाहर से उमा घबरायी हुई आयी और उसने इशारे से चुपचाप बताया कि बाबूजी आ रहे हैं।

लड़की का भाव देखकर माँ को अचंभा हुआ, ‘आते हैं तो तू इस तरह घबरा क्यों रही है?’

उमा किशन के पीछे खड़ी थी। उसने उत्तर में किशन की ओर इशारा किया और आँखें मुँह मटकाकर इशारे से बताया कि वह खा जो रहा है।

किशन ने कौतूहल से अपनी गर्दन पीछे की ओर मोड़ ली और बड़ी उत्कंठा से उसके शंकित चेहरे के संकेत को देखा। पल भर में उसका चेहरा सफेद पड़ गया। उसके मन में कितना डर पैदा हुआ, यह तो वही जाने।

‘मंझली बहन, जीजाजी आ रहे हैं।’ उसने कहा और भात की थाली छोड़कर रसोई घर के दरवाजे की आड़ में जाकर खड़ा हो गया। उसकी देखा-देखी उमा भी एक ओर भाग गई। मकान मालिक के आ पहुँचने पर जैसा आचारण चोर किया करते हैं, ठीक वही आचारण उन्होंने किया।

पहले तो हेमांगिनी ने हैरान होकर एक बार इधर और एक बार उधर देखा और फिर थकी-सी दीवार के सहारे झुक गई। जैसे लज्जा और अपमान का तीर उसके कलेजे में इस पार से उस पार हो गया हो। तभी विपिन आ गये और सामने ही पत्नी को इस पार से उस पार हो गया हो। तभी विपिन आ गये और सामने ही पत्नी को इस तरह बैठी देख पास आकर बेचैनी से पूछने लगे, ‘यह क्या?’ खाना सामने रखकर इस तरह क्यों बैठी हो?’

हेमांगिनी ने कोई उत्तर नहीं दिया।

विपिन ने और भी उत्सुकता से पूछी, ‘क्या फिर बुखार हो गया ललित?’

इसके बाद उनकी नज़र उस थाली पर पड़ी जिसमें आधा भात पड़ा हुआ था। पूछा, ‘इतना भात थाली में छोडकर कौन उठ गया?’

हेमांगिनी उठ कर बैठ गई और बोली, ‘नहीं, उस घर का किशन खा रहा था। तुम्हारे डर के मारे किवाड़ की आड़ में छिप गया है।’

‘क्यों?’

‘क्यों? सो तुम अच्छी तरह जानते हो और केवल वही नहीं, तुम्हारे आने की खबर देकर उमा भी भाग गई है।’

विपिन ने मन-ही-मन समझ लिया कि पत्नी की बातें टेढ़े रास्ते जा रही हैं, इसीलिए उन्होंने सीधे रास्ते पर लाने के लिए हँसते हुए कहा, ‘आखिर वह किस डर से भागी?’

हेमांगिनी ने कहा, ‘क्या जानू? शायद माँ का अपमान अपनी आँखों देखने के भय से भाग गई हो,’ फिर एक ठण्डी सांस लेकर बोली, ‘किशन पराया लड़का ठहरा। यह तो छिपेगा ही, लेकिन पेट की लड़की तक यह विश्वास नहीं कर सकी कि माँ को इतना भी अधिकार हे कि वह किसी को एक कौर भात भी खिला सके।’

अब विपिन ने समझा कि मामला सचमुच बिगड़ गया है। कहीं आगे बढ़कर उग्र रूप धारण न कर ले, इसलिए उन्होंने इस अभियोग को एक साधारण मज़ाक में बदलकर आँखें मटकाकर और गर्दन हिलाकर कही, ‘नहीं, तुम्हें कोई अघिकार नहीं है। कोई भिखमंगा आये, तो उसे भीख तक देने का अधिकार नहीं है। अच्छा इन सब बातों को जाने दो। कल से तुम्हारे सिर में फिर दर्द तो नहीं हुआ? मैं सोचता हूँ कि शहर के के डॉक्टर को बुलवा लूं, और नहीं तो फिर एक बार कलकत्ता..!’

रोग और इलाज का मशवरा यहीं रुक गया। हेमांगिनी ने पूछा, ‘तुमने उमा के सामने किशन को कुछ कहा था?’

विपिन जैसे आकाश से नीचे आ गिरा। बोले, ‘मैंने?’ कहाँ? नहीं तो! ओह! याद आ गया। उस दिन शायद कुछ कहा था। भाभी नाराज़ होती हैं। भैया बिगड़ते हैं। मालूम होता है, उमा वहाँ खड़ी थी। जानती हो…?’

‘जानती हूँ।’ कहकर हेमांगिनी ने बात दबा दी। विपिन के रसोई घर से जाते ही उसने किशन को बुलाकर कहा, ‘किशन, यहाँ चार पैसे ले ले और जाकर दुकान से कुछ चने-मुरमुरे खरीद कर खा ले। भूख लगने पर अब मेरे पास मत आना। तेरी मंझली बहन की इतनी ताकत नहीं कि वह बाहर के आदमी को एक कौर भात भी खिला सके।’

किशन चुपचाप चला गया। अंदर खड़े विपिन ने उसकी ओर देखकर दांत पीस लिये।

Prev | Next | All Chapters

Chapter 1 | 2 | || | | 7 | 8

शरत चंद्र चट्टोपाध्याय के उपन्यास :

देवदास ~ शरत चंद्र चट्टोपाध्याय 

बिराज बहू ~ शरत चंद्र चट्टोपाध्याय 

बड़ी दीदी ~ शरत चंद्र चट्टोपाध्याय 

Leave a Comment