चैप्टर 6 कायाकल्प मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास | Chapter 6 Kayakalp Novel By Munshi Premchand

चैप्टर 6 कायाकल्प मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास | Chapter 6 Kayakalp Novel By Munshi Premchand | Chapter 6 Kayakalp Munshi Premchand Ka Upanyas

Chapter 6 Kayakalp Novel By Munshi Premchand

Chapter 6 Kayakalp Novel By Munshi Premchand

मुंशी वज्रधर उन रेल के मुसाफिरों में थे, जो पहले तो गाड़ी में खड़े होने की जगह मांगते हैं, फिर बैठने की फिक्र करने लगते हैं और अंत में सोने की तैयारी कर देते हैं। चक्रधर एक बड़ी रियासत के दीवान की लड़की को पढ़ाएं और वह इस स्वर्ण-संयोग से लाभ न उठाएं! यह क्योंकर हो सकता था। दीवान साहब को सलाम करने आने-जाने लगे। बातें करने में तो निपुण थे ही, दो ही चार मुलाकातों में उनका सिक्का जम गया। इस परिचय ने शीघ्र ही मित्रता का रूप धारण किया। एक दिन दीवान साहब के साथ वह रानी जगदीशपुर के दरबार में पहुंचे और ऐसी लच्छेदार बातें की, अपनी तहसीलदारी की ऐसी जीट उड़ाई कि रानी जी मुग्ध हो गईं ! कोई क्या तहसीलदारी करेगा ! जिस इलाके में मैं था, वहां के आदमी आज तक मुझे याद करते हैं। डींग नहीं मारता, डींग मारने की मेरी आदत नहीं, लेकिन जिस इलाके में मुश्किल से पचास हजार वसूल होता था, उसी इलाके से साल के अंदर मैंने दो लाख वसूल करके दिखा दिया। और लुत्फ यह कि किसी को हिरासत में रखने या कुर्की करने की जरूरत नहीं पड़ी।

ऐसे कार्य-कुशल आदमी की सभी जगह जरूरत रहती है। रानी ने सोचा, इस आदमी को रख लूं, तो इलाके की आमदनी बढ़ जाए। ठाकुर साहब से सलाह की। यहां तो पहले ही से संसारी बात सधी-बधी थीं। ठाकुर साहब ने रंग और भी चोखा कर दिया। उनके दोस्तों में यही ऐसे थे, जिस पर लौगी की असीम कृपादृष्टि थी। दूसरी ही सलामी में मुंशीजी को पच्चीस रुपए मासिक की तहसीलदारी मिल गई। मुंहमांगी मुराद पूरी हुई। सवारी के लिए घोड़ा भी मिल गया। सोने में सुहागा हो गया।

अब मुंशीजी की पांचों अंगुली घी में थीं। जहां महीने में एक बार भी महफिल न जमने पाती थी, वहां अब तीसों दिन जमघट होने लगा। इतने बड़े अहलकार के लिए शराब की क्या कमी; कभी इलाके पर चुपके से दस-बीस बोतलें खिंचवा लेते, कभी शहर के किसी कलवार पर घौंस जमाकर दो-चार बोतलें ऐंठ लेते। बिना हर्र-फिटकरी रंग चोखा हो जाता था। एक कहार भी नौकर रख लिया और ठाकुर साहब के घर से दो-चार कुर्सियां उठवा लाए। उनके हौसले बहुत ऊंचे न थे, केवल एक भले आदमी की भांति जीवन व्यतीत करना चाहते थे। इस नौकरी ने उनके हौसले को बहुत कुछ पूरा कर दिया, लेकिन वह जानते थे कि इस नौकरी का कोई ठिकाना नहीं। रईसों का मिजाज एक-सा नहीं रहता। मान लिया, रानी साहब के साथ निभ ही गई, तो कै दिन ! राजा साहब आते ही पुराने नौकरों को निकाल बाहर करेंगे। जब दीवान ही न रहेंगे, तो मेरी क्या हस्ती? इसलिए उन्होंने पहले ही से नए राजा साहब के यहां आना-जाना शुरू कर दिया था। इसका नाम ठाकुर विशालसिंह था। रानी साहब के चचेरे देवर होते थे। उनके दादा दो भाई थे। बड़े भाई रियासत के मालिक थे। उन्हीं के वंशजों ने दो पीढ़ियों तक राज्य का आनंद भोगा था। अब रानी के निस्संतान होने के कारण विशालसिंह के भाग्य उदय हुए थे। दो-चार गांव थे, जो उनके दादा को गुजारे के लिए मिले थे, उन्हीं को रेहन-बय करके इन लोगों ने पचास वर्ष काट दिए थे यहां तक कि विशालसिंह के पास अब इतनी भी संपत्ति न थी कि गुजर-बसर के लिए काफी होती। उस पर कुल-मर्यादा का पालन करना आवश्यक था। वह महारानी के पट्टीदार थे और इस हैसियत का निर्वाह करने के लिए उन्हें नौकर-चाकर, घोड़ा-गाड़ी सभी कुछ रखना पड़ता था। अभी तक परम्परा की नकल होती चली आती थी। दशहरे के दिन उत्सव जरूर मनाया जाता, जन्माष्टमी के दिन जरूर धूमधाम होती।

प्रात:काल था, माघ की ठंड पड़ रही थी। मुंशीजी ने गर्म पानी से स्नान किया और चौकी से उतरे। मगर खड़ाऊं उलटे रखे हुए थे। कहार खड़ा था कि यह जाएं, तो धोती छांटूं! मुंशीजी ने उलटे खड़ाऊं देखे, तो कहार को डांटा-तुमसे कितनी बार कह चुका कि खड़ाऊं सीधे रखा कर। तुझे याद क्यों नहीं रहता? बता, उलटे खड़ाऊं पर कैसे पैर रखू? आज तो मैं छोड़ देता हूँ, लेकिन कल जो तूने उलटे खड़ाऊं रखे, तो इतना पीटूंगा कि तू भी याद करेगा।

कहार ने कांपते हुए हाथ से खड़ाऊं सीधे कर दिए।

निर्मला ने हलवा बना रखा था। मुंशीजी आकर एक कुर्सी पर बैठ गए और जलता हुआ हलवा मुंह में डाल लिया। बारे किसी तरह उसे निगल गए और आंखों से पानी पोंछते हुए बोले-तुम्हारा कोई काम ठीक नहीं होता। जलता हुआ हलवा सामने रख दिया। आखिर मेरा मुंह जलाने से तुम्हें कुछ मिल तो नहीं गया।

निर्मला-जरा हाथ से देख क्यों न लिया?

वज्रधर-वाह, उलटा चोर कोतवाल को डांटे। मुझी को उल्लू बनाती हो। तुम्हें खुद सोच लेना चाहिए था कि जलता हुआ हलवा खा गए, तो मुंह की क्या दशा होगी। लेकिन तुम्हें क्या परवाह ! लल्लू कहाँ है?

निर्मला-लल्लू मुझसे कहके कहाँ जाते हैं ! पहर रात रहे, न जाने किधर चले गए। जाने कहीं किसानों की सभा होने वाली है। वहीं गए हैं।

वज्रधर-वहां दिन भर भूखों मरेगा। न जाने इसके सिर से यह भूत कब उतरेगा? मुझसे कल दारोगाजी कहते थे, आप लड़के को संभालिए, नहीं तो धोखा खाइएगा। समझ में नहीं आता, क्या करूं! मेरे इलाके के आदमी भी इन सभाओं में अब जाने लगे हैं और मुझे खौफ हो रहा है कि कहीं रानी साहब के कानों में भनक पड़ गई, तो मेरे सिर हो जाएंगी ! मैं यह तो मानता हूँ कि अहलकार लोग गरीबों को बहुत सताते हैं, मगर किया क्या जाए, सताए बगैर काम भी तो नहीं चलता। आखिर उनका गुजर-बसर कैसे हो ! किसानों को समझाना बुरा नहीं, लेकिन आग में कूदना तो बुरी बात है। मेरी तो सुनने की उसने कसम खा ली है, मगर तुम क्यों नहीं समझाती?

निर्मला-जो आग में कूदेगा, आप जलेगा, मुझे क्या करना है। उससे बहस कौन करे! आज सबेरे-सबेरे कहाँ जा रहे हो?

वज्रधर-जरा ठाकुर विशाल सिंह के यहां जाता हूँ।

निर्मला-दोपहर तक लौट आओगे न?

वज्रधर-हां, अगर उन्होंने छोड़ा। मुझे देखते ही टूट पड़ते हैं, तरह-तरह की खातिर करने लगते हैं, दूध लाओ, मेवे लाओ, जान ही नहीं छोड़ते। तीनों औरतों का किस्सा छेड़ देते हैं। बड़े मिलनसार आदमी हैं। मंगला क्या अभी तक सो रही है?

निर्मला-हां, जगा के हार गई, उठती ही नहीं।

वज्रधर-यह तो बुरी बात है। बहू-बेटियों का इतने दिन चढ़े तक सोना क्या मानी?

यह कहकर मुंशीजी ने लोटे का पानी उठाया और जाकर मंगला के ऊपर डाल दिया। निर्मला ‘हां-हां’ करती रह गई। पानी पड़ते ही मंगला हड़बड़ाकर उठी और यह समझकर कि वर्षा हो रही है, कोठरी में घुस गई। सरदी के मारे कांप रही थी।

निर्मला-सबेरे-सबेरे लेके नहला दिया !

वज्रधर-यह सब तुम्हारे लाड़-प्यार का फल है। खुद दोपहर तक सोती हो, वही आदतें लड़कों को भी सिखाती हो!

निर्मला-स्वभाव सबका अलग-अलग होता है। न कोई किसी के बनाने से बनता है, न बिगाड़ने से बिगड़ता है। मां-बाप को देखकर लड़कों का स्वभाव बदल जाता, तो लल्लू कुछ और ही होता। तुम्हें पिए बिना एक दिन भी चैन नहीं आता, उसे भी कभी पीते देखा है? यह सब कहने की बातें हैं कि लड़के मां-बाप की आदतें सीखते हैं।

वज्रधर ने इसका कुछ जवाब न दिया। कपड़े पहने; बाहर घोड़ा तैयार था, उस पर बैठे और शिवपुर चले।

जब वह ठाकुर साहब के मकान पर पहुंचे, तो आठ बज गए थे ! ठाकुर साहब धूप में बैठे एक पत्र पढ़ रहे थे। बड़ा तेजस्वी मुख था। वह एक काला दुशाला ओढ़े हुए थे, जिस पर समय के अत्याचार के चिह्न न दिखाई दे रहे थे। इस दुशाले ने उनके गोरे रंग को और भी चमका दिया था।

मुंशीजी ने मोढ़े पर बैठते हुए कहा-सब कुशल-आनंद है न?

ठाकुर-हां, ईश्वर की दया है। कहिए, दरबार के क्या समाचार हैं?

यद्यपि ठाकुर साहब रानी के संबंध में कुछ पूछना ओछापन समझते थे, तथापि इस विषय से उन्हें इतना प्रेम था कि बिना पूछे रहा न जाता था।

मुंशीजी ने मुस्कराकर कहा-सब वही पुरानी बातें हैं। डॉक्टरों के पौ बारह हैं। दिन में तीन-तीन डॉक्टर आते हैं।

ठाकुर-क्या शिकायत है?

मुंशी-बुढ़ापे की शिकायत क्या कम है? यह तो असाध्य रोग है।

ठाकुर-उन्हें तो और मनाना चाहिए कि किसी तरह इस मायाजाल से छूट जाएं। दवा-दर्पन की अब क्या जरूरत है। इतने दिन राजसुख भोग चुकीं, पर अब भी जी नहीं भरा!

मुंशी-वह तो अभी अपने को मरने लायक नहीं समझतीं। रोज जगदीशपुर से सोलह कहार पालकी उठाने के लिए बेगार पकड़कर आते हैं। वैद्यजी को लाना और ले जाना उनका काम है।

ठाकुर-अंधेर है और कुछ नहीं। पुराने जमाने में तो खैर सस्ता समय था। जो दो-चार पैसे मजदूरों को मिल जाते थे, वही खाने भर को बहुत थे। आजकल तो एक आदमी का पेट भरने को एक रुपया चाहिए। यह महा अन्याय है। बेचारी प्रजा तबाह हुई जाती है। आप देखेंगे कि मैं इस प्रथा को क्योंकर जड़ से उठा देता हूँ।

मुंशी-आपसे लोगों को बड़ी आशाएं हैं। चमारों पर भी यही आफत है! दस बारह चमार रोज साईसी करने के लिए पकड़ बुलाए जाते हैं। सुना है, इलाके भर के चमारों ने पंचायत की है कि जो साईसी करे, उसका हुक्का-पानी बंद कर दिया जाए । अब या तो चमारों को इलाका छोड़ना पड़ेगा या दीवान साहब को साईस नौकर रखने पड़ेंगे।

ठाकुर-चमारों को इलाके से निकालना दिल्लगी नहीं है। ये लोग समझते हैं कि अभी वही दुनिया है, जो बाबा आदम के जमाने में थी। चारों तरफ देखते हैं कि जमाना पलट गया, यहां तक कि किसान और मजदूर राज्य करने लगे, पर अब भी लोगों की आंखें नहीं खुलतीं। इस देश से न जाने कब यह प्रथा मिटेगी। प्रजा तबाह हुई जाती है। आप देखेंगे, मैं रियासत को क्या कर दिखाता हूँ। कायापलट कर दूंगा। सुनता हूँ, पुलिस आए दिन इलाके में तूफान मचाती रहती है। मैं पुलिस को यहां कदम न रखने दूंगा। जालिमों के हाथों प्रजा तबाह हुई जाती है।

मुंशी-सड़कें इतनी खराब हैं कि इक्के-गाड़ी का गुजर ही नहीं हो सकता।

ठाकुर-सड़कों को दुरुस्त करना मेरा पहला काम होगा। मोटर सर्विस जारी कर दूंगा, जिसमें मुसाफिरों को स्टेशन से जगदीशपुर जाने में सुविधा हो। इलाकों में लाखों बीघे ऊख बोई जाती है और उसका गुड़ या राब बनती है। मेरा इरादा है कि एक शक्कर की मिल खोल दूं और एक अंग्रेज को उसका मैनेजर बना दूं। मैं तो इन लोगों के सुप्रबंध का कायल हूँ। हिंदुस्तानियों पर कभी विश्वास न करें, भूलकर भी नहीं। ये इलाके को तबाह कर देते हैं। शेखी नहीं मारता, इलाके में एक बार रामराज्य स्थापित कर दूंगा, कंचन बरसने लगेगा। आपने किसी महाजन को ठीक किया?

मुंशी-हां, कई आदमियों से मिला था और वे बड़ी खुशी से रुपए देने के लिए तैयार हैं, केवल यही चाहते हैं कि जमानत के तौर पर कोई गांव लिख दिया जाए।

ठाकुर-आपने हामी तो नहीं भर ली?

मुंशी-जी नहीं, हामी नहीं भरी; लेकिन बगैर जमानत के रुपए मिलना मुश्किल मालूम होता है।

ठाकुर-तो जाने दीजिए, कोई ऐसी जरूरत नहीं है, जो टाली न जा सके। अगर कोई मेरे विश्वास पर रुपए दे, तो दे दे, लेकिन रियासत की इंच भर भी जमीन रेहन नहीं कर सकता। मैं फाके करूं; बिक जाऊं, लेकिन रियासत पर आंच न आने दूंगा। हां, इसका वादा करता हूँ कि रियासत मिलने के साल भर बाद कौड़ी-कौड़ी सूद के साथ चुका दूंगा। सच्ची बात तो यह है कि मुझे पहले ही मालूम था कि इस शर्त पर कोई महाजन रुपए देने पर राजी न होगा। ये बला के चीमड़ होते हैं। मुझे तो इनके नाम से चिढ़ है। मेरा वश चले, तो आज इन सबों को तोप पर उड़ा दूं। जितना डर मुझे इनसे लगता है, उतना सांप से भी नहीं लगता। इन्हीं के हाथों आज मेरी यह दुर्गति हुई है, नहीं तो इस गई-बीती दशा में आदमी होता! इन नर-पिशाचों ने सारा रक्त चूस लिया। पिताजी ने केवल पांच हजार लिए थे, जिनके पचास हजार हो गए। और मेरे तीन गांव, जो इस वक्त दो लाख को सस्ते थे, नीलाम हो गए। पिताजी का मुझे यह अंतिम उपदेश था कि कर्ज कभी मत लेना। इसी शोक में उन्होंने देह त्याग दी।

यहां अभी यह बातें हो रही थीं कि जनानखाने में से कलह-शब्द आने लगे। मालूम होता था, कई स्त्रियों में संग्राम छिड़ा हुआ है। ठाकुर साहब ये कर्कश शब्द सुनते ही विकल हो गए, उनके माथे पर बल पड़ गए, मुख तेजहीन हो गया। यही उनके जीवन की सबसे दारुण व्यथा थी। यही कांटा था, जो नित्य उनके हृदय में खटका करता था। उनकी बड़ी स्त्री का नाम वसुमती थी। वह अत्यंत गर्वशीला थी, नाक पर मक्खी भी न बैठने देतीं। उनकी तलवार सदैव म्यान से बाहर रहती थी। वह अपनी सपत्नियों पर उसी भांति शासन करना चाहती थीं, जैसे कोई सास अपनी बहुओं पर करती है। वह यह भूल जाती थीं कि ये उनकी बहुएं नहीं, सपत्नियां हैं। जो उनकी ‘हां में हां’ मिलाता, उस पर प्राण देती थीं, किंतु उनकी इच्छा के विरुद्ध जरा भी कोई बात हो जाती, तो सिंहनी का-सा विकराल रूप धारण कर लेती थीं।

दूसरी स्त्री का नाम रामप्रिया था। यह रानी जगदीशपुर की सगी बहन थीं। उनके पिता पुराने खिलाड़ी थे, दो दस्ती झाड़ते थे, दोधारी तलवार से लड़ते थे। रामप्रिया दया और विनय की मूर्ति थीं, बड़ी विचारशील और वाक्मधुर। जितना कोमल अंग था, उतना कोमल हृदय भी था। वह घर में इस तरह रहती थीं, मानो थी ही नहीं। उन्हें पुस्तकों से विशेष रुचि थी, हरदम कुछ न कुछ पढ़ा-लिखा करती थीं। सबसे अलग-विलग रहती थीं, न किसी के लेने में; न देने में, न किसी से बैर, न प्रेम।

तीसरी महिला का नाम रोहिणी था। ठाकुर साहब का उन पर विशेष प्रेम था, और वह भी प्राणपण से उनकी सेवा करती थीं। इनमें प्रेम की मात्रा अधिक थी या माया की इसका निर्णय करना कठिन था। उन्हें यह असह्य था कि ठाकुर साहब उनकी सौतों से बातचीत भी करें। वसुमती कर्कशा होने पर भी मलिन हृदय न थीं, जो कुछ मन में होता, वही मुख में। एक बार मुंह से बात निकाल डालने पर फिर उनके हृदय पर उसका कोई चिह्न न रहता था। रोहिणी द्वेष को पालती थीं, जैसे चिड़िया अपने अंडे को सेती है। वह जितना मुंह से कहती थी, उससे कहीं अधिक मन में रखती थीं।

ठाकुर साहब ने अंदर जाकर वसुमती से कहा-तुम घर में रहने दोगी या नहीं? जरा भी शरमलिहाज नहीं कि बाहर कौन बैठा हुआ है। बस, जब देखो, संग्राम मचा रहता है। इस जिंदगी से तंग आ गया। सुनते-सुनते कलेजे में नासूर पड़ गए।

वसुमती-कर्म तो तुमने किए हैं, भोगेगा कौन?

ठाकुर-तो जहर दे दो। जला-जलाकर मारने से क्या फायदा !

वसुमती-क्या वह महारानी लड़ने के लिए कम थीं कि तुम उनका पक्ष लेकर आ दौडे? पूछते क्यों नहीं, क्या हुआ, जो तीरों की बौछार करने लगे?

रोहिणी-आप चाहती हैं कि मैं कान पकड़कर उठाऊं या बैठाऊं, तो यहां कुछ आपके गांव में नहीं बसी हूँ कि कोई आपसे थर-थर कांपा करे!

ठाकुर-आखिर कुछ मालूम भी तो हो, क्या बात हुई?

रोहिणी-वही हुई जो रोज होती है। मैंने हिरिया से कहा, जरा मेरे सिर में तेल डाल दे। मालकिन ने उसे तेल डालते देखा, तो आग हो गईं। तलवार खींचे हुए आ पहुंची और उसका हाथ पकड़कर खींच ले गईं। आज आप निश्चित कर दीजिए कि हिरिया उन्हीं की लौंड़ी है या मेरी भी। यह निश्चय किए बिना आप यहां से न जाने पाएंगे।

वसुमती-वह क्या निश्चय करेंगे, निश्चय मैं करूंगी। हिरिया मेरे साथ मेरे नैहर से आई है और मेरी लौंडी है। किसी दूसरे का उस पर कोई दावा नहीं है।

रोहिणी-सुना आपने? हिरिया पर किसी का दावा नहीं है, वह अकेली उन्हीं की लौंडी है।

ठाकुर-हिरिया इस घर में रहेगी, तो उसे सबका काम करना पड़ेगा।

वसुमती यह सुनकर जल उठीं। नागिन की भांति फुफकारकर बोलीं-इस वक्त तो आपने चहेती रानी की ऐसी डिग्री कर दी, मानो यहां उन्हीं का राज्य है। ऐसे ही न्यायशील होते तो संतान का मुंह देखने को न तरसते!

ठाकुर साहब को ये शब्द बाण-से लगे। कुछ जवाब न दिया। बाहर आकर कई मिनट तक मर्माहत दशा में बैठे रहे। वसुमती इतनी मुंहफट है, यह उन्हें आज मालूम हुआ। सोचा, मैंने तो कोई ऐसी बात नहीं कही थी, जिस पर वह इतना झल्ला जाती। मैंने क्या बुरा कहा कि हिरिया को सबका काम करना पड़ेगा। अगर हिरिया केवल उसी का काम करती है, तो दो महरियां और रखनी पड़ती हैं। क्या वसुमती इतना भी नहीं समझी? ताना ही देना था, तो और कोई लगती हुई बात कह देती। यह तो कठोर से कठोर आघात है, जो वह मुझ पर कर सकती थी। ऐसी स्त्री का तो मुंह न देखना चाहिए।

सहसा उन्हें एक बात सूझी। मुंशीजी से बोले-ज्योतिष की भविष्यवाणी के विषय में आपके क्या विचार हैं? क्या यह हमेशा सच निकलती है?

मुंशीजी असमंजस में पड़े कि इसका क्या जवाब दूं कैसा जवाब रुचिकर होगा-यही उनकी समझ में न आया। अंधेरे में टटोलते हुए बोले-यह तो उसी विद्या के विषय में कहा जा सकता है, जहां अनुमान से काम न लिया जाए। ज्योतिष में बहुत कुछ पूर्व अनुभव और अनुमान ही से काम लिया जाता है।

ठाकुर-बस, ठीक यही मेरा विचार है। अगर ज्योतिष मुझे धनी बतलाए, तो यह आवश्यक नहीं कि मैं धनी हो जाऊं। ज्योतिष के धनी कहने पर भी संभव है कि मैं जिंदगी भर कौड़ियों को मोहताज रहूँ। इसी भांति ज्योतिष का दरिद्र लक्ष्मी का कृपापात्र भी हो सकता है, क्यों?

मुंशीजी को अब भी पांव जमाने को भूमि न मिली। संदिग्ध भाव से बोले-हां, ज्योतिष की धारणा जब मनुष्यों से बदली जा सकती है, तो उसे विधि का लेख क्यों समझा जाए?

ठाकुर साहब ने बड़ी उत्सुकता से पूछा-अनुष्ठानों पर आपका विश्वास है? मुंशीजी को जमीन मिल गई, बोले-अवश्य !

विशालसिंह यह तो जानते थे कि अनुष्ठानों से शंकाओं का निवारण होता है। शनि, राहु आदि का शमन करने के अनुष्ठानों से परिचित थे। बहुत दिनों से मंगल का व्रत भी रखते थे, लेकिन इन अनुष्ठानों पर अब उन्हें विश्वास न था। वह कोई ऐसा अनुष्ठान करना चाहते थे, जो किसी तरह निष्फल ही न हो। बोले-यदि आप यहां के किसी विद्वान् ज्योतिषी से परिचित हों, तो कृपा करके उन्हें मेरे यहां भेज दीजिएगा। मुझे एक विषय में उनसे कुछ पूछना है।

मुंशी-आज ही लीजिए, यहां एक से एक बढ़कर ज्योतिषी पड़े हुए हैं। आप मुझे कोई गैर न समझिए। जब, जिस काम की इच्छा हो, मुझे कहला भेजिए। सिर के बल दौड़ा आऊंगा। बाजार से कोई अच्छी चीज मंगानी हो, मुझे हुक्म दीजिए। किसी वैद्य या हकीम की जरूरत हो, तो मुझे सूचना दीजिए। मैं तो जैसे महारानीजी को समझता हूँ, वैसे ही आपको भी समझता हूँ।

ठाकुर-मुझे आपसे ऐसी ही आशा है। जरा रानी साहब का कुशल-समाचार जल्द-जल्द भेजिएगा। वहां आपके सिवा मेरा और कोई नहीं है। आप ही के ऊपर मेरा भरोसा है। जरा देखिएगा, कोई चीज इधर-उधर न होने पाए, यार लोग नोंच-खसोट न शुरू कर दें।

मुंशी-आप इससे निश्चित रहें। मैं देखभाल करता रहूँगा।

ठाकुर-हो सके, तो जरा यह भी पता लगाइएगा कि रानी ने कहाँ-कहाँ से कितने रुपए कर्ज लिए हैं।

मुंशी-समझ गया, यह तो सहज ही में मालूम हो सकता है।

ठाकुर-जरा इसका भी पता लगाइएगा कि आजकल उनका भोजन कौन बनाता है। पहले तो उनके मैके ही की कोई स्त्री थी। मालूम नहीं, अब भी वही बनाती है या कोई दूसरा रसोइया रखा गया है।

वज्रधर ने ठाकुर साहब के मन का भाव ताड़कर दृढ़ता से कहा-महाराज, क्षमा कीजिएगा, मैं आपका सेवक हूँ, पर रानीजी का भी सेवक हूँ। उनका शत्रु नहीं हूँ। आप और वह दोनों सिंह और सिंहनी की भांति लड़ सकते हैं। मैं गीदड़ की भांति अपने स्वार्थ के लिए बीच में कूदना अपमानजनक समझता हूँ। मैं यहां तक तो सहर्ष आपकी सेवा कर सकता हूँ, जहां तक रानीजी का अहित न हो। मैं तो दोनों ही द्वारों का भिक्षुक हूँ।

ठाकुर साहब दिल में शरमाए, पर इसके साथ मुंशीजी पर उनका विश्वास और भी दृढ़ हो गया। बात बनाते हुए बोले-नहीं, नहीं, मेरा मतलब आपने गलत समझा ! छी:! छी:! मैं इतना नीच नहीं। मैं केवल इसलिए पूछता था कि नया रसोइया कुलीन है या नहीं। अगर वह सुपात्र है, तो वही मेरा भी भोजन बनाता रहेगा।

ठाकुर साहब ने यह बात तो बनाई, पर उन्हें स्वयं ज्ञात हो गया कि बात बनी नहीं। अपनी झेंप मिटाने को वह एक समाचार-पत्र देखने लगे, मानो उन्हें विश्वास हो गया कि मुंशीजी ने उनकी बात सच मान ली।

इतने में हिरिया ने आकर मुंशीजी से कहा-बाबा, मालकिन ने कहा है कि आप जाने लगें तो मुझसे मिल लीजिएगा।

ठाकुर साहब ने गरजकर कहा-ऐसी क्या बात है, जिसको कहने की इतनी जल्दी है। इन बेचारों को देर हो रही है, कुछ निठल्ले थोड़े ही हैं कि बैठे-बैठे औरतों का रोना सुना करें। जा, अंदर बैठ!

यह कहकर ठाकुर साहब उठ खड़े हुए मानो मुंशीजी को विदा कर रहे हैं। वह वसुमती को उनसे बातें करने का अवसर न देना चाहते थे। मुंशीजी को भी अब विवश होकर विदा मांगनी पड़ी।

मुंशीजी यहां से चले तो उनके दिल में एक शंका समाई हुई थी कि ठाकुर साहब कहीं मुझसे नाराज तो नहीं हो गए ! हां, इतना संतोष था कि मैंने कोई बुरा काम नहीं किया। यदि वह सच्ची बात कहने के लिए नाराज हो जाते हैं, तो हो जाएं। मैं क्यों रानी साहब का बुरा चेतूं? बहुत होगा, राजा होने पर मुझे जवाब दे देंगे। इसकी क्या चिंता? इस विचार से मुंशीजी और अकड़कर बैठ गए। वह इतने खुश थे, मानो हवा में उड़े जा रहे हैं। उनकी आत्मा कभी इतनी गौरवोन्मत्त न हुई थी, चिंताओं को कभी उन्होंने इतना तुच्छ न समझा था।

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