चैप्टर 8 मझली दीदी : शरत चंद्र चट्टोपाध्याय का उपन्यास | Chapter 8 Majhli Didi Novel By Sharat Chandra Chattopadhyay

Chapter 8 Majhli Didi Novel By Sharat Chandra Chattopadhyay

Chapter 8 Majhli Didi Novel By Sharat Chandra Chattopadhyay

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रात हेमांगिनी ने अपने पति को बुलाकर रुंधे गले से कहा, ‘आज तक तो मैंने तुमसे कभी कुछ नहीं मांगा, लेकिन आज इस बीमारी के समय एक भिक्षा मांगती हूँ, दोगे?’

विपिन ने संदिग्ध स्वर में कहा, ‘क्या चाहती हो?’

‘किशन को मुझे दे दो। वह बेचारा बहुत दुःखी है। उसके माँ-बाप नहीं हैं। वह लोग उसे मार डालते हैं। यह मुझसे देखा नहीं जाता।’

विपिन ने कुछ मुस्कुराकर कहा, ‘तो आँखें मूंद लो। बस, सारा झगड़ा मिट जायेगा।’

पति का यह क्रूर मज़ाक हेमांगिनी के कलेजे में तीर की तरह बिंध गया और किसी हालत में तो वह इसे सह लेती, लेकिन आज मारे दुःख के उसके प्राण निकलने लगे थे, इसलिए उसने सह लिया और हाथ जोड़कर बोली, ‘तुम्हारी सौगंध खाकर कहती हूँ, उसे मैं अपने पेट के बेटे की तरह चाहती हूँ, मुझे दे दो। उसे पालकर बड़ा करूंगी, खिलाऊंगी, पहनाऊंगी। इसके बाद तुम लोगों की जो इच्छा हो, करना। जब वह सयाना हो जायेगा, तब मैं कुछ नहीं कहूंगी।’

विपिन ने कुछ नर्म होकर कहा, ‘यह क्या कोई मेरी दुकान का धान या चावल हैं जो मैं लाकर दे दूंगा। दूसरे का भाई है। दूसरे के घर आया है। तुम बीच में पड़कर इतना दर्द क्यों महसूस करती हो।’

हेमांगिनी रो पड़ी। थोड़ी देर बाद उसने आँसू पोंछते हुए कहा, ‘अगर तुम चाहो, तो जेठजी और जेठानी जी से कहकर मजे से ला सकते हो। मैं तुम्हारे पैरों पड़ती हूँ, उसे ला दो।’

विपिन ने कहा, ‘अच्छा मान लो, ऐसा हो जाये, तो हम कहाँ के इतने बड़े आदमी हैं, जो उसका पालन-पोषण कर पायेंगे।’

हेमांगिनी बोली, ‘पहले तो तुमने मेरी किसी भी इच्छा को नहीं ठुकराया। फिर अब मैंने कौन-सा अपराध किया है जो तुम ऐसा कह रहे हो। मेरे प्राण निकले जा रहे हैं और तुम मेरी इतनी मामूली-सी बात नहीं मान रहे? वह अभागा है, तो क्या तुम सब मिलकर उसे मार ही डालोगे?’ मैं उसे अपने यहाँ आने को कहूंगी, देखती हूँ, वह लोग क्या करते हैं?’

विपिन ने अप्रसन्नता से कहा, ‘मैं उस खिला-पिला नहीं सकूंगा।’

‘मैं खिला-पिला सकूंगी। क्या मैं कल ही उसे बुलाकर अपने पास रखूंगी और अगर जिठानी उसे जबरदस्ती रोकेंगी, तो मैं उसे थाने में दरोगा के पास भेज दूंगी।’

पत्नी की बात सुनकर विपिन क्रोध और अभिमान से क्षण भर के लिए हक्का-बक्का रह गये। फिर बोले, ‘अच्छा देखा जायेगा।’

और यह कहकर चले गये।

दूसरे दिन सुबह से ही वर्षा होने लगी। हेमांगिनी अपने कमरे की खिड़की खोलकर आकाश की और देख रही थी। सहसा उसे पांचू गोपाल की ऊँची आवाज सूनाई दी। वह चिल्लाकर कर रहा था, ‘माँ, अपने गुनी भाई को देखो, पानी में भीगते हुए हाजिर हो गए हैं।’

‘झाडू कहाँ हैं रे? मैं आती हूँ।’ कहती हुई और हुंकार करती हुई कादम्बिनी जल्दी से बाहर निकली और सिर पर अंगोछा डालकर सदर दरवाजे पर पहुँच गई।

हेमांगिनी की छाती कांप उठी। उसने ललित को बुलाकर कहा, ‘जा तो बेटा, उस मकान में और देख तेरे किशन मामा कहाँ से आए हैं?’

ललित दौड़ा हुआ गया और थोड़ी देर बाद ही लौटकर बोला, ‘पांचू भैया ने उन्हें उकडू बैठा रखा है, और उनके सिर पर दो ईंटे रखी हुई हैं।’

हेमांगिनी ने सूखे मुँह से पूछा, ‘उसने क्या किया था?’

ललित ने कहा, ‘कल दोपहर को उन्हें ग्वालों के यहाँ तगादे के लिए भेजा था। वहाँ से तीन रुपये वसूल करके भाग गये और तीनों रुपये खर्च करके अब आये हैं।’

हेमांगिनी को इस बात पर विश्वास नहीं हुआ। उसने पूछा, ‘किसने कहा है कि उसने रूपये वसूल किये थे?’

‘लक्ष्मण खुद ही आकर कह गया है।’

यह कहकर ललित पढंने चला गया। लगभग तीन घंटे तक कोई शोर सुनाई नही दिया। दस बजे के लगभग रसोईदारिन खाना दे गई। हेमांगिनी उठना ही चाहती थी कि तभी उसके कमरे के बाहर कुरुक्षेत्र का दृश्य उपस्थित हो गया। बड़ी बहू के पीछे-पीछे पांचू गोपाल किशन का कान पकड़कर घसीटता हुआ ला रहा था। साथ में विपिन के बड़े भाई भी हैं। विपिन को बुलाने के लिए आदमी दुकान पर भेजा गया है।

हेमांगिनी ने घबराकर सिर ढक लिया और उठकर कमरे में एक किनारे खड़ी हो गई।

आते ही जेठजी ने चीख-चीखकर कहना आरंभ कर दिया, ‘मंझली बहू, देखता हूँ कि तुम्हारे कारण हम लोग इस मकान में नहीं रह सकेंगे। विपिन से कह दो कि हमारे मकान की कीमत दे दे, जिससे हम लोग कहीं और जाकर रहें।’

हेमांगिनी आश्चर्य से हत्बुद्धि-सी चुपचाप खड़ी रही। तब बड़ी बहू ने युद्ध-संचालन अपने हाथ में लिया और दरवाजे के ठीक सामने आकर खूब हाथ-मुँह नचा-नचाकर कहने लगी, ‘मंझली बहू, मैं तुम्हारी जेठानी हूँ। तुम मुझे कुत्ते और गीदड़़ की तरह समझती हो, सो अच्छा ही करती हो, लेकिन मैंने तुमसे हजार बार कहा है कि झूठमूठ का दिखावटी प्रेम दिखाकर मेरे भाई को चौपट मत करो। क्यों, जो कहा था आखिर वही हुआ ने? दो दिन का दुलार आसान है, लेकिन हमेशा को बोझ तो तुम उठाने से रही। वह तो हमें ही उठाना पड़ेगा।’

हेमांगिनी ने सिर्फ यही समझा कि इन कड़वे बोलों से उस पर आक्रमण किया जा रहा है। उसने बहुत ही कोमल स्वर में पूछा, ‘आखिर हुआ क्या?’

कादम्बिनी ने और भी अधिक हाथ-मुँह मटकाकर कहा, ‘बहुत अच्छा हुआ है, बहुत बढ़िया हुआ है। तुम्हारी सीख मिलने से वसूल किए हुए रुपये चुराना सीख गया है। और दो-तीन दिन अपने पास बुलाकर सिखाओ-पढ़ाओ तो संदूकका ताला तोड़ना और सेंध लगाना भी सीख जायेगा।’

एक तो हेमांगिनी बीमार थी, उस पर यह निंदनीय, घृणित और मिथ्या अभियोग सुनकर वह अपना ज्ञान खो बैठी। आज तक उसने जेठ के सामने मुँह नहीं खोला था, लेकिन आज उससे नहीं रहा गया। बड़े कोमल स्वर में बोली, ‘क्या मैंने ही उसे चोरी करना और डाका डालना सिखाया है जीजी?’

कादम्बिनी बोली, ‘मैं कैसे जानूं कि तुमने सिखाया है या नहीं, लेकिन पहले तो उसका यह स्वभाव था नहीं। फिर आखिर तुम लोगों से छिप-छिपकर इसकी बातें क्या होती है? उसे इतना बढ़ावा क्यों दिया जाता हैं?’

थोड़ी देर के लिए हेमांगिनी हक्का-बक्का-सी रह गई। यह बात उसके दिमाग में नहीं बैठ सकी कि कोई मनुष्य कभी किसी दूसरे मनुष्य पर इस प्रकार का आघात करके उसे इस तरह अपमानित कर सकता है? लेकिन यह दशा कुछ पल तक ही रही। दूसरे ही पल वह चोट खाई सिंहनी के समान बाहर निकल आई। उसकी आँखें अंगारे तरह जल रही थीं। जेठ को सामने देखकर सिर पर का कपड़ा तो थोड़ा-सा आगे खींच लिया। लेकिन अपने क्रोध पर काबू नहीं रख पाई। उसने जेठानी को संबोधित करते मीठे लेकिन अत्यंत कठोर स्वर में कहा, ‘तुम इतनी बड़ी चमारिन हो कि तुम्हारे साथ बात करने में भी मुझे घृणा होती है। तुम इतनी बेशर्म हो कि इस लड़के को अपना भाई भी कहती हो। अगर आदमी एक जानवर पालता है, तो उसे भी भरपेट खाना खाने को देता है, लेकिन इस अभागे से तो सभी तरह के छोटे-से-छोटे काम लेकर भी तुमने इसे कभी भरपेट खाने को नहीं दिया। अगर मैं न होती, तो अब तक वह भूखों मर गया होता। यह केवल पेट की आग के कारण मेरे पास दौड़ा आता है। प्यार-दुलार पाने के लिए नहीं।’

कादम्बिनी ने कहा, ‘हम लोग खाने को नहीं देते। खाली काम लेते हैं और तुमने उसे खिला-पिला कर बचा रखा है।’

‘मैं बिल्कुल ठीक कहती हूँ। आज तक तुमने कभी उसे दोनों समय भरपेट खाना नहीं दिया। सिर्फ मार-पीट की है और जहाँ तक काम करा सकती हो काम कराती हो। तुम लोगों के डर से मैंने इसे हजार बार आने को मना किया है, लेकिन जब भूख बर्दाशत नहीं होती, तब सिर्फ इसलिए भागा चला आता है कि यहाँ उसे भरपेट खाना मिल जाता है। चोरी, डकैती की सलाह लेने नहीं आता, लेकिन तुम लोग इतने ईष्यार्लु हो कि अपनी आँखों से यह भी नहीं देख सकते।’

अबकी बार जेठ ने उत्तर दिया। उन्होंने किशन को सामन खींच उसकी धोती की छोर में से केले के पत्ते का एक दोना निकाला और क्रुद्ध होकर बोले, ‘हम ईर्ष्या करने वाले लोग असे अच्छी तरह से क्यों नहीं देख सकते यह तुम अपनी आँखों से ही देख लो। मंझली बहू, तुम्हारे सिखाने का ही यह नतीजा है कि यह सारे रुपये चुराकार तुम्हारे हित के लिए ने जाने किस देवी की पूजा देकर प्रसाद लाया है, यह लो।’

इतना कहकर उन्होंन उस दोने में से दो संदेश, कुछ फूल और बेलपत्र आदि निकालकर दिखा दिये।

कादम्बिनी की आंखें कपाल पर चढ़ गई। उसने कहा, ‘अरे मैयारी, कैसा चुप्पा शैतान है, कैसा धूर्त और मक्कार है। ठीक है मंझली बहू, अब तुम ही बताओ कि इसने चोरी क्यों की? क्या मेरे हित के लिये?’

क्रोध के मारे हेमांगिनी अपना आपा खो बैठी। एक तो उसका अस्वस्थ शरीर, उस पर यह झूठा इल्जाम। उसने जल्दी से आगे बढ़कर किशन के दोनों गालों पर जोर-जोर से दो तमाचे जड़ दिये और कहा, ‘हरामजादे चोर, मैंने तुझे चोरी करना सिखाया है? कितनी बार तुझे मना किया कि मेरे घर मत आया कर। कितनी बार तुझे भया दिया। अब मुझे लग रहा है कि तू चोरी करने के इरादे से ही जब तब मेरे यहाँ आकर झांका करता था।’

अब तक घर के सारे लोग इकट्ठे हो चुके थे। शिब्बू ने कहा, ‘माँ, मैंने अपनी आँखों से देखा है। परसों रात यह तुम्हारे कमरे के सामने अंधेरे में खड़ा था। मुझे देखते ही भाग गया था। अगर मैं न आता, तो ज़रूर तुम्हारे कमरे में घुसकर चोरी करता।’

पांचू गोपाल ने कहा, ‘यह जानता है कि चाची कि तबीयत ठीक नहीं है, इसलिए शाम को ही सो जाती है। यह क्या कम चालाक है?’

किशन के साथ मंझली बहू के आज के इस व्यवहार से कादम्बिनी को जितनी प्रसन्नता हुई, पिछले सोलह वर्षो में कभी नहीं हुई थी। अत्यधिक प्रसन्न होकर बोली, ‘अब कैसा भीगी बिल्ली की तरह खड़ा है? मंझली बहू, भला मैं कैसे जानती कि तुमने इसे अपने घर आने से मना कर दिया है। यह तो सबसे कहता फिरता है कि मंझली बहू मुझे माँ से भी बढ़कर चाहती है।’ इसके बाद उसने दोने सहित प्रसाद उठाकर दूर फेंकते हुए कहा, ‘तीन रूपये चुराकर न जाने कहाँ से दो-चार-फूल-पत्तियाँ उठा लाया है। हरामजादा चोर।’

घर ले जाकर कादम्बिनी के पति ने चोर को सजा देनी शुरू कर दी। उसे बड़ी बेरहमी से मारने लगे, लेकिन न तो उसने मुँहह से कुछ कहा, न रोया। जब इधर मारते, तो उधर मुँह फेर लेता। अत्यधिक बोझ से भरी गा़ड़ी में जुता हुआ बैल कीचड़ में फंस जाने पर जिस तरह मार खाता है, उसी तरह किशन भी चुपचाप मार खाता रहा। यहाँ तक कि कादम्बिनी तक ने इस बात को स्वीकार कर लिया कि उसने मार खाना खूब अच्छी तरह से सीखा है, लेकिन भगवान जानते हैं कि यहाँ आने से पहले उस सीधे-साधे लड़के पर किसी ने कभी हाथ तक नहीं उठाया था।

हेमांगिनी अपने कमरे की सभी खिड़कियों को बंद कर काठ की मूर्ति की तरह चुपचाप बैठी है। उमा मार देखने गई थी। उसने लौटकर कहा, ताईजी कहती हैं कि किशन मामा बड़ा डाकू बनेगा। उसके गाँव में न जाने कौन देवी है…!’

‘उमा…!’

अपनी माँ की रुंधी और फटी हुई आवाज सुनकर उमा चौंक पड़ी। उसने पास आकर डरते-डरते पूछा, ‘क्या है माँ?’

‘क्यों री, क्या अब भी उसे सब मिलकर मार रहे है?’

इतना कहकर हेमांगिनी जमीन पर मुँह के बल लोट गई और रोने लगी। उसे रोता देख उमा भी रोने लगी। फिर माँ के पास बैठकर उसके आँसू पोंछती हुई बोली, ‘प्रसन्न की माँ किशन को खींचकर बाहर ले गई हैं।’

हेमांगिनी ने और कुछ और नहीं कहा। वह चुपचाप उस जगह पड़ी रही।

दोपहर को दो-तीन बजे के लगभग उसे सर्दी लगकर बहुत ज़ोरों का बुखार चढ़ गया। आज कोई दिनों के बाद वह पथ्य लेने बैठी थी। वह पथ्य अब भी एक ओर पड़ा सूख रहा था।

शाम के बाद विपिन उस मकान से अपनी भाभी से सारा हल सुनकर क्रोध से झल्लाते हुए अपने कमरे में जा रहे थे कि उमा ने पास आकर धीरे से कहा, ‘माँ तो बुखार में बेहोश पड़ी हैं।’

विपिन ने चौंककर पूछा, ‘यह क्या हुआ? इधर तीन-चार दिन से तो बुखार था ही नहीं।’

विपिन मन-ही-मन अपनी पत्नी को बहुत चाहते हैं। कितना चाहते हैं यह तो चार-पांच वर्ष पहले ही अपने भाई और भाभी से अलग होते समय मालूम हो गया था। वह घबराये हुए कमरे में पहुँचे। देखा अभी तक हेमांगिनी जमीन पर पड़ी है। उन्होंने घबराकर पलंग पर लिटाने के लिए जैसे ही उसके शरीर पर हाथ लगाया, उसने आँखें खोल दीं। थोड़ी देर तक विपिन के चेहरे की ओर देखकर अचानक उसने उनके दोनों पैर पकड़ लिये और रोते हुए बोली, ‘किशन को आश्रय दे दो। नहीं तो बुखार नहीं छूटेगा। दुर्गा मैया मुझे किसी भी तरह क्षमा नहीं करेंगी।’

विपिन अपने पैर छुड़ाकर उसके पास बैठ गए और सिर पर हाथ फेरते हुए तसल्ली देने लगे।

हेमांगिनी ने पूछा, ‘दोगे आश्रय?’

विपिन ने उसकी आँसू भरी आँखें पोंछते हुए कहा, ‘तुम जो चाहोगी, वही होगा। तुम अच्छी हो जाओ।’

हेमांगिनी बिना कुछ कहे बिछौने पर जा लेटी। रात को बुखार उतर गया। दूसरे दिन विपिन ने उठकर देखा, बुखार नहीं है। वह बहुत प्रसन्न हुए। नहा-धोकर और जलपान करके जब वह दुकान पर जाने लगे, तो हेमांगिनी ने उसके पास आकर कहा, ‘मार पड़ने से किशन को बहुत तेज बुखार आ गया है। उसे मैं यहाँ ले आती हूँ।’

विपिन ने झल्लाकर कहा, ‘नहीं, उसे यहाँ लाने की ज़रूरत है। जहाँ है, वहीँ रहने दो।’

हेमांगिनी सन्नाटे में खड़ी रह गई। फिर बोली, ‘कल रात तो तुमने वचन दिया था कि आश्रय दोगे?’

विपिन ने उपेक्षा से सिर हिलाकर कहा, ‘वह अपना कौन है, जो उसे घर लेकर पालन-पोषण करोगी? तुम भी खूब हो।’

कल रात को अपनी पत्नी को अत्यंत बीमार देखकर जो स्वीकार किया था, आज सवेरे उसे स्वस्थ देखकर उन्होंने इंकार कर दिया। छाता बगल में दबाकर उठते हुए बोले, ‘पागलपन मत करो, भैया और भाभी दोनों चिढ़ जायेंगे।’

हेमांगिनी ने शान्त और दृढ़ स्वर में कहा, ‘वह लोग चिढ़कर क्या उसका खून कर डालेंगे? क्या मैं उस लाऊंगी, तो दुनिया में कोई उसे रोक सकेगा? मेरे दो बच्चे हैं। कल से तीन हो गए हैं। मैं किशन की माँ हूँ।’

‘अच्छा देखा जायेगा।’ कहकर विपिन जाने लगे, तो हेमांगिनी सामने आकर खड़ी हो गई और बोली, ‘क्या उसे इस घर में नहीं लाने दोगे?’

‘हटो, हटो, कैसा पागलपन करती हो,’ विपिन ने कहा और लाल आँखें दिखाकर चले गये।

हेमांगिनी ने पुकारकर शिब्बू से कहा, ‘शिब्बू जा तो एक बैलगाड़ी ले आ। मैं अपने मैके जाऊंगी।’

विपिन यह सुनकर मन-ही-मन हँस पड़े और बोले, ‘उंह, डर दिखाया जा रहा है।’ फिर वह दुकान पर चले गये।

किशन चंडी मंडप के पास एक ओर फटी चटाई पर बुखार में शरीर की पीड़ा और शायद ह्दय की पीड़ा के कारण बेहोश-सा पड़ा था।

हेमांगिनी ने पुकारा, ‘किशन…।’

किशन इस तरह उठकर खड़ा हो गया, जैसे पहले से ही तैयार था।

‘क्या मंझली बहन,’ उसने कहा और इसके साथ ही सलज्ज हँसी से उसका चेहरा चमक उठा, जैसे उसके शरीर में कोई रोग या पीड़ा है ही नहीं। वह बड़ी फुर्ती से खड़ा हो गया और अपने दुपट्टे के छोर से फटी हुई चटाई को झाड़ते हुए बोला, ‘बैठो।’

हेमांगिनी ने हाथ पकड़कर उसे कलेजे से लगा लिया और फिर बोली- ‘नहीं भैया, मैं बैठूंगी नहीं, तू मेरे साथ चल। आज तुझे मेरे साथ चलकर मुझे मैके पहुँचा आना होगा।’

‘चलो’, कहकर किशन ने अपनी टूटी हुई छड़ी बगल में दबा ली और फटा हुआ अंगोछा कंधे पर डाल लिया।

हेमांगिनी के घर के सामने बैलगाड़ी खड़ी थी। किशन को साथ लेकर हेमांगिनी बैल गाड़ी में जा बैठी।

बैलगाड़ी जब गाँव से बाहर निकल गई, तब पीछे से पुकार और चिल्लाहट सुनकर गाड़ीवान ने उसे रोक लिया। पसीने से लथपथ और लाल मुँह लिए विपिन वहाँ पहुँच गये और डरते-डरते पूछने लगे, ‘कहाँ जा रही हो?’

हेमांगिनी ने किशन की और इशारा करके कहा, ‘इसके गाँव जा रही हूँ।’

‘लौटोगी कब तक?’

हेमांगिनी ने गंभीर और दृढ़ स्वर में उत्तर दिया, ‘जब भगवान लौटायेंगे, तभी लौटूंगी।’

‘क्या मतलब?’

हेमांगिनी ने किशन की ओर हाथ उठाकर कहा, ‘इसे जब कहीं आश्रय मिल जायेगा, तभी न अकेली लौटकर आ सकूंगी? नहीं तो इसे लेकर ही रहना पड़ेगा।’

विपिन को याद आ गया कि उस दिन भी उन्होंने अपनी पत्नी के मुख पर यही भाव देखा था और ऐसे ही आवाज सुनी थी, जिस दिन मोती कुम्हार के निस्सहाय भानजे के बाग को बचाने के लिए वह अकेली ही सब लोगों के मुकाबले में खड़ी हो गई थी। उन्हें यह भी याद हो आया कि यह वह मंझली बहू नहीं है, जिसे आँखें दिखाकर किसी काम से रोका जा सके।

विपिन ने नर्मी से कहा, ‘अच्छा, अब क्षमा कर दो और घर चलो।’

हेमांगिनी ने हाथ जोड़कर कहा, ‘नहीं, तुम मुझे क्षमा कर दो। मैं काम पूरा किए बिना किसी भी तरह घर लौट नहीं सकूंगी।’

विपिन एक क्षण अपनी पत्नी के शांत लेकिन दृढ़ चेहरे की ओर देखते रहे। फिर सहसा उन्होंने झुकाकर किशन का का दायां हाथ पकड़कर कहा, ‘किशन, अपनी मंझली बहन को घर लौटा ले चल भाई! मैं सौगंध खाता हूँ कि जब तक मैं जीवित रहूंगा, तब तक दोनों भाई बहन को कोई भी अलग न कर सकेगा। चल भाई अपनी मंझली बहन को घर ले चल।’

**समाप्त**

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शरत चंद्र चट्टोपाध्याय के उपन्यास :

देवदास ~ शरत चंद्र चट्टोपाध्याय 

बिराज बहू ~ शरत चंद्र चट्टोपाध्याय 

बड़ी दीदी ~ शरत चंद्र चट्टोपाध्याय 

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