तेईसवां बयान कुसुम कुमारी देवकीनन्दन खत्री का उपन्यास | Teisvan Bayan Kusum Kumari Devaki Nandan Khatri Ka Upanyas

तेईसवां बयान कुसुम कुमारी देवकीनन्दन खत्री का उपन्यास | Teisvan Bayan Kusum Kumari Devaki Nandan Khatri Ka Upanyas

Teisvan Bayan Kusum Kumari Devaki Nandan Khatri

Teisvan Bayan Kusum Kumari Devaki Nandan Khatri

बालेसिंह के जख्म पर जर्राहों ने दवा लगाकर पट्टी बांधी मगर वह आठ पहर तक बेहोश पड़ा रहा, इसके बाद होश में आया तरह-तरह की बातें सोचने लगा। वह अपने दिल में बहुत शर्मिन्दा था कि केवल थोड़े से सिपाहियों को साथ लेकर रनबीरसिंह ने उसे नीचा दिखाया और देखते-देखते महारानी कुसुम कुमारी को बचा ले गया। यद्यपि उसके दिल ने कह दिया था कि अब रनबीरसिंह के मुकाबले में तेरी जीत न होगी और तुझे हर तरह से नीचा देखकर यहां से लौट जाना पड़ेगा मगर वह अपने क्रोध को किसी तरह दबा न सकता था और बहुत ही खिजलाया हुआ था। इस समय जब कि उसमें उठने की सामर्थ्य बिलकुल न थी वह कर ही क्या सकता था? हां, चारों तरफ ध्यान दौड़ाने पर उसे कालिन्दी का खयाल आया जिसे हिफाजत से रखने के लिए अपने आदमियों के सुपुर्द कर चुका था। उसने कालिन्दी को अपने सामने तलब किया और बिना कुछ कहे या पूछे एक आदमी को हुक्म दिया कि इस औरत की नाक काट लो और छोड़ दो, जहां जी आवे चली जाए।

इसके बाद वालेसिंह क्या करेगा और अपना क्रोध किस पर निकालेगा सो जिक्र छोड़ कर हम इस जगह कालिन्दी का कुछ हाल लिखते हैं।

कालिन्दी जिसे अपने रूप पर इतना घमंड था आज नकटी होकर कुरूपा स्त्रियों की पंक्ति में बैठने योग्य हो गई। उसे बहुत ताज्जुब था कि बालेसिंह ने मेरे साथ ऐसा बर्ताव क्यों किया, मगर वह इसका सबब कुछ पूछ न सकी और उस समय जान बचाकर वहां से निकल जाना ही उसने उचित जाना। इस समय जब कि उसे नकटी करके बालेसिंह ने निकाल दिया था, रात लगभग दो घंटे के जा चुकी थी। रोती और अपने किए पर अफसोस करती वह नमकहराम औरत नाक पर कपड़ा रखे बालेसिंह के लश्कर से बाहर निकली और सीधी पूरब की तरफ चल निकली। इस समय कोई उसका यार और मददगार न था, बल्कि यों कहना चाहिए कि उसे खाने तक का ठिकाना न था, क्योंकि वह अपने जेवर भी चोर दरवाजे के पहरे वालों को रिश्वत में दे चुकी थी और अब केवल एक मानिक की अंगूठी उसकी उंगली में रह गई थी। वह केवल एक मामूली साड़ी पहने हुए थी, जो मर्दानी पोशाक बदलने के लिए कमबख्त जसवंत ने उसे दी थी और असल में वह जसवंत की ही धोती थी।

उदास और अपने किए पर पछताती हुई कालिन्दी को यकायक ख्याल आया कि और कोई तो महारानी के डर से मुझे अपने घर में घुसने न देगा मगर यहां से दो कोस की दूरी पर हरिहरपुर मौजे के जमींदार की लड़की जमुना मेरी सखी है और मुझे बहुत चाहती है, शायद वह मेरी कुछ मदद कर सके तो ताज्जुब नहीं, अस्तु इस समय उसी के पास चलना उचित है। कालिन्दी यही सोचती चली जा रही थी मगर हरिहरपुर का रास्ता उसे मालूम न था, वह बिलकुल ही नहीं जानती थी कि मेरी सखी का घर किधर है और किस राह से जाना होगा, हां, इतना जानती थी कि एक नदी रास्ते में पड़ेगी। कालिन्दी के नाक से अभी तक खून जारी था और दर्द से उसका जी बेचैन हो रहा था।

थोड़ी ही देर में एक नदी के किनारे पहुंची और उस समय उसे मालूम हुआ कि उसके पीछे-पीछे कोई आ रहा है। कालिन्दी ने घूमकर देखा तो दो आदमियों पर निगाह पड़ी। रात अंधेरी थी और कालिन्दी भी घबराई हुई थी इसलिए उन आदमियों की सूरत शक्ल के विषय में वह विशेष ध्यान न दे सकी बल्कि डर के मारे कांपने लगी और खड़ी हो गई। उस समय वे दोनों आदमी भी रुके और एक ने आगे बढ़ के कालिन्दी से कहा, ‘‘डरो मत, मैं खूब जानता हूं कि तुम्हारा नाम कालिन्दी है और तुम इस समय नदी के पार जाना चाहती हो, मगर बिना डोंगी के तुम नदी के पार नहीं जा सकती हो। हम दोनों आदमी मल्लाह हैं, यहां से थोड़ी ही दूर पर हमारी डोंगी है उस पर सवार करा के तुमको नदी के पार उतार देंगे।’’ इतना कहकर उसने अपने साथी की तरफ देखा और कहा, ‘‘जाओ, डोंगी इसी जगह ले आओ।’’

कालिन्दी–(डरी हुई आवाज में) तुमने कैसे जाना कि मैं पार जाऊंगी और बिना मुझसे पूछे अपने साथी को डोंगी लाने के लिए क्यों भेज दिया?

मल्लाह–मुझे खूब मालूम है कि आप पार उतरेंगी और इस पार रहना आपके लिए अच्छा भी नहीं है।

कालिन्दी ने इस बात का कुछ भी जवाब न दिया और चुपचाप खड़ी रहकर नदी की तरफ देखती रही। थोड़ी ही देर मे वह दूसरा मल्लाह डोंगी को लिए हुए उसी जगह आ पहुंचा। सोचती-विचारती कालिन्दी उस डोंगी पर सवार हुई और आंचल से थोड़ा-सा कपड़ा फाड़ कर पानी से तर करके अपनी नाक पर पट्टी बांधी। एक मल्लाह खेने लगा और दूसरा चुपचाप बैठ गया।

यद्यपि कालिन्दी दोनों मल्लाहों से डरी हुई थी परन्तु उसे आशा थी कि दोनों मल्लाह उसे नदी के पार पहुंचा देंगे, लेकिन ऐसा न हुआ, क्योंकि जब डोंगी नदी के बीचोबीच में पहुंची तो मल्लाहों ने खेवा मांगा।

कालिन्दी–मेरे पास तो कुछ भी नहीं है, खेवा कहां से दूं।

मल्लाह–(डोंगी को बहाव की तरफ ले जाकर) खेवे की लालच से तो तुम्हें पार उतारते हैं, जब तक खेवा न ले लेंगे पार न जाएंगे।

कालिन्दी–तो डोंगी बहाव की तरफ क्यों लिए जाते हों?

मल्लाह–खेवा वसूल करने की नीयत से?

कालिन्दी–जब मेरे कुछ हुई नहीं है तो खेवा कहां से देंगे?

मल्लाह–कोई जेवर हो तो दे दो।

कालिन्दी–जेवर भी नहीं है।

मल्लाह–जेवर भी नहीं है तो चुपचाप बैठी रहो, जहां हमारा जी चाहेगा तुम्हें ले जाएंगे और जिस तरह से हो सकेगा, खेवा वसूल करेंगे।

मल्लाह की आखिरी बात सुनते ही कालिन्दी सुस्त हो गई और डर के मारे कांपने लगी। उसे निश्चय हो गया कि ये लोग बदमाश हैं और मुझे तंग करेंगे। जैसे-जैसे डोंगी बहाव की तरफ तेजी के साथ जा रही थी, कालिन्दी के कलेजे की धड़कन ज्यादे होती जाती थी। आखिर बहुत मुश्किल से अपने को सम्हाला और वह मानिक की अंगूठी जो उसकी बची-बचाई पूंजी थी और इस समय उसकी उंगली में थी उतारकर एक मल्लाह की तरफ बढ़ाती हुई बोली, ‘‘अच्छा यह एक अंगूठी मेरे पास है, इसे ले लो और मुझे बहुत जल्द पार उतार दो।’’ इसके जवाब में मल्लाह (जो चुपचाप बैठा हुआ था) ‘‘बहुत अच्छा’’ कहके उठा और अंगूठी अपने हाथ में लेकर कालिन्दी के सामने खड़ा हो गया।

कालिन्दी–अब खड़े क्यों हो? किश्ती पार ले चलो।

मल्लाह–अब केवल इसलिए खड़े हैं कि तुझ कमबख्त को अपना परिचय दे दें।

कालिन्दी–(घबड़ा कर) परिचय कैसा?

मल्लाह ने एक चोर लालटेन जिसे अपने बगल में छिपाये हुए था, निकाली और उसके मुंह पर से ढकना हटा के उसकी रोशनी अपने चेहरे पर डाली। उसका चेहरा देखते ही कालिन्दी चिल्ला कर उठ खड़ी हुई और घबड़ा कर पीछे हटती-हटती बेहोश होकर गिर पड़ी।

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