चैप्टर 48 रंगभूमि मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास | Chapter 48 Rangbhoomi Novel By Munshi Premchand

Chapter 48 Rangbhoomi Novel By Munshi Premchand

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काशी के म्युनिसिपल बोर्ड में भिन्न-भिन्न राजनीतिक सम्प्रदायों के लोग मौजूद थे। एकवाद से लेकर जनसत्तावाद तक सभी विचारों के कुछ-न-कुछ आदमी थे। अभी तक धन का प्राधान्य नहीं था, महाजनों और रईसों का राज्य था। जनसत्ता के अनुयाई शक्तिहीन थे। उन्हें सिर उठाने का साहस न होता था। राजा महेंद्रकुमार की ऐसी धाक बँधी हुई थी कि कोई उनका विरोध न कर सकता था। पर पाँड़ेपुर के सत्याग्रह ने जनसत्तावादियों में एक नई संगठन-शक्ति पैदा कर दी। उस दुर्घटना का सारा इलजाम राजा साहब के सिर मढ़ा जाने लगा। यह आंदोलन शुरू हुआ कि उन पर अविश्वास का प्रस्ताव उपस्थित किया जाए। दिन-दिन आंदोलन जोर पकड़ने लगा। लोकमतवादियों ने निश्चय कर लिया कि वर्तमान व्यवस्था का अंत कर देना चाहिए, जिसके द्वारा जनता को इतनी विपत्तिा सहनी पड़ी। राजा साहब के लिए यह कठिन परीक्षा का अवसर था। एक ओर तो अधिकारी लोग उनसे असंतुष्ट थे दूसरी ओर यह विरोधी दल उठ खड़ा हुआ। बड़ी मुश्किल में पड़े। उन्होंने लोकवादियों की सहायता से विरोधियों का प्रतिकार करने को ठानी थी। उनके राजनीतिक विचारों में भी कुछ परिवर्तन हो गया था। वह अब जनता को साथ लेकर म्युनिसिपैलिटी का शासन करना चाहते थे। पर अब क्या हो? इस प्रस्ताव को रोकने के लिए उद्योग करने लगे। लोकमतवाद के प्रमुख नेताओं से मिले, उन्हें बहुत कुछ आश्वासन दिया कि भविष्य में उनकी इच्छा के विरुध्द कोई काम न करेंगे, इधर अपने दल को भी संगठित करने लगे। जनतावादियों को वह सदैव नीची निगाह से देखा करते थे। पर अब मजबूर होकर उन्हीं की खुशामद करनी पड़ी। वह जानते थे कि बोर्ड में यह प्रस्ताव आ गया, तो उसका स्वीकृत हो जाना निश्चित है। खुद दौड़ते थे, अपने मित्रों को दौड़ाते थे कि किसी उपाय से यह बला सिर से टल जाए, किंतु पाँड़ेपुर के निवासियों का शहर में रोते फिरना उनके सारे यत्नों को विफल कर देता था। लोग पूछते थे, हमें क्योंकर विश्वास हो कि ऐसी ही निरंकुशता का व्यवहार न करेंगे। सूरदास हमारे नगर का रत्न था, कुँवर विनयसिंह और इंद्रदत्ता मानव-समाज के रत्न थे। उनका खून किसके सिर पर है?

अंत में यह प्रस्ताव नियमित रूप से बोर्ड में आ ही गया। उस दिन प्रात:काल से म्युनिसिपल बोर्ड के मैदान में लोगों का जमाव होने लगा। यहाँ तक कि दोपहर होते-होते 10-20 हजार आदमी एकत्र हो गए। एक बजे प्रस्ताव पेश हुआ। राजा साहब ने खड़े होकर बड़े करुणोत्पादक शब्दों में अपनी सफाई दी; सिध्द किया कि मैं विवश था, इस दशा में मेरी जगह पर कोई दूसरा आदमी होता, तो वह भी वही करता, जो मैंने किया, इसके सिवा अन्य कोई मार्ग न था। उनके अंतिम शब्द ये थे-मैं पद-लोलुप नहीं हूँ, सम्मान-लोलुप नहीं हूँ, केवल आपकी सेवा का लोलुप हूँ, अब और भी ज्यादा, इसलिए कि मुझे प्रायश्चित्ता करना है, जो इस पद से अलग होकर मैं न कर सकूँगा, वह साधन ही मेरे हाथ से निकल जाएगा। सूरदास का मैं उतना ही भक्त हूँ, जितना और कोई व्यक्ति हो सकता है। आप लोगों को शायद मालूम नहीं है कि मैंने शफाखाने में जाकर उनसे क्षमा-प्रार्थना की थी, और सच्चे हृदय से खेद प्रकट किया था। सूरदास का ही आदेश था कि मैं अपने पद पर स्थिर रहूँ, नहीं तो मैंने पहले ही पद-त्याग करने का निश्चय कर लिया था। कुँवर विनयसिंह की अकाल मृत्यु का जितना दु:ख मुझे है, उतना उनके माता-पिता को छोड़कर किसी को नहीं हो सकता। वह मेरे भाई थे। उनकी मृत्यु ने मेरे हृदय पर वह घाव कर दिया है,जो जीवन-पर्यंत न भरेगा। इंद्रदत्त से भी मेरी घनिष्ठ मैत्री थी। क्या मैं इतना अधम, इतना कुटिल, इतना नीच, इतना पामर हूँ कि अपने हाथों अपने भाई और अपने मित्र की गर्दन पर छुरी चलाता? यह आक्षेप सर्वथा अन्यायपूर्ण है, यह मेरे जले पर नमक छिड़कना है। मैं अपनी आत्मा के सामने, परमात्मा के सामने निर्दोष हूँ। मैं आपको अपनी सेवाओं की याद नहीं दिलाना चाहता, वह स्वयंसिध्द है। आप लोग जानते हैं, मैंने आपकी सेवा में अपना कितना समय लगाया है, कितना परिश्रम, कितना अनवरत उद्योग किया है! मैं रिआयत नहीं चाहता, केवल न्याय चाहता हूँ।

वक्तृता बड़ी प्रभावशाली थी, पर जनवादियों को अपने निश्चय से न डिगा सकी। पंद्रह मिनट में बहुमत से प्रस्ताव स्वीकृत हो गया और राजा साहब ने भी तत्क्षण पद-त्याग की सूचना दे दी।

जब वह सभा-भवन से बाहर निकले, तो जनता ने, जिन्हें उनका व्याख्यान सुनने का अवसर न मिला था, उन पर इतनी फब्तियाँ उड़ाईं,इतनी तालियाँ बजाईं कि बेचारे बड़ी मुश्किल से अपनी मोटर तक पहुँच सके। पुलिस ने चौकसी न की होती, तो अवश्य दंगा हो जाता। राजा साहब ने एक बार पीछे फिरकर सभा-भवन को सजल नेत्रों से देखा और चले गए। कीर्ति-लाभ उनके जीवन का मुख्य उद्देश्य था, और उसका यह निराशापूर्ण परिणाम हुआ। सारी उम्र की कमाई पर पानी फिर गया, सारा यश, सारा गौरव, सारी कीर्ति जनता के क्रोध-प्रवाह में बह गई।

राजा साहब वहाँ से जले हुए घर आए, तो देखा कि इंदु और सोफिया दोनों बैठी बातें कर रही हैं। उन्हें देखते ही इंदु बोली-मिस सोफिया सूरदास की प्रतिमा के लिए चंदा जमा कर रही हैं। आप भी तो उसकी वीरता पर मुग्ध हो गए थे, कितना दीजिएगा?

सोफी-इंदुरानी ने 1000 रुपया प्रदान किया है, और इसके दुगने से कम देना आपको शोभा न देगा।

महेंद्रकुमार ने त्योरियाँ चढ़ाकर कहा-मैं इसका जवाब सोचकर दूँगा।

सोफी-फिर कब आऊँ?

महेंद्रकुमार ने ऊपरी मन से कहा-आपके आने की जरूरत नहीं है, मैं स्वयं भेज दूँगा।

सोफिया ने उनके मुख की ओर देखा, तो त्योरियाँ चढ़ी हुई थीं। उठकर चली गई। तब राजा साहब इंदु से बोले-तुम मुझसे बिना पूछे क्यों ऐसा काम करती हो, जिससे मेरा सरासर अपमान होता है? मैं तुम्हें कितनी बार समझाकर हार गया। आज उसी अंधो की बदौलत मुझे मुँह की खानी पड़ी, बोर्ड ने मुझ पर अविश्वास का प्रस्ताव पास कर दिया, और उसी की प्रतिमा के लिए तुमने चंदा दिया और मुझे भी देने को कह रही हो!

इंदु-मुझे क्या खबर थी कि बोर्ड में क्या हो रहा है। आपने भी तो कहा था कि उस प्रस्ताव के पास होने की सम्भावना नहीं है।

राजा-कुछ नहीं, तुम मेरा अपमान करना चाहती हो।

इंदु-आप उस दिन सूरदास का गुण-गान कर रहे थे। मैंने समझा, चंदे में कोई हरज नहीं है। मैं किसी के मन के रहस्य थोड़े ही जानती हूँ। आखिर वह प्रस्ताव पास क्योंकर हो गया?

राजा-अब मैं यह क्या जानूँ, क्योंकर पास हो गया। इतना जानता हूँ कि पास हो गया। सदैव सभी काम अपनी इच्छा या आशा के अनुकूल ही तो नहीं हुआ करते। जिन लोगों पर मेरा पूरा विश्वास था, उन्हीं ने अवसर पर दगा दी, बोर्ड में आए ही नहीं। मैं इतना सहिष्णु नहीं हूँ कि जिसके कारण मेरा अपमान हो, उसी की पूजा करूँ। मैं यथाशक्ति इस प्रतिमा-आंदोलन को सफल न होने दूँगा। बदनामी तो हो ही रही है, और हो, इसकी परवा नहीं। मैं सरकार को ऐसा भर दूँगा कि मूर्ति खड़ी न होने पाएगी। देश का हित करने की शक्ति अब चाहे न हो, पर अहित करने की है, और दिन-दिन बढ़ती जाएगी। तुम भी अपना चंदा वापस कर लो।

इंदु-(विस्मित होकर) दिए हुए रुपये वापस कर लूँ?

राजा-हाँ, इसमें कोई हरज नहीं।

इंदु-आपको कोई हरज न मालूम होता हो, मेरी तो इसमें सरासर हेठी है।

राजा-जिस तरह तुम्हें मेरे अपमान की परवा नहीं, उसी तरह यदि मैं भी तुम्हारी हेठी की परवा न करूँ, तो कोई अन्याय न होगा।

इंदु-मैं आपसे रुपये तो नहीं माँगती?

बात-पर-बात निकलने लगी, विवाद की नौबत पहुँची, फिर व्यंग्य की बारी आई, और एक क्षण में दुर्वचनों का प्रहार होने लगा। अपने-अपने विचार में दोनों ही सत्य पर थे, इसलिए कोई न दबता था।

राजा साहब ने कहा-न जाने वह कौन दिन होगा कि तुमसे मेरा गला छूटेगा। मौत के सिवा शायद अब कहीं ठिकाना नहीं है।

इंदु-आपको अपनी कीर्ति और सम्मान मुबारक रहे। मेरा भी ईश्वर मालिक है। मैं भी जिंदगी से तंग आ गई। कहाँ तक लौंडी बनूँ अब हद हो गई।

राजा-तुम मेरी लौंडी बनोगी! वे दूसरी सती स्त्रियाँ होती हैं, जो अपने पुरुषों पर प्राण दे देती हैं। तुम्हारा बस चले, तो मुझे विष दे दो,और दे ही रही हो, इससे बढ़कर और क्या होगा!

इंदु-यह विष क्यों उगलते हो? साफ-साफ क्यों नहीं कहते कि मेरे घर से निकल जा। मैं जानती हूँ, आपको मेरा रहना अखरता है। आज से नहीं, बहुत दिनों से जानती हूँ। उसी दिन जान गई थी, जब मैंने एक महरी को अपनी नई साड़ी दे दी थी और आपने महाभारत मचाया था। उसी दिन समझ गई थी कि यह बेल मुढ़े चढ़ने की नहीं। जितने दिन यहाँ रही, कभी आपने यह न समझने दिया कि यह मेरा घर है। पैसे-पैसे का हिसाब देकर भी पिंड नहीं छूटा। शायद आप समझते होंगे कि यह मेरे ही रुपये को अपना कहकर मनमाना खर्च करती है, और यहाँ आपकी एक धोला छूने की कसम खाती हूँ। आपके साथ विवाह हुआ है, कुछ आत्मा नहीं बेची है।

महेंद्र ने ओठ चबाकर कहा-भगवान् सब दु:ख दे, बुरे का संग न दे। मौत भले ही दे दे। तुम-जैसी स्त्री का गला घोंट देना भी धर्म-विरुध्द नहीं। इस राज्य की कुशल मनाओ कि चैन कर रही हो। अपना राज्य होता, तो यह कैंची की तरह चलनेवाली जबान तालू से खींच ली जाती।

इंदु-अच्छा, अब चुप रहिए, बहुत हो गया। मैं आपकी गालियाँ सुनने नहीं आई हूँ, यह लीजिए अपना घर, खूब टाँगें फैलाकर सोइए।

राजा-जाओ, किसी तरह अपना पौरा तो ले जाओ। बिल्ली बख्शे, चूहा अकेला ही भला!

इंदु ने दबी जबान से कहा-यहाँ कौन तुम्हारे लिए दीवाना हो रहा है!

राजा ने क्रोधोन्मत्ता होकर कहा-गालियाँ दे रही है! जबान खींच लूँगा।

इंदु जाने के लिए द्वार तक आई थी। यह धमकी सुनकर फिर लौट पड़ी और सिंहनी की भाँति बफरकर बोली-इस भरोसे न रहिएगा। भाई मर गया है, तो क्या गुड़ का बाप कोल्हू तैयार है। सिर के बाल न बचेंगे। ऐसे ही भले होते, तो दुनिया में इतना अपयश कैसे कमाते।
यह कहकर इंदु अपने कमरे में आई। उन चीजों को समेटा, जो उसे मैके में मिली थीं। वे सब चीजें अलग कर दीं, जो यहाँ की थीं। शोक न था, दु:ख न था, एक ज्वाला थी, जो उसके कोमल शरीर में विष की भाँति व्याप्त हो रही थी। मुँह लाल था, आँखें लाल थीं, नाक लाल थी,रोम-रोम से चिनगारियाँ-सी निकल रही थीं। अपमान आग्नेय वस्तु है।

अपनी सब चीजें सँभालकर इंदु ने अपनी निजी गाड़ी तैयार करने की आज्ञा दी। जब तक गाड़ी तैयार होती रही, वह बरामदे में टहलती रही। ज्यों ही फाटक पर घोड़ों की टाप सुनाई दी, वह आकर गाड़ी में बैठ गई, पीछे फिरकर भी न देखा। जिस घर की वह रानी थी, जिसको वह अपना समझती थी, जिसमें जरा-सा कूड़ा पड़ा रहने पर नौकरों के सिर हो जाती थी, उसी घर से इस तरह निकल गई, जैसे देह से प्राण निकल जाता है-उसी देह से जिसकी वह सदैव रक्षा करता था, जिसके जरा-जरा-से कष्ट से स्वयं विकल हो जाता था। किसी से कुछ न कहा, न किसी की हिम्मत पड़ी कि उससे कुछ पूछे। उसके चले जाने के बाद महराजिन ने जाकर महेंद्र से कहा-सरकार, रानी बहू जाने कहाँ चली जा रही हैं!

महेंद्र ने उसकी ओर तीव्र नेत्रों से देखकर कहा-जाने दो।

महराजिन-सरकार, संदूक और संदूकचे लिए जाती हैं।

महेंद्र-कह दिया, जाने दो।

महराजिन-सरकार, रूठी हुई मालूम होती हैं। अभी दूर न गई होंगी, आप मना लें।

महेंद्र-मेरा सिर मत खा।

इंदु लदी-फँदी सेवा-भवन पहुँची, तो जाह्नवी ने कहा-तुम लड़कर आ रही हो क्यों?

इंदु-कोई अपने घर में नहीं रहने देता, तो क्या जबरदस्ती है?

जाह्नवी-सोफिया ने आते-ही-आते मुझसे कहा था, आज कुशल नहीं है।

इंदु-मैं लौंडी बनकर नहीं रह सकती।

जाह्नवी-तुमने उनसे बिना पूछे चंदा क्यों लिखा?

इंदु-मैंने किसी के हाथों अपनी आत्मा नहीं बेची है।

जाह्नवी- जो स्त्री अपने पुरुष का अपमान करती है, उसे लोक-परलोक कहीं शांति नहीं मिल सकती!

इंदु- क्या आप चाहती हैं कि यहाँ से भी चली जाऊँ? मेरे घाव पर नमक न छिड़कें।

जाह्नवी- पछताओगी, और क्या। समझाते-समझाते हार गई, पर तुमने अपना हठ न छोड़ा।

इंदु यहाँ से उठकर सोफिया के कमरे में चली गई। माता की बातें उसे जहर-सी लगीं।

यह विवाद दाम्पत्य क्षेत्र से निकलकर राजनीतिक क्षेत्र में अवतरित हुआ। महेंद्रकुमार उधर एड़ी-चोटी का जोर लगाकर इस आंदोलन का विरोध कर रहे थे, लोगों को चंदा देने से रोकते थे, प्रांतीय सरकार को उत्तोजित करते थे, इधर इंदु सोफिया के साथ चंदे वसूल करने में तत्पर थी। मि. क्लार्क अभी तक दिल में राजा से द्वेष रखते थे, अपना अपमान भूले न थे, उन्होंने जनता के इस आंदोलन में हस्तक्षेप करने की कोई जरूरत न समझी, जिसका फल यह हुआ कि राजा साहब की एक न चली। धड़ाधड़ चंदे वसूल होने लगे। एक महीने में एक लाख से अधिक वसूल हो गया। किसी पर किसी तरह का दबाव न था, किसी से कोई सिफारिश न करता था। वह दोनों रमणियों के सदुद्योग ही का चमत्कार था; नहीं शहीदों की वीरता की विभूति थी। जिनकी याद में अब भी लोग रोया करते थे। लोग स्वयं आकर देते थे, अपनी हैसियत से ज्यादा। मि. जॉन सेवक ने भी स्वेच्छा से एक हजार रुपये दिए, इंदु ने अपना चंदा एक हजार तो दिया ही, अपने कई बहुमूल्य आभूषण भी दे डाले, जो बीस हजार के बिके। राजा साहब की छाती पर साँप लोटता रहता। पहले अलक्षित रूप से विरोध करते थे, फिर प्रत्यक्ष रूप से दुराग्रह करने लगे। गवर्नर के पास स्वयं गए, रईसों को भड़काया। सब कुछ किया; पर जो होना था, वह होकर रहा।

छ: महीने गुजर गए। सूरदास की प्रतिमा बनकर आ गई। पूना के एक प्रसिध्द मूर्तिकार ने सेवा-भाव से इसे रचा। पाँड़ेपुर में उसे स्थापित करने का प्रस्ताव था। जॉन सेवक ने सहर्ष आज्ञा दे दी। जहाँ सूरदास का झोंपड़ा था, वहीं मूर्ति का स्थापन हुआ। कीर्तिमानों की कीर्ति को अमर करने के लिए मनुष्य के पास और कौन-सा साधन है? अशोक की मूर्ति भी तो उसके शिला-लेखों ही से अमर है। वाल्मीकि और व्यास, होमर और फिरदौसी, सबको तो नहीं मिलते।

पाँड़ेपुर में बड़ा समारोह था। नगर-निवासी अपने-अपने काम छोड़कर इस उत्सव में सम्मिलित हुए थे। रानी जाह्नवी ने करुण कंठ और सजल नेत्रों से मूर्ति को प्रतिष्ठित किया। इसके बाद देर तक संकीर्तन होता रहा। फिर नेताओं के प्रभावशाली व्याख्यान हुए, पहलवानों ने अपने-अपने करतब दिखाए। संधया समय प्रीति-भोज हुआ, छूत और अछूत साथ बैठकर एक ही पंक्ति में खा रहे थे। यह सूरदास की सबसे बड़ी विजय थी। रात को एक नाटक-मंडली ने ‘सूरदास’ नाम का नाटक खेला, जिसमें सूरदास ही के चरित्र का चित्रण किया गया था। प्रभुसेवक ने इंग्लैंड से यह नाटक रचकर इसी अवसर के लिए भेजा था। बारह बजते-बजते उत्सव समाप्त हुआ। लोग अपने-अपने घर सिधारे। वहाँ सन्नाटा छा गया।

चाँदनी छिटकी हुई थी, और शुभ्र ज्योत्सना में सूरदास की मूर्ति एक हाथ से लाठी टेकती हुई और दूसरा हाथ किसी अदृश्य दाता के सामने फैलाए खड़ी थी-वही दुर्बल शरीर था, हँसलियाँ निकली हुई, कमर टेढ़ी, मुख पर दीनता और सरलता छाई हुई, साक्षात् सूरदास मालूम होता था। अंतर केवल इतना था कि वह चलता था, वह अचल थी; वह सबोल था, यह अबोल थी; और मूर्तिकार ने यहाँ वह वात्सल्य अंकित कर दिया था, जिसका मूल में पता न था। बस, ऐसा मालूम होता था, मानो कोई स्वर्ग-लोक का भिक्षुक देवताओं से संसार के कल्याण का वरदान माँग रहा है।

आधी रात बीत चुकी थी। एक आदमी साइकिल पर सवार मूर्ति के समीप आया। उसके हाथ में कोई यंत्र था। उसने क्षण-भर तक मूर्ति को सिर से पाँव तक देखा, और तब उसी यंत्र से मूर्ति पर आघात किया। सड़ाक की आवाज सुनाई दी और मूर्ति धमाके के साथ भूमि पर आ गिरी और उसी मनुष्य पर, जिसने उसे तोड़ा था। वह कदाचित् दूसरा आघात करनेवाला था, इतने में मूर्ति गिर पड़ी, भाग न सका, मूर्ति के नीचे दब गया।

प्रात:काल लोगों ने देखा, तो राजा महेंद्रकुमार सिंह थे। सारे नगर में खबर फैल गई कि राजा साहब ने सूरदास की मूर्ति तोड़ डाली और खुद उसी के नीचे दब गए। जब तक जिए, सूरदास के साथ वैर-भाव रखा, मरने के बाद भी द्वेष करना न छोड़ा। ऐसे ईष्यालु मनुष्य भी होते हैं! ईश्वर ने उसका फल भी तत्काल ही दे दिया। जब तक जिए, सूरदास से नीचा देखा; मरे भी, तो उसी के नीचे दबकर। जाति का द्रोही, दुश्मन, दम्भी, दगाबाज और इनसे भी कठोर शब्दों में उनकी चर्चा हुई।

कारीगरों ने फिर मसालों से मूर्ति के पैर जोड़े और उसे खड़ा किया। लेकिन उस आघात के चिह्न अभी तक पैरों पर बने हुए हैं और मुख भी विकृत हो गया है।

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