चैप्टर 3 मझली दीदी : शरत चंद्र चट्टोपाध्याय का उपन्यास | Chapter 3 Majhli Didi Novel By Sharat Chandra Chattopadhyay

Chapter 3 Majhli Didi Novel By Sharat Chandra Chattopadhyay

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संध्या के समय कादम्बिनी ने पूछा, ‘क्यों रे किशन, वहाँ क्या खा आया?’

किशन ने बहुत लज्जित भाव से सिर झुकाकर कहा, ‘पूड़ी।’

‘काहे के साथ खाई थी?’

किशन ने फिर उसी प्रकार कहा, ‘रोहू मछली के मूंड की तरकारी, संदेश, रसगु…।’

‘अरे में पुछती हूँ की मंझली बहू ने मछली की मूंड किसकी थाली में परोसी थी?’

सहसा यह प्रश्न सुनकर किशन का चहेरा लाल पीला पड़ गया। प्रहार के लिए उठे हुए हथियार को देखकर रस्सी सें बंधे हुए जानवर की जो हालत होती है, किशन की भी वही हालत होने लगी। देर करते हुए देखकर कादम्बिनी ने पूछा, ‘तेरी ही थाली में परोसा था ना?’

नवीन ने संक्षेप में केवल ‘हूं’ करके फिर तम्बाकू का कश खींचा।

कादम्बिनी गर्म होकर कहने लगी, ‘यह अपनी है। ज़रा इस सगी चाची का व्यवहार तो देखो। वह क्या नहीं जानती कि मेरे पांचू गोपाल को मछली का मूंड़ कितना अच्छा लगता है? तब उसने क्या समझकर वह मूंड़ उसकी थाली में परोस कर इस तरह बेकार ही बर्बाद किया? अरे हाँ रे किशन, संदेश और रसगुल्ले तो तूने पेट भर कर खाये न? कभी सात जन्म में भी तूने ऐसी चीजें न देखी होंगी।’

इसके बाद फिर पति की ओर देखकर कहा, ‘जिसके लिए मुठ्ठी भर भात गनीमत हो, उसे पूड़ी और संदेश खिलाकर क्या होगा? लेकिन मैं तुमसे कहे देती हूँ कि मंझली बहू अगर किशन को बिगा़ड़ सकेगी, लेकिन उनकी पत्नी को स्वयं अपने आप पर ही विश्वास नहीं था। बल्कि उसे इस बात का सोलह आने डर था कि मैं सीधी-सादी और भली मानुष हूँ। मुझे जो भी चाहे ठग सकता है, इसीलिए उसने तभी से अपने छोटे भाई के मानसिक उत्थान और पतन के प्रति अपनी पैनी नज़रें बिछा दीं।’

दूसरे ही दिन दो नौकरों में से एक नौकर की छुट्टी कर दी गई। किशन नवीन की धान और चावल वाली आढ़त में काम करने लगा। वहाँ वह चावल आदि तौलता, बेचता। चार-पांच कोस को चक्कर लगाकर गाँवों से नमूने ले आता और जब दोपहर को नवीन भोजन करने आते, तब दुकान देखता।

दो दिन बाद की बात है। नवीन भोजन करने के बाद नींद समाप्त करके लौटकर दुकान पर गए और किशन खाना खाने घर आया। उस समय तीन,बजे थे। वह तालाब में नहाकर लौटा, तो उसने देखा, बहन सो रही है। उस समय उसे इतनी ज़ोर की भूख लग रही थी कि आवश्यक होता, तो शायद वह बाघ के मुँह से भी खाना निकाल लाता, लेकिन बहन के जगाने का वह साहस नहीं कर पाया।

वह रसोई के बाहर वाले बरामदे में एक कोने में चुपचाप बैठा बहन के जागने की प्रतीक्षा कर रहा था कि अचानक उसने पुकार सुनी, ‘किशन!’

वह आवाज उसके कानों को बड़ी भली लगी। उसने सिर उठाकर देखा-मंझली बहन अपनी दूसरी मंजिल के कमरे में खिड़की के पास खड़ी है। किशन ने एक बार देखा और फिर सिर झुका लिया। थोड़ी देर में हेमांगिनी नीचे उतर आई और उसके सामने आकर खड़ी हो गई। फिर बोली, ‘कई दिन से दिखाई नहीं दिया किशन! यहाँ चुपचाप क्यों बैठा है?’

एक तो भूख में वैसे ही आँखें छलक उठती हैं। उस पर ऐसी स्नेह भरी आवाज! उसकी आँखों में आँसू मचल उठे। वह सिर झुकाए चुपचाप बैठा रहा। कोई उत्तर न दे सका।

मंझली चाची को सभी बच्चें प्यार करते हैं। उसकी आवाज सुनकर कादम्बिनी की छोटी लड़की बाहर निकल आई और चिल्लाकर बोली, ‘किशन मामा, रसोईघर में तुम्हारे लिए भात ढका हुआ रखा है, जाकर खा लो। माँ खा-पीकर सो गई हैं।’

हेमांगिनी ने चकित होकर कहा, ‘किशन ने अभी तक खाना नहीं खाया? और तेरी माँ खा-पीकर सो गई? क्यों रे किशन, आज इतनी देर क्यों हो गई?’

किशन सिर झुकाए बैठा रहा। टुनी ने उसकी ओर से उत्तर दिया, ‘मामा को तो रोजाना ही इतनी देर हो जाती है। जब बाबूजी खा-पीकर दुकान पर पहुँच जाते है, तभी यह खाना खाने आते हैं।’

हेमांगिनी समझ गई कि किशन को दुकान के काम पर लगा दिया गया है। उसे यह आशा तो कभी नहीं थी कि उसे खाली बैठाकर खाने को दिया जायेगा। फिर भी इस ढलती हुई बेला को देखकर और भूख-प्यास से बेचैन बालक के मुँह को निहारकर उसकी आँखों से आँसू बहने लगे। वह आंचल से आँसू पोंछती हुई अपने घर चली गई और कोई दो ही मिनट के बाद हाथ में दूध से भरा हुआ एक कटोरा लेकर आ गई।

लेकिन रसोई घर में पहुँचते ही वह कांप उठी और मुँह फेरकर खड़ी हो गई।

किशन खाना खा रहा था। पीतल की एक थाली में ठंड़ा, सूखा और ढेले जैसे बना हुआ भात था। एक ओर थोड़ी-सी दाल थी और पास ही तरकारी जैसी चीज। दूध पाकर उसका उदास चेहरा खुशी से चमक उठा।

हेमांगिनी दरवाजे से बाहर आकर खड़ी रही। भोजन समाप्त करके किशन जब ताल पर कुल्ला करने चला गया, तब उसने झांककर देखा, थाली में भात का एक दाना भी नहीं बचा है। भूख के मारे वह सारा भात खा गया है।

हेमांगिनी का लड़का भी लगभग इसी उम्र का था। वह सोचने लगी कि अगर कहीं मैं न रहूं और मेरे लड़के की यह दशा हो तो? इस कल्पना मात्र से रुलाई की एक लहर उसके अंतर से उठी और गले तक आकर फेनिल हो उठी। उस रुलाई को दबाए हुए वह अपने घर चली गई।

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शरत चंद्र चट्टोपाध्याय के उपन्यास :

देवदास ~ शरत चंद्र चट्टोपाध्याय 

बिराज बहू ~ शरत चंद्र चट्टोपाध्याय 

बड़ी दीदी ~ शरत चंद्र चट्टोपाध्याय 

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