चैप्टर 1 मेरे हमदम मेरे दोस्त उर्दू नॉवेल हिंदी में | Chapter 1 Mere Humdam Mere Dost Novel In Hindi

Chapter 1 Mere Humdam Mere Dost Novel 

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गेट पर बेल हुई थी. वो सीढ़ियों से ऊपर अपने कमरे में खड़ी हुई थी. उसने बेल की आवाज़ बहुत आसानी से सुनी थी.

अब वो अपने कांपते हुए वजूद को संभालती हुई एक आखिरी निगाह उस घर पर डाल रही थी. ये घर जहाँ उसका बचपन गुज़रा, जहाँ ज़िन्दगी के कितने सारे साल अपनी माँ के साथ रही और जहाँ उसकी माँ ने अपनी बीमारी का सख्ततरीन वक़्त गुज़ारा और फिर उसी घर में अपनी आखिरी साँसे ली.

ज्यादा पुरानी बात नहीं थी, परसों ही की बात थी. सुबह के चार बजे उन्होंने ज़िन्दगी से शिकस्त खाई. बेड पर बिछी हुई चादर भी वही थी, जिस पर वो लेटी हुई थी. पास पड़ी मेज़ पर अभी भी उनकी दवाइयाँ रखी थी. कल रात भाभी ने उसका सारा सामान पैक किया था – उसके कपड़े और दीगर ज़रूरी सामान. वो चुपचाप बेड पर बैठी उन्हें अपना सामान पैक करता देखटी रहती थी – अम्मी की दवाइयाँ और उनके मुख्तलिफ़ टेस्ट की रिपोर्ट्स.

डॉक्टर्स और हॉस्पिटल्स के फ़ोन नंबर्स, ये सब जो पिछले दो सालों से उसकी ज़िन्दगी के साथ जुड़े थे, अब बिल्कुल बेमानी हो चुके थे.

महज़ चंद घंटों में भाभी ने उसका सामान पैक कर डाला था. उस घर में ऐसा था था भी क्या, जो वो साथ ले जा सकती. वो पुरानी जमाने का फर्नीचर, जिसे वो जबरदस्ती झाड़-पोंछ कर साफ़ करने का जतन किया करती थी या किचन में मौजूद वो सस्ती सी क्राकरी, जो उस काबिल भी नहीं थी कि किसी अच्छे और मूजज़ (सम्मानीय) मेहमान के आमद मौके पर उस पर तकल्लुफ़ चाय की पेश की जा सके.

कितने सारे ख्वाब थे उसके – वो ग्रेजुएशन के बाद कहीं जॉब कर लेगी और साथ ही प्राइवेट एम.ए. भी करेगी. आहिस्ता-अहिस्ता वो तरक्की करती जायेगी, अपने इस घर का वो नक्शा बदल देगी. मगर वो कुछ भी नहीं बदल पायी थी.

उसके बी.ए. के पहले साल के इम्तिहान चल रहे थे, जब अम्मी बीमार रहने लगी थी. उनकी सब जमा-पूंजी उनके इलाज़ में ख़र्च हो गयी थी. यहाँ तक कि अम्मी के ज़ेवर, जो उन्होंने ज़िन्दगी में मुश्किल से मुश्किल वक़्त आने पर भी कभी बेचने के बारे में नहीं सोचा था, वो तक उनके इलाज़ के खातिर बेच डाला था.

ये ज़ेवरात उनकी ज़िन्दगी से ज्यादा अहम् नहीं हो सकता था.

वो सोचती थी – अम्मी ठीक हो जायेंगी, फिर मैं उन्हें ज़ेवर बेचने के बारे में बता दूंगी, वो बहुत नाराज़ होंगी, ये सोचकर फ़िक्रमंद होंगी कि मेरी शादी के लिए इन ज़ेवरातों के अलावा उनके पास और तो कोई चीज़ थी ही नहीं नहीं. लेकिन कोई बात नहीं, मैं उन्हें मना लूंगी. लेकिन ज़िन्दगी ने मौका ही नहीं आने दिया था. अब इस घर में ऐसी कोई कीमती चीज़ नहीं बची थी, जो वो अपने साथ ले जा सकती. सिवाय इन यादों के जिनमें उसकी माँ थी, वो खुद थी, उसका बचपन था. 

एक सूटकेस और एक हैण्डबैग ये उसनकी कुलामता थी और ये सामान बाखिर भाई पहले ही नीचे ले जा चुके थे. ज़ीनत खाला, भाभी, बाखिर भाई और आरिफ़ भाई सब उसके लिए फ़िक्रमंद थे. वो जानती थी कि उन सबको उससे बहुत ज्यादा हमदर्दी है, वो इसका ख़याल कर रहे हैं. कोई रिश्ता न होते हुए भी उन्होंने इन मुश्किलतरीन दिनों में उसे बहुत सहारा दिया था. आज सुबह महज़ उनका दिल रखने के खातिर उसने चाय के चंद घूंट लिये थे. उन्होंने उसके साथ नाश्ता किया था. उसे इस बात का दिलासा देने की कोशिश की थी कि क्या हुआ अगर उसकी माँ उससे छिन गई है तो? उसका सगा बाप ज़िन्दा है और अब वो अपने बाप के पास जा रही है. अपने उस बाप के पास, जिसे उसने ज़िन्दगी में एक बार भी नहीं देखा था. वो उसके नज़दीक इतनी भी अहम नहीं थीकि उसे अपने साथ ले जाने के लिए खुद आता.

उसे सीढ़ियों पर किसी के क़दमों की चाप सुनाई दी. यकीनन कोई उसे बुलाने ऊपर आ रहा था. उसने एक आख़िरी हसरत भरी निगाह दर-ओ-दीवार पर डाली – जो कल तक उसका घर था, सारी दुनिया में उसके लिए सब से प्यारी जगह, कहीं भी जाती, यहाँ वापस आने के लिए उसके कदम ख़ुशी-ख़ुशी उठा करते थे.

“ऐमन! वो आ गए हैं तुम्हें लेने.”

बहुत तेज़-तेज़ सीढ़ियाँ चढ़ने से भाभी की साँस फूल गई थी. वो जवाब में कुछ बोले बगैर ख़ामोशी से उनके साथ सीढ़ियाँ उतरने लगी. उन्होंने उसका हाथ अपने हाथ में ले लिया था.

“हौसला रखो ऐमन! तुम कहीं अनजान लोगों में तो नहीं जा रही. अपने बाप के पास जा रही हो और फिर करांची जैसे शहर में जा रही हो. वहाँ की तेज़ रफ़्तार भागती-दौड़ती ज़िन्दगी और चका-चौंध में देखना कितनी जल्दी तुम्हारा दिल लग जायेगा.

उसने उसी ख़ामोश मगर तशक्कुर आमेज़ (कृतज्ञता से परिपूर्ण) निगाहों से भाभी को देखा. अम्मी की बीमारी के उन दो सालों में ज़ीनत खाला और उनके घर के तमाम अफ़राद (शख्स) ने उसका और अम्मी का बहुत साथ दिया था. हालांकि, उनका उन लोगों से कोई रिश्ता नहीं था. ये माँ-बेटी उन लोगों के सिर्फ़ किरायदार थे. कभी रात में अम्मी के हालात बिगड़ती, तो बाखिर भाई या आरिफ़ भाई में से कोई जाकर टैक्सी ले आता और फिर उसके साथ हॉस्पिटल भी चला जाता.

वो ज़ीनत खाला और उनके घर के एक-एक फ़र्द (व्यक्ति) की एहसानमंद थी.

वो भाभी के साथ चलते हुई ड्राइंग रूम में आ गई. सामने ही सोफ़े पर वो शख्स बैठा हुआ था, जिसे उसके बाप ने उसे लेने के लिये भेजा था. बड़ी मुश्किलों से वो ख़ुद में इतनी कुव्वत (शक्ति) पैदा कर पायी थी कि आँसुओं को पीछे धकेल कर उसे सलाम करे.

“अस्सलाम अलैकुम” – उसने अपना लहज़ा हमवार (सुशील) रखने की पूरी कोशिश की थी.

“अस्सलाम अलैकुम” – वो उसकी आमद से बेख़बर बाखिर भाई से कोई बात कर रहा था. उनके साथ अपनी बात अधूरी छोड़कर उसने फ़ौरन सोफ़े से उठते हुए उसके सलाम का जवाब दिया.

“आप तैयार हैं?” उसका महज़बी लहज़ा किसी किस्म के ज़ज्बात से आरी (महरूम, वंचित) था. उसने इस बात में सिर हिला दिया.

उस और से नज़रे हटाकर वो जल्दी-जल्दी बाखिर भाई और ज़ीनत ख़ाला से अलविदा कलिमात (शब्द, अल्फ़ाज़) कहने लगा, तो वो दोनों उसे चाय वगैरह के लिए रोकने पर इसरार करने लगे. उन लोगों के बे-तहाशा इसरार के जवाब में भी वो रुकने के मूड में नज़र नहीं आ रहा था. उसके अंदाज़ में बहुत उजलत (जल्दबाज़ी) थी. ऐसे जैसे वो जल्दी-जल्दी यहाँ से चले जाना चाहता था और उसके उस अंदाज़ को महसूस करने के बावजूद भी बाखिर भाई और ज़ीनत ख़ाला उसे रोकने पर इसरार कर रहे थे.

पैसे में इतनी ही ताकत होती है. उस शख्स का हर अंदाज़ पुकार-पुकार कर उसकी इमारत (अमीरी) का एलान कर रहा था. उसका लिबास और उसका निशस्त-ओ-बरखास्त (manners), उस गुफ़्तगू, गेट के बाहिर खड़ी हुई उसकी कीमती गाड़ी. अगर वो कोई मामूली आदमी होता, मामूली गाड़ी में आया होता, तो उस गुरूर और तकब्बुर (अहंकार, अकड़) के मुज़ाहिरे के बाद वो लोग उसे रोकने के लिए ज़रा सा भी इसरार नहीं करते.

पाँच मिनट के उस इसरार और इंकार के बाद वो सब लोगों से ख़ुदाहाफ़िज़ कहते हुये गेट तक आ गये. घर के सब अफ़राद (व्यक्ति) उसे गेट तक अलविदा कहने आये थे. ज़ीनत ख़ाला, भाभी, गुड़िया सब उससे गले लगकर मिल रहे थे. करांची जाकर उन लोगों से राबता रखने के वादे ले रहे थे और वो इतनी देर में बाखिर भाई के हाथ से सूटकेस लेकर उसे गाड़ी की डिक्की में रख चुका था.

ड्राइविंग सीट और बराबरी वाली सीट का दरवाज़ा खोल वो अपनी गाड़ी के पास उसके फ़ारिग (free) होने का मुंतज़िर (इंतज़ार करने वाला) था. वो ख़ामोशी से गाड़ी में बैठ गयी. उनके गाड़ी स्टार्ट करते ही गेट पर खड़े हुई सब लोगों ने ऐमन को हाथ हिलाकर ख़ुदाहाफ़िज़ कहा. उसने भी जवाबन ज़बरदस्ती चेहरे पर मुस्कराहट लाते हुए हाथ हिला दिया था.

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