चैप्टर 6 प्रेमाश्रम मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास | Chapter 6 Premashram Novel By Munshi Premchand Read Online

चैप्टर 6 प्रेमाश्रम मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास | Chapter 6 Premashram Novel By Munshi Premchand Read Online

Chapter 6 Premashram Novel By Munshi Premchand 

Chapter 6 Premashram Novel By Munshi Premchand 

लाला प्रभाशंकर का क्रोध ज्यों ही शान्त हुआ वह अपने कटु वाक्यों पर बहुत लज्जित हुए। बड़ी बहू की तीखी बातें ज्यों-ज्यों उन्हें याद आती थीं ग्लानि और बढ़ती जाती थी। जिस भाई के प्रेम और अनुराग से उनका हृदय परिपूर्ण था। जिसके मृत्यु-शोक का घाव अभी भरने न पाया था, जिसका स्मरण आते ही आँखों से अश्रुधारा बहने लगती थी उसके प्राणाधार पुत्र के साथ उन्हें अपना यह बर्ताव बड़ी कृतघ्नता का मालूम होता था। रात को उन्होंने कुछ न खाया। सिर पीड़ा का बहाना करके लेट रहे थे। कमरे में धुँधला प्रकाश था। उन्हें ऐसा जान पड़ा, मानो लाला जटाशंकर द्वार पर खड़े उनकी ओर तिरस्कार की दृष्टि से देख रहे हैं। वह घबड़ाकर उठ बैठे, साँस वेग से चलने लगी। बड़ी प्रबल इच्छा हुई कि इसी दम चलकर ज्ञानशंकर से क्षमा माँगू किन्तु रात ज्यादा हो गई थी, बेचारे एक ठण्डी साँस लेकर फिर लेट रहे। हाँ! जिस भाई ने जिन्दगी भर में मेरी ओर कड़ी निगाह से भी नहीं देखा उसकी आत्मा को मेरे कारण ऐसा विषाद हो! मैं कितना अत्याचारी, कितना संकीर्ण– हृदय, कितना कुटिल प्रकृति हूँ।

प्रातःकाल उन्होंने बड़ी बहू से पूछा– राज ज्ञानू ने कुछ खाया था या नहीं?

बड़ी बहू– रात चूल्हा ही नहीं जला, किसी ने भी नहीं खाया!

प्रभाशंकर– तुम लोग खाओ या न खाओ, लेकिन उसे क्यों भूखा मारती हो, भला ज्ञानू अपने मन में क्या कहता होगा? मुझे कितना नीच समझ रहा होगा!

बड़ी बहू– नहीं तो अब तक मानो वह तुम्हें देवता समझता था। तुम्हारी आँखों पर पर्दा पड़ा होगा, लेकिन मैं इस छोकरे का रुख साल भर से देख रही हूँ। अचरज यही है कि वह अब तक कैसे चुप रहा? आखिर वह क्या समझकर अलग हो रहा है! यही न कि हम लोग पराये हैं! उसे इसकी लेशमात्र भी परवा नहीं कि इन लोगों का निर्वाह कैसे होगा? उसे तो बस रुपये की हाय-हाय पड़ी है, चाहे चचा, भाई, भतीजे जीयें या मरें। ऐसे आदमी का मुँह देखना पाप है।

प्रभाशंकर– फिर वही बात मुँह से निकालती हो। अगर वह अपना आधा हिस्सा माँगता है तो क्या बुरा करता है? यही तो संसार की प्रथा हो रही है।

बड़ी बहू– तुम्हारी तो बुद्धि मारी गई है। कहाँ तक कोई समझाये, जैसे कुछ सूझता ही नहीं। हमारे लड़के की जान पर बनी हुई है। घर विध्वंस हुआ जाता है। दाना-पानी हराम हो रहा है। वहाँ आधी रात तक हारमोनियम बजता है । मैं तो उसे काला नाग समझती हूँ, जिसके विष का उतार नहीं। यदि कोई हमारे गले पर छुरा भी चला दे तो उसकी आँखों में आँसू न आवे। तुम यहाँ बैठे पछता रहे हो और वह टोले-महल्ले में घूम-घूम तुम्हें बदनाम कर रहा है? सब तुम्हीं को बुरा कह रहे हैं।

प्रभाशंकर– यह सब तुम्हारी मिथ्या कल्पना है, उसका हदय इतना क्षुद्र नहीं है।

बड़ी बहू– तुम इस तरह बैठे स्वर्ग-सपना देखते रहोगे और वह एक दिन सब सम्बन्धियों को बटोरकर बाँट-बखरे की बात छेड़ देगा, फिर कुछ करते– धरते न बनेगा। राय कमलानन्द से भी पत्र-व्यवहार कर रहा है। मेरी बात मानो, अपने सम्बन्धियों को भी सचेत कर दो। पहले से सजग रहना अच्छा है।

प्रभाशंकर ने गौरवोन्मत्त होकर कहा– यह हमसे मरते दम तक न होगा। मैं ऐसा निर्लज्ज नहीं हूँ कि अपने घर की फूट का ढिंढोरा पीटता फिरूँ? ज्ञानशंकर मुझसे चाहे जो भाव रखे, किन्तु मैं उसे अपना ही समझता हूँ। हम दोनों भाई एक दूसरे के लिए प्राण देते रहे। आज भैया के पीछे मैं इतना बेशर्म हो जाऊँ कि दूसरों से पंचायत कराता फिरूँ? मुझे ज्ञानशंकर से ऐसे द्वेष की आशा नहीं, लेकिन यदि उसके हाथों मेरा अहित भी हो जाये तो मुझे लेशमात्र भी दुःख न होगा। अगर भैया पर हमारा बोझ न होता तो उनका जीवन बड़े सुख से व्यतीत हो सकता था। उन्हीं का लड़का है। यदि उसके सुख और सन्तोष के लिए हमें थोड़ा-सा कष्ट भी हो तो बुरा न मानना चाहिए, हमारे सिर उसके ऋण से दबे हुए हैं। मैं छोटी-छोटी बातों के लिए उससे रार मचाना अनुचित समझता हूँ।

बड़ी बहू ने इसका प्रतिवाद न किया, उठकर वहाँ से चली गई। प्रभाशंकर उन्हें और भी लज्जित करना चाहते थे। कुछ देर तक वहीं बैठे रहे कि आ आये तो दिल का बुखार निकालूँ, लेकिन जब देर हुई तो उकताकर बाहर चले गये। वह पहले कितनी बार बड़ी बहू से ज्ञानशंकर की शिकायत कर चुके थे। उसके फैशन और ठाट के लिए वह कभी खुशी से रुपये न देते थे, किन्तु जब वह बड़ी बहू या अपने घर के किसी अन्य व्यक्ति को ज्ञानशंकर से विरोध करते देखते, तो उनकी न्याय वृत्ति प्रज्वलित हो जाती थी और वह उमंग में आकर सज्जनता और उदारता की ऐसी डींग मारने लगते थे। जिसको व्यवहार में लाने का कदाचित् उन्हें कभी साहस न होगा।

बाहर आकर वह आँगन में टहलने लगे और तेजशंकर को यह देखने को भेजा कि ज्ञानशंकर क्या कर रहे हैं। वह उनसे क्षमा माँगना चाहते थे, किन्तु जब उन्हें पैरगाड़ी पर सवार कहीं जाते देखा, तो कुछ न कह सके। ज्ञानशंकर के तेवर कुछ बदले हुए थे। आँखों में क्रोध झलक रहा था। प्रभाशंकर ने सोचा, इतने सबेरे यह कहाँ जा रहे हैं, अवश्य कुछ दाल में काला है। उन्होंने अपनी चिड़िया के पिंजरे उतार लिये और दाने चुगाने लगे। पहाड़ी मैना के हरिभजन का आनन्द उठाने में वह अपने को भूल जाया करते थे। इसके बाद स्नान करके रामायण का पाठ करने लगे। इतने में दस बजे गये और कहान ने ज्ञानशंकर का पत्र लाकर उनके सामने रख दिया। उन्होंने तुरन्त पत्र को उठा लिया और पढ़ने लगे। उनकी ईशवन्दना में व्यवाहारिक कामों से कोई बाधा न पड़ती थी। इस पत्र को पढ़कर उनके शरीर में ज्वाला-सी लग गई। उसका एक-एक शब्द चिनगारी के समान हृदय पर लगता था। ज्ञानशंकर प्रकृति के विषय में जो आलोचना की थी वह सर्वथा सत्य थी। यह दुस्साहस! यह पत्र उसकी कलम से कैसे निकला! उसने मेरी गर्दन पर तलवार भी चला दी होती तो भी मैं इतना द्वेष न कर सकता। इतना योग्य और चतुर होने पर भी उसका हृदय इतना संकीर्ण है। विद्या का फल तो यह होना चाहिए कि मनुष्य में धैर्य और सन्तोष का विकास हो, ममत्व का दमन हो, हृदय उदार हो न कि स्वार्थपरता, क्षुद्रता और शीलहीनता का भूत सिर चढ़ जाये। लड़कों ने शरारत की थी, डाँट देते, झगड़ा मिटता। क्यों जरा-सी बात को बतंगड़ बनाया। अब स्पष्ट विदित हो रहा है कि साथ निर्वाह न होगा। मैं कहाँ तक दबा करूँगा, मैं कहाँ तक सिर झुकाऊँगा? खैर उनकी जैसी इच्छा हो करें। मैं अपनी ओर से ऐसी कोई बात न करूँगा जिससे मेरी पीठ में धूल लगे। मकान बाँटने को कहते हैं। इससे बड़ा अनर्थ और क्या होगा? घर का पर्दा खुल जायेगा, सम्बन्धियों में घर-घर चर्चा होगी? हा दुर्भाग्य! घर में दो चूल्हे जलेंगे! जो बात कभी न हुई थी, वह अब होगी! मेरे और मेरे प्रिय भाई के पुत्र के बीच पड़ोसी का नाता रह जायेगा। वह जो जीवन-पर्यन्त साथ रहे, साथ खेले, साथ हँसे, अब अलग हो जायेंगे। किन्तु इसके सिवा और उपाय ही क्या है! लिख दूँ कि तुम जैसे चाहो घर को बाँट लो? क्यों कहूँ कि मैं यह मकान लूँगा, यह कोठा लूँगा। जब अलग ही होते हैं तो जहाँ तक हो सके आपस में मनमुटाव न होने दें। यह सोच लाला प्रभाशंकर ने ज्ञानशंकर के पत्र का उत्तर लिख दिया। उन्हें अब भी आशा थी कि मेरे उत्तर की नम्रता का ज्ञानशंकर पर अवश्य कुछ-न-कुछ असर होगा। क्या आश्चर्य है कि अलग होने का विचार उसके दिल से अलग हो जाये! यह विचार कर उन्होंने पत्र का उत्तर लिख दिया और जवाब का इन्तजार करने लगे।

ग्यारह बजे तक कोई जवाब न आया, दयाशंकर कचहरी जाने लगे। बड़ी बहू आ कर बोली– लल्लू के साथ तुम भी चले जाओ। आज तजबीज सुनायी जायेगी। जाने कैसी पड़े कैसी न पड़े। प्रभाशंकर ने अपने जीवन में कभी कचहरी के अन्दर कदम न रखा था। दोनों भाइयों की प्रतिज्ञा थी कि चाहे कुछ भी क्यों न हो, कचहरी का मुँह न देखेंगे। यद्यपि इस प्रतिज्ञा के कारण उन्हें कितनी ही बार हानियाँ उठानी पड़ी थीं, कितनी ही बार बल खाना पड़ा था, विरोधियों के सामने झुकना पड़ा था, तथापि उन्होंने अब तक प्रतिज्ञा का पालन किया था। बड़ी बहू की बात सुनकर प्रभाशंकर बड़े असमंजस में पड़े रहे। न तो जाते ही बनता था, न इन्कार करते ही बनता था। बगलें झाँकने लगे। दयाशंकर ने उन्हें द्विविधा में देखकर कुछ उदासीन भाव से कहा– आपका जी न चाहता हो न चलिए, मुझ पर जो कुछ पड़ेगी देख लूँगा।

बड़ी बहू– नहीं, चले जायेंगे, हरज क्या है?

दयाशंकर– जब कभी कचहरी न गये तो अब कैसे जा सकते हैं। प्रतिज्ञा न टूट जायेगी?

बड़ी बहू– भला, ऐसी प्रतिज्ञ बहुत देखी हैं। लाऊँ कपड़े?

दयाशंकर– नहीं, मैं अकेले ही चला आऊँगा, आपके चलने की जरूरत नहीं। यह कहकर दयाशंकर मन में बड़ी बहू पर झुँझला रहे थे कि इसने मेरे कचहरी जाने का प्रश्न क्यों उठाया। मैं वहाँ जाकर क्या बना लेता, हाकिम की कलम को पकड़ नहीं लेता न उससे कुछ विनय– प्रार्थना ही कर सकता था। और फिर जब कभी न गया तो अब क्यों जाऊँ? जिसने काँटे बोये हैं वह उनके फल खायेगा। इस फिक्र में कहाँ तक जान दूँ?

वह इसी खिन्नावस्था में बैठे थे कि ज्ञानशंकर का दूसरा पत्र पहुँचा। उन्होंने संपूर्ण दीवानखाना लेने का निश्चय किया था। प्रभाशंकर ने सोचा मेरी नम्रता उसके क्रोध को शान्त कर देगी। उस आशा के प्रतिकूल जब वह प्रस्ताव सामने आया तो उनका चित्त अस्थिर हो गया। पत्र के निश्चयात्मक शब्दों ने उन्हें संज्ञाहीन कर दिया। बौखला गये । क्रोध की जगह उनके हृदय में एक विवशता का संचार हुआ। क्रोध प्रत्याघात की सामर्थ्य का द्योतक है। उनमें यह शक्ति निर्जीव हो गयी थी। उस प्रस्ताव की भयंकर मूर्ति ने संग्राम की कल्पना तक मिटा दी। उस बालक की-सी दशा हो गयी जो हाथी को सामने देखकर मारे भय के रोने लगे, उसे भागने तक की सुध न रहे। उनका समस्त जीवन भ्रातृ-प्रेम की सुखद छाया में व्यतीत हुआ था। वैमनस्य और विरोध की यह ज्वाला-सम धूप असह्य हो गई? एक दिन प्रार्थी की भाँति ज्ञानशंकर के पास गये और करुण स्वर में बोले– ज्ञानू ईश्वर के लिए इतनी बेमुरौवती न करो। मेरी वृद्धावस्था पर दया करो। मेरी आत्मा पर ऐसा निर्दय आघात मत करो। तुम सारा मकान ले लो, मेरे बाल-बच्चों के लिए जहाँ चाहो थोड़ा-सा स्थान दे दो, मैं उसी में अपना निर्वाह कर लूँगा। मेरे जीवन भर इसी प्रकार चलने दो। जब मर जाऊँ तो जो इच्छा हो करना। एक थाली में न खाओ; एक घर में तो रहो, इतना सम्बन्ध तो बनाए रखो। मुझे दीवानखाने की जरूरत नहीं है। भला सोचो तो तुम दीवानखाने में जाकर रहोगे तो बिरादरी के लोग क्या कहेंगे? नगरवाले क्या कहेंगे? सब कुछ हो गया है, पर अभी तक तुम्हारी कुल-मर्यादा बनी हुई है। हम दोनों भाई नगर में राम-लखन की जोड़ी कहलाते थे। हमारे प्रेम और एकता की सारे नगर में उपमा दी जाती थी। किसी को यह कहने का अवसर मत दो कि एक भाई की आँखें बन्द होते ही आपस में ऐसी अनबन हो गयी कि अब एक घर में रह भी नहीं सकते। मेरी यह प्रार्थना स्वीकार करो।

ज्ञानशंकर पर इन विनयपूर्ण शब्दों का कुछ भी असर न हुआ। उनके विचार में यह विकृत भावकुता थी, जो मानसिक दुर्बलता का चिह्न है। हाँ, उस पर कृत्रिमता का सन्देह नहीं हो सकता था। उन्हें विश्वास हो गया कि चाचा साहेब को इस समय हार्दिक वेदना हो रही है। वृद्धजनों का हृदय कुछ कोमल हुआ करता है। इन्होंने जन्म भर कुल-प्रतिष्ठा तथा मान-मर्यादा के देवता की उपासना की है। इस समय अपकीर्ति का भय चित्त को अस्थिर कर रहा है। बोले– मुझे आपकी आज्ञा शिरोधार्य है, पर यह तो विचार कीजिए कि इस पुराने घर में दो परिवारों का निर्वाह हो भी कैसे सकता है? रसोई का मकान केवल एक ही है। ऊपर सोने के लिए तीन कमरे हैं। आँगन कहने को तो है; किन्तु वायु का प्रवेश केवल एक में ही होता है। स्नान-गृह भी एक है। इन कष्टों को नित्य नहीं झेला जा सकता। हमारी आयु इतनी दीर्घ नहीं है कि उसका एक भाग कष्टों को ही भेंट किया जाये। आपकी कोमल आत्मा को इस परिवर्तन से दुःख अवश्य होगा और मुझे आपसे पूर्ण सहानुभूति है, किन्तु भावुकता के फेर में पड़कर अपने शारीरिक सुख और शान्ति का बलिदान करना मुझे पसन्द नहीं। यदि आप भी इस विषय पर निष्पक्ष होकर विचार करेंगे तो मुझसे सहमत हो जायेंगे।

प्रभाशंकर– मुझे तो इस बदनामी सामने यह असुविधाएँ कुछ भी नहीं मालूम होती। जैसे अब तक काम चलता आ रहा है, उसी भाँति अब भी चल सकता है।

ज्ञानशंकर– आपके और मेरे जीवन-सिद्धान्तों में बड़ा अन्तर है। आप भावों की आराधना करते हैं, मैं विचार का उपासक हूँ। आप निंदा के भय से प्रत्येक आपत्ति के सामने सिर झुकायेंगे, मैं अपनी विचार स्वतन्त्रता के सामने लोकमत की लेश-मात्र भी परवाह नहीं करता! जीवन आनंद से व्यतीत हो, यह हमारा अभीष्ट है। यदि संसार स्वार्थपरता कहकर इसकी हँसी उड़ाए निन्दा करे तो मैं उसकी सम्मति को पैरों तले कुचल डालूँगा। आपकी शिष्टता का आधार ही आत्माघात है। आपके घर में चाहे उपवास होता हो, किन्तु कोई मेहमान आ जाये तो आप ऋण लेकर सत्कार करेंगे। मैं ऐसे मेहमान को दूर से ही प्रणाम करूँगा। आपके यहाँ जाड़े में मेहमान लोग प्रायः बिना ओढ़ना-बिछौना लिये ही चले आते हैं। आप स्वयं जाड़ा खाते हैं, पर मेहमान के ओढ़ने-बिछौने का प्रबन्ध अवश्य करते हैं! मेरे लिए यह अवस्था दुस्सह है। किसी मनुष्य को चाहे वह हमारा निजी सम्बन्धी ही क्यों न हो, यह अधिकार नहीं है कि वह इस प्रकार मुझे असमंजस में डाले। मैं स्वयं किसी से यह आशा नहीं रखता। मैं तो इसे भी सर्वथा अनुचित समझता हूँ कि कोई असमय और बिना पूर्व सूचना के मेरे घर आये, चाहे वह मेरा भाई ही क्यों न हो। आपके यहाँ नित्य दो-चार निठल्ले नातेदार पड़े खाट तोड़ा किये, आपकी जायदाद मटियामेट हो गयी, पर आपने कभी इशारे से भी उनकी अवहेलना नहीं की। मैं ऐसी घासपात को कदापि न जमने दूँगा, जिससे जीवन के पौधे का ह्रास हो। लेकिन वह प्रथा अब काल-विरुद्ध हो गयी। यह जीवन-संग्राम का युग है और यदि हमको संसार में जीवित रहना है तो हमें विवश होकर नवीन और पुरुषोचित सिद्धान्तों के अनुकूल बनना पड़ेगा।

ज्ञानशंकर ने नई सभ्यता की जिन विशेषताओं का उल्लेख किया, उनका स्वयं व्यवहार न कर सकते थे। केवल उनमें मानसिक भक्ति रखते थे। प्राचीन प्रथा को मिटाना उनकी सामर्थ्य से परे था। निन्दा और परिहास से सिद्धान्त में चाहे न डरते हों पर प्रत्यक्ष उसकी अवज्ञा न कर सकते थे। आतिथ्य-सत्कार और कुटुम्ब-पालन को मन में चाहे अपव्यय समझते हों, पर उनके मित्रों तथा सम्बन्धियों को कभी उनकी शिकायत नहीं हुई। किन्तु साधारणतः उनका सम्भाषण विवाद का रूप धारण कर लिया करता था, इसलिए वह आवेश में ऐसे सिद्धान्तों का समर्थन करने लगते थे, जिनका अनुकरण करने का उन्हें कभी साहस न होता। लाला प्रभाशंकर समझ गये कि इसके सामने मेरी कुछ न चलेगी। इसके मन में जो बात-ठन गयी है उसे पूरा करके छोड़ेगा। जिसे कुल-मर्यादा की परवाह नहीं, उससे उदारता की आशा रखना व्यर्थ है। दुखित भाव से बोले– बेटा, मैं पुराने जमाने का आदमी हूँ, तुम्हारी इन नयी-नयी बातों को नहीं समझता। हम तो अपनी मान-मर्यादा को प्राणों से भी प्रिय समझते थे। यदि घर में एक-दूसरे का सिर काट लेते तो भी अलग होने का नाम नहीं लेते। लेकिन फिर भी कहूँगा कि अभी दो-चार दिन रुक जाओ। जहाँ इतने दिनों तकलीफ उठाई है, दो-चार दिन और उठा लो। आज लल्लू के मुकदमे का फैसला सुनाया जायेगा। हम लोगों के हाथ-पैर फूले हुए हैं, दाना-पानी हराम हो रहा है, जरा यह आग ठण्डी हो जाने दो।

ज्ञानशंकर में आत्मश्लाघा की मात्रा अधिक थी। उन्हें स्वभावतः तुच्छता से घृणा थी। पर यही ममत्व अपना गौरव और सम्मान बढ़ाने के लिए उन्हें कभी-कभी धूर्तता की प्रेरणा किया करता था; विशेषतः जब उसके प्रकट होने की कोई सम्भावना न होती थी। सहानुभूतिपूर्ण भाव से बोले– इस विषय में आप निश्चित रहें, दयाशंकर केवल मुक्त ही नहीं, बरी हो जायेंगे। उधर से गवाह जैसे बिगड़े हैं। वह आपको मालूम ही है, तिस पर भी सबको शंका थी कि ज्वालासिंह जरूर दबाव में आ जायेंगे। ऐसी दशा में मुझे कैसे चैन आ सकता था। मैं आज प्रातःकाल उनके पास गया और परमात्मा ने मेरी लाज रख ली। यह कोई कहने की बात नहीं है, पर मैंने अपने सामने फैसला लिखवा कर पढ़ लिया, तब उनका पिण्ड छोड़ा। पहले तो महाशय देर तक बगले झाँकते रहे, टाल-मटोल करते रहे, पर मैंने ऐसा फटकारा कि अन्त में लज्जित होकर उन्हें फैसला लिखना ही पड़ा। मैंने कहा महाशय, आपने मेरी ही बदौलत बी.ए. की डिगरी पाई है, इसे मत भूलिए। यदि आप मेरा इतना भी लिहाज न करेंगे तो मैं समझूँगा कि एहसान संसार से उठ गया।

प्रभाशंकर ने ज्ञान बाबू को श्रद्धा-पूर्ण नेत्रों से देखा। उन्हें ऐसा जान पड़ा कि भैया साक्षात सामने खड़े हैं। और मेरे सिर पर रक्षा का हाथ रखे हुए हैं। अगर अवस्था बाधक न होती तो वह ज्ञानशंकर के पैरों पर गिर पड़ते और उसे आँसू की बूँदों से तर कर देते। उन्हें लज्जा आयी कि मैंने ऐसे कर्त्तव्यपरायण, ऐसे न्यायशील, ऐसे दयालु, ऐसे देवतुल्य पुरुष का तिरस्कार किया! यह मेरी उद्दंड़ता थी कि मैंने उससे दयाशंकर की सिफारिश करने का आग्रह किया। यह सर्वथा अनुचित था आजकल के सुशिक्षित युवक-गण अपना कर्तव्य स्वयं समझते हैं और अपनी इच्छानुकूल उसका पालन करते हैं, यही कारण है कि उन्हें किसी की प्रेरणा अप्रिय लगती है। बोले– बेटा यह समाचार सुनकर मुझे कितना हर्ष हो रहा है, वह प्रकट नहीं कर सकता। तुमने मुझे प्राण-दान दिया है और कुल-मर्यादा रख ली। मेरा रोम-रोम तुम्हारा अनुगृहीत है! मुझे अब विश्वास हो गया है कि भैया देवलोक में बैठे हुए भी मेरी रक्षा कर रहे हैं। मुझे अत्यन्त खेद है कि मैंने तुम्हें कटु शब्द कहे, परमात्मा मुझे इसका, दण्ड दे, मेरे अपराध क्षमा करो। बुड्ढे आदमी चिड़चिड़े हुआ करते हैं, उनकी बातों का बुरा न मानना चाहिए। मैंने अब तक तुम्हारा अन्तर स्वरूप न देखा था, तुम्हारे उच्चादर्शों से अनभिज्ञ था। मुझे यह स्वीकार करते हुए खेद होता है कि मैं तुम्हें अपना अशुभचिन्तक समझने लगा था। मुझे तुम्हारी सज्जनता, तुम्हारा भ्रातृ-स्नेह और तुम्हारी उदारता का अनुभव हुआ। मुझे इस मतिभ्रम का सदैव पछतावा रहेगा।

यह कहते-कहते लाला प्रभाशंकर का गला भर आया। हृदय पर जमा हुआ बर्फ पिघल गया, आँखों से जल-बिन्दु गिरने लगे। किन्तु ज्ञानशंकर के मुख से सान्त्वना का एक एक शब्द भी न निकला। वह इस कपटाभिनय का रंग भी गहरा न कर सके। प्रभाशंकर की सरलता, श्रद्धालुता और निर्मलता के आकाश में उन्हें अपनी स्वार्थन्धता, कपटशीलता और मलिनता अत्यन्त कालिमापूर्ण और ग्लानिमय दिखाई देने लगी। वह स्वयं अपनी ही दृष्टि में गिर गये, इस कपट-काण्ड का आनन्द न उठा सके। शिक्षित आत्मा इतनी दुर्बल नहीं हो सकती, इस विशुद्ध वात्सल्य ध्वनि ने उनकी सोई हुई आत्मा को एक क्षण के लिए जगा दिया। उसने आँखें खोलीं देखा कि मन मुझे काँटों में घसीटे लिये चला जाता है। वह अड़ गयी, धरती पर पैर जमा दिये और निश्चय कर लिया कि इससे आगे न बढ़ेंगे।

सहसा सैयद ईजाद हुसेन मुस्कुराते हुए दीवानखाने में आये। प्रभाशंकर ने उनकी ओर आशा भरे नेत्रों से देखकर पूछा, कहिए कुशल तो है?

ईजाद– सब खुदा का फ़जलोकरम है। लाइए, मुँह मीठा कराइए। खुदा गवाह है कि सुबह से अब तक पानी का एक कतरा भी हलक के नीचे गया हो। बारे खुदा ने आबरू रख ली, बाजी अपनी रही, बेदाग छुड़ा लाये, आँच तक न लगी। हक यह है कि जितनी उम्मीद न थी उससे कुछ ज्यादा ही कामयाबी हुई मुझे ज्वालासिंह से ऐसी उम्मीद न थी।

प्रभाशंकर– ज्ञानू, यह तुम्हारी सद्प्रेरणा का फल है। ईश्वर तुम्हें चिरंजीव करे।

ईजाद– बेशक, बेशक, इस कामयाबी का सेहरा आप के ही सिर है। मैंने भी जो कुछ किया है आपकी बदौलत किया है। आपका आज सुबह को उनके पास जाना काम कर गया। कल मैंने इन्हीं हाथों से तजवीज लिखी थी। वह सरासर हमारे खिलाफ थी। आज जो तजवीज उन्होंने सुनायी, वह कोई और ही चीज है, यह सब आपकी मुलाकात का नतीजा है। आपने उनसे जो बातें की और जिस तरीके से उन्हें रास्ते पर लाये उसकी हर्फ-बहर्फ इत्तला मुझे मिल चुकी है। अगर आपने इतनी साफागोई से काम न किया होता तो वह हजरत पंजे में आनेवाले न थे।

प्रभाशंकर– बेटा, आज भैया होते तो तुम्हारा सह सदुद्योग देखकर उनकी गज भर की छाती हो जाती। तुमने उनका सिर ऊँचा कर दिया।

ज्ञानशंकर देख रहे थे कि ईजाद हुसेन चचा साहब के साथ कैसे दाँव खेल रहा है और मेरा मुँह बन्द करने के लिए कैसी कपट- नीति से काम ले रहा है। मगर कुछ बोल न सकते थे। चोर-चोर मौसेर भाई हो जाते हैं। उन्हें अपने ऊपर क्रोध आ रहा था कि मैं ऐसे दुर्बल प्रकृति के मनुष्य को उसके कुटिल स्वार्थ-साधन में योग देने पर बाध्य हो रहा हूँ। मैंने कीचड़ में पैर रखा और प्रतिक्षण नीचे की ओर फिसलता चला जाता हूँ।

क्रमश:

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