बाबा जी का भोग मुंशी प्रेमचंद की कहानी | Babaji Ka Bhog Munshi Premchand Ki Kahani

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Baba Ji Ka Bhog Story Munshi Premchand

Baba Ji Ka Bhog Story Munshi Premchand

रामधन अहीर के द्वार पर एक साधु आकर बोला – “बच्चा तेरा कल्याण हो, कुछ साधु पर श्रद्धा कर।”

रामधन ने जाकर स्त्री से कहा – “साधु द्वार पर आये हैं, उन्हें कुछ दे दे।

स्त्री बर्तन मांज रही थी और इस घोर चिंता में मग्न थी कि आज भोजन क्या बनेगा। घर में अनाज का एक दाना भी न था। चैत का महीना था। किंतु यहाँ दोपहर ही को अंधकार छा गया था। उपज सारी-की-सारी खलिहान से उठ गयी। आधी महाजन ने ले ली, आधी जमींदार के प्यादों ने वसूल की। भूसा बेचा, तो बैल के व्यापारी से गला छूटा, बस थोड़ी-सी गाँठ अपने हिस्से में आयी। उसी को पीट-पीटकर एक मन-भर दाना निकाला था। किसी तरह चैत का महीना पार हुआ। अब आगे क्या होगा। क्या बैल खायेंगे? क्या घर के प्राणी खायेंगे? यह ईश्वर ही जाने! पर द्वार पर साधु आ गया है। उसे निराश कैसे लौटायें? अपने दिल में क्या कहेगा।

स्त्री ने कहा – “क्या दे दूं, कुछ तो रहा नहीं?”

रामधन – “जा, देख तो मटके में, कुछ आटा-वाटा मिल जाए, तो ले आ।”

स्त्री ने कहा – “मटके झाड़-पोंछकर तो कल ही चूल्हा जला था। क्या उसमें बरकत होगी?”

रामधन – “तो मुझसे तो यह न कहा जायेगा कि बाबा घर में कुछ नहीं है। किसी के घर से मांग ला।”

स्त्री – “जिससे लिया उसे देने की नौबत नहीं आयी, अब और किस मुँह से मांगू।”

रामधन – “देवताओं के लिए कुछ अँगौवा निकाला है न, वही ला, दे आऊं।”

स्त्री – “देवताओं की पूजा कहाँ से होगी?”

रामधन – “देवता मांगने तो नहीं आते? समाई होगी करना, न समाई हो न करना।”

स्त्री – “अरे तो कुछ अँगौवा भी पंसेरी दो पंसेरी है। बहुत होगा तो आध सेर। इसके बाद क्या फिर कोई साधु न आयेगा। उसे तो जवाब देना ही पड़ेगा।”

रामधन – “यह बला तो टलेगी, फिर देखी जायेगी।”

स्त्री झुंझलाकर उठी और एक छोटी-सी हाँड़ी उठा लायी, जिसमें मुश्किल से आध सेर आटा था। वह गेहूँ का आटा बड़े यत्न से देवताओं के लिए रखा हुआ था। रामधन कुछ देर खड़ा सोचता रहा, तब आटा एक कटोरे में रखकर बाहर आया और साधु की झोली में डाल दिया।

महात्मा ने आटा लेकर कहा – “बच्चा, अब तो साधु आज यहीं रमेंगे। कुछ थोड़ी-सी दाल दे, तो साधु का भोग लग जाए।”

रामधन ने फिर आकर स्त्री से कहा। संयोग से दाल घर में थी। रामधन ने दाल, नमक, उपले जुटा दिये। फिर कुएँ से पानी खींच लाया। साधु ने बड़ी विधि से बाटियाँ बनायीं, दाल पकायी और आलू झोली में से निकालकर भरता बनाया। जब सब सामग्री तैयार हो गयी, तो रामधन से बोले – “बच्चा, भगवान के भोग के लिए कौड़ी-भर घी चाहिए। रसोई पवित्र न होगी, तो भोग कैसे लगेगा?”

रामधन – “बाबाजी, घी तो घर में न होगा।”

साधु – “बच्चा! भगवान का दिया तेरे पास बहुत है। ऐसी बातें न कह।”

रामधन – “महाराज, मेरे गाय-भैंस कुछ नहीं है, घी कहाँ से होगा?”

साधु – “बच्चा! भगवान के भंडार में सबकुछ है। जाकर मालकिन से कहो तो!”

रामधन ने जाकर स्त्री से कहा – “घी मांगते हैं। मांगने को भीख, पर घी बिना कौर नहीं धंसता।”

स्त्री – “तो इसी दाल में से थोड़ी लेकर बनिये के यहाँ से ला दो। जब सब किया है तो इतने के लिए उन्हें क्यों नाराज करते हो?”

घी आ गया। साधुजी ने ठाकुरजी की पिंडी निकाली, घंटी बजायी और भोग लगाने बैठे। खूब तन कर खाया, फिर पेट पर हाथ फेरते हुए द्वार पर लेट गये। थाली, बटली और कलछुली रामधन घर में मांजने के लिए उठा ले गया।

उस रात रामधन के घर चूल्हा नहीं जला। खाली दाल पकाकर ही पी ली।

रामधन लेटा, तो सोच रहा था – मुझसे तो यही अच्छे!

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