चौबीसवां बयान कुसुम कुमारी देवकीनन्दन खत्री का उपन्यास | Chaubeesva Bayan Kusum Kumari Devaki Nandan Khatri Ka Upanyas

चौबीसवां बयान कुसुम कुमारी देवकीनन्दन खत्री का उपन्यास | Chaubeesva Bayan Kusum Kumari Devaki Nandan Khatri Ka Upanyas

Chaubeesva Bayan Kusum Kumari Devaki Nandan Khatri

Chaubeesva Bayan Kusum Kumari Devaki Nandan Khatri

आज फिर रनबीरसिंह को जख्मी होकर चारपाई का सहारा लेना पड़ा और आज बेचारी कुसुम कुमारी के लिए पुनः वही मुसीबत की घड़ी आ पहुंची, जो थोड़े ही दिन पहले रनबीरसिंह के जख्मी होने की बदौलत आ चुकी थी। पहले तो कमबख्त और नकमहराम जसवंत ने फरेब देकर इन्हें जख्मी किया था, आज बालेसिंह के हाथ से जख्मी होकर तकलीफ उठा रहे हैं, मगर इस जख्म की इन्हें परवाह नहीं बल्कि एक प्रकार की खुशी है क्योंकि चोट खाने के साथ ही अपने दुश्मन से बदला ले चुके थे और उसे सदैव के लिए बेकार कर चुके थे

जिस कमरे में पहले मुसीबत के दिन काटे थे आज ये उस कमरे में नहीं है, बल्कि आज उस कमरे में चारपाई के ऊपर पड़े हैं जिसमें अपने जीवन वृत्तान्त की तसवीरें देखकर ताज्जुब में आए थे। एक सुन्दर और नर्म बिछावन वाली चारपाई पर रनबीरसिंह पड़े हुए हैं, सिरहाने की तरफ बेचारी कुसुम बैठी है, सामने की तरफ चारपाई पर बहादुर बीरसेन पड़ा हुआ है, बीच में दीवान सुमेरसिंह जो इन तीनों को अपने ही बच्चों के बराबर समझते थे, बैठे बातें कर रहे हैं और थोड़ी ही दूर पर पांच-सात कमसिन और खूबसूरत लौंडियां हाथ बांधे खड़ी हैं। इस समय दीवान साहब भी सुस्त थे क्योंकि इसके पहले के बखेड़े में, जो किले के अन्दर हुआ था जख्मी हो चुके थे, तथापि इस योग्य थे कि बैठकर इन लोगों से बातचीत कर सकते।

रात लगभग पहरभर के जा चुकी है। उस चित्रवाले विचित्र कमरे में रोशनी बखूबी हो रही है जिसकी दीवार पर की तसवीरें चारपाई पर लेटे रहने की अवस्था में भी रनबीरसिंह बखूबी देख सकते हैं। इस समय जिस तसवीर पर अपनी निगाहें दौड़ा रहे थे उसके देखने से रनबीरसिंह के चेहरे पर कुछ खुशी सी झलक रही थी।

थोड़ी देर तक सन्नाटा रहा, इसके बाद कुसुम ने दीवान साहब की तरफ देख कर कहा– कुसुम–यदि इस समय इन चित्रों के विषय में कुछ सुना जाय तो अच्छा है।

रनबीर–हां, मेरा जी भी पहले और उन भेदों का पता लगे जिनके जाने बिना जी बेचैन हो रहा है।

दीवान–हां, ठीक है, परन्तु ऐसा करने की आज्ञा नहीं है।

रनबीर–(ताज्जुब से) किसकी आज्ञा और कैसी आज्ञा?

दीवान–जिस समय राजा कुबेरसिंह और राजा इन्द्रनाथ ने इस कमरे की ताली मेरे सुपुर्द की थी उस समय अपना और इन तसवीरों का भेद अच्छी तरह समझाने के बाद मुझे ताकीद कर दी थी कि इन तसवीरों के भेद बीमारी की अथवा रंज की अवस्था में आप लोगों से कदापि न कहूं इसलिए जब मैं आपको और कुसुम कुमारी को अच्छी तरह प्रसन्न देखूंगा तभी जो कुछ कहना होगा कहूंगा।

रनबीर–(कुछ सोचकर) ठीक है, यह आज्ञा भी मतलब से खाली नहीं है, खैर।

कुसुम–मैं भी बड़ों की आज्ञा मानना उचित समझती हूं, अच्छा यदि बालेसिंह के विषय में कुछ खबर मिली हो तो कहिए।

दीवान–अभी दो घण्टे हुए होंगे एक जासूस ने खबर दी थी कि बालेसिंह दर्द से बहुत ही बेचैन है, रंज और गुस्से में और तो कुछ कर न सका केवल कमबख्त कालिन्दी की नाक काट कर उसे निकाल दिया और आप भी वहां से कूच करने की तैयारी कर रहा है।

बीरसेन–अब भी यदि यहां से न भागे तो उसकी शामत ही कहना चाहिए क्योंकि वह अपनी सजा को पहुंच चुका और अब बहादुरी दिखाने योग्य नहीं रहा।

दीवान–हां, जसवंत के मरने से वह और भी निराश हो गया।

बीरसेन–(रनबीरसिंह की तरफ इशारा करके) अहा, लड़ाई के समय इनकी बहादुरी देखने योग्य थी। मुझे तो जन्म भर ऐसा याद रहेगी जैसे आज ही की बात हो।

रनबीर–(बीरसेन से) हां, यह तो तुमने ठीक तरह से कहा ही नहीं कि जब कुसुम की खोज में यहां से निकले तो क्या-क्या हुआ और कुसुम का पता लगाने में क्या-क्या कठिनाइयां हुईं।

इसके जवाब में बीरसेन ने अपना कुल हाल अर्थात घर से निकलना, चोर दरवाजे के फाटक पर जाना, पहरेवालों की बईमानी का हाल, कालिन्दी के जेवरों का मिलना (जो उसने रिश्वत में दिए थे) और चोर दरवाजे की राह से बाहर जाना इत्यादि बयान किया। इसके बाद दीवान साहब का इशारा पाकर सब कोई वहां से चले गए और केवल बीरसेन और रनबीर उस कमरे में रह गए क्योंकि रात बहुत जा चुकी थी और उन दोनों के लिए आराम करना बहुत मुनासिब था। इस समय एक कमरे में केवल एक शमादान जलता रह गया और बाकी दीवारगीर इत्यादि की बत्तियां बुझा दी गईं।

केवल दो घड़ी रात बाकी थी जब बीरसेन की आंख खुली और उस समय उन्हें बहुत ही आश्चर्य हुआ जब रनबीरसिंह की चारपाई खाली देखी। ताज्जुब में आकर वे सोचने लगे कि है, यह क्या हुआ? रनबीरसिंह में तो उठने की भी ताकत नहीं थी, फिर चले कहां गए यदि उठने की ताकत हो भी तो उन्हें चारपाई पर से उठना उचित न था क्योंकि जख्म पर पट्टी बंधी थी और हिलने डुलने की उन्हें मनाही कर दी गई थी। आखिर बीरसेन से रहा न गया और पुकार उठे, ‘‘कोई है?’’

कमरे का दरवाजा उढ़काया हुआ था मगर उसके बाहर लौडियां बारी-बारी से पहरा दे रही थीं। बीरसेन की आवाज सुनते ही एक लौंडी दरवाजा खोलकर कमरे के अन्दर आई मगर वह भी रनबीरसिंह की चारपाई खाली देखकर घबरा गई और ताज्जुब में आकर बीरसेन की तरफ देखने लगी।

बीरसेन–(चारपाई पर बैठकर) क्या रनबीरसिंह जो बाहर गए हैं?

लौंडी–जी नहीं, या शायद उस समय बाहर गए हों जब कोई दूसरी लौंडी पहरे पर हो।

बीरसेन–पूछो और पता लगाओ।

वे सब लौंडियां बीरसेन के सामने आईं जो पहले पहरा दे चुकी थीं मगर किसी की जुबानी रनबीरसिंह के बाहर जाने का हाल मालूम न हुआ। धीरे-धीरे यह खबर महारानी कुसुम कुमारी के कान तक पहुंची और वह घबराई उस कमरे में आई। बीरसेन की जुबानी सब हाल सुनकर उसका दिल धड़कने लगा मगर क्या कर सकती थी। जो कुछ थोड़ी रात बाकी थी वह बात की बात में बीत गई बल्कि दूसरा दिन भी बीत गया मगर रनबीरसिंह का कुछ भी पता न लगा।

Prev | Next | All Chapters 

अलिफ लैला की कहानियां

चंद्रकांता देवकीनंदन खत्री का उपन्यास

रूठी रानी मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास

देवांगना आचार्य चतुर सेन शास्त्री का उपन्यास

Leave a Comment