चैप्टर 11 दो सखियाँ मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास | Chapter 11 Do Sakhiyan Munshi Premchand Ka Upanyas

चैप्टर 11 दो सखियाँ मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास | Chapter 11 Do Sakhiyan Munshi Premchand Ka Upanyas

Chapter 11 Do Sakhiyan Munshi Premchand Ka Upanyas

Chapter 11 Do Sakhiyan Munshi Premchand

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दिल्ली

5-2-26

प्यारी चंदा 

क्या लिखूं,, मुझ पर तो विपत्ति का पहाड़ टूट पड़ा! हाय, वह चले गए। मेरे विनोद का तीन दिन से पता नहीं—निर्मोही चला गया, मुझे छोड़कर बिना कुछ कहे-सुने चला गया—अभी तक रोयी नहीं। जो लोग पूछने आते हैं, उनसे बहाना कर देती हूँ कि दो-चार दिन में आयेंगे, एक काम से काशी गये हैं। मगर जब रोऊंगी, तो यह शरीर उन ऑंसुओं में डूब जायेगा। प्राण उसी मे विसर्जित हो जायेंगे। छलिये ने मुझसे कुछ भी नहीं कहा, रोज की तरह उठा, भोजन किया, विद्यालय गया; नियत समय पर लौटा, रोज की तरह मुस्कुराकर मेरे पास आया। हम दोनों ने जलपान किया, फिर वह दैनिक पत्र पढ़ने लगा, मैं टेनिस खेलने चली गयी। इधर कुछ दिनों से उन्हें टेनिस से कुछ प्रेम न रहा था, मैं अकेली ही जाती। लौटी, तो रोज ही की तरह उन्हें बरामदे में टहलते और सिगार पीते देखा। मुझे देखते ही वह रोज की तरह मेरा ओवरकोट लाये और मेरे ऊपर डाल दिया। बरामदे से नीचे उतरकर खुले मैदान मे हम टहलने लगे। मगर वह ज़्यादा बोले नहीं, किसी विचार में डूबे रहे। जब ओस अधिक पड़ने लगी, तो हम दोनों फिर अंदर चले आयें। उसी वक्त वह बंगाली महिला आ गयी, जिनसे मैंने वीणा सीखना शुरू किया है। विनोद भी मेरे साथ ही बैठे रहे। संगीत उन्हें कितना प्रिय है, यह तुम्हें लिख चुकी हूँ। कोई नयी बात नहीं हुई। महिला के चले जाने के बाद हमने साथ-ही-साथ भोजन किया, फिर मैं अपने कमरे में लेटने आयी। वह रोज की तरह अपने कमरे में लिखने-पढ़ने चले गये। मैं जल्द ही सो गयी, लेकिन बेखबर पड़ी रहूं, उनकी आहट पाते ही आप-ही-आप ऑंखे खुल गयीं। मैंने देखा, वह अपना हरा शाल ओढ़े खड़े थे। मैने उनकी ओर हाथ बढ़ाकर कहा—”आओ! खड़े क्यों हो।” 

और फिर सो गयी। बस, प्यारी बहन! वही विनोद के अंतिम दर्शन थे। कह नहीं सकती, वह पलंग पर लेटे या नहीं। इन आंखों में न-जाने कौन-सी महानिद्रा समायी हुई थी। प्रात: उठी, तो विनोद को न पाया। मैं उनसे पहले उठती हूँ, वह पड़े सोते रहते हैं। पर आज वह पलंग पर न थे। शाल भी न था। मैंने समझा, शायद अपने कमरे में चले गये हों। स्नान-गृह में चली गयी। आधे घंटे में बाहर आयी, फिर भी वह न दिखायी दिये। उनके कमरे में गयी, वहां भी न थें। आश्चर्य हुआ कि इतने सबरे कहां चले गए। सहसा खूंटी पर दृष्टि पड़ी—कपड़े न थे। किसी से मिलने चले गये? या स्नान के पहले सैर करने की ठानी। कम-से-कम मुझसे कह तो देते, संशय में तो जी न पड़ता। क्रोध आया—मुझे लौंडी समझते हैं…

हाजिरी का समय आया। बैरा मेज पर चाय रख गया। विनोद के इतंजार में चाय ठंडी हो गयी। मैं बार-बार झुंझलाती थी, कभी भीतर जाती, कभी बाहर आती, ठान ली थी कि आज ज्यों ही महाशय आयेंगे, ऐसा लटाडूंगी कि वह भी याद करेंगे। कह दूंगी आप अपना घर लीजिए, आपको अपना घर मुबारक रहे, मैं अपने घर चली जाऊंगी। इस तरह तो रोटियाँ वहॉं भी मिल जायेंगी। जाड़े के नौ बजने में देर ही क्या लगती है। विनोद का अभी पता नहीं। झल्लायी हुई कमरे मे गयी कि एक पत्र लिखकर मेज पर रख दूं—साफ-साफ लिख दूं कि इस तरह अगर रहना है, तो आप रहिए, मैं नहीं रह सकती। मैं जितना ही सह देती जाती हूँ, उतना ही तुम मुझे चिढ़ाते हों। बहन, उस क्रोध में संतप्त भावों की नदी-सी मन में उमड़ रही थी। अगर लिखने बैठती, तो पन्नों-के-पन्ने लिख डालती। लेकिन आह! मैं तो भाग जाने की धमकी ही दे रही थी, वह पहले ही भाग चुके थे। ज्यों ही मेज पर बैठी, मुझे पैडी में उनका एक पत्र मिला। मैंने तुरन्त उस पत्र को निकाल लिया और सरसरी निगाह से पढ़ा—मेरे हाथ कांपने लगे, पांव थरथराने लगे, जान पड़ा कमरा हिल रहा है। एक ठण्डी, लंबी, हृदय को चीरने वाली आह खींचकर मैं कोच पर गिर पड़ी। पत्र यह था—

‘प्रिये! नौ महीने हुए, जब मुझे पहली बार तुम्हारे दर्शनों का सौभाग्य हुआ था। उस वक्त मैंने अपने को धन्य माना था। आज तुमसे वियोग का दुर्भाग्य हो रहा है फिर भी मैं अपने को धन्य मानता हूँ। मुझे जाने का लोशमात्र भी दु:ख नहीं है, क्योकि मैं जानता हूँ कि तुम खुश होगी। जब तुम मेरे साथ सुखी नहीं रह सकती; तो मैं जबरदस्ती क्यों पड़ा रहूं। इससे तो यह कहीं अच्छा है कि हम और तुम अलग हो जाएं। मैं जैसा हूँ, वैसा ही रहूंगा। तुम भी जैसी हो, वैसी ही रहोगी। फिर सुखी जीवन की संभावना कहाँ? मैं विवाह को आत्म-विकास का पूरी का साधन समझता हूँ। स्त्री पुरुष के संबंध का अगर कोई अर्थ है, तो यही है, वर्ना मैं विवाह की कोई जरुरत नहीं समझता। मानव संतान बिना विवाह के भी जीवित रहेगी और शायद इससे अच्छे रूप में। वासना भी बिना विवाह के पूरी हो सकती है, घर के प्रबंध के लिए विवाह करने की कोई जरुरत नहीं। जीविका एक बहुत ही गौण प्रश्न है। जिसे ईश्वर ने दो हाथ दिये हैं, वह कभी भूखा नहीं रह सकता। विवाह का उद्देश्य यही और केवल यही है कि स्त्री और पुरुष एक-दूसरे की आत्मोन्नति में सहायक हों। जहां अनुराग हो, वहां विवाह है और अनुराग ही आत्मोन्नति का मुख्य साधन है। जब अनुराग न हो, तो विवाह भी न रहा। अनुराग के बिना विवाह का अर्थ नहीं।

जिस वक्त मैंने तुम्हें पहली बार देखा था, तुम मुझे अनुराग की सजीव मूर्ति-सी नजर आयी थी। तुममें सौंदर्य था, शिक्षा थी, प्रेम था, स्फूर्ति थी, उमंग थी। मैं मुग्ध हो गया। उस वक्त मेरी अंधी ऑंखों को यह न सूझा कि जहां तुममें इतने गुण थे, वहां चंचलता भी थी, जो इन सब गुणों पर पर्दा डाल देती। तुम चंचल हो, गजब की चंचल, जो उस वक्त मुझे न सूझा था। तुम ठीक वैसी ही हो, जैसी तुम्हारी दूसरी बहनें होती हैं, न कम, न ज़्यादा। मैंने तुमको स्वाधीन बनाना चाहा था, क्योंकि मेरी समझ में अपनी पूरी ऊँचाई तक पहुँचने के लिए इसी की सबसे अधिक ज़रूरत है। संसार भर में पुरुषों के विरुद्ध क्यों इतना शोर मचा हुआ है? इसीलिए कि हमने औरतों की आज़ादी छीन ली है और उन्हें अपनी इच्छाओं की लौंडी बना रखा है। मैंने तुम्हें स्वाधीन कर दिया। मैं तुम्हारे ऊपर अपना कोई अधिकार नहीं मानता। तुम अपनी स्वामिनी हो, मुझे कोई चिंता न थी। अब मुझे मालूम हो रहा है, तुम स्वेच्छा से नहीं, संकोच या भय या बंधन के कारण रहती हो। दो ही चार दिन पहले मुझ पर यह बात खुली है। इसीलिए अब मैं तुम्हारे सुख के मार्ग में बाधा नहीं डालना चाहता। मैं कहीं भागकर नहीं जा रहा हूँ। केवल तुम्हारे रास्ते से हटा जा रहा हूँ, और इतनी दूर हटा जा रहा हूँ कि तुम्हें मेरी ओर से पूरी निश्चिन्तता हो जाए। अगर मेरे बगैर तुम्हारा जीवन अधिक सुंदर हो सकता है, तो तुम्हें जबरन नहीं रखना चाहता। अगर मैं समझता कि तुम मेरे सुख के मार्ग बाधक हो रही हो, तो मैंने तुमसे साफ-साफ कह दिया होता। मैं धैर्य और नीति का ढोंग नहीं मानता, केवल आत्मा का संतोष चाहता हूँ—अपने लिए भी, तुम्हारे लिए भी। जीवन का तत्व यही है; मूल्य यही है। मैंने डेस्क में अपने विभाग के अध्यक्ष के नाम एक पत्र लिखकर रख दिया हैं। वह उनके पास भेज देना। रुपये की कोई चिंता मत करना। मेरे एकाउंट मे अभी इतने रुपये हैं, जो तुम्हारे लिए कई महीने को काफ़ी हैं, और उस वक्त तक मिलते रहेगें, जब तक तुम लेना चाहोगी। मैं समझता हूँ, मैंने अपना भाव स्पष्ट कर दिया है। इससे अधिक स्पष्ट मैं नहीं करना चाहता। जिस वक्त तुम्हारी इच्छा मुझसे मिलने की हो, बैंक से मेरा पता पूछ लेना। मगर दो-चार दिन के बाद। घबराने की कोई बात नहीं। मैं स्त्री को अबला या अपंग नहीं समझता। वह अपनी रक्षा स्वयं कर सकती हैं—अगर करना चाहे। अगर अब या अब से दो-चार महीना, दो-चार साल पीछे तुम्हे मेरी याद आए और तुम समझो कि मेरे साथ सुखी रह सकती हो, तो मुझे केवल दो शब्द लिखकर डाल देना, मैं तुरन्त आ जाऊंगा, क्योंकि मुझे तुमसे कोई शिकायत नहीं हैं। तुम्हारे साथ मेरे जीवन के जितने दिन कटे हैं, वह मेरे लिए स्वर्ग-स्वप्न के दिन हैं। जब तक जिऊंगा, इस जीवन की आनंद-स्मृतियों कों हृदय में संचित रखूंगा। आह! इतनी देर तक मन को रोके रहने के बाद ऑंखों से एक बूंद ऑंसू गिर ही पड़ा। क्षमा करना, मैंने तुम्हें ‘चंचल’ कहा हैं। अचंचल कौन है? जानता हूँ कि तुमने मुझे अपने हृदय से निकालकर फेंक दिया है, फिर भी इस एक घंटे में कितनी बार तुमको देख-देखकर लौट आया हूँ! मगर इन बातों को लिखकर मैं तुम्हारी दया को उकसाना नहीं चाहता। तुमने वही किया, जिसका मेरी नीति में तुमको अधिकार था, है और रहेगा। मैं विवाह में आत्मा को सर्वोपरी रखना चाहता हूँ। स्त्री और पुरुष में मैं वही प्रेम चाहता हूँ, जो दो स्वाधीन व्यक्तियों में होता है। वह प्रेम नहीं, जिसका आधार पराधीनता हैं।

बस, अब और कुछ न लिखूंगा। तुमको एक चेतावनी देने की इच्छा हो रही है पर दूंगा नहीं; क्योंकि तुम अपना भला और बुरा खुद समझ सकती हो। तुमने सलाह देने का हक मुझसे छीन लिया है। फिर भी इतना कहे बगैर नहीं रहा जाता कि संसार में प्रेम का स्वांग भरने वाले शोहदों की कमी नहीं है, उनसे बचकर रहना। ईश्वर से यही प्रार्थना करता हूँ कि तुम जहॉं रहो, आनंद से रहो। अगर कभी तुम्हें मेरी ज़रूरत पड़े, तो याद करना। तुम्हारी एक तस्वीर का अपहरण किये जाता हूँ। क्षमा करना, क्या मेरा इतना अधिकार भी नहीं? हाय! जी चाहता है, एक बार फिर देख आऊं, मगर नहीं आऊंगा।’

—तुम्हारा ठुकराया हुआ,

विनोद

बहन, यह पत्र पढ़कर मेरे चित्त की जो दशा हुई, उसका तुम अनुमान कर सकती हो। रोयी तो नहीं; पर दिल बैठा जाता था। बार-बार जी चाहता था कि विष खाकर सो रहूं। दस बजने में अब थोड़ी ही देर थी। मैं तुरन्त विद्यालय गयी और दर्शन-विभाग के अध्यक्ष विनोद का पत्र पढ़कर बोले —”आपको मालूम है, वह कहां गये और कब तक आयेंगें? इसमें तो केवल एक मास की छुट्टी मांगी गयी है।” 

मैंने बहाना किया—”वह एक आवश्यक कार्य से काशी गये हैं।” 

और निराश होकर लौट आयी। मेरी अंतरतमा सहस्रों जिहवा बनकर मुझे धिक्कार रही थी। कमरे में उनकी तस्वीर के सामने घुटने टेककर मैंने जितने पश्चाताप–पूर्ण शब्दों में क्षमा मांगी है, वह अगर किसी तरह उनके कानों तक पहुँच सकती, तो उन्हें मालूम होता कि उन्हें मेरी ओर से कितना भ्रम हुआ! तब से अब तक मैंने कुछ भोजन नहीं किया और न एक मिनट सोयी। विनोद मेरी क्षुधा और निद्रा भी अपने साथ लेते गये और शायद इसी तरह दस – पांच दिन उनकी खबर न मिली, तो प्राण भी चले जायेंगें। आज मैं बैंक तक गयी थी, यह पूछने कि हिम्मत न पड़ी कि विनोद का कोई पत्र आया। वह सब क्या सोचते कि यह उनकी पत्नी होकर हमसे पूछने आयी हैं!

बहन, अगर विनोद न आये, तो क्या होगा? मैं समझती थी, वह मेरी तरफ से उदासीन हैं, मेरी परवाह नहीं करते, मुझसे अपने दिल की बातें छिपाते हैं, उन्हें शायद मैं भारी हो गयी हूँ। अब मालूम हुआ, मैं कैसे भयंकर-भ्रम में पड़ी हुई थी। उनका मन इतना कोमल है, यह मैं जानती, तो उस दिन क्यों भुवन को मुँह लगाती? मैं उस अभागे का मुँह तक न देखती। इस वक्त जो उसे देख पाऊं, तो शायद गोली मार दूं। जरा तुम विनोद के पत्र को फिर पढ़ो बहन। आप मुझे स्वाधीन बनाने चले थे। अगर स्वाधीन बनाते थे, तो भुवन से जरा देर मेरा बातचीत कर लेना क्यों इतना अखरा? मुझे उनकी अविचलित शांति से चिढ़ होती थी। वास्तव में उनके हृदय में इस रात-सी बात ने जितनी अशांति पैदा कर दी, शायद मुझमें न कर सकती। मैं किसी रमणी से उनकी रुचि देखकर शायद मुँह फुला लेती, ताने देती, खुद रोती, उन्हें रुलाती; पर इतनी जल्द भाग न जाती। मर्दों का घर छोड़कर भागना तो आज तक नहीं सुना, औरतें ही घर छोड़कर मैके भागती है, या कहीं डूबने जाती हैं, या आत्महत्या करती हैं। पुरुष निर्द्वन्द्व बैठे मूंछों पर ताव देते हैं। मगर यहां उल्टी गंगा बह रही हैं—पुरुष ही भाग खड़ा हुआ! इस अशांति की थाह कौन लगा सकता हैं? इस प्रेम की गहराई को कौन समझ सकता है? मै तो अगर इस वक्त विनोद के चरणों पर पड़े-पड़े मर जाऊं, तो समझूं, मुझे स्वर्ग मिल गया। बस, इसके सिवाय मुझे अब और कोई इच्छा नहीं हैं। इस अगाध-प्रेम ने मुझे तृप्त कर दिया। विनोद मुझसे भागे तो, लेकिन भाग न सके। वह मेरे हृदय से, मेरी धारणा से, इतने निकट कभी न थे। मैं तो अब भी उन्हें अपने सामने बैठा देख रही हूँ। क्या मेरे सामने फिलासफर बनने चले थे? कहां गयी आपकी वह दार्शनिक गंभीरता? यों अपने को धोखा देते हो? यों अपनी आत्मा को कुचलते हो? अबकी तो तुम भागे, लेकिन फिर भागना, तो देखूंगी। मैं न जानती थी कि तुम ऐसे चतुर बहुरूपिये हो। अब मैंने समझा, और शायद तुम्हारी दार्शनिक गंभीरता को भी समझ मे आया होगा कि प्रेम जितना ही सच्चा जितना ही हार्दिक होता है, उतना ही कोमल होता है। वह विपत्ति के उन्मत्त सागर में थपेड़ खा सकता है, पर अवहेलना की एक चोट भी नहीं सह सकता। बहिन, बात विचित्र है, पर है सच्ची, मैं इस समय अपने अंतःस्थल में जितनी उमंग, जितने आनंद का अनुभव कर रही हूँ, याद नहीं आता कि विनोद के हृदय से लिपटकर भी कभी पाया हो। तब पर्दा बीच में था, अब कोई पर्दा बीच में नहीं रहा। मैं उनको प्रचलित प्रेम व्यापार की कसौटी पर कसना चाहती थी। यह फैशन हो गया कि पुरुष घर मे आये, तो स्त्री के वास्ते कोई तोहफा लाये, पुरुष रात-दिन स्त्री के लिए गहने बनवाने, कपड़े सिलवाने, बेल, फीते, लेस ख़रीदने में मस्त रहे, फिर स्त्री को उससे कोई शिकायत नहीं। वह आदर्श-पति है, उसके प्रेम में किसे संदेह हो सकता है? लेकिन उसकी प्रेयसी की मृत्यु के तीसरे महीने वह फिर नया विवाह रचाता है। स्त्री के साथ अपने प्रेम को भी चिता मे जला आता है। फिर वही स्वांग इस नयी प्रेयसी से होने लगते हैं, फिर वही लीला शुरू हो जाती है। मैंने यही प्रेम देखा था और इसी कसौटी पर विनोद कस रही थी। कितनी मंदबुद्धि हूँ ! छिछोरेपन को प्रेम समझे बैठी थी। कितनी स्त्रियाँ जानती हैं कि अधिकांश ऐसे ही गहने, कपड़े और हँसने-बोलने में मस्त रहने वाले जीव लम्पट होते हैं। अपनी लम्पटता को छिपाने के लिए वे यह स्वांग भरते रहते हैं। कुत्ते को चुप रखने के लिए उसके सामने हड्डी के टुकड़े फेंक देते हैं। बेचारी भोली-भाली उसे अपना सर्वस्व देकर खिलौने पाती है और उन्हीं में मग्न रहती है। मैं विनोद को उसी कांटे पर तौल रही थी—हीरे को साग के तराजू पर रख देती थी। मैं जानती हूँ, मेरा दृढ़ विश्वास और वह अटल है कि विनोद की दृष्टि कभी किसी पर स्त्री पर नहीं पड़ सकती। उनके लिए मैं हूँ, अकेली मैं हूँ, अच्छी हूँ या बुरी हूँ, जो कुछ हूँ, मैं हूँ। बहन, मेरी तो मारे गर्व और आनंद से छाती फूल उठी है। इतना बड़ा साम्राज्य—इतना अचल, इतना स्वरक्षित, किसी हृदयेश्वरी को नसीब हुआ है। मुझे तो संदेह है। और मैं इस पर भी असंतुष्ट थी, यह न जानती थी कि ऊपर बबूले तैरते हैं, मोती समुद्र की तह में मिलते हैं। हाय! मेरी इस मूर्खता के कारण, मेरे प्यारे विनोद को कितनी मानसिक वेदना हो रही है। मेरे जीवन-धन, मेरे जीवन-सर्वस्व न जाने कहां मारे-मारे फिरते होंगे, न जाने किस दशा में होंगे, न-जाने मेरे प्रति उनके मन में कैसी-कैसी शंकाएं उठ रही होंगी—प्यारे ! तुमने मेरे साथ कुछ कम अन्याय नहीं किया। अगर मैंने तुम्हें निष्ठुर समझा, तो तुमने तो मुझे उससे कहीं बदतर समझा—क्या अब भी पेट नहीं भरा? तुमने मुझे इतनी गयी-गुजरी समझ लिया कि उस अभागे भुवन…मैं ऐसे-ऐसे एक लाख भुवनों को तुम्हारे चरणों पर भेंट कर सकती हूँ। मुझे तो संसार में ऐसा कोई प्राणी ही नहीं नजर आता, जिस पर मेरी निगाह उठ सके। नहीं, तुम मुझे इतनी नीच, इतनी कलंकिनी नहीं समझ सकते—शायद वह नौबत आती, तो तुम और मैं दो में से एक भी इस संसार में न होता।

बहन, मैंने विनोद को बुलाने की, खींच लाने की, पकड़ मंगवाने की एक तरकीब सोची है। क्या कहूं, पहले ही दिन यह तरकीब क्यों न सूझी? विनोद को दैनिक पत्र पढ़े बिना चैन नहीं आता और वह कौन-सा पत्र पढ़ते हैं, मैं यह भी जानती हूँ। कल के पत्र में यह खबर छपेगी—‘पद्मा मर रही है।’ और परसो विनोद यहां होंगे। रुक ही नहीं सकते। फिर खूब झगड़े होंगे, खूब लड़ाइयाँ होंगी।

अब कुछ तुम्हारे विषय में। क्या तुम्हारी बुढ़िया सचमुच तुमसे इसलिए जलती है कि तुम सुंदर हो, शिक्षित हो? खूब! और तुम्हारे आनंद भी विचित्र जीव मालूम होते हैं। मैंने सुना है कि पुरुष कितना ही कुरूप हो, उसकी निगाह अप्सराओं ही पर जाकर पड़ती है। फिर आनंद बाबू तुमसे क्यों बिचकते है? जरा गौर से देखना, कहीं राधा और कृष्ण के बीच में कोई कुब्जा तो नहीं? अगर सासजी यों ही नाक में दम करती रहें, तो मैं तो यही सलाह दूंगी कि अपनी झोपड़ी अलग बना लो। मगर जानती हूँ, तुम मेरी यह सलाह न मानोगी, किसी तरह न मानोगी। इस सहिष्णुता के लिए मैं तुम्हें बधाई देती हूँ। पत्र जल्द लिखना। मगर शायद तुम्हारा पत्र आने के पहले ही मेरा दूसरा पत्र पहुँचे।

तुम्हारी,

पद्मा

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