पच्चीसवां बयान कुसुम कुमारी देवकीनन्दन खत्री का उपन्यास | Pachcheesva Bayan Kusum Kumari Devaki Nandan Khatri Ka Upanyas

पच्चीसवां बयान कुसुम कुमारी देवकीनन्दन खत्री का उपन्यास | Pachcheesva Bayan Kusum Kumari Devaki Nandan Khatri Ka Upanyas

Pachcheesva Bayan Kusum Kumari Devaki Nandan Khatri

Pachcheesva Bayan Kusum Kumari Devaki Nandan Khatri

सुबह का सुहावना सभा समां के लिए एक सा नहीं होता। यद्यपि आज ही सुबह उन लोगों के लिए जी हर तरह से खुश है सुखदाई है परन्तु उस होनहार जवांमर्द की सुबह दुःखदाई जान पड़ती है जिसका नाम रनबीरसिंह है और जिसका हाल सब इस बयान में हम लिखेंगे।

पारिजात के घने जंगल में एक पेड़ के नीचे रनबीरसिंह अपने को कोमल पत्तों के बिछावन पर पड़े हुए पाते हैं। सुबह की ठंडी-ठंडी हवा ने उनको जगा दिया है और वे ताज्जुब भरी निगाहों से चारों तरफ देख रहे हैं और जब अपने यकायक यहां आने का सबब नहीं मालूम होता तो यह सोचकर फिर आंखें बन्द कर लेते हैं कि अवश्य यह निद्रा की अवस्था है और मैं स्वप्न देख रहा हूं। जागने की बनिस्बत स्वप्न का भ्रम जो उन्हें विशेष हो रहा है इसका एक सबब यह भी है कि उनके जख्मों पर यद्यपि अभी तक पट्टी बंधी हुई है मगर दर्द की तकलीफ बिलकुल नहीं है। कल तक उनके जख्मी हाथ में ताकत बिलकुल न थी परन्तु इस समय उसे बखूबी हिला-डुला सकते हैं, कमजोर बदन में इस समय ताकत मालूम होती है, और वे अपने को बखूबी चलने-फिरने के लायक समझते हैं।

जख्मी आदमी की अवस्था थोड़ी ही देर में यकायक इस तरह नहीं बदल सकती, इस बात को सोचकर उन्होंने दिल में निश्चय कर लिया कि यह स्वप्न है और फिर आंखें बन्द कर लीं। मगर थोड़ी देर तक चुपचाप पड़े रहने के बाद फिर आंखे खोलकर उठ बैठे और अचम्भे में आकर चारों तरफ देखते हुए धीरे-धीरे बोलने लगे–

‘‘ओफ, इस स्वप्न से किसी तरह छुट्टी नहीं मिलती। क्या जाने वास्तव में यह स्वप्न है भी या नहीं। (अपने हाथ में चिकोटी काटकर) नहीं-नहीं, यह स्वप्न नहीं है, और देखो पहले जब आंख खुली थी तो पूरब तरफ सूर्य की केवल लालिमा दिखाई देती थी परन्तु इस समय धूप अच्छी तरह निकल आई है। यद्यपि गुंजान पेड़ों के सबब से पूरी धूप यहां तक नहीं पहुंचती केवल बुन्दकियों का मजा दिखा रही है तथापि कुछ गर्मी मालूम होती है। (खड़े होकर और दो-चार कदम टहलकर) नहीं-नहीं-नहीं, यह स्वप्न कदापि नहीं है, मगर आश्चर्य की बात है कि यकायक मैं यहां क्योंकर आ पहुंचा और मेरे कमजोर तथा जख्मी बदन में चलने-फिरने की सामर्थ्य कहां से आ गई। (जख्म पर बंधी हुई पट्टियों की तरफ देखकर) ये पट्टियां वह नहीं हैं जो कुसुम के जर्राह ने लगाई थी, बेशक किसी ने बदली है। (एक पट्टी खोलकर) वह मरहम भी नहीं है, यह तो किसी किस्म की घास पीसकर लगाई हुई है। आश्चर्य आश्चर्य! ईश्वर ने जड़ी-बूटियों में भी क्या सामर्थ्य दी है। जख्म बिलकुल ही मुंद गए हैं मगर मालूम नहीं एक ही दिन में यह बात हुई है या कई दिनों में? आज ही यहां आया हूं या कई दिन से इस जर्मी पर पड़ा हूं? मुझे यहां कौन लाया? यद्यपि मेरी बीमारी तो दूर हो गई परन्तु यह नेकी करने वाले ने मुझे एक उससे भी बड़ी बीमारी में डाल दिया। वह बीमारी कुसुम की जुदाई की है। जख्मों में दवा लगाने के बदले यदि नमक पीसकर डाल दिया जाता तो इतनी तकलीफ न होती जितनी कुसुम की जुदाई से हो रही है, इसीलिए कुछ समझ में नहीं आता कि मैं इसे नेकी कहूं या बदी? यह लो, दाहिनी आंख भी फड़क रही है। लोग इसे अच्छा कहते हैं मगर मैं क्यों कर अच्छा कहूं और कैसे समझूं कि किसी तरह की खुशी मुझे होगी? मैं अपनी तमाम खुशी कुसुम की खुशी के साथ समझता हूं। इस समय उसकी जुदाई में तो अधमुआ हो ही रहा हूं मगर मुझे खोकर वह भी बहुत ही पछताती होगी। हाय, उस आदमी की सूरत भी नहीं दिखाई देती जो उस किले के अन्दर से मुझे इस तरह उठा लाया कि किसी को कानोंकान खबर तक न हुई। वह कौन है? (जोर से) यहां अगर कोई है तो मेरे सामने आवे!

मगर रनबीरसिंह की बात का किसी ने कोई जवाब न दिया, वे और भी घबराए और सोचने लगे कि अब बिना इधर-उधर घूमे कुछ काम न चलेगा, कोई मिले तो उससे पूछूं कि तेजगढ़ किधर और यहां से कितनी दूर है। अफसोस इस समय मेरे पास कोई हर्बा भी नहीं है। यदि किसी दुश्मन से मुलाकात हो जाए तो मैं क्या कर सकूंगा?

यकायक रनबीरसिंह की निगाह एक लिखे हुए कागज पर जा पड़ी जो उस पेड़ के साथ चिपका हुआ था जिसके नीचे कोमल पत्तों के बिछावन पर उन्होंने अपने को पाया था। पास जाकर देखा तो यह लिखा हुआ था–‘‘उसको मत भूलो जिसने तुमको सब योग्य बनाया। पश्चिम की तरफ जाओ, जहां तक जा सको। दोस्त और दुश्मनों से होशियार रहो।’’

इसके पढ़ने से एक नई फिक्र पैदा हुई क्योंकि उस कागज में पश्चिम तरफ जाने की आज्ञा के साथ ही दोस्त और दुश्मनों से अपने को बचाने के लिए ध्यान दिलाया गया था। थोड़ी देर तक तो खड़े-खड़े कुछ सोचते रहे, अन्त में यह कहते हुए पश्चिम तरफ को चल निकले कि–जो होगा देखा जाएगा।

लगभग आध कोस के जाने के बाद उन्हें पत्ते की एक झोंपड़ी दिखाई पड़ी जिसके आगे की जमीन बहुत साफ और सुथरी थी। छोटे-छोटे जंगली मगर खुशनुमा पेड़ों को लगाकर छोटा-सा बाग भी बनाया हुआ था जिसके बीच में एक साधु धूनी लगाए बैठा था, जिसने रनबीरसिंह को देखते ही पुकारा और कहा, आओ रनबीर, मैं मुबारकवाद देता हूं कि तुम दुश्मन के हाथ से बच गए।

रनबीर–(पास जाकर और दण्डवत करके) मेरी समझ में न आया कि आपने किस दुश्मन की तरफ इशारा करके मुझे मुबारकवाद दी?

साधु–(आशीर्वाद देकर) आओ मेरे पास बैठ जाओ, सब कुछ मालूम हो जाएगा।

रनबीर–(बैठकर और हाथ जोड़कर) क्या आप अपना परिचय मुझे दे सकते हैं?

साधु–हां, परन्तु आज नहीं इसके बाद मैं एक दफे तुमसे और मिलूंगा तब अपना हाल कहूंगा। इस समय जो जरूरी बातें मैं कहता हूं उसे ध्यान देकर सुनो।

रनबीर–आज्ञा कीजिए, मैं ध्यान देकर सुनूंगा।

रनबीरसिंह के ऊपर उस साधु का रोब छा गया। दमकता हुआ चेहरा कहे देता था कि साधु महाशय साधारण नहीं हैं बल्कि तपोबल की बदौलत अच्छे दर्जे को पहुंच चुके हैं। उनकी अवस्था चाहे जो हो परन्तु सिर और दाढ़ी के बाल चौथाई से ज्यादे सफेद नहीं हुए थे, और रनबीरसिंह गौर करने पर भी नहीं समझ सकते थे कि इन साधु महाशय की इज्जत और मुहब्बत उनके दिल में ज्यादे क्यों होती जा रही है।

साधु–मैं समझता हूं कि तुम्हें इस समय जख्मों की तकलीफ न होगी और उस अनमोल बूटी ने तुम्हें बहुत कुछ फायदा पहुंचाया होगा, जो तुम्हारे जख्मों पर बांधी गई थी।

रनबीर–बेशक अब मुझे किसी तरह की तकलीफ नहीं है। मालूम होता है कि यह कृपा आप ही की तरफ से हुई है?

साधु–इसका जवाब मैं अभी नहीं दे सकता। हां, अब सुनो मैं क्या कहता हूं। कुसुम बेशक तुम्हारी है क्योंकि उसके साथ तुम्हारी शादी हो चुकी है, परन्तु तेजगढ़ उसकी अमलदारी है इसलिए तुम स्त्री की अमलदारी में रह के और वहां हुकूमत करके जमाने के आगे इज्जत नहीं पा सकते। बेशक उससे जुदा होने का रंज तुम्हें होगा, परन्तु इस समय उसका ध्यान भुला देना चाहिए। तुम्हें वह दिन याद होगा जिस दिन तुम्हारा बाप राजा इन्द्रनाथ अपना राज अपने मित्र नारायणदत्त को देकर आजाद हुआ था और तुम्हें उसके सुपुर्द करके साधु हुआ था।

रनबीर–जी हां, वह बात मुझे बखूबी याद है, परन्तु ऐसा करने का सबव मैं कुछ नहीं जानता।

साधु–इसके कई सबब हैं जो पीछे मालूम होंगे, उनमें से एक सबब यह भी है कि बेईमान कर्मचारियों ने उन्हें कई दफे जहर दे दिया था जिससे उन्हें राज्य से घृणा हो गई थी, तथापि उन्होंने जो कुछ किया अच्छा किया। आज इतना समय नहीं है कि मैं उनका खुलासा हाल तुमसे कहूं बल्कि मैं समझता हूं कि बहुत कुछ हाल दीवान सुमेरसिंह ने तुमसे उन चित्रों को दिखाकर कहा होगा, जो कुसुम के खासमहल में एक कमरे के अन्दर दीवारों पर बनें हुए हैं।

रनबीर–बेशक उन चित्रों ने मेरी आंखें खोल दी थी परन्तु दीवान साहब की जुबानी उनका हाल सुनने का मौका न मिला क्योंकि पहले दिन जब दीवान साहब उन तसवीरों की तरफ इशारा करके खुलासा हाल कहने लगे तभी कुसुम पर आफत आ गई जिसके…!

साधु–हां, हां, उसका हाल मुझे मालूम है, अपना बयान जल्द खतम करो।

रनबीर–दूसरे दिन जब दीवान साहब से उन तसवीरों का हाल मैंने पूछा तो उन्होंने यह कहकर टाल दिया कि बीमारी अथवा रंज की अवस्था में इन तसवीरों का हाल कहने की आज्ञा नहीं है।

साधु–दीवान ने बहुत अच्छा किया, खैर, सुनो इस समय मेरी आज्ञानुसार तुम्हें एक जरूरी काम करना होगा जिससे तुम इनकार नहीं कर सकते और न उस काम को किए बिना तुम दुनिया में खुशी और नेकनामी के साथ रह सकते हो।

रनबीर–मैं समझता हूं कि कुसुम के महल से यकायक मेरा यहां पहुंचना आप ही के सबब से हुआ?

साधु–(कुछ चिढ़कर) इन सब बातों को तुम अभी मत पूछो क्योंकि मैं तुम्हारी इन बातों का जवाब न दूंगा। अच्छा पहले इस कागज को देखो और पढ़ो फिर जो कुछ मैं कहूं उसे करो।

इतना कह कर साधु ने धूनी के बगल की जमीन खोदी और वहां से कागज का एक छोटा-सा मुट्ठा निकालकर रनबीरसिंह के हाथ में दिया। रनबीरसिंह ने उसे खोला और पढ़ना शुरू किया। सबके ऊपर एक तसवीर थी और उसके नीचे कुछ लिखा हुआ था। रनबीरसिंह उस कागज को पढ़ते जाते थे और आंखों से आंसू की बूंदे गिरा रहे थे, यहां तक कि कागज खतम करते-करते तक हिचकी बंध गई और अन्त में कागज जमीन पर रखकर साधु महाराज के पैर पर गिर कर बोले, ‘‘बस अब सिवाय आपके बदनामी का टीका मेरे सर से छुड़ाने वाला और कोई भी नहीं है।’’

साधु ने रनबीर को जमीन पर से उठकर गले से लगाया और कहा, ‘‘घबराओ मत, आज दोपहर बाद तुम्हें अपने साथ लेकर मैं रवाना हो जाऊंगा।’’

साधु महाशय इतना कहकर उठ खड़े हुए और रनबीर को बैठे रहने के लिए ताकीद करके जंगल में चले गए। थोड़ी देर बाद वे एक बूटी हाथ में लिए हुए आ पहुंचे जिसके जड़ का हिस्सा तोड़कर रनबीर को खाने के लिए दिया और पत्तियां मलकर उसका पानी रनबीर के जख्मों में लगाने के बाद बोले, ‘‘अब तुम्हें जख्म की तकलीफ बिलकुल न रहेगी और चलने तथा लड़ने की ताकत भी आ जाएगी।’’ घंटे भर बाद कुटी के अन्दर से दो-चार फल लाकर रनबीर को खिलाया और पानी पिलाया। दोपहर होते-होते उन्हें अपने साथ चलने के लिए कहा और वह कागज का मुट्ठा जो रनबीर को पढ़ने के लिए दिया था। जंगल में रनबीर के सामने ही एक पेड़ के नीचे गाड़ दिया।

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