चैप्टर 6 रूठी रानी मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास

Chapter 6 Ruthi Rani Novel By Munshi Premchand

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रानी फिर रूठ गई

राव जी मारे खुशी के फूले नहीं समाते। प्रेमिका के इंतजार में घड़ियाँ गिन रहे हैं। राजमहल सजाया जा रहा है। नाचने-गानेवालियाँ जमा हो गईं। गाना हो रहा है। शराब का दौर चल रहा है। उमादे को बुलाने के लिए लौंडी पर लौंडी भेजी जा रही हैं। मगर अभी तक रानी का बनाव सिंगार पूरा नहीं हुआ। मांग में मोती भरे जा रहे हैं। चोटी गूंथी जा रही है। प्रसाधिका उसे परी बना देने की कोशिश कर रही हैं उसका जी अभी तक राव जी की तरफ झुका नहीं हैं। खुद्दारी अलग दामन खींच रही है, दिल अलग मचल रहा है। अभी तक जो पशोपेश में है कि जाऊं या न जाऊं। तबियत किसी बात पर नहीं जमती।

कैसे जाऊं, कौन-सा मुँह लेकर जाऊं, कहीं वह यह न ख्याल करने लगें कि आखिर झक मार के आयीं। नहीं, नहीं मेरा जाना मुनासिब नहीं। मगर बात हार चुकी हूँ। न जाऊंगी तो झूठी ठहरूंगी। वह इसी सोच-विचार में थी कि फिर बुलावा आया। उमा, ने भारीली से कहा– ‘‘तू जाकर कह दे आते-आते आएंगी क्या ऐसी जल्दी है?’’ भारीली यह सुनकर सहम गयी। कांपते हुए बोली– ‘‘बाई जी, क्या अंधेर करती हो। मुझे क्यों भेजती हो। क्या और खवासें नहीं हैं?’’

उमादे ने कहा– ‘‘कोई हर्ज नहीं ! यह जवाब देकर जल्दी से चली आना वहां ठहरना नहीं। तुझे फिर मेरे साथ चलना होगा।’’

लाचार होकर भारीली गई, राव जी की नजर ज्योंही उस पर पड़ी वह रानी को भूल गए। उसका हाथ पकड़कर बिठा लिया। वह बहुत कहती रही कि जो मैं कहने आयी हूँ, उसे सुनिए और मुझे जाने दीजिए नहीं तो रंग में भंग पड़ जाएगा। राव जी बोले, ‘‘कुछ नहीं होगा। तू झूठमूठ डरती है। भट्टानी ने तुझे मेरे दिलबहलाव के लिए ही भेजा है। जब तक वह न आएं तू यहीं रह, फिर चली जाना।’’

राव जी शराब के नशे में चूर, भारीली से चिपटे जाते हैं, अपनी धुन में न उसकी बात सुनते हैं, न उसे जाने देते हैं। यहां तक कि नाचने-गानेवालियां भी महफिल का रंग देखकर वहां से खिसक जाती हैं।

थोड़ी देर के बाद रानी उमादे बनाव-सिंगार किए आयीं तो देखा राव जी भारीली को लिए बैठे हैं। उसी दम उलटे-कदम वापस हुईं। जी में कहा, अच्छा हुआ, मैं भी यही चाहती थी कि मेरी आन हाथ से न जाने पाए।

उधर भारीली ने ज्यों ही रानी को देखा, घबराकर उठी और खिड़की से नीचे कूद पड़ी। वहां बाघा नाम का संतरी पहरे पर था। जेवर की झनक सुनकर चौकन्ना हुआ, ऊपर को देखा तो भारीली नीचे गिर रही है। लपककर उसे बचा लिया और उससे पूछने लगा– ‘‘तू कौन है, परिस्तान की परी है या इन्दर के अखाड़े की हूर?’’

भारीली ने उंगली होंठों पर रखकर कहा– ‘‘चुप ! अपनी जान की खैर चाहता है, तो अभी मुझे यहां से निकाल ले चल। नहीं तो हम-तुम दोनों मारे जाएंगे।’’

बाधा ने कहा– ‘‘मैं राव जी का नौकर हूँ, बिना आज्ञा यहाँ से हिल नहीं सकता। पहरा पूरा कर लूं, तब जो कुछ तू कहेगी, वह करूंगा।’’

भारीली ने गिड़गिड़ाकर कहा– ‘‘इस वक्त तू मुझे अपने डेरे पर पहुँचा दे, फिर जैसा होगा, देखा जाएगा।’’

बाघा का डेरा ईश्वरदास के पास ही था। चारण जी ने ज्योंही उसे देखा, पहचान गए। झटपट राव जी के पास पहुंचे। वह घबराए हुए बैठे थे। सब नशा हिरन हो गया था। ईश्वरदास को देखते ही बहुत उदास होकर बोले– ‘‘मेरे हाथों से तो दोनों तोते उड़ गए।’’

ईश्वरदास– ‘‘उनमें से एक तो उड़ जाने के काबिल था, उसका क्या अफसोस। बाघा सिपाही से फरमाएं कि उसे इसी दम जैसलमेर पहुंचा आवे, नहीं तो दूसरा तोता भी कभी आपके हाथ न आएगा।’’

राव जी– ‘‘अगर आपकी यही मर्जी है तो बाघा से जो चाहे कह दीजिए।’’

ईश्वरदास ने उसी वक्त जाकर भारीली को एक सांडनी पर सवार कराके बाघा की हिफाजत में जैसलमेर की तरह रवाना कर दिया और वापस आकर राव जी को सूचना दी।

राव जी– ‘‘अब तो भट्टानी राजी होंगी?’

ईश्वरदास– ‘‘यह मैं नहीं कह सकता क्योंकि आप उनका मिजाज जानते हैं।’’

राव जी– ‘‘इसी डर से तो मैं उनके पास गया नहीं। आप जाकर देखिए अगर हो सकते तो मना लाइए।’’

ईश्वरदास– ‘‘अब उनका आना बहुत मुश्किल है, पर मैं जाता हूँ।’’

ईश्वरदास ने जाकर देखा राजमहल सूना पड़ा है और रानी बुर्ज में जा बैठी हैं। खवासों ने सफेद चांदनी टांगकर परदा कर दिया है, लौडियां-बांदियां पहरे पर हैं, पर्दें के पास दो नौकरानियां नंगी तलवारें लिए खड़ी हैं।

ईश्वरदास की हिम्मत न हुई कि नजदीक जाए, दूर से ही देखकर लौट आया और राव से सब माजरा सुनाया।

राव जी– (झुंझालाकर) ‘‘क्या भट्टानी जी बुर्ज में जा बैठीं? यह क्या हरकत की?’ ईश्वरदास– ‘‘शायद उस बुर्ज के भाग्य जागने वाले थे। आज वहाँ वह रौनक है जो कभी पृथ्वीराज चौहान के तख्त को भी नसीब न हुई। चांदनी का पर्दा पड़ा है, नंगी तलवारों का पहरा है। मेरी तो वहाँ जाने की हिम्मत न पड़ी और क्या अर्ज करूं।’’

राव जी– (आश्चर्य से) ‘‘क्या सचमुच नंगी तलवारों का पहरा है?’’

ईश्वरदास– ‘‘जी हां, महाराज यकीन न हो, तो खुद चलकर देख लीजिए।’’

राव जी– ‘‘तब तो उनका मानना बिल्कुल नामुमकिन है।’’

ईश्वरदास– ‘‘हुजूर ठीक कहते हैं। रानी ने मुझसे पहले ही शर्त करवा ली थी। आपने बड़ा गजब किया कि ऐसे नाजुक मामले में उनके मिजाज के खिलाफ काम किया। जब एक बार ऐसी हरकत का बुरा तजुर्बा आपको हो चुका था दूसरी बार जरूर होशियार होना चाहिए था। रानी की तरफ से भी कुछ गलती हुई, उन्हें भारीली को ऐसे मौके पर भेजना मुनासिब न था। मगर जहां तक मेरा ख्याल है आपकी तरफ से उनके दिल में संदेह था और सिर्फ आपकी परीक्षा के लिए उन्होंने भारीली को भेजा था।’’

राव जी– ‘‘होनहार नहीं टलती। मैं भी बहुत पछताता हूँ। पहली बार भी भारीली ही की बदौलत बिगाड़ हुआ था।’’

ईश्वरदास– ‘‘खैर, वह तो किसी तरह से दूर हुई, बला टली।’’

राव जी– ‘‘इसका भी मुझे अफसोस ही रहेगा। उस बेचारी की कोई खता न थी।’’

ईश्वरदास– (बात काटकर) ‘‘अभी तो भट्टानी जी दो-चार दिन तक महल आती नहीं दिखाई देतीं, उनके लिए क्या इंतजाम किया जाए?’’

राव जी– ‘‘मैं तो कल चला जाऊंगा। मुझे बीकानेर पर चढ़ाई करनी है। यहां का जो कुछ इन्तजाम मुनासिब था, पहले ही कर दिया है। हुमायूं बादशाह के आने की खबर थी, वह भी नहीं आया। फिर बेकार वक्त क्यों बर्बाद करूं? तुम यहाँ रहो और उस बुर्ज के पास कनातें खड़ी करवा के पहरे-चौकी का पूरा-पूरा बन्दोबस्त करो। जब बाई जी का मिजाज जरा धीमा हो तो समझा-बुझाकर जोधपुर ले आना। मैं किलेदार से कह दूंगा वह सब इंतज़ाम कर देगा।’’

राव जी यह कहकर दूसरे दिन अजमेर के लिए रवाना हो गए। दीवान ने उनके हुक्म से रामसिर परगना रानी उमादे की जागीर में लिखकर पट्टा उनके पास भेज दिया। अब अजमेर में रानी की अमलदारी है। किलेदार उसकी ड्योढ़ी पर पहरे और कनात का इंतजाम करके रोज शाम-सवेरे सलाम को हाजिर होता है। अजमेर का फौजदार रोज रानी की ड्योढ़ी पर मुजरे के लिए आता है और उसी की सलाह और हुक्म से अपना काम करता है। उमादे का नाम अब ‘रूठी रानी’ मशहूर हो गया है। वह बुर्ज भी अब ‘रूठी रानी का बुर्ज’ कहलाने लगा है और आज तक इसी नाम से मशहूर है।

जोधपुर पहुँचकर राव मालदेव ने सुना कि बंगाल में हुमायूं और शेरशाह से लड़ाई छिड़ गई और दिल्ली-आगरा खाली पड़ा है। लिहाजा इस वक्त उन्होंने बीकानेर का ख्याल छोड़ दिया और पूरब की तरफ लौट पड़े और हिन्दुन बयाना तक फतेह करते चले गए। वहाँ से लौटकर संवत् १५९२ में बीकानेर भी जीत लिया।

इस बीच शेरशाह हुमायूं को सिंध में भगाकर आगरा पहुँचा। उसके आते ही वे सब राजे, रईस, ठाकुर, जिनके इलाके मालदेव ने दबा लिए थे, बीकानेर की सरपरस्ती में शेरशाह के दरबार में फरियाद के लिए हाजिर हुए और उसे राव पर हमला करने के लिए आमादा करने लगे। मालदेव भी बेखबर न था। अस्सी हजार सवार शेरशाह के मुकाबले के लिए इकट्ठे किए और ईश्वरदास को लिखा कि आप रूठी रानी को लेकर चले आइए और अजमेर के किले में जंगी बन्दोबस्त करा दीजिए।

रूठी रानी ने इस पर कहा– ‘‘मुझे क्या डर पड़ा है? मैं राजपूत की बेटी हूं। किले पर कोई चढ़ आएगा तो मैं कुरमेती हांडी (कुरमेती हांडी महाराणा सांगा की रानी और उदयसिंह की माँ थी। जब गुजरात के बादशाह सुलतान बहादुर ने संवत् १५६१ में चित्तौड़ का किला जीता, तो कुरमेती बहत्तर हजार औरतों के साथ आबरू बचाने के लिए चिता बनाकर जल मरी) की तरह लड़कर मरूंगी। राव जी को लिख दो कि यह किला मेरे भरोसे पर छोड़ दें और बाकी राज्य को बचाने का इंतज़ाम करें।’’

राव जी ने जवाब दिया– ‘‘अजमेर में, तो हम शेरशाह से लड़ेंगे। वहां रानी का रहना मुनासिब नहीं। अगर उन्हें ऐसा ही राजपूती दिखाने की इच्छा है, तो जोधपुर का किला हाजिर है। हम उसे बिल्कुल उन्हीं के भरोसे पर छोड़ देंगे। उनको बहुत जल्द लाओ।’’

ईश्वरदास ने तब रानी से कहा– ‘‘बाई जी, महाराज को आपकी बात मंजूर है, मगर अजमेर के बदले जोधपुर का किला आपको सौंपा जाएगा। आप वहाँ तशरीफ ले चलिए। वह अपना घर है। अजमेर तो परायी जायदाद है, थोड़े ही दिनों से हमारे कब्जे में आया है।’’ रानी ने कहा– ‘‘बहुत खूब ! जो राव की मर्जी हो, अजमेर न सही, जोधपुर सही। सवारी का इन्तजाम करो। अगर यह मौका न आता तो मैं यहाँ से हरगिज न जाती।’’

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