चैप्टर 5 रूठी रानी मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास

Chapter 5 Ruthi Rani Novel By Munshi Premchand

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मनाने की कोशिशें

दूसरे साल राव मालदेव ने अपने राज्य में दौरा करना शुरू किया और घूमते हुए अजमेर जा पहुँचे। वहाँ कुछ दिनों तक किले में उनका कयाम रहा, जो किसी जमाने में बीसलदेव और पृथ्वीराज जैसे प्रतापी महाराजों के स्वर्ण सिंहासन से सुशोभित होता था। राव जी को इस किले पर राज करने का बहुत गर्व था। एक रोज इतराकर अपनी चौहानी रानियों से कहने लगे– ‘‘इसे खूब अच्छी तरह देख लो। यह तुम्हारे बुजुर्गों की राजधानी है।’’

चौहान रानियों को यह व्यंग्यात्मक वाक्य बहुत बुरा लगा। राव जी राठौर थे। भला चौहान किसी राठौर की जबान से ऐसी बात सुनकर क्यों कर जब्त कर सकता? दोनों खानदानों में शादी-ब्याह होता था मगर वह पुरानी शत्रुता दिलों में साफ न हुई थीं। चुनांचे मियां– बीबी में भी बहुत बार आपस में कड़ी-कड़ी बातों की नौबत आ जाती थी।

रानियों ने जवाब दिया– ‘‘आप हमारे मालिक हैं, हम आपके मुंह नहीं लग सकते। मगर हमारे बड़े जैसे थे, उन्हें आपके बड़े ही खूब जानते होंगे।’’

यह जवाब राव जी के सीने में तीर की तरह लगा, क्योंकि वह रानी संयोगिता और पृथ्वीराज के स्वयंवर की तरफ इशारा था। गुस्से में भरे हुए रनिवास से बाहर निकल आए। उस वक्त काली-काली घटाएं छाई हुई थीं, कुछ बूदें पड़ रही थीं। बाहर निकलते ही उन्होंने आवाज दी, कौन हाजिर हैं?

ईश्वरदास चारण ने आगे बढ़कर मुजरा किया और बोला– ‘‘हुजूर खैरंदेश हाजिर है।’’

राव जी– ‘‘अभी आप जागते हैं? मुझे अंदर नींद नहीं आयी, जरा कोई कहानी तो कहो। मैं यहीं लेटूंगा, ठण्डी हवा है, शायद नींद आ जाए।’’

ईश्वरदास– ‘‘जो आज्ञा। बैठिए।’’

राव जी बैठ गए और ईश्वरदास कहानी कहने लगा। कहानी के बीच में उसने यह दोहा पढ़ा-

मारवाड़ नर नारी जैसलमेर

तोरी तो सिधां निरां करमल बीकानेर।

यानी मारवाड़ में मर्द, जैसलमेर में औरतें, सिंध में घोड़े और बीकानेर में ऊंट अच्छे होते हैं।

राव जी ने इस दोहे को सुनकर फरमाया– ‘‘चारण जी, बेशक जैसलमेर की औरतें बहुत अच्छी होती हैं, पर मुझे तो वह जरा भी रास न आयी।’’

ईश्वरदास– ‘‘यह हुजूर क्या फरमाते हैं। जैसलमेर की अच्छी औरत उमादे तो…’’

राव जी– (बात काटकर) ‘‘अजी, वह तो सात फेरों की रात से ही रूठी बैठी है।’’

ईश्वरदास– ‘‘हुजूर गुस्ताखी माफ, आपने उसे भी मामूली औरत समझा होगा। खैर, चलिए बंदा अभी मेल कराए देता है।’’

राव जी ने भी ख्याल किया कि यह बात बनाने वाला आदमी है। क्या अजब है, रानी को बातों में लगाकर ढर्रे पर ले आए। उसके साथ उमादे के महल की तरफ चले। यकायक चलते-चलते रुक गए और ईश्वरदास से बोले– ‘‘आप चलते तो हैं मगर वह बोलेंगी भी नहीं।’’

ईश्वरदास– ‘‘हुजूर, मैं चारण हूँ, चारण चाहे तो एक बार मुर्दें को जगा सकता है। वह तो फिर भी जीती है।’’

दरवाजे पर पहुँचकर ईश्वरदास जी ने राव जी को अपने पीछे बिठा लिया और उमादे से कहला भेजा कि मैं राव जी के पास से कुछ कहने के लिए हाजिर हुआ हूँ। उमादे पर्दें के पीछे आ बैठी। ईश्वरदास से बड़े अदब से कहा– ‘‘बाई जी, सलाम कबूल हो।’’

उमादे ने कुछ जवाब न दिया। ईश्वरदास न फिर कहा– ‘‘मेरा मुजरा कबूल हो।’’ जब उसका भी जवाब न मिला, तो राव जी ईश्वरदास के कान में धीमे से कहा– ‘‘देखो, मैं न कहता था कि वह न बोलेंगी। मुर्दा बोले तो बोले मगर उनका बोलना नामुमकिन है।’’

ईश्वरदास– ‘‘बाई जी, मैं भी आप ही के घराने का हूँ। इसीलिए, बाई जी, बाई जी, करता हूं। अगर ऐसा न होता तो तुम देखतीं कि तुम्हारें खानदान को कैसा शर्मिंदा करता। यह कौन-सी इन्सानियत है कि मैं तो मुजरा अर्ज करता हूँ और शर्मिंदा करता। यह कौन-सी इंसानियत है कि मैं मुजरा अर्ज करता हूँ और तुम जवाब तक नहीं देतीं?’’

उमादे ने इसका भी कुछ जवाब न दिया।

ईश्वरदास ने फिर कहा– ‘‘बाई जी, आपने सुना होगा कि आपके पुरखों में एक रावत दवाजी थे। वह मुसलमानों से लड़ाई में काम आए थे। उनकी रानी ने चारण होपां जी से कहा कि बाबा जी, अगर रावत जी का सिर ला दो तो मैं सती हो जाऊं। होपां जी लड़ाई के मैदान में गए मगर कटे हुए सिरों के ढेर में रावत का सिर पहचाना न जाता था। उस वक्त होपां जी ने बड़ी सूझबूझ को काम में लाकर रावल जी की तारीफ करना शुरू की और उसको सुनते ही रावल जी का सिर हंस पड़ा। होपां जी उसे पहचान कर रानी के पास लाया। उसके बारे में एक दोहा मशहूर है–

चारण होपें सेव्यो साहब दुर्जन सल

बरदातां सर बोल्यौ गीता दोहां कल

यानी होपां चारण ने अपने मालिक दवाजी की सेवा की थी। इसलिए दवाजी का सर अपने वफादर नौकर की जबान से अपनी तारीफ सुनकर हंस पड़ा। यह बात गीतों और दोहों में मशहूर है। सो बाई जी, तुम भी उसी रावल दवाजी के घराने की हो। वह मरकर बोला, तुम जीती भी नहीं बोलती, क्या तुम्हारी रगों में बुजुर्गों का खून नहीं दौड़ता?

उमादे– (जोश मे आकर) ‘‘बाबा जी, मैं भी यही देखना चाहती थी कि देखूं, तुम्हारी जबान में कितनी ताकत है। कहो, क्या कहते हो और क्यों आए?’’

ईश्वरदास– ‘‘तुम्हारी सौतें कहती हैं कि वह अगरचे चंद्रवंश में पैदा हुईं, खुद भी चांद की तरह रोशन हैं, मगर चेहरे पर मैल अभी तक बाकी है। मैं यही पूछने आया हूं कि वह मैल कैसा है और क्यों बाकी है?’’

उमादे– ‘‘उन्हीं से क्यों न पूछ लिया?’’

ईश्वरदास– ‘‘वह तो कुछ साफ-साफ नहीं बतलातीं।’’

उमादे– ‘‘मैं साफ-साफ बता दूं?’’

ईश्वरदास– ‘‘इससे बढ़कर क्या होगा।’’

उमादे– ‘‘मुझमें यही मैल है। मैं चाहती हूं कि राव जी बीवी और बांदी की पहचान रखें।’’

ईश्वरदास– ‘‘अब ऐसा ही होगा। रानी रानी रहेगी और बांदी बांदी।’’

उमादे– ‘‘तुम इसका पक्का कौल दे सकते हो?’’

उमादे– ‘‘अच्छा, हाथ बढ़ाओ।’’

ईश्वरदास ने राव जी का हाथ पकड़कर परदे में कर दिया।

उमा ने उसे देखकर कहा– ‘‘आह, यह तो वही सख्त हाथ है, जिसने मेरे कंगन बांधा।’’

ईश्वरदास– ‘‘तो दूसरा हाथ कहां से आवे।’’

यह सुनकर उमादे चली गयी और राव जी भी टूटा हुआ दिल लेकर उठ गए। मगर ईश्वरदास वहीं पत्थर की तरह जमा रहा। सारी रात बीत गयी, दिन निकल आया, सूरज की गर्म किरणें उसके माथे पर लहराने लगीं। पसीने की बूंदे उसके माथे से ढुलकने लगीं, मगर उसका आसन वहीं जमा रहा। उमादे ने एक थाल में खाना परसकर उसके लिए भेजा। उसने उसकी तरफ आंख उठाकर भी नहीं देखा बल्कि अंदर कहला भेजा– ‘‘बाई जी ने मेरा जरा भी लिहाज न किया। मुझे उन पर बड़ा भरोसा था कि वह मेरी बात हरगिज न टालेंगी, इसीलिए राव जी को अपने साथ लाया था। अब मुझे यहां मरना है। क्या बाई जी ने कभी चारणों द्वारा चांदी करने की घटना नहीं सुनी? जब चारण किसी झगड़े में हाथ डालते हैं और राजपूत उनकी बात नहीं मानते तो वह अपनी मरजाद और आबरू कायम रखने के लिए आत्महत्या कर लिया करते हैं।’’ यह सुनते ही उमादे घबराई हुई उसके पास आयी और पूछा– ‘‘क्या आप मुझ पर चांदी करेंगे?’’

ईश्वरदास– ‘‘जरूर करूंगा, नहीं तो राव जी को कौन सा मुँह दिखाऊंगा।’’

उमादे– ‘‘तो आपने मुझे वचन क्यों नहीं दिया?’’

ईश्वरदास– ‘‘राजा-रानी के झगड़े हैं, मैं कैसे जिम्मेदारी लेता? बीच में पड़ने वाले का काम सिर्फ मेल करा देना है। सो मैं राव जी को आपके पास ले ही आया था।’’

उमादे– ‘‘उन्हें लाने से क्या फायदा हुआ?’’

ईश्वरदास– ‘‘और तो कोई फायदा नहीं हुआ, हाँ मेरी जान के लाले पड़ गए।’’

उमादे– ‘‘खैर, यह बातें फिर होंगी, इस वक्त खाना तो खाइए।’’

ईश्वरदास– ‘‘खाना अब दूसरे जन्म में खाऊंगा।’’

उमादे चली गयी। थोड़ी देर बाद भारीली आई और घबराहट के स्वर में बोली– ‘‘चारण जी, आप क्या गजब कर रहे हैं, बाई जी ने अब तक कुछ नहीं खाया।’’

ईश्वरदास– ‘‘वह शौक से भोजन करें, उन्हें किसने रोका है?’’

भारीली– ‘‘भला ऐसा भी मुमकिन है कि चारण तो दरवाजे पर भूखा पड़ा रहे और कोई राजपूत औरत खुद खाना खा ले।’’

ईश्वरदास– ‘‘अगर बाई जी चारणों की इतनी इज्जत करती हैं, तो उनकी बात क्यों नहीं मानतीं?’’

भारीली– ‘‘आप क्या कहते हैं?’’

ईश्वरदास– ‘‘मैं यही कहता हूँ कि बाई जी राव जी से यह खिंचावट दूर कर दें।’

इतने में उमा भी निकल आई– ‘‘राव जी भी कुछ करेंगे या नहीं?’’

ईश्वरदास– ‘‘जो तुम कहोगी वह करेंगे। हाथ जोड़ने को कहोगी हाथ जोड़ेगें, पैर पड़ने को कहोगी पैर पड़ेंगे जैसे मानोगी मनाएंगे, मैंने यह सब तय कर लिया है।’’

उमा– ‘‘बाबा जी, आप समझदार होकर ऐसी बातें कैसे मुंह से निकालते हैं? क्या मेरे खानदान की यही रीति है और मेरा यही धर्म है? राव जी मेरे स्वामी हैं, मैं उनकी लौंडी हूँ। भला मैं उनसे कह सकती हूं कि आप ऐसा कीजिए वैसा कीजिए। मैं तो रूठने पर भी उनकी तरफ से दिल में जरा मैल नहीं रखती और वह भी जैसे चाहिए मेरी इज्जत करते हैं। मेरा गर्व, मेरा अभिमान उन्हीं के निभाने से निभ रहा है। वह चाहते तो दम भर में मेरा घमण्ड चूर कर सकते थे। यह उन्हीं की कृपा है कि मैं अब तक जिन्दा हूँ। स्वाभिमान हाथ से खोकर मैं जिन्दा नहीं रह सकती।’’

ईश्वरदास– ‘‘शाबाश, बाई जी, शाबाश, सती स्त्रियों के यहीं लक्षण हैं।’’

उमादे– ‘‘बाबा जी, अभी से शाबाश न कीजिए। जब यह धर्म आखिरी दम तक निभ जाए, तो शाबाश कहिएगा।’’

ईश्वरदास– ‘‘अच्छा तो तुम फिर क्या चाहती हो?’’

उमा– ‘‘कुछ नहीं, तुम भोजन करो, तो मैं भी कुछ खाऊं।’’

ईश्वरदास– ‘‘तुम जाओ, खाना खाओ, मैं तो तब खाऊंगा जब तुम मेरा कहना मान लोगी।’’

उमा– ‘‘अच्छा कहो, कौन-सी बात कहते हो।’’

ईश्वरदास– ‘‘राव जी से रूठना छोड़ दो।’’

उमा– ‘‘राव जी अगर मेरी जान मांगें, तो दे सकती हूं, मगर मेरा दिल उनसे अब न मिलेगा।’’

ईश्वरदास– ‘‘मेरे कहने पर मिलाना पड़ेगा।’’

थोड़ी देर तक उमादे सोचती रही, फिर बोली– ‘‘मेरा जी नहीं चाहता कि जो बात ठान लूं उसे फिर तोड़ दूं। यह मेरी आदत के बिल्कुल खिलाफ है। मगर आपकी जिद से लाचार हूँ। खैर, आपकी बात मंजूर।’’

ईश्वरदास– (खुश होकर) ‘‘बाई जी, तुमने मेरी लाज रख ली। यकीन मानो राव जी तुमसे बाहर नहीं। जो कुछ तुम कहोगी वही करेंगे।’’

उमा– ‘‘मैं उनसे कुछ नहीं कह सकती। उन्हें सब बातों का अख्तियार है। मगर अपनी आदत के खिलाफ फिर कोई बात देखूंगी तो एक दम उनके यहां न ठहरूंगी।’’

ईश्वरदास– ‘‘बहुत अच्छा, यही सही। कहो तो राव जी को ले आऊं। या अगर तुम चलना कबूल करो तो सुखपाल का इंतजाम करूं।’’

उमा– ‘‘अभी नहीं रात को चलूंगी। आप अब खाना खाएं।’’

ईश्वरदास– ‘‘पहले मैं राव जी को बधाई दे आऊं।’’

ईश्वरदास खुश-खुश राव जी की सेवा में उपस्थित हुआ और उमादे ने फिर खाना बनवाकर उसके डेरे पर भिजवा दिया।

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