चैप्टर 4 बदनाम गुलशन नंदा का उपन्यास | Chapter 4 Badnaam Gulshan Nanda Novel Read Online

चैप्टर 4 बदनाम गुलशन नंदा का उपन्यास | Chapter 4 Badnaam Gulshan Nanda Novel Read Online

Chapter 4 Badnaam Gulshan Nanda Novel 

Chapter 5 Badnaam Gulshan Nanda Novel

गौरी शंकर प्रसाद सिंह का जन्मस्थान आरा अनुमंडल ही था। यहीं के राजा कालिज से बी० ए० करने के बाद ये बी० एल ० करने लगे। इनका परिवार ज्यादा संपन्न न था, फिर भी पढ़ते समय इनको अधिक दुख नहीं उठाना पड़ा। पढ़ने से तेज थे ही, अध्ययन भी इन्होंने खूब किया था, फलस्वरूप वे पास कर गए और पटना हाईकोर्ट से अभ्यास करने लगे।

इनके वकालत करने के परिपाटी ही अलग ढंग की था। जजों के समक्ष से जब बोलने के लिए खड़े होते थे, तब ये ज्यादा जोर से नहीं बोलते थे। धीरे और कम बोलते थे और जो कुछ भी कहते थे, वह सार तंत्र ही होता था। इसका नतीज़ा यह निकला कि तीन वर्ष बाद ही वे सरकारी वकील कायम किये गये। फिर इन्हें सरकार की सेवा करने का मौका मिल गया और अपनी योग्यता दिखाने का भी। पांच वर्ष बाद ये शाहाबाद जिले मे जज बनाकर भेज दिये गए।

गौरी बाबू इस जिले के नामी न्यायाधीशों में से थे। न्याय करने का इनका कुछ ऐसा अनोखा तरीका था कि सत्य हमेशा सामने आ जाता था। वकील चकित रह जाते थे कि असलियत का पता इन्होंने किस तरह लगा लिया। जनता को आश्चर्य होता कि इन्हें सत्य का पता किस तरह लग गया । बहस होने तथा फैसला सुनाने के बीच एक तारीख मुद्दई और मुद्रालेह को दी जाती थी । उस तारीख को गौरी बाबू दोनों पार्टियों से स्वयं कुछ प्रश्न करते, जिससे इनको असलियत का पता काफी अंश में लग जाता था और उन्हीं के आधार पर इनका फैसला होता था। चमत्कारिक न्याय होता था ।

जब कभी कोई पेचीदा और अनोखा मुकदमा इनके पास आता था, तो सत्य का पता लगाने के लिए ये एक दूसरा ही रास्ता अख्तियार करते थे। वकीलों द्वारा बहस समाप्त हो जाने के बाद इनका एक विश्वासी आदमी उस स्थान पर जाता, जहाँ का यह मुकदमा होता था और वहाँ सारी स्थिति का पता लगा आता था और इसी पर उस केस का न्याय होता ।

कानूनों के ज्ञाता होने पर भी वे जानते थे कि इस समय का सारा भारतीय कानून अन्धा है, क्योंकि जो लोग कानून बनाते हैं, वे गरीब जनता से, उनके दुखों से काफी दूर होते हैं और कानून का असर गरीबों पर ही पड़ता है। प्रशिक्षित जनता भी कानून का सहारा लेनी है। बड़े और अमीरों को तो कानून से कोई मतलब ही नहीं होता। इसलिए फैसले के समय ये कानून का सहारा नहीं लेते थे ।

कानून का सहारा गौरी बाबू लेते थे या नहीं, इस पर कुछ नहीं कहना है, किन्तु यह सत्य था कि अब तक जितने भी मुकदमों का फैसला इन्होंने दिया था, दूध का दूध और पानी का पानी की भांति दिया था। दोषी को कभी मुक्ति नहीं दी तथा निर्दोष को कभी सजा न दी।

इसका फल यह हुआ कि जनता में यह काफी चर्चा के विषय’ हो गए ।

गौरी बाबू का यश जितना ही फैला हुआ था, उतना ही वे भाग्यहीन भी थे। कहा भी गया है कि सभी को सभी प्रकार का सुख प्राप्त नहीं होता। अभी तक उन्होंने अपनी किसी भी सन्तान का मुंह नहीं देखा था। पितृ-ममत्व से सर्वथा भिन्न थे, अब तक बच्चों का प्यार एवं बाल कीड़ा, उन्होंने नहीं देखी थी। उनकी आंखें एक मात्र बच्चे के लिए तरसती थीं, लालायित थीं। वे चाहते थे एक शिशु, जो प्यारा हो, सुन्दर हो, छोटा-सा हो, बस !

आज सवेरे से ही वे इसी सोच-विचार में मग्न थे। और दिनों से अधिक उदास थे, आज वे। उनका भविष्य, उन्हें अन्धकारमय दिख रहा था। उनके बाद इस सम्पत्ति का क्या होगा ? इसको कौन भोगेगा? इसी तरह के विचार उन्हें उद्वेलित कर रहे थे कि उसी समय टेलीफोन की घन्टी टनटना उठी। रिसीवर को उठा कर कानो से लगाया और पूछा – “कौन ?”

“जी, नमस्कार ।” उधर से आवाज आई, “मैं हूं सदर अस्पताल का डाक्टर ।”

” क्या है ?” गोरी बाबू ने यों ही यह प्रश्न पूछा ।

“एक औरत मर गई है यहाँ, महाशय ।” डाक्टर ने कहा । “क्या हुआ था उसे ?” गोरी बाबू ने प्रश्न किया। वे यह जानना चाहते थे कि एक औरत के मरने से उनका क्या सम्बन्ध हो सकता है ? उन्होंने सोचा, शायद कोई विशेष बात हो सकती है, तभी डाक्टर साहब या तो सारा हाल कहकर जानकारी दे रहे हैं। या फिर मुझे गवाह बना रहे हैं। हालांकि इस समय उनका मूड़ या तबियत ऐसी न थी, जिसके कारण वे इस तरह की सांसारिक बातों में दिलचस्पी लेते। क्योंकि आए दिन सुनने में या दैनिक समाचारपत्रों में हत्या, डाका, चोरी, लूट, राहजनी, छुरेबाजी इत्यादि की घटनायें प्रकाश में बाती रहती हैं। यहाँ तक कि मात्र थोड़ी-सी जमीन या आपस में बंटवारे के कारण एक भाई ने अपने सगे दूसरे भाई का, या भतीजे ने चाचा का, या विमाता पुत्र ने अपनी सौतेली माता को जान से मार डालने की घटना आज आम बात हो गई है । फिर उन्हें क्या पड़ी है कि एक औरत जो सरकारी सदर अस्पताल में मरी है, में दिलचस्पी लें। किन्तु कर्त्तव्य की उनको ज्यादा चिंता थी। किसी काम के लिए टाल-मटोल करना या आज का काम कल पर छोड़ना उनके लिए गवारा न था। एक तरह से वे एक मशीन की भांति सरकार का कार्य करते थे। कहीं पर कोई गड़बड़ नहीं । कहीं कोई विशेष परिवर्तन नहीं। जो चलता आ रहा था, वह होता जा रहा था और वैसा ही होता भी जाएगा, उनका यही दृढ़ निश्चय था ।

“कोई विशेष बात तो नहीं थी महाशय ?” डाक्टर साहब संकोच के साथ इतना ही कह सके। उन्हें कुछ गम-सा भी लग रहा था। हालांकि जिस उद्देश्य से डाक्टर ने न्यायाधीश महाशय को फोन किया था, उनकी पूर्ति के लिए स्वयं गौरी बाबू ने ही डाक्टर साहब से आग्रह किया था। डाक्टर ने सोचा, ऐसे सम्मानित व्यक्ति के साथ सीधी बात करना उचित नहीं। कहीं वे बुरा न मान जायें। अतः जो बात इन्हें कहनी थी, उसकी भूमिका में थे ये ।

‘फिर..?” गौरी बाबू ने पूछा ।

“वह औरत, जो अपने पीछे कुछ भी नहीं छोड़ गई है, एक मात्र डेढ़ साल की एक बच्ची के। उसका इस संसार में अपना कोई नहीं था । ” डाक्टर साहब ने कहा ।

“जैसा कि मरने से पहले उसने अपना बयान दिया था, छः

माह पहले ही उसका पति मर गया था।”

“यह औरत किस बीमारी से मरी है ?” गौरी बाबु ने प्रश्न किया। शायद वे समझ गये थे। सारी स्थिति का ज्ञान हो गया था उन्हें । डाक्टर के कहने का तात्पर्य वे अच्छी तरह समझ गए थे शायद ।

डाक्टर ने टेलीफोन पर ही जवाब दिया- “बुखार था, उसे । दो दिन पहले तक वह ठीक हो गई थी। आज अचानक ही उसकी तबीयत एकाएक अत्यन्त ही खराब हो गई थी। बुखार तेज हो गया था। मुझे खबर दी गई तो मैं झटपट चलकर उसके पास पहुंचना ही चाहता था कि उसके प्राण पखेरू हमेशा के लिए उड़ गए और हम हाथ मलते ही रह गए ।”

“यह सब प्रकृति की लीला है ! ” गौरी बाबू ने कहा । उनकी वाणी गम्भीर थी। उनका चेहरा उतरा हुआ ज्ञात होता या । शायद वे उदास थे उस समय एक महामानव, मानव की मृत्यु पर दुःखी न हो, आश्चर्य है ! लेकिन आज का मानव प्रादर्श महा- मानवों की लीक पर नहीं चल रहा है। आज हमारे सामने लोग मर रहे हैं, किन्तु हम सिवा देखने के और कुछ भी नहीं कर पा रहे हैं। किसी को सड़कों पर मरा देखते हैं, परन्तु अन्तिम संस्कार के लिए हम उद्धत होते । हम मानव जरूर हैं और मानव कहे जाने के अधिकारी भी है, लेकिन हमारा कर्तव्य एक पशु से भी गया बीता हो गया है। काश! मानने से कभी विनुख न होता । रिसीवर कान में लगाते ही वे थोड़ी देर तक उसी दशा में खड़े मौन रहे, तत्पश्चात उन्होंने कहा- “हम अभी आ रहे हैं ।” और रिसीवर उन्होंने रख दिया।

उसी समय उनकी पत्नी वहाँ आ पहुँची। कमरे में आते ही उन्होंने पूछा – ” किसका टेलीफोन आया था ?’

“सदर अस्पताल के बड़े डाक्टर का।” गौरी बाबू ने कहा।

“कोई खास बात थी, क्या ?”

“हाँ, खास बात ही थी।” गौरी बाबू ने कुछ प्रसन्न मुद्रा में कहा – “परन्तु डाक्टर के लिए नहीं।”

 “फिर ?” बीच से ही बात काटकर उनकी पत्नी ने आश्चर्य से पूछा।

“हमारे लिए ।”

“हमारे लिए ?” उनकी पत्नी को कौतुहल भी हुआ- “हमारे लिए भला खास बात क्या हो सकती है ?” 

“एक औरत एक डेढ़ वर्ष की बच्ची छोड़कर मरी है।”

“ओह ! यह बात है ?” उनकी पत्नी ने मुस्कराते हुए कहा-

“तो अस्पताल हम लोगों को शीघ्र ही पहुँचना चाहिये ।” और उन्होंने अपने पति की ओर देखा।

उसी समय कपड़े बदलते हुए गौरी बाबू ने कहा “हाँ, जरा जल्दी करो। हम लोग अभी अस्पताल ही चलेंगे। नौकर से कह देना कि सोफर को गाड़ी निकालने के लिए कह देगा।” और वे कपड़े बदलने में लग गये।

गौरी बाबू अभी अपने बालों में कंघी कर ही रहे थे कि उनकी पत्नी आ गई। आते ही उन्होंने कहा – “चलिए न ज्यादा देर हो गई है।”

“चलिए ।” गौरी बाबू ने कहा और अपनी पत्नी के साथ चल दिये। मकान से बाहर बरामदे में आते ही उन्हें गाड़ी मिली और पिछली सीट का दरवाजा खोलकर पति और पत्नी अन्दर बैठ गये ।

सोफर ने गाड़ी स्टार्ट की और स्टेयरिंग दबाते ही गाड़ी हवा बातें करने लगी। थोड़ी देर बाद गाड़ी ने अस्पताल के बहाने के भीतर, फाटक से जैसे ही प्रवेश किया कि सीढ़ियों से उतरकर डा० साहब गाड़ी के पास पहुंचे और दोनों हाथ जोड़ दिये, “नमस्ते ।”

गौरी बाबू की पत्नी ने गाड़ी से उतरकर डाक्टर के ‘नमस्ते’ के जवाब में केवल दोनों हाथ जोड़ दिये। लेकिन उन्होंने कहा – “नमस्ते ! आपका मेरे ऊपर स्थान रहता है।” और न्यायाधीश महागय मुस्कराये …।

डाक्टर साहब के साथ दोनों पति-पत्नी अस्पताल के अन्दर गए और तीनों ही एक-एक कुर्सी पर बैठ गए। कमरे में जाने समय एक चपरासी से डाक्टर साहब ने कुछ इशारे से कहा था, जिसका आशय समझने के बाद वह वहां से चला गया था।

कमरे में मौन छाया था। चारों ओर निस्तब्धता का राज्य था, जबकि कभी-कभी बोतलों और शीशियों की खनखनाहट की आवाज वातावरण को भंग कर देती थी। गौरी बाबू शांत थे । उन के हृदय में कोई हलचल नहीं थी। डाक्टर साहब रह-रहकर कमरे से बाहर दरवाजे की ओर देख लेते थे, शायद उन्हें किसी का इन्तजार था। पर गौरी बाबू की पत्नी रह-रहकर चारों ओर कौतूहल और आश्चर्य से देख लेती थीं। उन्हें इन्तजार करना असह्य सा लग रहा था। उतावली और जल्दी के कारण वह कुर्सी से थोड़ा उठ भी जाती थीं ।

थोड़ी देर के बाद एक चपरासी एक सुन्दर और फूल-सी कोमल गोरी-चिट्टी लड़की को गोद में लेकर कमरे में आया । “तो यही है वह बच्ची ।” न्यायाधीश महाशय ने कहा ।

‘जी हां।” डाक्टर साहब ने जवाब दिया।

गौरी बाबू ने अपनी पत्नी की ओर देखा, जो अब प्रौढ़ावस्था को पार करती दिखाई दे रही थी। आँखों का देखना शायद उनकी पत्नी का एक संदेश था। क्योंकि उसी समय वहाँ से उठकर वह बच्ची के पास आई और दोनों हाथ फैलाकर कहा- “आओ, मेरी गोद में ।”

बच्ची ने एक बार चपरासी की ओर देखा, तत्पश्चात कहने वाली की ओर देखकर उसकी गोद में चली गई। गौरी बाबू की पत्नी बच्ची को गोद में लिये ही कमरे से बाहर आई और बच्ची से पूछा – “मेरे साथ रहोगी ?”

वह प्रबोध, प्रज्ञान बालिका इस तरह की बातों को क्या समझे। वह तो एक बंदर के समान थी, जिसे जो प्यार करेगा, खाने को देगा, उसी की ओर आकर्षित होगी। वह उनकी गर्दन से जा लगी और मुस्कराकर बोली- “हां।” –

गदगद हो गई, गौरी बाबू की पत्नी श्रीमती स्वरूपा देवी । उन्हें लगा जैसे सारा स्वर्ग इस समय धरती पर उतरकर उनकी गोद में सिमटकर बैठा हो और अब उन्हें किसी प्रकार का दुःख, जरा और व्याधि नहीं है । वह हर प्रकार से सुखी है।

“मेरे घर ही चलोगी ?” उन्होंने एक यह भी प्रश्न किया ।

उस समय वहाँ अधिकांशतः सन्नाटा सा था। मगर ‘आउट- डोर’ के पास दवा लेते हुए एक अधरोगी नजर आ रहा था। बच्ची ने उधर देखा और नीचे उतरने के लिए मचलने लगी- “हाँ ।”

बच्ची डेढ़ वर्ष की तो थी और वह अपनी माँ को अच्छी तरह पहचानती भी होगी, लेकिन उसको अपनी मां कहीं दिखाई नहीं पड़ रही थी। इस उम्र में बच्चे माता के, प्यार और स्तन के दूध के कारण ही उसकी ओर दौड़ते हैं। और किसी की ओर, माता की भांति आकर्षित नहीं होते। इसीलिए तो कहा गया है- स्वारथ लागि कहि सब प्रीती ।

श्रीमती स्वरूपा देवी पुनः कमरे में लौट गई और कुर्सी पर बैठ गई। उनका हृदय बच्ची की ओर से पूर्णतया सन्तुष्ट हो गया था। उनके हृदय ने आत्मिक गवाही दे दी थी कि बच्ची को अपने साथ रखा जा सकता है। सामने ही मेज पर बिस्कुटों का एक डिब्बा रखा था। उसमें से कुछ बिस्कुट निकालकर उन्होंने बच्ची को खिलाना आरंभ कर दिया ।

डाक्टर साहब एकदम से मौन थे। परन्तु सोच रहे थे कि शायद बच्ची को ले जायें या नहीं। यदि अपने साथ रखना स्वीकार नहीं किया, तो एक जटिल समस्या उनके समक्ष आ खड़ी होगी । लेकिन उस बच्ची से श्रीमती स्वरूपा देवी का अपना-सा लगाव और खिचाव देखकर उन्हें कुछ सतोष था। उन्होंने कहा – “इसकी मां शिक्षित थी।”

गौरी बाबू ने इस बार डाक्टर साहब की ओर देखा और तब बाद में अपनी पत्नी की ओर। जैसे वे कह रहे हों कि इसकी माँ पढ़ी-लिखी औरत थी। अतः इस प्रबोध और निर्मल बालिका को रखने में कोई हर्ज नहीं होगा ।

उसी समय श्रीमती स्वरूपा देवी ने उठते हुए कहा – “बहुत कृपा की हमारे ऊपर, डाक्टर साहब आपने। अब चला जाय ।” उनका यह इशारा शायद अपने पति की ओर था। 

“आप लोगों के लिए मैंने चाय का प्रबन्ध किया है।” डाक्टर

ने कहा ।

“फिर कभी देखा जाएगा।” और गौरी बाबू उठ खड़े हुए। यह देख डाक्टर साहब भी कुर्सी छोड़ दिये। तीनों बाहर आए । मोटर के पास जाते गौरी बाबू ने कहा- “कचहरी में हम इस बच्ची को रखने की रजिस्ट्री करा देंगे । अतः गवाही के समय थोड़ी देर के लिए आपको कष्ट दूंगा।”

इसके जवाब में डाक्टर ने मुस्कराकर दोनों हाथ जोड़ दिए, क्योंकि गौरी बाबू और उनकी पत्नी मोटर की पिछली सीट पर बैठ चुके थे। बच्ची श्रीमती स्वरूपादेवी की गोद में थी। वह खुश नजर आ रही थी।

गौरी बाबू ने भी अपने दोनों हाथ जोड़ दिये और मोटर रवाना हो गयी ।

इस बच्ची का नाम रखा गया – सविता। सविता गोरी और सुन्दर बालिका थी। यहाँ आने पर इसको भोजन और पहनावे में डुबो दिया गया था, इस कारण इसके रूप में पहले से कुछ अधिक निखार आ गया था। न्यायाधीश महाशय की सविता पर ज्यादा कृपा रहती थी। कोई वस्तु बर्बाद कर देती, तो वे एकदम ही ध्यान नहीं देते थे। एक बच्चे की किलकारी, चारपाया होकर चलना इत्यादि से परिवार अमनचैन में हो गया। जो अभाव था, उसकी पूर्ति एक हद तक हो गयी थी।

प्रकृति की लीला भी विचित्रताओं से मरी हुई है। कुछ न दिया तो न सही, मगर देना आरंभ किया, तो छप्पर फाड़-फाड़कर देता चला गया। एक साल बाद श्रीमती स्वरूपा देवी के गर्भ से भी एक बच्ची जन्मी जिसका नाम रखा गया सावित्री।

अपनी सन्तान न होने के कारण तो इन्होंने सविता को गोद लिया । फिर प्रकृति ने सावित्री को क्यों भेजा, जब सावित्री को. श्रीमती स्वरूपा देवी के गर्भ से जन्म हो देना था, तब सविता की ओर इनको आकर्षित क्यों किया ? लेकिन इन दो प्रश्नों का जवाब मानव के पास नहीं हो सकता । यहीं पर मानव प्रकृति से हार मान जाता है।

सविता बड़ी थी, सावित्री छोटी। दोनों का पालन-पोषण एक साथ ही होने लगा। दोनों की सुन्दरता और जोड़ी बेजोड़ थी। जो कोई यही कहता था कि दोनों बहने ही हो सकती हैं।, गौरी की अधिक कृपा का पात्र सविता बनती। श्रीमती स्वरूपा देवी सावित्री के जन्म से अधिक प्रसन्न हैं, किन्तु ..

माँ होने के नाते स्वरूपा देवी का ध्यान सावित्री पर अधिक रहता था। मगर वह देखती कि उसके पति का ध्यान या दिलचस्पी सविता पर अधिक रहती है। कुछ दिनों बाद इसके लिए कभी- कभी आपस में कुछ कहा-सुनी भी हो जाती थी, तब गौरी बाबू चुप रह जाते थे।

दोनों बहनें ज्यों-ज्यों बड़ी होती जा रही थीं, त्यों-त्यों घर चुहलबाजी एवं अठखेलियों से गुलजार होता जा रहा था। जीवन भर का तरसता हुआ मानव प्रकृति की विचित्र लीला को देखकर तृप्त हो गया। जो मात्र एक बच्चे की किलकारी के लिये ललचता था, उसने दो-दो बच्चों की किलकारियाँ देखों और सुनीं। मानव की चिर-वांछित अभिलाषा पूरी हुई।

सावित्री की आयु जब छः वर्ष की हो गयी, तो दोनों बहनों को पाठशाला भेजा गया। दोनों एक साथ ही मोटर से पाठशाला जातीं और साथ ही लोटतीं। घर पर पढ़ाने के लिए भी एक अध्यापिका नियुक्त कर दी गई।

समय ने पलटा खाया। दिन बीते। रातें गुजरीं। कई बसन्त चले गये । जाड़ों की गिनती न थी । लाखों मानव इस धरती पर से उठ गये और डालियों में कई लाख नये, कोमल और सुगंधयुक्त फूल खिले और देखते ही देखते दो-चार आठ साढ़े नौ साल बीत गये । सविता अब साढ़े चौदह साल की तथा सावित्री दस साल की हो गयी थी। उनके बचपन ने वाला का रूप बदला और बालायें अब कुमारियाँ होने जा रही थीं।

एक दिन शाम को कचहरी से लौटने के बाद गौरी बाबू बाहर लॉन पर कुर्सी डालकर बैठे अपना मन बहला रहे थे। आज उन्होंने एक केस का अन्तिम निर्णय दिया था। फैसले के पक्ष में एक युवती की जीत हुई थी, जो असहाय थी, अनाथ थी । उसको कुछ बाजारू लोगों द्वारा उसके एक संबंधी की सहमति से डरा-धमका कर उसकी जायदाद हड़पने और अनैतिक व्यवहार करने के लिए मजबूर किया जा रहा था। युवती की ओर से कोई गवाह न था । वह एकदम अकेली थी। उसका वकील भी उसकी पूरी तरह मदद नहीं करता था। दूसरी ओर से लोग काफी थे। सभी उसको बर्बाद करने पर तुले थे। कानून के सही माने जाने पर भी युवती की मजबूरी ने गौरी बाबू को बेचैन कर दिया। तब उन्होंने उस युवती के पीछे अपना एक विश्वासपात्र लगा दिया, ताकि असलियत का पता लग सके । विश्वासपात्र ने कई आदमियों को उस युवती के घर जबर्दस्ती प्रवेश करते देखा था और यह भी देखा था कि पड़ोसियों ने उसकी कुछ भी मदद न की थी। जो लोग उसके घर में आते-जाते उनका नाम युवती ने अदालत में दिया था और प्रार्थना की थी कि नाजायज व्यक्तियों से उसको छुटकारा दिलवा दिया जाए, ताकि शेष जीवन वह चैन से गुजार सके। फैसले में उसकी जीत तो हुई थी । साथ ही विपक्ष के नामजद सभी आदमियों को अदालत से चेतावनी दे दी गई थी कि यदि कभी किसी बेजा हरकत की शिकायत युवती ने अदालत में की, तो उसकी सुनवाई सरकार की ओर से की जायेगी ।

युवती के धन पर खतरा तथा अस्मत पर डकैती होने की आशंका थी, गौरी बाबू को । आज उसी केस का इसी तरह फैसला सुनाकर वे घर लौटे थे । वे प्रसन्न मुद्रा में थे उस समय । उन्हें पूर्ण विश्वास था कि एक अबला की रक्षा उन्होंने की है।

सूर्य ढल रहा था। दिन समाप्त हो रहा था। शाम हो गई थी । मन्द मन्द समीर बह रहा था। पक्षी अपने-अपने घर की ओर जल्दी से लौट रहे थे। पेड़ों पर लालिमा फैलती नजर पाने लगी थी। उनकी नजरें बाहर फाटक की ओर यों ही लगी थीं । तभी पन्द्रह वर्ष का एक बालक उनकी ओर आता दिखाई दिया। घुटनों तक घोती पहने, आधी बांह की कमीज डाले तथा कन्धे पर गमछा डाल रखा था उसने। इस लड़के को देखकर न्यायाधीश महाशय के मन में कोई खास भाव नहीं जगा । कारण कि यह क्षेत्र वास्तव में एक निरा देहाती क्षेत्र था। यहां अधिकतर गरीब और भोले किसान ही बसते थे, जिनका पहनावा ही यही था। अदालत में वकीलों, पेशकारों अथवा मुहर्रिरों को छोड़ प्रायः सभी के पहनावे में कोई खास अन्तर दिखाई नहीं देता था। कोई-कोई तो अपने साथ एक हल्का डंडा भी रखता था।

वह लड़का सहमे हुए कदमों से चलकर, धीरे-धीरे गौरी बाबू के पास आया और एक लम्बी सलामी देने के बाद हाथ जोड़कर खड़ा हो गया ।

न्यायप्रियता के साथ ही दयालुता में भी इनको ख्यातिप्त हो चुकी थी। इन्होंने कितने ही आदमियों, गरीब मजदूरी एवं असहाय औरतों की रोटी का प्रबन्ध करवा दिया था। इनका कहना था – यदि किसी को किसी काम में लगवा दिया जाए, तो उसके लिये लाभकर ही होगा और अपने राम का कुछ बिगड़ेगा नहीं ।

तब क्या हर्ज हो सकता है। उन्होंने उसकी ओर देखकर पूछा– “क्या है ?

“सरकार !” और वह एक प्रकार से गिड़गिड़ाकर रह गया। कुछ कहो ! मैं यथासाध्य तुम्हारी सहायता करूंगा ।’ और गोरी बाबू ने उसकी ओर देखा। ओह आदमी भी इतना सुन्दर हो सकता है, उन्हें आश्चर्य हुआ। अब तक उन्होंने सुना या देखा था कि औरतें ही सुन्दर, गोरी और गुलाब फूल की पंखुड़ियों के सदृश्य सुन्दर होती है, पर एक पुरुष भी इतना सुन्दर हो सकता है। ये चकित थे। लगता था उसकी ओर देखते ही रहें। पलकों को बन्द करना आंखों के साथ अन्याय करना हो सकता था। उससे बातें न करना, दिल की भावनाओं के साथ धोखा करना हो सकता था। इतना खूबसूरत! इतना आकर्षक! वह भी गरीब परिवार में, अनपढ़ घराने में, दूर देहात में गुदड़ियों में ही लाल दिखाई देता है। प्रकृति की छटा अजीब निराली है। जो न कर दे, थोड़ा है।

गौरी बाबू के इतना आश्वासन देने पर भी उस सुन्दर और अजनबी लड़के ने अपने हृदय का भाव उंडेला नहीं । वह हाथ जोड़कर खड़ा ही रहा।

“तुम क्या चाहते हो ?” इस बार गौरी बाबू ने साफ-साफ उससे पूछा । उन्होंने सोचा – शायद यह संकोच से कुछ न कह सके 

“सरकार ! आपको दया ही काफी है।” लगता था, गरीबी के कारण वह भी बोलने में चतुर हो गया था। वह साफ-साफ तो कुछ नहीं कह रहा था, लेकिन जो कुछ कह रहा था उससे गौरी बाबू की जिज्ञासा बढ़ती जा रही थी और बढ़ रही थी उसके प्रति उनकी सहानुभूति !

“फिर भी तुम जो चाहते हो, सो कहो ।”

“गांव वालों ने मुझे मार-पीट कर भगा दिया है। उनका कहना था कि यह करो, वह करो। यहां जाओ, वहां जाओ और दिन भर बैल की भांति बेगारी करो। मगर बदले में भरपेट भात भी खाने को नहीं देते थे ।” वह सुन्दर लड़का कहने लगा- “आज दो दिनों से शहर में भटक रहा हूँ। कहीं काम-धाम नहीं मिला। एक जगह काम भी मिला, तो यह कहकर भगा दिया गया कि यह देहात का निरा गंवार है। काम-धाम कुछ न कर सकेगा ।”

गवार और देहाती लड़के को इस बात ने गौरी बाबू को उद्वेलित कर दिया कि आजादी के बीस वर्ष बाद भी आज बेगार की प्रथा इस देश में चालू है। काम के बदले में पेट भर भोजन भी नहीं मिलता। क्या देहातों तक आवाज नहीं पहुंच सकी है ? यह कैसी स्वतंत्रता ? क्या महान् नेहरू की यही है आधुनिक भारत की रूप रेखा, जहां आदमी की कीमत पशु से भी कम है ? क्या आज के नेताओं के समक्ष ऐसा कोई विषय नहीं, जहाँ इनकी सुनवाई हो सके? देश के नेताओं पर उनको लिफ्ट हुआ। थोड़ी देर बाद वह मुस्कराये। सोचा – यह दुनिया है और यहां का हर एक जीव स्वार्थ में अन्धा है । अपने धंधे के आगे किसी और के दुःख-दर्द का कोई मूल्य नहीं। पूछा – “तुम्हारा क्या नाम है ?”

“मां मुझे सखीचंद कहती थी ।” सरल शब्दों में उसने कहा । “गांव में और कौन-कौन है तुम्हारे ?”

“सरकार, अपना कोई नहीं ।” सखीचंद ने कहा- “जगदीश- पुर में एक बहन ब्याही है, किन्तु पाहुने इतने नाराज हैं कि मां के मर जाने के बाद भी बहन को हमारे गांव नहीं जाने दिया।”

गौरी बाबू ने सोचा- आदमी का कर्त्तव्य इतना नीच हो गया है कि दुख पड़ने पर या गरीबी छाने पर वह अपनों को पूछता तक भी नहीं। क्या मानवता या इन्सानियत नाम की कोई चीज संसार में अब नहीं रह गयी ? लोग चौबीसों घण्टे स्वार्थ में ही डूबे रहते हैं ? इससे क्या फायदा? मरने के बाद क्या वह अपनी कमाई की सारी वस्तुओं को अपने साथ ले जायेगा ? नहीं | तब यह जाल, प्रपंच, धोखा और स्वार्थ किसके लिए ? आज का ग्रादमी एकदम कर्त्तव्यच्युत हो गया है। पूछा – “तुम काम करना चाहते हो ?”

“जी, सरकार ।” उसने कहा- “आप ही मेरे माई-बाप हो जाइये।”

“मेहनत करोगे ?” न्यायाधीश महाशय ने पूछा ।

“सरकार !” सखीचंद ने कहा- “वह तो दो-एक दिन में दिखाई देने लगेगा।” और हाथ जोड़कर खड़ा खड़ा ही इन्तजार करने लगा कि क्या होता है। उस लड़के को कुछ आशा तो बंधी कि अब उसको शायद भटकना नहीं पड़ेगा।

गौरी बाबू ने किसी को आवाज दी- “रामपूजन ।”

“आया हुजूर…!” और कहने के साथ ही एक दुबला-पतलाआदमी हाथ जोड़कर उनके सामने खड़ा गया- “जी सरकार!”

“इस लड़के को अपने साथ रखो।” 

“जी अच्छा! “

“पहले तो इसे भरपेट खाना खिलाओ। काम कल से लेना और हां कल शाम को बताना कि इसका काम कैसा है ?” गोरी बाबू ने कहा और उठकर अन्दर चले गये ।

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