चैप्टर 9 प्रेमाश्रम मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास | Chapter 9 Premashram Novel By Munshi Premchand Read Online
Chapter 9 Premashram Novel By Munshi Premchand
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अपनी पारिवारिक सदिच्छा का ऐसा उत्तम प्रमाण देने के बाद ज्ञानशंकर को बँटवारे के विषय में अब कोई असुविधा न रही, लाला प्रभाशंकर ने उन्हीं की इच्छानुसार करने का निश्चय कर लिया। दीवानखाना उनके लिए खाली कर दिया। लखनपुर मोसल्लम उनके हिस्से में दे दिया और घर की अन्य सामग्रियाँ भी उन्हीं की मर्जी के मुताबिक बाँट दीं। बड़ी बहू की ओर से विरोध की शंका थी, लेकिन इस एहसान ने उनकी जबान ही नहीं बन्द कर दी, वरन् उनके मनोमालिन्य को भी मिटा दिया। प्रभाशंकर अब बड़ी बहू से नौकरों से, मित्रों से, संबंधियों से ज्ञानशंकर की प्रशंसा किया करते और प्रायः अपनी आत्मीयता को किसी-न किसी उपहार के स्वरूप में प्रकट करते। एक दुशाला, एक चाँदी का थाल, कई सुन्दर चित्र, एक बहुत अच्छा ऊँनी कालीन और ऐसी ही विविध वस्तुएँ उन्हें भेंट कीं। उन्हें स्वादिष्ट पदार्थों से बड़ी रुचि थी। नित्य नाना प्रकार के मुरब्बे चटनियाँ, अचार बनाया करते थे। इस कला में प्रवीण थे। आप भी शौक से खाते थे और दूसरों को खिलाकर आनन्दित होते थे। ज्ञानशंकर के लिए नित्य कोई-न-कोई स्वादिष्ट पदार्थ बनाकर भेजते। यहाँ तक कि ज्ञानशंकर इन सद्भावों से तंग आ गये। उनकी आत्मा अभी तक उनकी कपट-नीति पर उनको लज्जित किया करती थी। यह खातिरदारियाँ उन्हें अपनी कुटिलता की याद दिलाती थीं। और इससे उनका चित्त दुखी होता था। अपने चाचा की सरल हृदयता और सज्जनता के सामने अपनी धूर्तता और मलीनता अत्यन्त घृणित दीख पड़ती थी।
लखनपुर ज्ञानशंकर की चिरभिलाषाओं का स्वर्ग था। घर की सारी सम्पत्ति में ऐसा उपजाऊ, ऐसा समृद्धिपूर्ण और कोई गाँव नहीं था जो शहर से मिला हुआ, पक्की सड़क के किनारे और जलवायु भी उत्तम। यहाँ कई हलों की सीर थी, एक कच्चा पर सुन्दर मकान भी था और सबसे बड़ी बात यह है कि यहाँ इजाफा लगान की बड़ी गुन्जाइश थी। थोड़े उद्योग से उनका नफा दूना हो सकता था। दो-चार कच्चे कुएँ खुदवाकर इजाफे की कानूनी शर्त पूरी की जा सकती थी। बँटवारे को एक सप्ताह भी न हुआ था कि ज्ञानशंकर ने गौस खाँ को बुलवाया, जमाबन्दी की जाँच की, इजाफा बेदखली की परत तैयार की और असामियों पर मुकदमा दायर करने का हुक्म दे दिया। अब तक सीर बिलकुल न होती थी। इसका प्रबन्ध किया। वह चाहते थे कि अपने हल, बैल, हलवाहे रखे जायें और विधिपूर्वक खेती की जाये। किन्तु खाँ साहब ने कहा, इतने आडम्बर की जरूरत नहीं, बेगार में बड़ी सुगमता से सीर हो सकती है। सीर के लिए बेगार ज़मींदार का हक है, उसे क्यों छोड़िए?
लेकिन सुव्यवस्था रूपी मधुर गान में एक कटु स्वर भी था, जिससे उसका लालित्य भंग हो जाता था। यह विद्यावती का असहयोग था। उसे अपने पति की स्वार्थपरता एक आँख न भाती थी। कभी-कभी मतिभेद विवाद और कलह का भी रूप धारण कर लेता था।
फागुन का महीना था। लाला प्रभाशंकर धूमधाम से होली मनाया करते थे। अपने घरवालों के लिए, नये कपड़े लाये, तो ज्ञानशंकर के परिवार के लिए भी लेते आये थे। लगभग पचास वर्षों से वह घर भर के लिए नये वस्त्र लाने के आदी हो गये थे। अब अलग हो जाने पर भी उस प्रथा को निभाते रहना चाहते थे। ऐसे आनन्द के अवसर पर द्वेष-भाव को जाग्रत रखना उनके लिए अत्यन्त दुःखकर था। विद्या ने यह कपड़े तो रख लिये, पर इसके बदले में प्रभाशंकर के लड़कों लड़कियों, और बहू के लिए एक-एक जोड़ी धोती की व्यवस्था की। ज्ञानशंकर ने यह प्रस्ताव सुना तो चिढ़कर बोले– यदि यही करना है तो उनके कपड़े लौटा क्यों नहीं देतीं?
विद्या– भला कपड़े लौटा दोगे तो वह अपने मन में क्या कहेंगे? वह बेचारे तो तुमसे मिलने को दौड़ते हैं और तुम भागे-भागे फिरते हो। तुम्हें रुपये का ही ख्याल है न? तुम कुछ मत देना; मैं अपने पास से दूँगी।
ज्ञान– जब तुम धन्ना सेठों की तरह बातें करने लगती हो तो बदन में आग सी लग जाती है! उन्होंने कपड़े भेजे तो कोई एहसान नहीं किया। दूकानों का साल भर का किराया पेशगी लेकर हड़प चुके हैं। यह चाल इसलिए चल रहे हैं कि मैं मुँह भी न खोल सकूँ और उनका बड़प्पन भी बना रहे। अपनी गाँठ से करते तो मालूम होता।
विद्या– तुम दूसरों की कीर्ति को कभी-कभी ऐसा मिटाने लगते हो कि मुझे तुम्हारी अनुदारता पर दुःख होता है। उन्होंने अपना समझकर उपहार दिया, तुम्हें इसमें उनकी चाल सूझ गयी।
ज्ञान– मुझे भी घर में बैठे सुख-भोग की सामग्रियाँ मिलती तो मैं तुमसे अधिक उदार बन जाता। तुम्हें क्या मालूम है कि मैं आजकल कितनी मुश्किल से गृहस्थी का प्रबन्ध कर रहा हूँ? लखनपुर से जो थोड़ा बहुत मिला उसी में गुजर हो रहा है। किफायत से न चलता तो अब तक सैकड़ों का कर्ज हो गया होता। केवल अदालत के लिए सैकड़ों रुपये की जरूरत है। बेदखली और इजाफे के कागज-पत्र तैयार हैं, पर मुकदमे दायर करने के लिए हाथ में कुछ भी नहीं। उधर गाँव वाले भी बिगड़े हुए हैं, ज्वालासिंह ने अब के दौरे में उन्हें ऐसा सिर चढ़ा दिया कि मुझे कुछ समझते ही नहीं। मैं तो इन चिन्ताओं में मरा जाता हूँ और तुम्हें एक खुराफात सूझा करती है।
विद्या– मैं तुमसे रुपये तो नहीं माँगती!
ज्ञान– मैं अपने और तुम्हारे रुपयों में कोई भेद नहीं समझता। हाँ, जब राव साहब तुम्हारे नाम कोई जायदाद लिख देंगे तो समझने लगूँगा।
विद्या– मैं तुम्हारा एक पैसा नहीं चाहती।
ज्ञान– माना, लेकिन वहाँ से भी तुम रोकड़ नहीं लाती हो। साल में सौ-पचास रुपये मिल जाते होंगे, इतने पर ही तुम्हारे पैर जमीन पर नहीं पड़ते। छिछले ताल की तरह उबलने लगती हो।
विद्या– तो क्या चाहते हो कि वह तुम्हें अपना घर उठाकर दे दें?
ज्ञान– वह बेचारे आप तो अघा लें, मुझे क्या देंगे? मैं तो ऐसे आदमी को पशु से गया गुजरा समझता हूं जो आप तो लाखों उड़ाए और अपने निकटतम संबंधियों की बात भी न पूछे। वह तो अगर मर भी जायें तो मेरी आँखों में आँसू न आये।
विद्या– तुम्हारी आत्मा संकुचित है, यह मुझे आज मालूम हुआ।
ज्ञान– ईश्वर का धन्यवाद दो कि मुझसे विवाह हो गया, नहीं तो कोई बात भी न पूछता। लाला बरसों तक दही-दही हाँकते रहे, पर कोई सेंत भी न पूछता था।
विद्यावती इस मर्माघात को न सह सकी, क्रोध के मारे उसका चेहरा तमतमा उठा।
वह झमककर वहाँ से चली जाने को उठी कि इतने में महरी ने एक तार का लिफाफा लाकर ज्ञानशंकर के हाथ में रख दिया। लिखा था–
‘‘पुत्र का स्वर्गवास हो गया, जल्द आओ।’’
ज्ञानशंकर ने तार का कागज जमीन पर फेंक दिया और लम्बी साँस खींच कर बोले, हाँ! शोक! परमात्मा, यह तुमने क्या किया!
विद्या ठिठक गयी।
ज्ञानशंकर ने विद्या से कहा– विद्या हम लोगों पर वज्र गिर पड़ा हमारा…
विद्या ने कातर नेत्रों से देखकर कहा– मेरे घर पर तो कुशल है।
ज्ञानशंकर– हाय प्रिये, किस मुँह से कहूँ कि सब कुशल है! वह घर उजड़ गया उस घर का दीपक बुझ गया! बाबू रामानन्द अब इस संसार में नहीं हैं। हा, ईश्वर!!
विद्या के मुँह से सहसा एक चीख निकल गयी। विह्वल होकर भूमि पर गिर पड़ी और छाती पीट-पीट कर विलाप करने लगी। श्रद्धा दौड़ी महरियाँ जमा हो गयीं। बड़ी बहू ने रोना सुना तो अपनी बहू और पुत्रियों के साथ आ पहुँची। कमरे में स्त्रियों की भीड़ लग गयी। मायाशंकर माता को रोते देखकर चिल्लाने लगा। सभी स्त्रियों के मुख पर शोक की आभा थी और नेत्रों में करुणा का जल। कोई ईश्वर को कोसती थी, कोई समय की निन्दा करती थी। अकाल मृत्यु कदाचित् हमारी दृष्टि में ईश्वर का सबसे बड़ा अन्याय है। यह विपत्ति हमारी श्रद्धा और भक्ति का नाश कर देती है, हमें ईश्वर-द्रोही बना देती है। हमें उनकी सहन पड़ गयी है। लेकिन हमारी अन्याय पीड़ित आँखें भी यह दारुण दृश्य सहन नहीं कर सकतीं। अकाल मृत्यु हमारे हृदय-पट पर सबसे कठोर दैवी आघात है। यह हमारे न्याय-ज्ञान पर सबसे भयंकर बलात्कार है।
पर हा स्वार्थ संग्राम! यह निर्दय वज्र-प्रहार ज्ञानशंकर को सुखद पुष्प वर्षा के तुल्य जान पड़ा। उन्हें क्षणिक शोक अवश्य हुआ, किन्तु तुरन्त ही हृदय में नयी-नयी आकाँक्षाएँ तरंगें मारने लगीं। अब तक उनका जीवन लक्ष्यहीन था। अब उसमें एक महान् लक्ष्य का विकास हुआ। विपुल सम्पत्ति का मार्ग निश्चित हो गया। ऊसर भूमि में हरियाली लहरें मारने लगीं। राय कमलानन्द के अब और कोई पुत्र न था। दो पुत्रियों में एक विधवा और निःसंतान थी। विद्या को ही ईश्वर ने संतान दी थी और मायाशंकर अब राय साहब का वारिस था। कोई आश्चर्य नहीं कि ज्ञानशंकर को यह शोकमय व्यापार अपने सौभाग्य की ईश्वर कृत व्यवस्था जान पड़ती थी। वह मायाशंकर को गोद में ले कर नीचे दीवानखाने में चले आये और विरासत के संबंध में स्मृतिकारों की व्यवस्था का अवलोकन करने लगे। वह अपनी आशाओं की पुष्टि और शंकाओं का समाधान करना चाहते थे। कुछ दिनों तक कानून पढ़ा था, कानूनी किताबों का उनके पास अच्छा संग्रह था। पहले, मनु-स्मृति खोली, सन्तोष न हुआ। मिताक्षरा का विधान देखा, शंका और भी बड़ी याज्ञवल्क्य ने भी विषय का कुछ सन्तोषप्रद स्पष्टीकरण न किया। किसी वकील की सम्मत्ति आवश्यक जान पड़ी। वह इतने उतावले हो रहे थे कि तत्काल कपड़े पहन कर चलने को तैयार हो गये। कहार से कहा, माया को ले जा, बाजार की सैर करा ला। कमरे से बाहर निकले ही थे कि याद आया, तार का जवाब नहीं दिया। फिर कमरे में गये, संवेदना का तार लिखा, इतने में लाला प्रभाशंकर और दयाशंकर आ पहुँचे, ज्ञानशंकर को इस समय उनका आना जहर-सा लगा। प्रभाशंकर बोले– मैंने तो अभी सुना। सन्नाटे में आ गया। बेचारे रायसाहब को बुढ़ापे यह बुरा धक्का लगा। घर ही वीरान हो गया।
ज्ञानशंकर– ईश्वर की लीला विचित्र है!
प्रभाशंकर– अभी उम्र ही क्या थी! बिलकुल लड़का था। तुम्हारे विवाह में देखा था, चेहरे से तेज बरसता था। ऐसा प्रतापी लड़का मैंने नहीं देखा।
ज्ञानशंकर– इसी से तो ईश्वर के न्याय-विधान पर से विश्वास उठ जाता है।
दयाशंकर– आपकी बड़ी साली के तो कोई लड़का नहीं है न?
ज्ञानशंकर ने विरक्त भाव से कहा– नहीं।
दयाशंकर– तब तो चाहे माया ही वारिस हो।
ज्ञानशंकर ने उनका तिरस्कार करते हुए कहा– कैसी बात करते हो? यहाँ कौन सी बात, वहाँ कौन सी बात! ऐसी बातों का यह समय नहीं है।
दयाशंकर लज्जित हो गये । ज्ञानशंकर को अब यह विलम्ब असह्य होने लगा। पैरगाड़ी उठाई और दोनों आदमियों को बरामदे में ही छोड़कर डॉक्टर इरफानअली के बँगले की ओर चल दिये, जो नामी बैरिस्टर थे।
बैरिस्टर साहब का बँगला खूब सजा हुआ था। शाम हो गयी थी, वह हवा खाने जा रहे थे। मोटर तैयार थी, लेकिन मुवक्किलों से जान न छूटती थी, वह इस समय अपने आफिस में आराम कुर्सी पर लेटे हुए सिगार पी रहे थे और अपने छोटे टेरियर को गोद में लिये उसके सिर में थपकियाँ देते जाते थे। मुवक्किल लोग दूसरे कमरे में बैठे थे। वह बारी-बारी से डॉक्टर साहब के पास आकर अपना वृत्तांत कहते जाते थे। ज्ञानशंकर को बैठे-बैठे आठ बजे गये। तब जाकर उनकी बारी आयी। उन्होंने ऑफिस में जाकर अपना मामला सुनाना शुरू किया। क्लर्क ने उनकी सब बातें नोट कर लीं। इसकी फीस ५ रुपये हुई। डॉक्टर साहब की सम्मति के लिए दूसरे दिन बुलाया। उसकी फीस ५०० रुपये थी। यदि उस सम्मति पर कुछ शंकाएँ हों तो उसके समाधान के लिए प्रति घण्टा २०० रुपये देने पड़ेगे। ज्ञानशंकर को मालूम न था कि डॉक्टर साहब के समय का मूल्य इतना अधिक है। मन में पछताये कि नाहक इस झमेले में फँसा। क्लर्क की फीस तो उसी दम दे दी और घर से रुपये लाने का बहाना करके वहाँ से निकल आये, लेकिन रास्ते में सोचने लगे, इनकी राय जरूर पक्की होती होगी, तभी तो उसका इतना मूल्य है। नहीं तो इतने आदमी उन्हें घेरे क्यों रहते। कदाचित इसीलिए कल बुलाया है। खूब छान-परताल करके तब राय देंगे। अटकल-पच्चू बातें कहनी होतीं तो अभी न कह देते। अँग्रेजी नीति में यही तो गुण है कि दाम चौकस लेते हैं, पर माल खरा देते हैं। सैकड़ों नजींरे देखनी पड़ेगी, हिन्दू शस्त्रों का मन्थन करना पड़ेगा, तब जाके तत्व हाथ आयेगा, रुपये का कोई प्रबन्ध करना चाहिए। उसका मुँह देखने से काम न चलेगा। एक बात निश्चित रूप से मालूम तो हो जायेगी। यह नहीं कि मैं तो धोखे में निश्चित बैठा रहूँ और वहाँ दाल न गले, सारी आशाएँ नष्ट हो जायें। मगर यह व्यवसाय है उत्तम। आदमी चाहे तो सोने की दीवार खड़ी कर दे। मुझे शामत सवार हुई कि उसे छोड़ बैठा, नहीं तो आज क्या मेरी आमदनी दो हजार मासिक से कम होती? जब निरे काठ के उल्लू तक हजारों पर हाथ साफ करते हैं तो क्या मेरी न चलती? इस जमींदारी का बुरा हो। इसने मुझे कहीं का न रखा!
वह घर पहुँचे तो नौ बजे चुके थे। विद्या अपने कमरे में अकेले उदास पड़ी थी महरियाँ काम-धन्धे में लगी हुई थीं और पड़ोसिनें बिदा हो गयी थीं। ज्ञानशंकर ने विद्या का सिर उठाकर अपनी गोद में रख लिया और गद्गद स्वर से बोले– मुँह देखना भी न बदा था।
विद्या ने रोते हुए कहा– उनकी सूरत एक क्षण के लिए भी आँखों ले नहीं उतरती। ऐसा जान पड़ता है, वह मेरे सामने खड़े मुस्करा रहे हैं।
ज्ञान– मेरा तो अब सांसारिक वस्तुओं पर भरोसा ही नहीं रहा। यही जी चाहता कि सब कुछ छोड़छाड़ के कहीं चल दूँ।
विद्या– कल शाम की गाड़ी से चलो। कुछ रुपये लेते चलने होंगे। मैं उनके षोड़शे में कुछ दान करना चाहती हूँ।
ज्ञान– हाँ, हाँ, जरूर। अब उनकी आत्मा को सन्तुष्ट करने का हमारे पास वही तो एक साधन रह गया है।
विद्या– उन्हें घोड़े की सवारी का बहुत शौक था। मैं एक घोड़ा उनके नाम पर देना चाहती हूँ।
ज्ञान– बहुत अच्छी बात है। दो-ढाई सौ में घोड़ा मिल जायेगा।
विद्यावती ने डरते-डरते यह प्रस्ताव किया था। ज्ञानशंकर ने उसे सहर्ष स्वीकार करके उसे मुग्ध कर दिया।
ज्ञानशंकर इस अपव्यय को इस समय काटना अनुचित समझते थे यह अवसर ही ऐसा था। अब वह विद्या का निरादर तथा अवहेलना न कर सकते थे।
क्रमश:
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