चैप्टर 6 : मेरे हमदम मेरे दोस्त उर्दू नॉवेल हिंदी में | Chapter 6 Mere Humdam Mere Dost Novel In Hindi

Chapter 6 Mere Humdam Mere Dost Novel In Hindi

Chapter 6 Mere Humdam Mere Dost Novel In Hindi

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उसका कप उसके आगे रखकर वो उसके सामने वाली कुर्सी पर बैठ गया. चाय का घूंट लेने के लिए वह कप उठाने लगी, तो वो कुछ नाराज़ी भरे अंदाज़ में बोला, “ये बिस्किट मैंने सजाने के लिए यहाँ नहीं रखे थे. कम से कम दो बिस्किट तुम्हें लाज़मी खाने हैं.”

“मेरा दिल नहीं चाह रहा.” वो आहिस्ता से बोली.

“खाना दिल चाहने पर नहीं, भूख लगने पर खाया जाता है और तुम्हें भूख लगनी चाहिए, बल्कि लग रही हैं. मुझे पता है ये बात. तुमने तीन दिन से कुछ नहीं खाया, मैं ठीक कह रहा हूँ ना!” उसका अंदाज़ कथियत भरा था. उसके कहने पर उस ख़ुद भी याद आ गया कि उसने तीन दिन से कुछ नहीं खाया है.

वो उसके चेहरे पर आते-जाते रंगों को बा-गौर देख रहा था.

“हमारे भूखा रह जाने से जाने वाले वापस नहीं आ सकते. क्या भूखी रहकर तुम अल्लाह के साथ अपनी नाराज़गी का इज़हार कर रही हो? चूंकि उसने तुम्हारी दुआयें कबूल नहीं की. इसलिए तुम उसके दिए खाने को हाथ नहीं लगाओगी. क्या हमें अल्लाह से नाराज़ होने और ज़िद करने का कोई हक है? हम नहीं जानते कि हमारे लिए क्या बेहतर है. जो कुछ बज़ाहिर हमें गलत होता हुआ लग रहा होता है, वही दर-हक़ीक़त हमारे हक़ में बेहतर होता है.” इतनी देर में पहली मर्तबा उसने नासिहाना (नसीहत/सलाह देने वाला) अंदाज़ अपनाया था.

उसकी बात मुकम्मल होते ही उसके फ़ौरन प्लेट में से एक बिस्किट उठा लिया और उसे खाना भी शुरू कर दिया.

“शाबास! तुम्हारी जैसी अच्छी लड़की अल्लाह के साथ ज़िद करती और नाराज़ होती बिल्कुल अच्छी नहीं लग रही थी.” उसके लबों पर हल्की सी अपनायियत भरी मुस्कराहट थी.

वो बिस्किट खाते हुए उसके चेहरे पर नज़र आते उस अपनायियत को ताज्ज़ुब से देख रही थी, जबकि वो उसकी हैरत से अनजान अब अपनी चाय का सिप लेने लगा था.

“एक और लो! ये बटर कुकीज़ हैं. मेरे फ़ेवरेट. मैं जब उन्हें खा रहा होता हूँ, तो चार-पाँच से कम पर कभी नहीं रुकता. तुम्हें क्या ये अच्छे नहीं लग रहे?” उसे चाय का कप उठाते देखकर उसने कुछ मसनुई सी हैरत से पूछा.   

उसे उस वक़्त किसी चीज का ज़ायका पता नहीं चल रहा था और वो भी यह बात समझता था, लेकिन फिर भी उस तरह की बात कर रहा था. उसे ख़ामोशी से दूसरा बिस्किट उठा लिया. वो अहिस्ता-अहिस्ता चाय का घूंट ले रहा था. उसने अपनी नज़रें एमन पर से हटा ली थीं.

अचानक ही उसके दिल में ये ख़याल आया कि वो उससे ये सवाल पूछ ले कि उसका उसके बाप के साथ रिश्ता क्या है? लेकिन उसे समझ नहीं आ रहा था कि ये सवाल किस तरह करे. उसे ये सवाल पूछते हुए झिझक हो रही थी. लेकिन ये सवाल उसके लिए बहुत अहम् था, लेकिन वो मुनासिब किस्म के अल्फाज़ ही नहीं ढूंढ पा रही थी. फिर बेबसी से उसकी तरफ देखते हुए उसने अपना चाय का कप उठा लिया.

“कुछ पूछना चाहती हो?” वो फिर एक बार उसकी तरह देखने पर मजबूर हो गई.

“ज्यादा हैरान मत हो. तुम्हारे चेहरे पर इतना बड़ा सवालिया निशान बना हुआ कि फौरन ही पता चल रहा है कि तुम कुछ पूछना चाहती हो.“ वो उसकी शक्ल देखकर मुस्कुराया.

“मैं आपसे पूछना चाहती थी कि….” वो बोलते-बोलते हिचकिचाकर ख़ामोश हो गई थी. आगे का जुमला उसने अपने अंदर ही रोक लिया था.

“वो….वो…आपके क्या लगते हैं?”

वो इस सवाल से क्या समझते, इसलिए नरमी से बोला, “पूछो एमन! जो कुछ तुम पूछना चाहती हो. मुझसे बेझिझक पूछ सकती हो.“ उसके चेहरे पर हल्की सी मुस्कराहट इस तरह थी, जैसे वो उससे बात करने के लिए हौसला देना चाह रहा था.

“मैं उनके बारे में…” वो बोलते-बोलते फिर ख़ामोश हो गई.

“तुम तौफ़ीक भाई के बारे में कुछ पूछना चाहती हो?” उसकी आँखों में देखते ही उसने अल्सानियत से पूछा.

उसने बे-साख्ता (सहसा, अनायास, बिला इरादा) सिर इस बात में हिला दिया.

“वो कब वापस आयेंगे, ये पूछना चाहती हो?” उसका लहज़ा बहुत नरम और धीमा सा था.

उसने मुँह से कुछ बोले बगैर सिर नफ़ी (ना) में हिला दिया.

“फिर?” ख़ुद से अंदाज़ा लागने के बजाय उसने उसे सवालिया नज़रों से देखा.

“मैं ये पूछना चाह रही थी कि आपका उनसे क्या रिश्ता है?” उसने हिम्मत करके पूछ ही लिया और वो उसकी बात सुनकर बे-साख्ता हँस पड़ा.

“इतनी सी बात पूछते हुए तुम इतना घबरा रही थी. मैं समझा पता नहीं क्या बात है. अगर मुझे पता होता कि ये बात तुम्हें इस कदर परेशान कर रही है, तो मैं तुम्हें करांची आते ही रास्ते में ही इसके बारे में बता दिया होता.”

कुछ शर्मिंदगी महसूस करते हुए उसने अपने नज़रें उसके चेहरे पर से हटा ली.

“हम फैमिली फ्रेंड्स है. बिज़नेस पार्टनर्स हैं. हम दोनों को बिज़नेस में साथ काम करते हुए ग्यारह साल हो गये हैं. पहले मेरे पापा तौफ़ीक भाई और जमील अंकल का बिज़नेस संभालते थे. मुझे अमरीका से वापस आये ग्यारह साल हो चुके हैं. मेरे वापस आने के बाद सिर्फ एक साल तक पापा और जमील अंकल कारोबार में मौजूद रहे. फिर आगे पीछे इन दोनों की डेथ हो गई. तो अब बिज़नेस हम दोनों मिलकर संभालते हैं. जमील अंकल मेरे और मेरे फैमिली के लिए बिल्कुल ऐसे थे, जैसे हमारे इन्तिहाई कारीबी रिश्तेदार. जमील अंकल अल्मास आपी के…” वो रवानी से बोलता हुआ एकदम खामोश हो गया.

“तुमने चाय ख़त्म नहीं की.” उसने अचानक बात बदली.

वो उसे क्या बात बताने वाला था? ये तो वो नहीं जानती. लेकिन ये समझ गई थी कि उसकी सौतेली माँ का उसके सामने नाम लेते हुए उसे ख़ुद उस बात का अहसास हो गया था कि अपनी सौतेली माँ का ज़िक्र उसके लिए ख़ुशगवार हरगिज़ नहीं हो सकता. उसने बगैर कुछ कहे चाय का कप उठा लिया. कप में मौजूद चाय बिलकुल ठंडी हो चुकी थे. उसने एक ही घूंट में बाकी बची हुई चाय भी ख़त्म कर ली.

“तौफ़ीक भाई का अमरीका जाना बहुत ज़रूरी था. पिछले दो महीने से उनका जाना किसी न किसी वजह से टल रहा था. उन्हें वहाँ सायर के आपस जाना था. वो बोस्टन पढ़ने गया हुआ है. जानती हो ना तुम सयार को?“ बोलते-बोलते उसने कुछ सोचकर उससे पूछा, तो उसने नफ़ी में सर हिला दिया.

“सायर उनका बेटा है. तुम्हारा भाई…” तुम्हारा भाई लफ्ज़ उसने जानबूझकर इस्तेमाल किया था. उसका रिश्ता एक अनजाने लड़के के साथ जोड़ने के लिए अपने चेहरे पर कोई तासुरात (भाव) लाये बगैर वो ख़ामोशी से उसकी तरफ देखती रही.

“उसे बोस्टन गए हुए अभी ज्यादा दिन नहीं हुए हैं. मेरा ख़याल है चार-पाँच महीने ही हुए हैं. वो वहाँ ख़ुद को एडजस्ट नहीं कर पा रहा था. वो असल में वहाँ जाकर पढ़ने में इतना इंटरेस्टेड भी नहीं था. तौफ़ीक भाई ने उसे जबरदस्ती वहाँ भेजा है. उसका वहाँ दिल नहीं लग रहा. और इस परेशानी में वो वहाँ बीमार हो गया है. काफ़ी दिनों से तौफ़ीक भाई सायर के पास अमरीका जाना चाह रहे थे, लेकिन कोई न कोई मशरूफ़ियत ऐसी निकल रही थी कि उनका जाना मुल्तवी (टलता) होता चला जा रहा था.” वो उसके चेहरे पर नज़रें जमाये बहुत आहिस्ता-अहिस्ता बड़ी एहतियात (सावधानी) से बोल रहा था.

“तुम्हारी अम्मी का ख़त उन्हें बहुत देर से मिला. असल में ख़त उन तक पहुँचने में गड़बड़ हो गई थी. गलती पता नहीं किसकी थी, शायद मेरी सेक्रेटरी की या उनकी सेक्रेटरी की या पियून की. बहरहाल हुआ कुछ यूं कि तुम्हारी अम्मी का ख़त मेरी डाक में शामिल हो गया. मैं पिछले दिनों पाकिस्तान में था नहीं. ऑफिस काम से ज्यूरिक गया हुआ था. पच्चीस-छब्बीस दिनों बाद मेरी वापसी हुई. वापस आकर उस रोज़ पहली मर्तबा मैं ऑफिस गया था, जिस रोज़ तौफ़ीक भाई ने हैदराबाद तुम्हारे घर फोन किया था. मैंने ऑफिस जाकर अपने लिए सारे मैसेजेस और डाक देखी थी. वो ख़त देखा, तो पता चला कि ये तौफ़ीक भाई के लिए है और उसे यहाँ आये हुए भी पच्चीस-छब्बीस रोज़ हो चुके हैं. मैंने सोचा कि इस ख़त को तौफ़ीक भाई तक पहुँचने में ख़ासी देर हो चुकी है. मुझे उन्हें पहली फ़ुर्सत में उन तक पहुँचा देना चाहीये. वो उस दिन अमरीका जा रहे थे. इसलिए ऑफिस नहीं आये थे. मैं ख़त लेकर उनके घर ही चला गया. मैंने सोचा कि उन्हें ख़ुदा हाफ़िज़ भीकह आऊंगा और ये ख़त भी उन्हें दे आऊंगा. उस वक़्त मैं ख़ुद भी नहीं जानता था कि ये ख़त इस कदर अहम है. मेरा यकीन करो, मेरे हाथ से ख़त लेकर उसे पढ़कर उन्होंने फ़ौरन उसी वक़्त तुम्हें फोन किया था. उस वक़्त उनके जाने की सारी तैयारी हो चुकी थी. उनके एयरपोर्ट जाने के लिए घर से निकलने में चंद घंटे रह गए थे. तब वो रुक नहीं सकते थे. अगर ख़त उन्हें पहले मिल जाता, तो वे शायद अपना जाना कैंसिल कर देते. ख़ुद जाकर तुम्हें हैदराबाद से लाते. लेकिन फिर भी तुम परेशान मत हो. वो ज्यादा दिनों के लिए नहीं गए हैं. मेरा ख़याल है कि ज्यादा से ज्यादा बीस-पच्चीस दिन में आ जायेंगे.”

जो बातें उसके बाप को उससे करनी चाहिए थी, वो सब एक अनजान शख्स उसके साथ कर रहा था. वो उसके एहसासात की परवाह कर रहा था. वो जैसे समझ सकता था कि उसे क्या बात हर्ट कर रही है. वो उसके दिल में मौजूद सब बदगुमानियाँ दूर कर देना चाहता था. आज सुबह से पहले वो इस आदमी को जानती तक नहीं थी. उसे उसने ज़िन्दगी में कभी देखा तक नहीं था, कभी उसका नाम तक नहीं सुना था और आज वह उस आदमी के साथ बैठी इन्तिहाई पर्सनल बातें कर रही थी. वो जैसे उसके अंदर तक झांक लेने की सलाहियत (हुनर, योग्यता) रखता था. वो उसकी आँखों में नज़र आता गुस्सा, नफ़रत, बदगुमानी बड़ी आसानी से पढ़ सकता था. वो जो उसकी बातें सुनते हुए उसके तरफ देखने लगी थी, उसने एकदम ही घबराकर अपनी नज़रें झुका ली. वो अपने बाप के लिए क्या सोचती है? उन्हें कैसा इंसान समझती है? ये सब कुछ वो उस अजनबी से छुपा लेना चाहती थी. चंद लम्हों तक वो उसके झुके हुए सिर को बा-गौर देखता रहा.

“तुम्हें नींद आ रही है या अभी भी सोने का इरादा नहीं है? “ कुछ देर बाद उसके उसकी मध्यम सी आवाज़ सुनी.

उसने सिर इस बात पर हिला दिया.

“सिर किस बात पर हिलाया है? नींद आने वाली बात पर या सोने का इरादा नहीं है, उस बात पर?“ वो उसके सिर हिलाने पर मुस्कुराते हुए बोला.

“नींद आने वाली बात पर.” उसके दोस्ताना अपनायियत भरे अंदाज़ ने बे-साख्ता और बेझिझक बोलने पर मजबूर कर ही दिया था.

वो मुस्कुराते हुए कुर्सी से उठा, तो वो भी उठ गई.

“कमरे में जाकर सोने की कोशिश करना. तुम्हारे लिए नींद बहुत ज़रूरी है. बिस्तर पर लेटकर दूसरी कोई भी बात मत सोचना, सिवाय इसके कि तुम बहुत थकी हुई हो और तुम्हें सख्त नींद आ रही है.“ किचन से बाहर निकलकर वो कुछ समझाने वाले अंदाज़ में बोला और फिर उसे ‘शब्बा खैर’ कहकर सीढ़ियों की तरफ जाने लागा.

वो उसके आगे बढ़ जाने के बावजूद अपनी जगाह पर खड़ी हुई थी. दो कदम आगे बढ़ते ही उसे ये अंदाज़ा हो गया था कि एमन अब तक वहीं खड़ी है. उसने गर्दन मोड़कर बहुत ताज्ज़ुब से उसे देखा.

“क्या प्रॉब्लम है उम्मे एमन? तुम क्या कोई और बात भी पूछना चाहती हो?” वो वापस उसके पास आ गया. वो झुंझलाया हुआ नहीं था. बस उसके चेहरे पर हैरत थी.

“मुझे याद नहीं आ रहा कि मेरा कमरा किस तरफ है?” उसे अंदाज़ा था कि वो उसकी बात सुनकर हँसेगा. इसलिए सिर झुकाकर शर्मिंदगी से अपनी बेवकूफ़ी का एतराफ़ (इकरार, मानना) किया.

“आओ!” उसके चेहरे पर हल्की-सी अपनायियत भरी मुस्कराहट थी. उसे साथ लेकर आते हुए वो उसके कमरे के दरवाज़े पर आकर रुक गया.

“अब न रोना है, न कुछ सोचना है. सिर्फ सोना है. ठीक है!”

वो सिर हिलाकर दरवाज़ा खोलकर कमरे में आ गयी. जबकि वो वापस सीढ़ियों की तरफ मुड़ गया था.

वो कमरे में आकर लेट तो गई थी, लेकिन नींद उसे अभी भी नहीं आ रही थी. वो कुछ देर पहले होने वाली सारी बातें याद कर रही थी. वो अजनान आदमी, जिसे वो ढंग से जानती तक नहीं थी, वो उसका कुछ भी तो नहीं लगता था. लेकिन उसका अंदाज़ इतना मुख्तलिफ़ क्यों था? वो आम लोगों से इतना मुख्तलिफ़ क्यों लग रहा था? वो इस तरह क्यों बात कर रहा था, जैसे उसे उसकी बहुत परवाह है. वो रोई थी, तो उसमें उसकी कमजोरी से ज्यादा उसकी अपनायियत का दखल था. वो इतनी अपनायियत, इतने ख़ुलूस (सच्चाई, निष्कपटता) से बात कर रहा था कि वो अपने आँसू रोक ही नहीं पाई थी. उसी बात को सोचते-सोचते उसे न जाने कब नींद आ गई थी.    

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 अन्य उर्दू उपन्यास

ज़िन्दगी गुलज़ार है – उमरा अहमद

मेरी ज़ात ज़र्रा बे-निशान – उमरा अहमद 

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