चैप्टर 10 दो सखियाँ मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास | Chapter 10 Do Sakhiyan Munshi Premchand Ka Upanyas

Chapter 10 Do Sakhiyan Munshi Premchand Ka Upanyas

Chapter 10 Do Sakhiyan Munshi Premchand

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काशी

5-1-26

बहन,

तुम्हारा पत्र पढ़कर मुझे ऐसा मालूम हुआ कि कोई उपन्यास पढ़कर उठी हूं। अगर तुम उपन्यास लिखों, तो मुझे विश्वास है, उसकी धूम मच जाए। तुम आप उसकी नायिका बन जाना। तुम ऐसी-ऐसी बातें कहां सीख गयी, मुझे तो यही आश्चर्य है। उस बंगाली के साथ तुम अकेली कैसी बैठी बातें करती रहीं, मेरी तो समझ नहीं आता। मैं तो कभी न कर सकती। तुम विनोद को जलाना चाहती हो, उनके चित्त को अशांत करना चाहती हो। उस ग़रीब के साथ तुम कितना भयंकर अन्याय कर रही हो। तुम यह क्यों समझती हो कि विनोद तुम्हारी उपेक्षा कर रहे हैं, अपने विचारों में इतने मग्न है कि उनकी रुचि ही नहीं रही। संभव है, वह कोई दार्शनिक तत्व खोज रहे हों, कोई थीसिस लिख रहीं हो, किसी पुस्तक की रचना कर रहे हों। कौन कह सकता है, तुम जैसी रुपवती स्त्री पाकर यदि कोई मनुष्य चिंतित रहे, तो समझ लो कि उसके दिल पर कोई बड़ा बोझ हैं। उनको तुम्हारी सहानुभूति की जरुरत है, तुम उनका बोझ हल्का कर सकती हों। लेकिन तुम उल्टे उन्हीं को दोष देती हों। मेरी समझ में नहीं आता कि तुम एक दिन क्यों विनोद से दिल खोलकर बातें नहीं कर लेती, संदेह को जितनी जल्द हो सकें, दिल से निकाल डालना चाहिए। संदेह वह चोट है, जिसका उपचार जल्द न हो, तो नासूर पड़ जाता है और फिर अच्छा नहीं होता। क्यों दो-चार दिनों के लिए यहां नहीं चली आतीं? तुम शायद कहो, तू ही क्यों नहीं चली आती। लेकिन मै स्वतंत्र नहीं हूँ, बिना सास-ससुर से पूछे कोई काम नहीं कर सकती। तुम्हें तो कोई बंधन नहीं है।

बहन, आजकल मेरा जीवन हर्ष और शोक का विचित्र मिश्रण हो रहा हैं। अकेली होती हूँ, तो रोती हूं; आनंद आ जाते हैं, तो हॅंसती हूँ। जी चाहता है, वह हरदम मेरे सामने बैठे रहते। लेकिन रात के बारह बजे के पहले उनके दर्शन नहीं होते। एक दिन दोपहर को आ गये, तो सासजी ने ऐसा डांटा कि कोई बच्चे को क्या डांटेगा। मुझे ऐसा भय हो रहा है कि सासजी को मुझसे चिढ़ हैं। बहन, मैं उन्हें भरसक प्रसन्न रखने की चेष्टा करती हूँ। जो काम कभी न किये थे, वह उनके लिए करती हूँ, उनके स्नान के लिए पानी गर्म करती हूँ, उनकी पूजा के लिए चौकी बिछाती हूँ। वह स्नान कर लेती हैं, तो उनकी धोती छांटती हूँ, वह लेटती हैं, तो उनके पैर दबाती हूँ; जब वह सो जाती है, तो उन्हें पंखा झलती हूँ। वह मेरी माता हैं, उन्हीं के गर्भ से वह रत्न उत्पन्न हुआ है, जो मेरा प्राणधार है। मैं उनकी कुछ सेवा कर सकूं, इससे बढ़कर मेरे लिए सौभाग्य की और क्या बात होगी। मैं केवल इतना ही चाहती हूँ कि वह मुझसे हँसकर बोले, मगर न जाने क्यों वह बात-बात पर मुझे कोसने दिया करती हैं। मैं जानती हूँ, दोष मेरा ही हैं। हां, मुझे मालूम नहीं, वह क्या हैं। अगर मेरा यही अपराध है कि मैं अपनी दोनों नन्दों से रुपवती क्यों हूँ, पढ़ी-लिखी क्यों हूँ, आनंद मुझें इतना क्यों चाहते हैं, तो बहन, यह मेरे बस की बात नही। मेरे प्रति सासजी को भ्रम होता होगा कि मैं ही आनंद को भरमा रहीं हूँ। शायद वह पछताती है कि क्यों मुझें बहू बनाया। उन्हें भय होता है कि कहीं मैं उनके बैटे को उनसे छीन न लूं। दो-एक बार मुझे जादूगरनी कही चुकी हैं। दोनों ननदें अकारण ही मुझसे जलती रहती है। बड़ी ननदजी तो अभी कलोर हैं, उनका जलना मेरी समझ में नहीं आता। मैं उनकी जगह होती, तो अपनी भावज से कुछ सीखने की, कुछ पढ़ने की कोशिश करती, उनके चरण धो-धोकर पीती, पर इस छोकरी को मेरा अपमान करने ही में आनंद आता हैं। मैं जानती हूँ, थोड़े दिनों में दोनों ननदें लज्जित होंगी। हां, अभी वे मुझसे बिचकती हैं। मैं अपनी तरफ से तो उन्हें अप्रसन्न होने को कोई अवसर नहीं देती।

मगर रुप को क्या करूं? क्या जानती थी कि एक दिन इस रुप के कारण मैं अपराधिनी ठहरायी जाऊंगी। मैं सच कहती हूँ बहन, यहाँ मैंने श्रृंगार करना एक तरह से छोड़ ही दिया हैं। मैली-कुचैली बनी बैठी रहती हूँ। इस भय से कि कोई मेरे पढ़ने-लिखने पर नाक न सिकोड़े, पुस्तकों को हाथ नहीं लगाती। घर से पुस्तकों का एक गट्ठर बांध लायी थी। उसमें कोई पुस्तकें बड़ी सुंदर हैं। उन्हें पढ़ने के लिए बार-बार जी चाहता हैं, मगर डरती हूँ कि कोई ताना न दे बैठे। दोनों ननदें मुझे देखती रहती हैं कि यह क्या करती हैं, कैसे बैठती है, कैसे बोलती है, मानो दो-दो जासूस मेरे पीछे लगा दिए गए हों। इन दोनों महिलाओं को मेरी बदगोई में क्यों इतना मजा आता हैं, नहीं कह सकती। शायद आजकल उन्हें इसके सिवाय दूसरा काम ही नहीं। गुस्सा तो ऐसा आता हैं कि एक बार झिड़क दूं लेकिन मन को समझाकर रोक लेती हूँ। यह दशा बहुत दिनों नहीं रहेगी। एक नए आदमी से कुछ हिचक होना स्वाभाविक ही है, विशेषकर जब वह नया आदमी शिक्षा और विचार व्यवहार में हमसे अलग हो। मुझी को अगर किसी फ्रेंच लेडी के साथ रहना पड़े, तो शायद मैं भी उसकी हर एक बात को आलोचना और कौतूहल की दृष्टि से देखने लगूं। यह काशीवासी लोग पूजा-पाठ बहुत करते है। सासजी तो रोज गंगा-स्नान करने जाती हैं। बड़ी ननद भी उनके साथ जाती है। मैंने कभी पूजा नहीं की। याद है, हम और तुम पूजा करने वालों को कितना बनाया करती थी। अगर मैं पूजा करने वालों का चरित्र कुछ उन्नत पाती, तो शायद अब तक मैं भी पूजा करती होती। लेकिन मुझे तो कभी ऐसा अनुभव प्राप्त नहीं हुआ, पूजा करने वालियाँ भी उसी तरह दूसरों की निंदा करती हैं, उसी तरह आपस में लड़ती-झगड़ती हैं, जैसे वे जो कभी पूजा नहीं करतीं। खैर, अब मुझे धीरे-धीरे पूजा से श्रद्धा होती जा रही हैं। मेरे ददिया ससुरजी ने एक छोटा-सा ठाकुर द्वारा बनवा दिया था। वह मेरे घर के सामने ही हैं। मैं अक्सर सासजी के साथ वहां जाती हूँ और अब यह कहने में मुझे कोई संकोच नहीं कि उन विशाल मूर्तियों के दर्शन से मुझे अपने अंतःस्तल में एक ज्योति का अनुभव होता है। जितनी अश्रद्धा से मैं राम और कृष्ण के जीवन की आलोचना किया करती थी, वह बहुत कुछ मिट चुकी हैं।

लेकिन रुपवती होने का दण्ड यहीं तक बस नहीं है। ननदें अगर मेरे रुप कों देखकर जलती हैं, तो यह स्वाभाविक हैं। दु:खी तो इस बात का है कि यह दण्ड मुझे उस तरफ से भी मिल रहा है, जिधर से इसकी कोई संभावना न होनी चाहिए—मेरे आनंद बाबू भी मुझे इसका दण्ड दे रहे है। हां, उनकी दण्डनीति एक निराले ही ढंग की हैं। वह मेरे पास नित्य ही कोई-न-कोई सौगात लाते रहते है। वह जितनी देर मेरे पास रहते है। उनके मन में यह संदेह होता रहता है कि मुझे उनका रहना अच्छा नहीं लगता। वह समझते है कि मैं उनसे जो प्रेम करती हूँ, यह केवल दिखावा है, कौशल है। वह मेरे सामने कुछ ऐसे दबे-दबाये, सिमटे-सिमटाये रहते है कि मैं मारे लज्जा के मर जाती हूँ। उन्हें मुझसे कुछ कहते हुए ऐसा संकोच होता है, मानो वह कोई अनाधिकार चेष्टा कर रहे हों। जैसे मैले-कुचैले कपड़े पहने हुए कोई आदमी उज्ज्वल वस्त्र पहनने वालों से दूर ही रहना चाहता है, वही दशा इनकी है। वह शायद समझते हैं कि किसी रुपवती स्त्री को रूपहीन पुरुष से प्रेम हो ही नहीं सकता। शायद वह दिल में पछताते हैं कि क्यों इससे विवाह किया। शायद उन्हें अपने ऊपर ग्लानि होती है। वह मुझे कभी रोते देख लेते है, तो समझते हैं कि मैं अपने भाग्य को रो रही हूँ, कोई पत्र लिखते देखते हैं, तो समझते है, मैं उनकी रुपहीनता ही का रोना रो रही हूँ। क्या कहूं, बहन, यह सौंदर्य मेरी जान का गाहक हो गया। आनंद के मन से शंका को निकालने और उन्हें अपनी ओर से आश्वासन देने के लिए मुझे ऐसी-ऐसी बातें करनी पड़ती हैं, ऐसे-ऐसे आचरण करने पड़ते हैं, जिन पर मुझे घृणा होती हैं। अगर पहले से यह दशा जानती, तो ब्रह्मा से कहती कि मुझे कुरूपा ही बनाना। बड़े असमंजस में पड़ी हूँ! अगर सासजी की सेवा नहीं करती, बड़ी ननदजी का मन नहीं रखती, तो उनकी ऑंखों से गिरती हूँ। अगर आनंद बाबू को निराश करती हूँ, तो कदाचित् मुझसे विरक्त ही हो जाएं। मै तुमसे अपने हृदय की बात कहती हूँ। बहन, तुमसे क्या पर्दा रखना है; मुझे आनंद बाबू से उतना प्रेम है, जो किसी स्त्री को पुरुष से हो सकता है, उनकी जगह अब अगर इंद्र भी सामने आ जाएं, तो मैं उनकी ओर ऑख उठाकर न देखूं, मगर उन्हें कैसे विश्वास दिलाऊं? मैं देखती हूँ, वह किसी न किसी बहाने से बार-बार घर में आते है और दबी हुई, ललचाई हुई नजरों से मेरे कमरे के द्वार की ओर देखते हैं, तो जी चाहता है, जाकर उनका हाथ पकड़ लूं और अपने कमरे में खींच ले आऊं। मगर एक तो डर होता है कि किसी की ऑंख पड़ गयी, तो छाती पीटने लगेगी, और इससे भी बड़ा डर यह कि कहीं आनंद इसे भी कौशल ही न समझ बैठे। अभी उनकी आमदनी बहुम कम है, लेकिन दो-चार रुपये सौगातों मे रोज उड़ाते हैं। अगर प्रेमोपहार-स्वरूप वह धेले की कोई चीज़ दें, तो मैं उसे ऑंखों से लगाऊं, लेकिन वह कर-स्वरूप देते हैं, मानो उन्हें ईश्वर ने यह दण्ड दिया हैं। क्या करूं, अब मुझे भी प्रेम का स्वांग करना पड़ेगा। प्रेम-प्रदर्शन से मुझे चिढ़ हैं। तुम्हें याद होगा, मैंने एक बार कहा था कि प्रेम या तो भीतर ही रहेगा या बाहर ही रहेगा। समान रूप से वह भीतर और बाहर दोनों जगह नहीं रह सकता। स्वांग वेश्याओं के लिए है, कुलवंती तो प्रेम को हृदय ही में संचित रखती हैं!

बहन, पत्र बहुत लंबा हो गया, तुम पढ़ते-पढ़ते ऊब गयी होगी। मैं भी लिखते-लिखते थक गयी। अब शेष बातें कल लिखूंगी। परसों यह पत्र तुम्हारे पास पहुँचेगा।

बहन, क्षमा करना; कल पत्र लिखने का अवसर नहीं मिला। रात एक ऐसी बात हो गयी, जिससे चित्त अशांत उठा। बड़ी मुश्किलों से यह थोड़ा-सा समय निकाल सकी हूँ। मैंने अभी तक आनंद से घर के किसी प्राणी की शिकायत नहीं की थी। अगर सासजी ने कोई बात की दी या ननदजी ने कोई ताना दे दिया; तो इसे उनके कानों तक क्यों पहुँचाऊं। इसके सिवाय कि गृह-कलह उत्पन्न हो, इससे और क्या हाथ आयेगा। इन्हीं जरा-जरा सी बातों को न पेट में डालने से घर बिगड़ते हैं। आपस में वैमनस्य बढ़ता हैं। मगर संयोग की बात, कल अनायास ही मेरे मुंह से एक बात निकल गयी जिसके लिये मै अब भी अपने को कोस रहीं हूँ, और ईश्वर से मनाती हूँ कि वह आगे न बढ़े। बात यह हुई कि कल आनंद बाबू बहुत देर करके मेरे पास आये। मैं उनके इंतज़ार में बैठी एक पुस्तक पढ़ रही थी। सहसा सासजी ने आकर पूछा—”क्या अभी तक बिजली जल रही है? क्या वह रात-भर न आयें, तो तुम रात-भर बिजली जलाती रहोगी?”

मैंने उसी वक्त बत्ती ठण्डी कर दी। आनंद बाबू थोड़ी ही देर मे आये, तो कमरा अंधेरा पड़ा था न-जाने उस वक्त मेरी मति कितनी मंद हो गयी थी। अगर मैंने उनकी आहट पाते ही बत्ती जला दी होती, तो कुछ न होता, मगर मैं अंधेरे में पड़ी रहीं। उन्होंने पूछा—”क्या सो गयीं? यह अंधेरा क्यों पड़ा हुआ है?”

हाय! इस वक्त भी यदि मैंने कह दिया होता कि मैंने अभी बत्ती गुल कर दी, तो बात बन जाती। मगर मेरे मुँह से निकला—”सासजी का हुक्म हुआ कि बत्ती गुल कर दो, गुल कर दी। तुम रात-भर न आओ, तो क्या रात भर बत्ती जलती रहें?”

“तो अब तो जला दो। मैं रोशनी के सामने से आ रहा हूँ। मुझे तो कुछ सूझता ही नहीं।”

“मैंने अब बटन को हाथ से न छूने की कसम खा ली है। जब ज़रूरत पड़गी; तो मोम की बत्ती जला लिया करूंगी। कौन मुफ़्त में घुड़कियाँ सहें।”

आनंद ने बिजली का बटन दबाते हुए कहा— “और मैंने कसम खा ली कि रात-भर बत्ती जलेगी, चाहे किसी को बुरा लगे या भला। सब कुछ देखता हूँ, अंधा नहीं हूँ। दूसरी बहू आकर इतनी सेवा करेगी तो देखूंगा; तुम नसीब की खोटी हो कि ऐसे प्राणियों के पाले पड़ी। किसी दूसरी सास की तुम इतनी खिदमत करतीं, तो वह तुम्हें पान की तरह फेरती, तुम्हें हाथों पर लिए रहती, मगर यहां चाहे प्राण ही दे दो किसी के मुँह से सीधी बात न निकलेगी।”

मुझे अपनी भूल साफ़ मालूम हो गयी। उनका क्रोध शांत करने के इरादे से बोली—”ग़लती भी तो मेरी ही थी कि व्यर्थ आधी रात तक बत्ती जलायें बैठी रही। अम्माजी ने गुल करने को कहा, तो क्या बुरा कहा? मुझे समझाना, अच्छी सीख देना, उनका धर्म हैं। मेरा धर्म यही है कि यथाशक्ति उनकी सेवा करूं और उनकी शिक्षा को गिरह बांधूं।”

आनंद एक क्षण द्वार की ओर ताकते रहे। फिर बोले—”मुझे मालूम हो रहा है कि इस घर में मेरा अब गुजर न होगा। तुम नहीं कहतीं, मगर मैं सब कुछ सुनता रहता हूँ। सब समझता हूँ। तुम्हें मेरे पापों का प्रायश्चित करना पड़ रहा हैं। मैं कल अम्माजी से साफ-साफ कह दूंगा – “अगर आपका यही व्यवहार है, तो आप अपना घर लीजिए, मैं अपने लिए कोई दूसरी राह निकाल लूंगा।”

मैंने हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाते हुए कहा—”नहीं-नहीं। कहीं ऐसा गजब भी न करना। मेरे मुँह में आग लगे, कहां से कहाँ बत्ती का ज़िक्र कर बैठी। मैं तुम्हारे चरण छूकर कहती हूँ, मुझे न सासजी से कोई शिकायत है, न ननदजी से, दोनों मुझसे बड़ी है, मेरी माता के तुल्य हैं। अगर एक बात कड़ी भी कह दें, तो मुझे सब्र करना चाहिए! तुम उनसे कुछ न कहना, नहीं तो मझे बड़ा दु:ख होगा।”

आनंद ने रुंधे कंठ से कहा—”तुम्हारी-जैसी बहू पाकर भी अम्माजी का कलेजा नहीं पसीजता, अब क्या कोई स्वर्ग की देवी घर में आती? तुम डरो मत, मैं ख्वाहमख्वाह लडूंगा नहीं। मगर हां, इतना अवश्य कह दूंगा कि जरा अपने मिज़ाज को काबू में रखें। आज अगर मैं दो-चार सौ रुपये घर में लाता होता, तो कोई चूं न करता। कुछ कमाकर नहीं लाता, यह उसी का दण्ड है। सच पूछो, तो मुझे विवाह करने का कोई अधिकार ही न था। मुझ-जैसे मंद बुद्धि को, जो कौड़ी कमा नहीं सकता, उसे अपने साथ किसी महिला को डुबाने का क्या हक था! बहनजी को न-जाने क्या सूझी है कि तुम्हारे पीछे पड़ी रहती हैं। ससुराल का सफाया कर दिया, अब यहां भी आग लगाने पर तुली हुई है। बस, पिताजी का लिहाज़ करता हूँ, नहीं इन्हें तो एक दिन में ठीक कर देता।

बहन, उस वक्त तो मैंने किसी तरह उन्हीं शांत किया, पर नहीं कह सकती कि कब वह उबल पड़े। मेरे लिए वह सारी दुनिया से लड़ाई मोल ले लेगें। मैं जिन परिस्थितयों में हूँ, उनका तुम अनुमान कर सकती हो। मुझ पर कितनी ही मार पड़े मुझे रोना न चाहिए, जबान तक न हिलाना चाहिए। मैं रोयी और घर तबाह हुआ। आनंद फिर कुछ न सुनेगे, कुछ न देखेगें। कदाचित इस उपाय से वह अपने विचार मे मेरे हृदय में अपने प्रेम का अंकुर जमाना चाहते हो। आज मुझे मालूम हुआ कि यह कितने क्रोधी हैं। अगर मैंने जरा-सा पुचार दे दिया होता, तो रात ही को वह सासजी की खोपड़ी पर जा पहुँचते। कितनी युवतियाँ इसी अधिकार के गर्व में अपने को भूल जाती हैं। मै तो बहन, ईश्वर ने चाहा तो कभी न भूलूंगी। मुझे इस बात का डर नहीं है कि आनंद अलग घर बना लेगें, तो गुजर कैसे होगा। मैं उनके साथ सब-कुछ झेल सकती हूँ। लेकिन घर तो तबाह हो जायेगा।

बस, प्यारी पद्मा, आज इतना ही। पत्र का जवाब जल्द देना।

तुम्हारी,

चंदा

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