चैप्टर 9 दो सखियाँ मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास | Chapter 9 Do Sakhiyan Munshi Premchand Ka Upanyas

Chapter 9 Do Sakhiyan Munshi Premchand Ka Upanyas

Chapter 9 Do Sakhiyan Munshi Premchand

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दिल्ली

1-2-26

प्यारी बहन,

तुम्हारे प्रथम मिलन की कुतूहलमय कथा पढ़कर चित्त प्रसन्न हो गया। मुझे तुम्हारे ऊपर हसद हो रहा है। मैंने समझा था, तुम्हें मुझ पर हसद होगा, पर क्रिया उलटी हो गयी, तुम्हें चारों ओर हरियाली ही नजर आती है, मैं जिधर नजर डालती हूँ, सूखे रेत और नग्न टीलों के सिवा और कुछ नहीं। खैर! अब कुछ मेरा वृत्तांत सुनो—

“अब जिगर थामकर बैठो, मेरी बारी आयी।”

विनोद की अविचलित दर्शनिकता अब असह्य हो गयी है। कुछ विचित्र जीव हैं, घर में आग लगे, पत्थर पड़े इनकी बला से। इन्हें मुझ पर जरा भी दया नहीं आती। मैं सुबह से शाम तक घर के झंझटों में कुढ़ा करूं, इन्हें कुछ परवाह नहीं। ऐसा सहानुभूति से ख़ाली आदमी कभी नहीं देखा था। इन्हें तो किसी जंगल में तपस्या करनी चाहिए थी। अभी तो खैर दो ही प्राणी हैं, लेकिन कहीं बाल-बच्चे हो गये तब तो मैं बे-मौत मर जाऊंगी। ईश्वर न करे, वह दारुण विपत्ति मेरे सिर पड़े।

चंदा, मुझे अब दिल से लगी हुई है कि किसी भांति इनकी वह समाधि भंग कर दूं। मगर कोई उपाय सफल नहीं होता, कोई चाल ठीक नहीं पड़ती। एक दिन मैंने उनके कमरे के लंप का बल्ब तोड़ दिया। कमरा अंधेरा पड़ा रहा। आप सैर करके आये, तो कमरा अंधेरा देखा। मुझसे पूछा, मैंने कह दिया बल्ब टूट गया। बस, आपने भोजन किया और मेरे कमरे में आकर लेट रहे। पत्रों और उपन्यासों की ओर देखा तक नहीं, न-जाने वह उत्सुकता कहाँ विलीन हो गयी। दिन-भर गुजर गया, आपको बल्ब लगवाने की कोई फ़िक्र नहीं। आखिर, मुझी को बाज़ार से लाना पड़ा।

एक दिन मैंने झुंझलाकर रसोइये को निकाल दिया। सोचा जब लाला रात-भर भूखे सोयेंगे, तब आँखें खुलेंगी। मगर इस भले आदमी ने कुछ पूछा तक नहीं। चाय न मिली, कुछ परवाह नहीं। ठीक दस बजे आपने कपड़े पहने, एक बार रसोई की ओर जाकर देखा, सन्नाटा था। बस, कॉलेज चल दिये। एक आदमी पूछता है, महाराज कहाँ गया, क्यों गया; अब क्या इंतज़ाम होगा, कौन खाना पकायेगा, कम-से-कम इतना तो मुझसे कह सकते थे कि तुम अगर नहीं पका सकती, तो बाज़ार ही से कुछ खाना मंगवा लो। जब वह चले गए, तो मुझे बड़ा पश्चात्ताप हुआ। रॉयल होटल से खाना मंगवाया और बैरे के हाथ कालेज भेज दिया। पर खुद भूखी ही रही। दिन-भर भूख के मारे बुरा हाल था। सिर में दर्द होने लगा। आप कॉलेज से आए और मुझे पड़े देखा, तो ऐसे परेशान हुए मानो मुझे त्रिदोष है। उसी वक्त एक डॉक्टर बुला भेजा। डॉक्टर आये, आँखें देखी, जबान देखी, हरारत देखी, लगाने की दवा अलग दी, पीने की अलग, आदमी दवा लेने गया। लौटा तो बारह रुपये का बिल भी था। मुझे इन सारी बातों पर ऐसा क्रोध आ रहा था कि कहाँ भागकर चली जाऊं। उस पर आप आराम-कुर्सी डालकर मेरी चारपाई के पास बैठ गए और एक-एक पल पर पूछने लगे – “कैसा जी है? दर्द कुछ कम हुआ?” यहाँ मारे भूख के आंतें कुलकुला रही थी। दवा हाथ से छुई तक नहीं। आखिर झख मारकर मैंने फिर बैरे से खाना मंगवाया। फिर चाल उल्टी पड़ी। मैं डरी कि कहीं सबेरे फिर यह महाशय डॉक्टर को न बुला बैठैं, इसलिए सबेरा होते ही हारकर फिर घर के काम-धंधे में लगी। उसी वक्त एक दूसरा महाराज बुलवाया। अपने पुराने महाराज को बेकसूर निकालकर दण्डस्वरूप एक काठ के उल्लू को रखना पड़ा, जो मामूली चपातियाँ भी नहीं पका सकता। उस दिन से एक नयी बला गले पड़ी। दोनों वक्त दो घंटे इस महाराज को सिखाने में लग जाते हैं। इसे अपनी पाक-कला का ऐसा घमण्ड है कि मैं चाहे जितना बकूं, पर करता अपने ही मन की है। उस पर बीच-बीच में मुस्कराने लगता है, मानो कहता हो कि ‘तुम इन बातों को क्या जानो, चुपचाप बैठी देखती जाओ।’ जलाने चली थी विनोद को और खुद जल गयी। रुपये खर्च हुए, वह तो हुए ही, एक और जंजाल में फंस गयी। मैं खुद जानती हूँ कि विनोद का डॉक्टर को बुलाना या मेरे पास बैठे रहना केवल दिखावा था। उनके चेहरे पर जरा भी घबराहट न थी, चित्त जरा भी अशांत न था।

चंदा, मुझे क्षमा करना। मैं नहीं जानती कि ऐसे पुरुष के पाले पड़कर तुम्हारी क्या दशा होती, पर मेरे लिए इस दशा में रहना असह्य है। मैं आगे जो वृत्तांत कहने वाली हूँ, उसे सुनकर तुम नाक-भौं सिकोड़ोगी, मुझे कोसोगी, कलंकिनी कहोगी; पर जो चाहे कहो, मुझे परवाह नहीं। आज चार दिन होते हैं, मैंने त्रिया-चरित्र का एक नया अभिनय किया। हम दोनों सिनेमा देखने गये थे। वहाँ मेरी बगल में एक बंगाली बाबू बैठे हुए थे। विनोद सिनेमा में इस तरह बैठते हैं, मानो ध्यानावस्था में हों। न बोलना, न चालना! फ़िल्म इतनी सुंदर थी, ऐक्टिंग इतनी सजीव कि मेरे मुँह से बार-बार प्रशंसा के शब्द निकल जाते थे। बंगाली बाबू को भी बड़ा आनंद आ रहा था। हम दोनों उस फ़िल्म पर आलोचनाएं करने लगे। वह फ़िल्म के भावों की इतनी रोचक व्याख्या करता था कि मन मुग्ध हो जाता था। फ़िल्म से ज़्यादा मजा मुझे उसकी बातों में आ रहा था। बहन, सच कहती हूँ, शक्ल-सूरत में वह विनोद के तलुओं की बराबरी भी नहीं कर सकता, पर केवल विनोद को जलाने के लिए मैं उससे मुस्कुरा मुस्कुरा कर बातें करने लगी। उसने समझा, कोई शिकार फंस गया। अवकाश के समय वह बाहर जाने लगा, तो मैं भी उठ खड़ी हुई; पर विनोद अपनी जगह पर ही बैठे रहे।

मैंने कहा—”बाहर चलते हो, मेरी तो बैठे-बैठे कमर दु:ख गयी।”

विनोद बोले—”हाँ-हाँ चलो, इधर-उधर टहल आयें।”

मैंने लापरवाही से कहा—”तुम्हारा जी न चाहे तो मत चलो, मैं मजबूर नहीं करती।”

विनोद फिर अपनी जगह पर बैठते हुए बोले—”अच्छी बात है।”

मैं बाहर आयी, तो बंगाली बाबू ने पूछा—”क्या आप यहीं की रहने वाली हैं?”

“मेरे पति यहाँ यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर हैं।”

“अच्छा! वह आपके पति थे। अजीब आदमी हैं।”

“आपको तो मैंने शायद यहाँ पहले ही देखा है।”

“हाँ, मेरा मकान तो बंगाल में है। कंचनपुर के महाराज साहब का प्राइवेट सेक्रेटरी हूँ। महाराजा साहब वाइसराय से मिलने आये हैं। “

“तो अभी दो-चार दिन रहिएगा?”

“जी हाँ, आशा तो करता हूँ। रहूं तो साल-भर रह जाऊं। जाऊं तो दूसरी गाड़ी से चला जाऊं। हमारे महाराजा साहब का कुछ ठीक नहीं। यों बड़े सज्जन और मिलनसार हैं। आपसे मिलकर बहुत खुश होंगे।”

यह बातें करते-करते हम रेस्ट्राँ में पहुँच गये। बाबू ने चाय और टोस्ट लिया। मैंने सिर्फ चाय ली।

“तो इसी वक्त आपका महाराजा साहब से परिचय करा दूं। आपको आश्चर्य होगा कि मुकुटधारियों में भी इतनी नम्रता और विनय हो सकती है। उनकी बातें सुनकर आप मुग्ध हो जाएंगी।”

मैंने आइने में अपनी सूरत देखकर कहा—”जी नहीं, फिर किसी दिन पर रखिए। आपसे तो अक्सर मुलाकात होती रहेगी। क्या आपकी स्त्री आपके साथ नहीं आयीं?”

युवक ने मुस्कराकर कहा—”मैं अभी कुंवारा हूँ और शायद कुंवारा ही रहूं।”

मैंने उत्सुक होकर पूछा—”अच्छा! तो आप भी स्त्रियों से भागने वाले जीवों में हैं। इतनी बातें तो हो गयी और आपका नाम तक न पूछा।”

बाबू ने अपना नाम भुवनमोहन दास गुप्त बताया। मैंने अपना परिचय दिया।

‘जी नहीं, मैं उन अभागों में हूँ, जो एक बार निराश होकर फिर उसकी परीक्षा नहीं करते। रूप की तो संसार में कमी नहीं, मगर रूप और गुण का मेल बहुत कम देखने में आता है। जिस रमणी से मेरा प्रेम था, वह आज एक बड़े वकील की पत्नी है। मैं ग़रीब था। इसकी सज़ा मुझे ऐसी मिली कि जीवनपर्यंत न भूलेगी। साल-भर तक जिसकी उपासना की, जब उसने मुझे धन पर बलिदान कर दिया, तो अब और क्या आशा रखूं?”

मैंने हँसकर कहा—”आपने बहुत जल्द हिम्मत हार दी।”

भुवन ने सामने द्वार की ओर ताकते हुए कहा—”मैंने आज तक ऐसा वीर ही नहीं देखा, जो रमणियों से परास्त न हुआ हो। ये हृदय पर चोट करती हैं और हृदय एक ही गहरी चोट सह सकता है। जिस रमणी ने मेरे प्रेम को तुच्छ समझकर पैरों से कुचल दिया, उसको मैं दिखाना चाहता हूँ कि मेरी आँखों में धन कितनी तुच्छ वस्तु है, यही मेरे जीवन का एकमात्र उद्देश्य है। मेरा जीवन उसी दिन सफल होगा, जब विमला के घर के सामने मेरा विशाल भवन होगा और उसका पति मुझसे मिलने में अपना सौभाग्य समझेगा।”

मैंने गंभीरता से कहा—”यह तो कोई बहुत ऊँचा उद्देश्य नहीं है। आप यह क्यों समझते हैं कि विमला ने केवल धन के लिए आपका परित्याग किया। संभव है, इसके और भी कारण हों। माता-पिता ने उस पर दबाव डाला हो, या अपने ही में उसे कोई ऐसी त्रुटि दिखलाई दी हो, जिससे आपका जीवन दु:खमय हो जाता। आप यह क्यों समझते हैं कि जिस प्रेम से वंचित होकर आप इतने दु:खी हुए, उसी प्रेम से वंचित होकर वह सुखी हुई होगी। संभव था, कोई धनी स्त्री पाकर आप भी फिसल जाते।”

भुवन ने ज़ोर देकर कहा—”यह असंभव है, सर्वथा असंभव है। मैं उसके लिए त्रिलोक का राज्य भी त्याग देता।”

मैंने हँसकर कहा—”हाँ, इस वक्त आप ऐसा कह सकते हैं; मगर ऐसी परीक्षा में पड़कर आपकी क्या दशा होती, इसे आप निश्चयपूर्वक नहीं बता सकते। सिपाही की बहादुरी का प्रमाण उसकी तलवार है, उसकी जबान नहीं। इसे अपना सौभाग्य समझिए कि आपको उस परीक्षा में नहीं पड़ना पड़ा। वह प्रेम, प्रेम नहीं है, जो प्रत्याघात की शरण ले। प्रेम का आदि भी सहृदयता है और अंत भी सहृदयता। संभव है, आपको अब भी कोई ऐसी बात मालूम हो जाए, जो विमला की तरफ से आपको नर्म कर दे।”

भुवन गहरे विचार में डूब गया। एक मिनट के बाद उन्होंने सिर उठाया। और बोले—जेडमिसेज विनोद, आपने आज एक ऐसी बात सुझा दी, जो आज तक मेरे ध्यान में आयी ही न थी। यह भाव कभी मेरे मन में उदय ही नहीं हुआ। मैं इतना अनुदार क्यों हो गया, समझ में नहीं आता। मुझे आज मालूम हुआ कि प्रेम के ऊँचे आदर्श का पालन रमणियाँ ही कर सकती हैं। पुरुष कभी प्रेम के लिए आत्म-समर्पण नहीं कर सकता। वह प्रेम को स्वार्थ और वासना से पृथक् नहीं कर सकता। अब मेरा जीवन सुखमय हो जायगा। आपने मुझे आज शिक्षा दी है, उसके लिए आपको धन्यवाद देता हूँ।”

यह कहते-कहते भुवन सहसा चौंक पड़े और बोले—”ओह! मैं कितना बड़ा मूर्ख हूँ—सारा रहस्य समझ में आ गया, अब कोई बात छिपी नहीं है। ओह, मैंने विमला के साथ घोर अन्याय किया! महान अन्याय! मैं बिल्कुल अंधा हो गया था। विमला, मुझे क्षमा करो।”

भुवन इसी तरह देर तक विलाप करते रहे। बार-बार मुझे धन्यवाद देते थे और मूर्खता पर पछताते थे। हमें इसकी सुध ही न रही कि कब घंटी बजी, कब खेल शुरू हुआ। यकायक विनोद कमरे में आए। मैं चौंक पड़ी। मैंने उनके मुख की ओर देखा, किसी भाव का पता न था। बोले—”तुम अभी यही हो, पद्मा! खेल शुरू हुए तो देर हुई! मैं चारों तरफ तुम्हें खोज रहा था।”

मैं हकबकाकर उठ खड़ी हुई और बोली—”खेल शुरू हो गया? घंटी की आवाज़ तो सुनायी ही नहीं दी।”

भुवन भी उठे। हम फिर आकर तमाशा देखने लगे। विनोद ने मुझे अगर इस वक्त दो-चार लगने वाली बातें कह दी होतीं, उनकी आँखों में क्रोध की झलक दिखायी देती, तो मेरा अशांत हृदय संभल जाता, मेरे मन को ढाढ़स होती, पर उनके अविचलित विश्वास ने मुझे और भी अशांत कर दिया। बहन, मैं चाहती हूँ, वह मुझ पर शासन करें। मैं उनकी कठोरता, उनकी उद्दण्डता, उनकी बलिष्ठता का रूप देखना चाहती हूँ। उनके प्रेम, प्रमोद, विश्वास का रूप देख चुकी। इससे मेरी आत्मा को तृप्ति नहीं होती ! तुम उस पिता को क्यों कहोगी, जो अपने पुत्र को अच्छा खिलाये, अच्छा पहनाये, पर उसकी शिक्षा-दीक्षा की कुछ चिंता न करे; वह जिस राह जाए, उस राह जाने दे; जो कुछ करे, वह करने दे। कभी उसे कड़ी आँख से देखे भी नहीं। ऐसा लड़का अवश्य ही आवारा हो जाएगा। मेरा भी वही हाल हुआ जाता है। यह उदासीनता मेरे लिए असह्य है। इस भले आदमी ने यहाँ तक न पूछा कि भुवन कौन है? भुवन ने यही तो समझा होगा कि इसका पति इसकी बिल्कुल परवाह नहीं करता। विनोद खुद स्वाधीन रहना चाहते हैं, मुझे भी स्वाधीन छोड़ देना चाहते हैं। वह मेरे किसी काम में हस्तक्षेप नहीं करना चाहते। इसी तरह चाहते हैं कि मैं भी उनके किसी काम में हस्तक्षेप न करूँ मैं इस स्वाधीनता को दोनों ही के लिए विष तुल्य समझती हूँ। संसार में स्वाधीनता का चाहे जो भी मूल्य हो, घर में तो पराधीनता ही फलती-फूलती है। मैं जिस तरह अपने एक जेवर को अपना समझती हूँ, उसी तरह विनोद को अपना समझना चाहती हूँ। अगर मुझसे पूछे बिना विनोद उसे किसी को दे दें, तो मैं लड़ पड़ूँगी। मैं चाहती हूँ, कहाँ हूँ, क्या पढ़ती हूँ, किस तरह जीवन जीवन व्यतीत करती हूँ, इन सारी बातों पर उनकी तीव्र दृष्टि रहनी चाहिए। जब वह मेरी परवाह नहीं करते, तो मैं उनकी परवाह क्यों करूं? इस खींचातानी में हम एक-दूसरे से अलग होते चले जा रहे हैं और क्या कहूं, मुझे कुछ नहीं मालूम कि वह किन मित्रों को रोज पत्र लिखते हैं। उन्होंने भी मुझसे कभी कुछ नहीं पूछा। खैर, मैं क्या लिख रही थी, क्या कहने लगी। विनोद ने मुझसे कुछ नहीं पूछा। मैं फिर भुवन से फ़िल्म के संबंध में बातें करने लगी।

जब खेल खत्म हो गया और हम लोग बाहर आए और तांगा ठीक करने लगे, तो भुवन ने कहा—”मैं अपनी कार में आपको पहुँचा दूंगा।”

हमने कोई आपत्ति नहीं की। हमारे मकान का पता पूछकर भुवन ने कार चला दी। रास्ते में मैंने भुवन से कहा—”कल मेरे यहाँ दोपहर का खाना खाइएगा।” भुवन ने स्वीकार कर लिया।

भुवन तो हमें पहुँचाकर चले गए, पर मेरा मन बड़ी देर तक उन्हीं की तरफ लगा रहा। इन दो-तीन घंटों में भुवन को जितना समझी, उतना विनोद को आज तक नहीं समझी। मैंने भी अपने हृदय की जितनी बातें उससे कह दीं, उतनी विनोद से आज तक नहीं कहीं। भुवन उन मनुष्यों में है, जो किसी पर पुरुष को मेरी कुदृष्टि डालते देखकर उसे मार डालेगा। उसी तरह मुझे किसी पुरुष से हँसते देखकर मेरा ख़ून पी लेगा और ज़रूरत पड़ेगी, तो मेरे लिए आग में कूद पड़ेगा। ऐसा ही पुरुष-चरित्र मेरे हृदय पर विजय पर सकता है। मेरे ही हृदय पर नहीं, नारी-जाति (मेरे विचार में) ऐसे ही पुरुष पर जान देती हैं। वह निर्बल है, इसलिए बलवान् का आश्रय ढूंढती है।

बहन, तुम ऊब गई होगी, खत बहुत लंबा हो गया; मगर इस काण्ड को समाप्त किए बिना नहीं रहा जाता। मैंने सबेरे ही से भुवन की दावत की तैयारी शुरू कर दी। रसोइया तो काठ का उल्लू है, मैंने सारा काम अपने हाथ से किया। भोजन बनाने में ऐसा आनंद मुझे और कभी न मिला था।

भुवन बाबू की कार ठीक समय पर आ पहुँची। भुवन उतरे और सीधे मेरे कमरे में आए। दो-चार बातें हुईं। डिनर-टेबल पर जा बैठे। विनोद भी भोजन करने आए। मैंने उन दोनों आदमियों का परिचय करा दिया। मुझे ऐसा मालूम हुआ कि विनोद ने भुवन की ओर से कुछ उदासीनता दिखायी। इन्हें राजाओं-रईसों से चिढ़ है, साम्यवादी हैं। जब राजाओं से चिढ़ है, तो उनके पिट्ठुओं से क्यों न होती। वह समझते हैं, इन रईसों के दरबार में खुशामदी, निकम्मे, सिद्धांतहीन, चरित्रहीन लोगों का जमघट रहता है, जिनका इसके सिवाय और कोई काम नहीं कि अपने रईस की हर एक उचित-अनुचित इच्छा पूरी करें और प्रजा का गला काटकर अपना घर भरें। भोजन के समय बातचीत की धारा घूमते-घूमते विवाह और प्रेम-जैसे महत्व के विषय पर आ पहुँची।

विनोद ने कहा—”नहीं, मैं वर्तमान वैवाहिक प्रथा को पसंद नहीं करता। इस प्रथा का आविष्कार उस समय हुआ था, जब मनुष्य सभ्यता की प्रारंभिक दशा में था। तब से दुनिया बहुत आगे बढ़ी है। मगर विवाह प्रथा में जौ-भर भी अंतर नहीं पड़ा। यह प्रथा वर्तमान काल के लिए उपयोगी नहीं।”

भुवन ने कहा—”आखिर आपको इसमें क्या दोष दिखाई देते हैं?”

विनोद ने विचारकर कहा—”इसमें सबसे बड़ा ऐब यह है कि यह एक सामाजिक प्रश्न को धार्मिक रूप दे देता है।”

“और दूसरा?”

“दूसरा यह कि यह व्यक्तियों की स्वाधीनता में बाधक हैं। यह स्त्रीव्रत और पतिव्रत का स्वांग रचकर हमारी आत्मा को संकुचित कर देता है। हमारी बुद्धि के विकास में जितनी रुकावट इस प्रथा ने डाली है, उतनी और किसी भौतिक या दैविक क्रांति से भी नहीं हुई। इसने मिथ्या आदर्शों को हमारे सामने रख दिया और आज तक हम उन्हीं पुरानी, सड़ी हुई, लज्जाजनक पाशविक लकीरों को पीटते जाते हैं। व्रत केवल एक निरर्थक बंधन का नाम है। इतना महत्वपूर्ण नाम देकर हमने उस कैद को धार्मिक रूप दे दिया है। पुरुष क्यों चाहता है कि स्त्री उसको अपना ईश्वर, अपना सर्वस्व समझे? केवल इसलिए कि वह उसका भरण-पोषण करता है। क्या स्त्री का कर्त्तव्य केवल पुरुष की संपत्ति के लिए वारिस पैदा करना है? उस संपत्ति के लिए, जिस पर हिन्दू नीतिशास्त्र के अनुसार, पति के देहांत के बाद उसका कोई अधिकार नहीं रहता। समाज की यह सारी व्यवस्था, सारा संगठन संपत्ति-रक्षा के आधार पर हुआ है। इसने संपत्ति को प्रधान और व्यक्ति को गौण कर दिया है। हमारे ही वीर्य से उत्पन्न संतान हमारी कमाई हुई जायदाद का भोग करे, इस मनोभाव में कितनी स्वार्थान्धता, कितना दासत्व छिपा हुआ है, इसका कोई अनुमान नहीं कर सकता। इस कैद में जकड़ी हुई समाज की संतान यदि आज घर में, देश में, संसार में, अपने क्रूर स्वार्थ के लिए रक्त की नदियाँ बहा रही है, तो क्या आश्चर्य है। मैं इस वैवाहिक प्रथा को सारी बुराइयों का मूल समझता हूँ।

भुवन चकित हो गया। मैं खुद चकित हो गई। विनोद ने इस विषय पर मुझसे कभी इतनी स्पष्टता से बातचीत न की थी। मैं यह तो जानती थी, वह साम्यवादी हैं, दो-एक बार इस विषय पर उनसे बहस भी कर चुकी हूँ , पर वैवाहिक प्रथा के वे इतने विरोधी हैं, यह मुझे मालूम न था। भुवन के चेहरे से ऐसा प्रकट होता था कि उन्होंने ऐसे दार्शनिक विचारों की गंध तक नहीं पाई। जरा देर के बाद बोले—”प्रोफेसर साहेब, आपने तो मुझे एक बड़े चक्कर में डाल दिया। आखिर आप इस प्रथा की जगह कोई और प्रथा रखना चाहते हैं या विवाह की आवश्यकता ही नहीं समझते? जिस तरह पशु-पक्षी आपस में मिलते हैं, वह हमें भी करना चाहिए?”

विनोद ने तुरंत उत्तर दिया—”बहुत कुछ। पशु-पक्षियों में सभी का मानसिक विकास एक-सा नहीं है। कुछ ऐसे हैं, जो जोड़े के चुनाव में कोई विचार नहीं रखते। कुछ ऐसे हैं, जो एक बार बच्चे पैदा करने के बाद अलग हो जाते हैं, और कुछ ऐसे हैं, जो जीवनपर्यन्त एक साथ रहते हैं। कितनी ही भिन्न-भिन्न श्रेणियाँ हैं। मैं मनुष्य होने के नाते उसी श्रेणी को श्रेष्ठ समझता हूँ, जो जीवनपर्यन्त एक साथ रहते हैं। मगर स्वेच्छा से। उनके यहाँ कोई कैद नहीं, कोई सज़ा नहीं। दोनों अपने-अपने चारे-दाने की फ़िक्र करते हैं। दोनों मिलकर रहने का स्थान बनाते हैं, दोनों साथ बच्चों का पालन करते हैं। उनके बीच में कोई तीसरा नर या मादा आ ही नहीं सकता, यहाँ तक कि उनमें से जब एक मर जाता है तो दूसरा मरते दम तक फुट्टैल रहता है। यह अंधेर मनुष्य-जाति ही में है कि स्त्री ने किसी दूसरे पुरुष से हँसकर बात की और उसके पुरुष की छाती पर साँप लोटने लगा, खून-ख़राबे के मंसूबे सोचे जाने लगे। पुरुष ने किसी दूसरी स्त्री की ओर रसिक नेत्रों से देखा और अर्धांगिनी ने त्योरियाँ बदलीं, पति के प्राण लेने को तैयार हो गई। यह सब क्या है? ऐसा मनुष्य-समाज सभ्यता का किस मुँह से दावा कर सकता है?”

भुवन ने सिर सहलाते हुए कहा—”मगर मनुष्यों में भी तो भिन्न-भिन्न श्रेणियाँ हैं। कुछ लोग हर महीने एक नया जोड़ा खोज निकालेंगे।”

विनोद ने हँसकर कहा—”लेकिन यह इतना आसान काम न होगा। या तो वह ऐसी स्त्री चाहेगा, जो संतान का पालन स्वयं कर सकती हो या उसे एक मुश्त सारी रकम अदा करना पड़ेगी।”

भुवन भी हँसे—”आप अपने को किस श्रेणी में रखेंगे?”

विनोद इस प्रश्न के लिए तैयार न थ। था भी बेढंगा-सा सवाल। झेंपते हुए बोले—”परिस्थितियाँ जिस श्रेणी में ले जायँ। मैं स्त्री और पुरुष दोनों के लिए पूर्ण स्वाधीनता का हामी हूँ। कोई कारण नहीं है कि मेरा मन किसी नवयौवना की ओर आकर्षित हो और वह भी मुझे चाहे, तो भी मैं समाज और नीति के भय से उसकी ओर ताक न सकूं। मैं इसे पाप नहीं समझता।”

भुवन अभी कुछ उत्तर न देने पाये थे कि विनोद उठ खड़े हुए। कालेज के लिए देर हो रही थी। तुरन्त कपड़े पहने और चल दिये। हम दोनों दीवानखाने में आकर बैठे और बातें करने लगे।

भुवन ने सिगार जलाते हुए कहा—”कुछ सुना कहाँ जाकर तान टूटी?”

मैंने मारे शर्म के सिर झुका लिया। क्या जवाब देती। विनोद की अंतिम बात ने मेरे हृदय पर कठोर आघात किया था। मुझे ऐसा मालूम हो रहा था कि विनोद ने केवल मुझे सुनाने के लिए विवाह का यह नया खण्डन तैयार किया है। वह मुझसे पिंड छुड़ा लेना चाहते हैं। वह किसी रमणी की ताक में हैं, मुझसे उनका जी भर गया। वह खयाल करके मुझे बड़ा दु:ख हुआ। मेरी आँखों से आँसू बहने लगे। कदाचित् एकांत में मैं न रोती, पर भुवन के सामने मैं संयत न रह सकी। भुवन ने मुझे बहुत सांत्वना दी—”आप व्यर्थ इतना शोक करती हैं। मिस्टर विनोद आपका मान न करें; पर संसार में कम-से-कम एक ऐसा व्यक्ति है, जो आपके संकेत पर अपने प्राण तक न्योछावर कर सकता। आप-जैसी रमणी-रत्न पाकर संसार में ऐसा कौन पुरुष है, जो अपने भाग्य को धन्य न मानेगा। आप इसकी बिल्कुल चिंता न करें।”

मुझे भुवन की यह बात बुरी मालूम हुई। क्रोध से मेरा मुख लाल हो गया। यह धूर्त मेरी इस दुर्बलता से लाभ उठाकर मेरा सर्वनाश करना चाहता है। अपने दुर्भाग्य पर बराबर रोना आता था। अभी विवाह हुए साल भी नहीं पूरा हुआ, मेरी यह दशा हो गई कि दूसरों को मुझे बहकाने और मुझ पर अपना जादू चलाने का साहस हो रहा है। जिस वक्त मैंने विनोद को देखा था, मेरा हृदय कितना फूल उठा था। मैंने अपने हृदय को कितनी भक्ति से उनके चरणों पर अर्पण किया था। मगर क्या जानती थी कि इतनी जल्द मैं उनकी आँखों से गिर जाऊंगी और मुझे परित्यक्ता समझ, फिर शोहदे मुझ पर डोरे डालेंगे।

मैंने आँसू पोंछते हुए कहा—”मैं आपसे क्षमा मांगती हूँ। मुझे जरा विश्राम लेने दीजिए।”

“हाँ-हाँ, आराम करें; मैं बैठा देखता रहूंगा।”

“जी नहीं, अब आप कृपा करके जाइए। यों मुझे आराम न मिलेगा।”

“अच्छी बात है, आप आराम कीजिए। मैं संध्या समय आकर देख जाऊंगा।”

“जी नहीं, आपको कष्ट करने की कोई ज़रूरत नहीं है।”

“अच्छा तो मैं कल जाऊंगा। शायद महाराजा साहब भी आवें।”

“नहीं, आप लोग मेरे बुलाने का इंतजार कीजिएगा। बिना बुलाये न आइएगा।”

यह कहती हुई मैं उठकर अपने सोने के कमरे की ओर चली। भुवन एक क्षण मेरी ओर देखता रहा, फिर चुपके से चला गया।

बहन, इसे दो दिन हो गये हैं। पर मैं कमरे से बाहर नहीं निकली। भुवन दो-तीन बार आ चुका है, मगर मैंने उससे मिलने से साफ़ इंकार कर दिया। अब शायद उसे फिर आने का साहस न होगा। ईश्वर ने बड़े नाजुक मौके पर मुझे सुबुद्धि प्रदान की, नहीं तो मैं अब तक अपना सर्वनाश कर बैठी होती। विनोद प्राय: मेरे पास ही बैठे रहते हैं। लेकिन उनसे बोलने को मेरा जी नहीं चाहता। जो पुरुष व्यभिचार का दाशर्निक सिद्धांतों से समथर्न कर सकता है, जिसकी आँखों में विवाह-जैसे पवित्र बंधन को कोई मूल्य नहीं, जो न मेरा हो सकता है, न मुझे अपना बना सकता है, उसके साथ मुझ-जैसी मानिनी गर्विणी स्त्री का कै दिन निर्वाह होगा!

बस, अब विदा होती हूँ। बहन, क्षमा करना। मैंने तुम्हारा बहुत-सा अमूल्य समय ले लिया। मगर इतना समझ लो कि मैं तुम्हारी दया नहीं, सहानुभूति चाहती हूँ।

तुम्हारी,

पद्मा

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