चैप्टर 8 दो सखियाँ मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास | Chapter 8 Do Sakhiyan Munshi Premchand Ka Upanyas

चैप्टर 8 दो सखियाँ मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास | Chapter 8 Do Sakhiyan Munshi Premchand Ka Upanyas

Chapter 8 Do Sakhiyan Munshi Premchand Ka Upanyas

Chapter 8 Do Sakhiyan Munshi Premchand

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काशी

25-12-25

प्यारी पद्मा,

तुम्हारा पत्र पढ़कर मुझे कुछ दु:ख हुआ, कुछ हँसी आयी, कुछ क्रोध आया। तुम क्या चाहती हो, यह तुम्हें खुद नहीं मालूम। तुमने आदर्श पति पाया है, व्यर्थ की शंकाओं से मन को अशांत न करो। तुम स्वाधीनता चाहती थीं, वह तुम्हें मिल गयी। दो आदमियों के लिए तीन सौ रुपये कम नहीं होते। उस पर अभी तुम्हारे पापा भी सौ रुपये दिये जाते हैं। अब और क्या करना चाहिए? मुझे भय होता है कि तुम्हारा चित्त कुछ अव्यवस्थित हो गया है। मेरे पास तुम्हारे लिए सहानुभूति का एक शब्द भी नहीं।

मैं पंद्रह तारीख को काशी आ गयी। स्वामी स्वयं मुझे विदा कराने गये थे। घर से चलते समय बहुत रोई। पहले मैं समझती थी कि लड़कियाँ झूठ-मूठ रोया करती हैं। फिर मेरे लिए तो माता-पिता का वियोग कोई नई बात न थी। गर्मी, दशहरा और बड़े दिन की छुट्टियों के बाद छ: सालों से इस वियोग का अनुभव कर रही हूँ। कभी आँखों में आँसू न आते थे। सहेलियों से मिलने की खुशी होती थी। पर अबकी तो ऐसा जान पड़ता था कि कोई हृदय को खींचे लेता है। अम्माजी के गले लिपटकर तो मैं इतना रोई कि मुझे मूर्च्छा आ गयी। पिताजी के पैरों पर लोट कर रोने की अभिलाषा मन में ही रह गयी। हाय, वह रुदन का आनंद! उस समय पिता के चरणों पर गिरकर रोने के लिए मैं अपने प्राण तक दे देती। यही रोना आता था कि मैंने इनके लिए कुछ न किया। मेरा पालन-पोषण करने में इन्होंने क्या कुछ कष्ट न उठाया। मैं जन्म की रोगिणी हूँ। रोज ही बीमार रहती थी। अम्माजी रात-रात भर मुझे गोद में लिये बैठी रह जाती थी। पिताजी के कंधों पर चढ़कर उचकने की याद मुझे अभी तक आती है। उन्होंने कभी मुझे कड़ी निगाह से नहीं देखा। मेरे सिर में दर्द हुआ और उनके हाथों के तोते उड़ जाते थे। दस वर्ष की उम्र तक तो यों गए। छ: साल देहरादून में गुजरे। अब, जब इस योग्य हुई कि उनकी कुछ सेवा करूं, तो यों पर झाड़कर अलग हो गई। कुल आठ महीने तक उनके चरणों की सेवा कर सकी और यही आठ महीने मेरे जीवन की निधि है। मेरी ईश्वर से यही प्रार्थना है कि मेरा जन्म फिर इसी गोद में हो और फिर इसी अतुल पितृस्नेह का आनंद भोगूं।

संध्या समय गाड़ी स्टेशन से चली। मैं जनाना कमरे में थी और लोग दूसरे कमरे में थे। उस वक्त सहसा मुझे स्वामीजी को देखने की प्रबल इच्छा हुई। सांत्वना, सहानुभूति और आश्रय के लिए हृदय व्याकुल हो रहा था। ऐसा जान पड़ता था, जैसे कोई कैदी कालापानी जा रहा हो।

घंटे भर के बाद गाड़ी एक स्टेशन पर रुकी। मैं पीछे की ओर खिड़की से सिर निकालकर देखने लगी। उसी वक्त द्वार खुला और किसी ने कमरे में क़दम रखा। उस कमरे में एक औरत भी न थी। मैंने चौंककर पीछे देखा तो एक पुरुष। मैंने तुरन्त मुँह छिपा लिया और बोली, “आप कौन हैं ? यह जनाना कमरा है। मर्दाने कमरे में जाइए।”

पुरुष ने खड़े-खड़े कहा—”मैं तो इसी कमरे में बैठूंगा। मर्दाने कमरे में भीड़ बहुत है।”

मैंने रोष से कहा—”नहीं, आप इसमें नहीं बैठ सकते।”

“मैं तो बैठूंगा।”

“आपको निकलना पड़ेगा। आप अभी चले जाइये, नहीं तो मैं अभी जंजीर खींच लूंगी।”

“अरे साहब, मैं भी आदमी हूँ, कोई जानवर नहीं हूँ। इतनी जगह पड़ी हुई है। आपका इसमें हर्ज क्या है?”

गाड़ी ने सीटी दी। मैं और घबराकर बोली—”आप निकलते हैं, या मैं जंजीर खींचूं?”

पुरुष ने मुस्कराकर कहा—”आप तो बड़ी गुस्सावर मालूम होती हैं। एक ग़रीब आदमी पर आपको जरा भी दया नहीं आती?”

गाड़ी चल पड़ी। मारे क्रोध और लज्जा के मुझे पसीना आ गया। मैंने फौरन द्वार खोल दिया और बोली—”अच्छी बात है, आप बैठिए, मैं ही जाती हूँ।”

बहन, मैं सच कहती हूँ, मुझे उस वक्त लेशमात्र भी भय न था। जानती थी, गिरते ही मर जाऊंगी, पर एक अजनबी के साथ अकेले बैठने से मर जाना अच्छा था। मैंने एक पैर लटकाया ही था कि उस पुरुष ने मेरी बांह पकड़ ली और अंदर खींचता हुआ बोला—”अब तक तो आपने मुझे कालेपानी भेजने का सामान कर दिया था। यहाँ और कोई तो है नहीं, फिर आप इतना क्यों घबराती हैं। बैठिए, जरा हँसिए-बोलिए। अगले स्टेशन पर मैं उतर जाऊंगा, इतनी देर तक कृपा-कटाक्ष से वंचित न कीजिए। आपको देखकर दिल काबू से बाहर हुआ जाता है। क्यों एक ग़रीब का ख़ून सिर पर लीजिएगा।…….”

मैंने झटककर अपना हाथ छुटा लिया। सारी देह कांपने लगी। आँखों में आँसू भर आये। उस वक्त अगर मेरे पास कोई छुरी या कटार होती, तो मैंने ज़रूर उसे निकाल लिया होता और मरने-मारने को तैयार हो गई होती। मगर इस दशा में क्रोध से ओंठ चबाने के सिवा और क्या करती? आखिर झल्लाना व्यर्थ समझकर मैंने सावधान होने की चेष्टा करके कहा—”आप कौन हैं?”

उसने उसी ढिठाई से कहा—”तुम्हारे प्रेम का इच्छुक।”

“आप तो मजाक करते हैं। सच बतलाइए।”

“सच बता रहा हूँ, तुम्हारा आशिक हूँ।”

“अगर आप मेरे आशिक हैं, तो कम-से-कम इतनी बात मानिए कि अगले स्टेशन पर उतर जाइए। मुझे बदनाम करके आप कुछ न पायेंगे। मुझ पर इतनी दया कीजिए।”

मैंने हाथ जोड़कर यह बात कही। मेरा गला भी भर आया था। उस आदमी ने द्वार की ओर जाकर कहा—”अगर आपका यही हुक्म है, तो लीजिए, जाता हूँ। याद रखिएगा।”

उसने द्वार खोल लिया और एक पांव आगे बढ़ाया। मुझे मालूम हुआ वह नीचे कूदने जा रहा है। बहन, नहीं कह सकती कि उस वक्त मेरे दिल की क्या दशा हुई। मैंने बिजली की तरह लपककर उसका हाथ पकड़ लिया और अपनी तरफ ज़ोर से खींच लिया।

उसने ग्लानि से भरे हुए स्वर में कहा—”क्यों खींच लिया, मैं तो चला जा रहा था।”

“अगला स्टेशन आने दीजिए।”

“जब आप भगा ही रही हैं, तो जितनी जल्द भाग जाऊं उतना ही अच्छा।”

“मैं यह कब कहती हूँ कि आप चलती गाड़ी से कूद पड़िए।”

“अगर मुझ पर इतनी दया है, तो एक बार जरा दर्शन ही दे दो।”

“अगर आपकी स्त्री से कोई दूसरा पुरुष बातें करता, तो आपको कैसा लगता?”

पुरुष ने त्योरियाँ चढ़ाकर कहा— “मैं उसका ख़ून पी जाता।”

मैंने निस्संकोच होकर कहा—”तो फिर आपके साथ मेरे पति क्या व्यवहार करेंगे, यह भी आप समझते होंगे?”

“तुम अपनी रक्षा आप ही कर सकती हो। प्रिये! तुम्हें पति की मदद की ज़रूरत ही नहीं। अब आओ, मेरे गले से लग जाओ। मैं ही तुम्हारा भाग्यशाली स्वामी और सेवक हूँ।”

मेरा हृदय उछल पड़ा। एक बार मुँह से निकला—”अरे! आप!!” और मैं दूर हटकर खड़ी हो गयी। एक हाथ लंबा घूंघट खींच लिया। मुँह से एक शब्द न निकला।

स्वामी ने कहा—”अब यह शर्म और परदा कैसा?”

मैंने कहा—”आप बड़े छलिये हैं ! इतनी देर तक मुझे रुलाने में क्या मजा आया?”

स्वामी—”इतनी देर में मैंने तुम्हें जितना पहचान लिया, उतना घर के अंदर शायद बरसों में भी न पहचान सकता। यह अपराध क्षमा करो। क्या तुम सचमुच गाड़ी से कूद पड़तीं?”

“अवश्य?”

“बड़ी खैरियत हुई, मगर यह दिल्लगी बहुत दिनों याद रहेगी।” मेरे स्वामी औसत क़द के सांवले, चेचकरू, दुबले आदमी हैं। उनसे कहीं रूपवान् पुरुष मैंने देखे हैं, पर मेरा हृदय कितना उल्लसित हो रहा था। कितनी आनंदमय संतुष्टि का अनुभव कर रही थी, मैं बयान नहीं कर सकती।

मैंने पूछा—”गाड़ी कब तक पहुँचेगी?”

“शाम को पहुँच जायेंगे।”

मैंने देखा, स्वामी का चेहरा कुछ उदास हो गया है। वह दस मिनट तक चुपचाप बैठे बाहर की तरफ ताकते रहे। मैंने उन्हें केवल बात में लगाने ही के लिए यह अनावश्यक प्रश्न पूछा था। पर अब भी जब वह न बोले, तो मैंने फिर न छेड़ा। पानदान खोलकर पान बनाने लगी। सहसा, उन्होंने कहा—”चंदा, एक बात कहूं?”

मैंने कहा—”हाँ-हाँ, शौक़ से कहिए।”

उन्होंने सिर झुकाकर शर्माते हुए कहा—”मैं जानता कि तुम इतनी रूपवती हो, तो मैं तुमसे विवाह न करता। अब तुम्हें देखकर मुझे मालूम हो रहा है कि मैंने तुम्हारे साथ अन्याय किया है। मैं किसी तरह तुम्हारे योग्य न था।”

मैंने पान का बीड़ा उन्हें देते हुए कहा—”ऐसी बातें न कीजिए। आप जैसे हैं, मेरे सर्वस्व हैं। मैं आपकी दासी बनकर अपने भाग्य को धन्य मानती हूँ।”

दूसरा स्टेशन आ गया। गाड़ी रुकी। स्वामी चले गये। जब-जब गाड़ी रुकती थी, वह आकर दो-चार बातें कर जाते थे। शाम को हम लोग बनारस पहुँच गए। मकान एक गली में है और मेरे घर से बहुत छोटा है। इन कई दिनों में यह भी मालूम हो रहा है कि सासजी स्वभाव की रूखी हैं। लेकिन अभी किसी के बारे में कुछ नहीं कह सकती। संभव है, मुझे भ्रम हो रहा हो। फिर लिखूंगी। मुझे इसकी चिंता नहीं कि घर कैसा है, आर्थिक दशा कैसी है, सास-ससुर कैसे हैं। मेरी इच्छा है कि यहाँ सभी मुझ से खुश रहें। पतिदेव को मुझसे प्रेम है, यह मेरे लिए काफ़ी है। मुझे और किसी बात की परवाह नहीं। तुम्हारे बहनोईजी का मेरे पास बार-बार आना सासजी को अच्छा नहीं लगता। वह समझती हैं, कहीं यह सिर न चढ़ जाए। क्यों मुझ पर उनकी यह अकृपा है, कह नहीं सकती; पर इतना जानती हूँ कि वह अगर इस बात से नाराज़ होती हैं, तो हमारे ही भले के लिए। वह ऐसी कोई बात क्यों करेंगी, जिसमें हमारा हित न हो। अपनी संतान का अहित कोई माता नहीं कर सकती। मुझ ही में कोई बुराई उन्हें नजर आई होगी। दो-चार दिन में आप ही मालूम हो जाएगा। अपने यहाँ के समाचार लिखना। जवाब की आशा एक महीने के पहले तो है नहीं, यों तुम्हारी खुशी।

तुम्हारी,

चंदा 

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