चैप्टर 5 : मेरे हमदम मेरे दोस्त उर्दू नॉवेल हिंदी में | Chapter 5 Mere Humdam Mere Dost Novel In Hindi

Chapter 5 Mere Humdam Mere Dost Novel In Hindi

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वह कितनी बड़ी और खुली खुली सी जगह थी। अंधेरे से उसकी आँखें थोड़ी मायूस हो गई, तो उसे स्विमिंग पुल नज़र आया। वह स्विमिंग पूल के बिल्कुल पास आकर खड़ी हो गई। रात के उस पहर वो पानी कितना साकित (ख़ामोश, शांत) और कितना उदास लग रहा था। वहाँ उसकी इकलौती गार्डन लाइट के अलावा कोई दूसरी रौशनी भी थी। उसने सिर उठाकर आसमान की तरफ देखा, तो उसे पता चला कि वह दूसरी रौशनी चाँद की रोशनी है। वह पानी में नज़र आते चाँद के अक्स को देखते हुए ख़ामोशी से स्विमिंग पुल के पास बैठ गई।

“क्या बात है उम्मे एमन! आपको नींद नहीं आ रही?” अपने अक़ब (पीछे) में उसने यह मर्दाना आवाज सुनी और वह पूरी की पूरी हिल गई। कुछ खौफ़ और बेबसी के एहसास में उसने गर्दन मोड़ कर उसकी तरफ देखा। वह उस वक्त अपने वहाँ मौजूदगी का क्या सबब बतायेगी। क्या उससे कहेगी कि नींद नहीं आ रही थी। वह इसलिए यहाँ यूं ही रात के बारह बजे स्विमिंग पुल के पास आकर बैठ गई है।

पहले ही दिन उसके घर में आकर बे-तकल्लुफ़ाना अंदाज़ में उसके घर में इधर-उधर घूमती फिर रही है। वह अपने यूं बाहर निकल आने पर अब बुरी तरह शर्मिंदा हो रही थी।

चंद सेकेंड उसके जवाब का इंतज़ार करने के बाद वह ख़ुद भी उससे कुछ फ़ासले पर वहीं स्विमिंग पुल के पास बैठ गया।

“मैं टेरेस पर खड़ा था। मुझे भी नींद नहीं आ रही थी। आपको मैंने यहाँ देखा, तो सोचा कि मुझे जाकर पूछना चाहिए कि क्या बात है।“ उसका अंदाज़ बड़ा सादा सा था। ऐसे जैसे वह बरसों से उनके घर पर रह रही थी। उसने कुछ घबराये हुए अंदाज़ में अपने कुछ फ़ासले पर बैठे उस शख्स की तरफ देखा। उसकी ज़िन्दगी में बाकिर भाई और आरिफ़ भाई के अलावा किसी मर्द का कोई गुज़र नहीं था। वह कभी को-एजुकेशन में नहीं पढ़ी थी। वह उस वक्त उस शख्स से क्या कहें? या कुछ भी कहे बगैर यूं ही उठकर शान-ए-बे-नियाज़ी (बेरुखी) से अंदर चली जाये। वह कोई फैसला नहीं कर पा रही थी।

मैं भी आपके ही जितना था, जब मेरी मॉम का इंतकाल हुआ था। उसकी तरफ देखते हुए वह बहुत आहिस्ता आवाज में बोला। एमन ने बहुत चौंककर उसकी तरफ देखा।

“मैं पढ़ने के लिए अमेरिका गया हुआ था। मेरे पीछे ही उनका इंतकाल हो गया था। मैं पहली फ्लाइट से करांची आया, मगर उन्हें ज़िन्दा नहीं देख पाया था।” वह अब भी बहुत आहिस्ता आवाज में बोल रहा था। उसकी आवाज में मौजूद दुख वह बहुत अच्छी तरह पहचान सकती थी। इसलिए कि उस दुख से वह खुद इस वक्त गुज़र रही थी।

“वह क्या बीमार थी?” उसके सवालिया अंदाज़ में कोई तजस्सुस (जिज्ञासा) नहीं था। सिर्फ दुख था।

“वह बिल्कुल भी बीमार नहीं थी। बस अचानक ही। मैं तो करांची से जाते वक्त उन्हें बिल्कुल सेहतमंद और हँसता-मुस्कुराता हुआ देखकर गया था। फोन पर पापा ने उनकी बीमारी की इत्तला दी। हालांकि हकीकत में तो उनका इंतकाल हो चुका था। मैं यहाँ आया, तो पता चला कि अम्मी मुझे मिले बगैर और कोई बात किए बगैर चली गई थी।” उसकी बात सुनते-सुनते वह रो पड़ी।

“आप रोये थे?” उसने रोते हुए उससे पूछा।

“हाँ मैं रोया था। कुछ गम में ऐसा लगता है कि हम बहुत बड़े हो गए हैं। अब  हमें किसी के सामने रोना नहीं चाहिए। फिर मैं तो लड़का भी था। मेरे लिए तो यह बात और भी ज्यादा शर्मिंदगी का बा’इस (सबब, कारण) थी कि मैं किसी के सामने रोया चाहे वह मेरे पापा और बीवी ही क्यों ना हो। अठारह साल की उम्र में मुझे ऐसा लगने लगा था कि मैं बहुत बड़ा हो गया हूँ। बेवकूफ था मैं। मुझे यह बात पता भी नहीं थी कि दुख छुपाने से नहीं, बल्कि किसी के साथ शेयर कर लेने से कम होता है।” वह बड़ी संजीदगी से उसे रोते हुए देख रहा था।

“आपकी अम्मी को तो कोई बीमारी नहीं थी। लेकिन मेरी अम्मी बहुत बीमार थी। वह पिछले दो सालों से बीमार थी। बहुत तकलीफ़ में थी।” रोते हुए उसने अपने घुटनों पर सिर रख लिया।

माज़ी हाल और मुस्तकबिल को ज़ेहन से निकालकर सिर्फ और सिर्फ उस बात पर कि उसे जन्म देने वाली हस्ती, जिससे उसे बेपनाह मोहब्बत थी, हमेशा के लिए उसे छोड़ गई, वह इन तीन दिनों में इस वक्त पहली मर्तबा सिर्फ और सिर्फ अम्मी के लिए रो रही थी।

“मैंने उनकी सेहत के लिए इतनी दुआयें मांगी थी।” वह उसी तरह घुटनों पर सिर रखकर रोते हुए बोल रही थी।

“सब कह रहे थे कि उनकी लिए यूं ही बेहतर हुआ है। वह इतनी तकलीफ में थी कि मज़ीद ज़िन्दा रहती, तो मज़ीद तकलीफ झेलती। मगर मुझे उन बातों से तसल्ली नहीं होती। आप बतायें, आपने क्या किया था? आपको सब्र किस तरह आया था? मुझसे तो यह दुख झेला नहीं जा रहा।”

उसने अपने घुटनों पर से सिर उठाकर आँसू बहाते हुए उससे पूछा।

“वक्त उम्मे एमन! सिर्फ और सिर्फ वक्त!” वह उस संजीदगी से उसकी आँखों में देखते हुए बोला।

“वक्त ख़ुद-ब-ख़ुद तुम्हारे ज़ख्मों पर मरहम रख देगा। वक्त ख़ुद-ब-ख़ुद ही तुम्हें सब्र भी दे देगा। मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ था। यह दुख अभी मेरे साथ है, मगर यह अब मुझे रुलाता नहीं है। मैंने उस दुख के साथ समझौता कर लिया है। सब्र कर लिया है। फिर ज़िन्दगी में एक दुख के अलावा बेशुमार खुशियाँ भी तो है।” वह बिलख-बिलख कर रोते हुए उसकी बातें सुन रही थी।

उस शख्स से पहले भी इन तीन दिनों में बहुत से लोगों ने उसे तसल्ली और दिलासा दिए थे। मगर किसी तसल्ली और किसी दिलासे से उसके दिल की बेकरारी कम नहीं हुई थी। लेकिन इसके लफ्जों में ऐसा क्या असर था कि उसके दिल को करार आ रहा था। वह सोच रही थी कि शायद वह जो कह रहा है, वो बिल्कुल सच है। शायद आने वाले दिनों में वक्त वाकई उसके उस ज़ख्म पर मरहम रख देगा। वह जिस तरह अपनी माँ का ज़िक्र कर रहा था, उससे अंदाजा हो रहा था कि उसे अपनी माँ से कितनी शदीद मोहब्बत थी। जब इतनी शदीद मोहब्बत के बावजूद उसने उस गम के साथ समझौता कर लिया, तो फिर वह भी ज़रूर ऐसा करने में कामयाब हो जयेगी। वह अब दुपट्टे से अपनी भीगे हुए चेहरे को खुश्क कर रही थी।

“अंदर चले?” खड़े होते हुए उसने एमन से पूछा। तो वह फौरन खड़ी हो गई। ख़ामोशी से साथ-साथ चलते हुए वह दोनों अंदर आये। वह उसे साथ लिए किचन में आ गया।

किचन की लाइट ऑन करते हुए वो उससे मुखातिब हुआ, “बैठो उम्मे एमन!” उसने किचन टेबल के आगे रखी कुर्सी की तरफ इशारा किया। वह कुछ हैरान होती हुई कुर्सी पर बैठ गई।

“तुम्हें मेरा तुम कहना बुरा तो नहीं लगा?” कैबिनेट से कुछ निकालते हुए उसने पूछा।

“तुम मुझसे इतनी छोटी हो कि आप जनाब करना बड़ा बेवकूफाना सा लगता था। वैसे बाय द वे तुम्हारी उम्र कितनी है?” उसकी हवन्न्क (अवाक्) सी शक्ल को देखकर वह बुर्द-बारी (गंभीरता) से बोला।

“मुझे पता है किसी लड़की से उसकी उम्र पूछना मैनर्स के खिलाफ़ समझा जाता है। लेकिन मेरा ख़याल है कि तुम्हारी उम्र अब इतनी नहीं है कि उम्र पूछे जाने पर बुरा मानोगी।” वह मजाक कर रहा था या संजीदा था, वह समझ नहीं पाई। उसके चेहरे के तासुरात तो बहुत संजीदा किस्म के ही थे। एक प्लेट में बिस्किट रखकर वह प्लेट उसके पास ले आया।

“22 साल 8 महीने!” उसने महीनों के हिसाब किताब के साथ इस तरह अपनी उम्र बताया कि वह उसके सादगी भरे अंदाज़ पर बड़ी मुश्किलों से अपनी बे-साख्ता हँसी छुपा पाया।

“थोड़ा सा मेरा अंदाज़ा गलत हो गया। मैं तुम्हें 17 या 18 साल की समझ रहा था। खैर फिर भी तुम मुझसे काफ़ी छोटी हो। मैं 34 साल का हूँ। महीनों के हिसाब-किताब इसलिए शामिल नहीं कर सकता, क्योंकि पिछले हफ्ते ही मैंने अपने चौतीसवां बर्थडे मनाया है। वह प्लेट उसके सामने रखते हुए वापस मुड़ गया।

“गया कि तुम मुझ से 12 साल 4 महीने छोटी हो और इतने बड़े फर्क के साथ तो मुझे पूरा हक हासिल है तुमसे तुम करके बात करने का।” वह कुकिंग रेंज के पास खड़ा था।

“चाय पियोगी?” उसके सवाल पूछने के अंदाज़ में इतना यकीन शामिल था, जैसे कि उसके इंकार का कोई सवाल हो नहीं सकता था।

“वैसे मैं कोई बहुत अच्छा कुछ नहीं हूँ, लेकिन चाय और कॉफी बनाने में बहरहाल मुझे खासी महारत हासिल है। तुम्हें मेरे हाथ की बनी हुई चाय पसंद आयेगी।” वह उसके जवाब में हाँ या ना कहने से पहले ही मजीद गोया हुआ (और बातें करने लगा)। पाँच मिनट में ही उसने चाय तैयार कर ली।

“तुम चीनी कितने लोगी?” शुगर पॉट उठाते उसने उसकी तरफ देखे बगैर पूछा।

“एक चम्मच!” उसका चाय पीने का बिल्कुल दिल नहीं चाह रहा था। लेकिन अब जब वह चाय बना ही चुका था, तो वह नखरे नहीं दिखा सकती थी। उसके और अपने कप में चीनी मिलाते हुए वह मेज़ के पास आ गया।

“क्यों मेरे हाथ की बनी हुई गरमा गरम मजेदार की चाय।” उसने एक हैरत भरी निगाह उस पर और किचन में लगी घड़ी पर डाली, जो डेढ़ बजा रही थी। रात के डेढ़ बजे वह इतने खुशगवार अंदाज़ में उसकी खातिरदारी कर रहा था, जैसे दिन का डेढ़ बजा हो।

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