चैप्टर 5 बदनाम गुलशन नंदा का उपन्यास | Chapter 5 Badnaam Gulshan Nanda Novel Read Online

चैप्टर 5 बदनाम गुलशन नंदा का उपन्यास | Chapter 5 Badnaam Gulshan Nanda Novel Read Online

Chapter 5 Badnaam Gulshan Nanda Novel

Chapter 5 Badnaam Gulshan Nanda Novel

प्रकृति का कुछ नियम ही ऐसा है कि यदि कोई वस्तु सुंदर हो, अति सुंदर हो और काम के लायक हो, तो वह लोगों को अपनी ओर खींचती है। यहां भी सखीचंद के साथ कुछ ऐसा ही हुआ ।

सखीचंद काफी सुंदर और खूबसूरत था। हाथ-पाँव कोमल- कोमल और मुलायम थे, उसकी प्रांखें बड़ी-बड़ी और भूरी थीं। उसकी नाक ऊंची उठी तथा सीधी थी। उसके होंठ पतले और लाल- लाल थे, बरौनियाँ काली तथा भौंहें धनुष के आकार की थीं। सिर के बाल काले और घुंघराले थे। ललाट चौड़ा था, उसका। सब देख सुनकर लगता था, वह रबड़ या प्लास्टिक की मूरत हो, जिसका निर्माण मनुष्य ने अपने उपयोग के लिए किया है, जो सुंदरता की टांग तोड़ सकता है ।

रामपूजन ने न्यायाधीश महाशय को अपनी रिपोर्ट दे दी थी कि सखीचंद काम करने में अद्वितीय है। जो काम उसे सौंपा जाता है, दम नहीं लेता है तथा अपना काम ईमानदारीपूर्वक सम्पन्न करता है

बड़े घर की लड़कियाँ होने के कारण सविता और सावित्री कुछ ठीठ हो गई थीं। इस कारण कि उन पर परिवार के सदस्यों द्वारा अंकुश नहीं लगाया जाता । गरीब घराने की लड़कियों एव लड़कों पर अंकुश लगाया जाता है और हर समय भली और बुरी चीजों का ज्ञान कराया जाता है, ताकि संतान सही रास्ते पर जाए।

इस कारण अमीर घराने की संतानें अपनी इच्छा पर चलने की आदि हो जाती है, जिसके कारण वे हठी और जिद्दी हो जाती हैं क्योकि बचपना न्याय-अन्याय नहीं पहचानता ओर बचपन की बातें एक दिन आदत बन जाती है, जो जीवन पर्यन्त छूटती नहीं । सविता और सावित्री, सखीचंद से लगी रहती थीं। पर सखीचंद यह जानकर कि मालिक की संतान एवं बड़े घर की लड़कियां है, चुप ही रह जाता था ।

असल में सखीचंद की बेहद सुन्दरता ने सविता और सावित्री को मोह लिया था। जब माली बाग में नहीं होता, न्यायाधीश महा- य नहीं होते, तब दोनों बहनें, सविता और सावित्री सखीचंद के पास जाती और उसको मनोरंजन हेतु छेड़ती- “सखीचंद ! गुलाब का पौधा किस तरह लगाया जाता है ?”

सखीचंद की ओर, उनका आकर्षित होने का एक और प्रमुख कारण था— उसका भोलापन ! उसकी नासमझी!

उनके इस तरह के उटपटांग प्रश्नों का जवाब सखीचंद नहीं देता था। कुछ तो भोलापन के कारण और कुल लिहाज के कारण सोचता- बड़े घर की बात है। दूसरे मुझे भूखों मरने से इनके पिता ने बचाया है । सखीचंद दोनों को अब तक सगी बहनें ही समझता था। वह आश्चर्य से कीमती साड़ी या फिराक-कमीज में लिपटी गुड़िया-सी अनमोल सुन्दरता को देखता रहता । तभी कभी कभी उससे दूसरा प्रश्न करती – “आलू कब और किस तरह रोपा जाता है ?”

इसके जवाब में भी वह उन लड़कियों की ओर टुकुर-टुकुर ताकने लगता।

अक्सर थोड़ी देर इसी तरह चुहलबाजी करने के बाद दोनों बहनें एक ही साथ वापस लौट जाती थीं। उनका मन बहल जाता और वह चली जाती थीं । परन्तु सखीचंद कुछ समझ नहीं पाता कि आखिर ये लड़कियां उससे ऐसा प्रश्न क्यों पूछती हैं। हालांकि उसके ख्याल में यह प्रश्न बेतुका नहीं था । और सखीचंद के पास भी इसका उचित उत्तर न था। वह जाति का माली या पेशे से माली न था, लेकिन लड़कियाँ उसे माली ही समझ रहीं थीं। वह गांव का भोलाभाला युवक (अब) शहरी वातावरण से एकदम अनभिज्ञ था। काम की तलाश में दो दिन घूमने के बाद वह शहर से भय भी खाने लगा था। वह अपने गांव को ही अच्छा समझता था । यदि गांव वाले कुछ सम्पन्न किमान बेगार लेकर उसे तंग न करते, तो शायद वह शहर से दूर ही रहता । किन्तु स्वभाव, रहन- सहन और बातें करने का ढंग बिल्कुल ही देहाती था, उसका उसको जो भी काम रामपूजन सौंपता, उसी के करने में वह लगा रहता था। न तनिक आराम और न जरा-सा चैन ! जब तक उस काम को पूरा न करता, वह आराम को हराम समझता था।

इसी कारण गौरी बाबू और उनकी पत्नी श्रीमता स्वरूपादेवी उससे ज्याद प्रसन्न थे ।

न्यायाधीश महोदय की कोठी के चारों ओर एक तरह का बाग लगवाया गया था। अधिकतर छोटे-छोटे पौधे ही लगाए जाते थे, जिनमें अधिकांश: फूल ही होते थे। हां, पहले के कुछ पेड़ थे, जिनकी छाया काफी शीतल और आराम देने वाली होती थी । गौरी बाबू स्वयं ही प्राकृतिक दृश्यों के प्रेमी थे। सरकार की ओर से एक माली उन्हें मिला ही हुआ था, मगर इतनी सारी व्यवस्था उन्होंने अपने ओर से की थी और पत्र तो सखीचंद भी रामपूजन की सहायता करता था ।

गर्मी का दिन था। भोजन करने के पश्चात वह वहाँ से हटकर एक आम के पेड़ के नीचे गमछा बिछाकर उस पर लेट गया। दोपहर हो गई थी। सर्वत्र गरम-गरम हवा चल रही थी, जिसमें एक मस्ती थी, जिसमें मदहोश करने की एक दवा-सी मिली हुई ज्ञात होती थी । आलस के कारण उसे झपकी माने लगी और ठंडी हवा ने उसे थपथपाकर सुला दिया और वह सो गया।

थोड़ी देर बाद सविता और सावित्री घूमते-घामते उसके पास पहुंची और वहां खड़ी हो गयीं। दोनों ने देखा – सखीचंद नींद में सो रहा था ।

“सखीचंद !” सविता ने उसको जगाना चाहा। वह सो रहा था, अतः इनको जवाब नहीं मिल सका ।

 “सखीचंद” इस बार आवाज देने के साथ ही सविता ने उसको, हाथ पकड़कर हिलाया भी, ताकि वह जाग सके ।

सखीचंद की नींद टूट गयी। उसने देखा दोनों बहनें सामने – ही खड़ी हैं । वह उठकर बैठ गया। समझा इस बार भी यह मुझे तंग करेगी, परेशान करेंगी और सदा की भांति यहां से तिरोहित हो जायेंगी। वह चाहता था कि इनसे पिंड छूटे। मगर चाहने से नहीं होता। वह जहां भी जाता था, दोनों बहनें समय पाकर पहुँच ही जाती थीं । सखीचंद इनको डांट भी तो नहीं सकता था । डरता था। कहीं यह बुरा मान गई और अपने पिताजी से कह दिया तो।

तब भी उसने उनसे पूछा – “क्या है मालकिन ! मालिक बाबू मुझे बुला रहे हैं, क्या ?”

उसके इस प्रश्न पर दोनों बहनें मुस्कुराई। उनका इस तरह मुस्कराना, सखीचंद को लगा कि वे इसको बेवकूफ समझती हैं, मूर्ख समझती हैं । उनको समझाना भी तो सखीचंद के बस की बात नहीं थी। वह दोनों उसके अगल-बगल बैठ गई और कहा- ” नहीं !”

वह हक्का-बक्का होकर दोनों की ओर बारी-बारी से देखने लगा। उसकी समझ में नहीं या रहा था कि इस समय वह क्या उपाय करे, ताकि इनमें जान बच सके, तभी सविता ने, जो सावित्री से ढाई वर्ष बड़ी थी और ज्यादा चंचल थी, पूछा- “सखीचंद, तुम्हारी शादी हो गई है ?”

इस प्रश्न के जवाब में सविता की ओर देखा, सखीचंद ने ।

“शादी करोगे ?” सावित्री ने इस बार प्रश्न किया। सखीचंद ने अपना सिर झुका लिया और धीरे से कहा– “नहीं।”

इस उम्र में शादी की बातें करना उचित नहीं होता। इस कारण नहीं कि यह बुरी बात है, बल्कि इस कारण कि शादी की बात या अभ्यास की जंजीरों में जो आनंद है, वह सारे मस्तिष्क, शरीर और मन को उद्वेलित कर देता है। उस वक्त उचित और अनुचित का ज्ञान मनुष्य में नहीं रह जाता । सखीचंद शादी होना जानता था, मगर उसकी जंजीरों में जो मजा निहित था, उसका ज्ञान उसे तनिक भी नहीं था। उसने विचार में शादी की बात लाई ही नहीं थी, अब तक मगर लड़कियाँ कुछ पढ़-लिखकर शादी की बात जान गई थी। चिंता थी ही नहीं; खाने-पीने का आराम था, अतः शरीर की बाढ़ ने ही उनको कुछ होशियार बना दिया था। उनके अन्दर से संकोच जाता रहा था। तभी सविता ने कहा “धत ! पगला कहीं का कहीं ! पुरुष शादी से भागते हैं ? भागती तो हैं औरतें, जिनके पास… ” वह भी न जाने क्यों चुप रह गई।

सखीचंद ने कुछ नहीं कहा।

“समझे ?” सावित्री ने कहा और उसका हाथ पकड़कर आप कन्धे पर रख लिया ।

कुछ लाज और कुछ भय के कारण सखीचंद अपना हाथ सावित्री के कन्धे पर से नहीं खींच सका और उसकी सिधाई और चुप्पी ने सविता को हिम्मत दी और वह उसके पैर पर सिर रखकर घास पर लेट गयी।

दोनों बहनें जैसा चाहती थीं, सखीचंद वैसा ही करता जाता था। अपनी ओर से उसने कभी कुछ नहीं किया या कहा। गांव का बेचारा…

सविता और सावित्री, दोनों बहनों के लिए ऐसा करना एक खेल के समान हो गया था। वह सखीचंद से घृणा नहीं कर सकीं। हालांकि वह इनकी तरह साफ धुले हुए और कीमती कपड़े नहीं पहनता था और न स्नो, पाउडर या इत्र का ही व्यवहार करता था। उसने कभी अपने बालों में कंघी तक नहीं की। छोटे-छोटे घुंघराले बाल थे। वह उन्हें योंही छोड़ देता था, मगर उसकी सुन्दरता ने इनको मोह लिया था ।

सखीचंद भी अब इनके सामने शरमाता नहीं था, काफी खुल गया था। धीरे-धीरे यह भावना कि यह मालकिन की बेटी हैं, जाती रही थी। वह भी इन्हें हमजोली समझ गया था। इनके साथ खेलना सखीचंद को भी अच्छा लगता था। कभी-कभी उसके अन्दर एक गुदगुदी पैदा हो जाती थी, जिसे वह आज तक नहीं समझ सका । एक तरह से वह इन दोनों बहनों का इंतज़ार भी करता था, मगर असल में वह नहीं चाहता था कि ये लड़कियों उसके पास आये और इस तरह का व्यवहार करे । इसी प्रसंग में एक दिन सखीचंद ने भी पूछ ही लिया- “आप लोग मेरे साथ शादी करेगी ?” प्रश्न तो उसने ठीक ही किया था, लेकिन उसका इतना ज्ञान न था कि धरती की धूल होकर उसने आकाश के तारों को तोड़ने की चेष्टा की थी। झोंपड़ी के रहने वालों ने महलों के रहने वालों की बराबरी चाही थी। यदि इतना ज्ञान सखीचंद को होता, तो वह इस तरह का प्रश्न ही नहीं करता ।

दोनों बहनों ने एक-दूसरे की ओर देखा,जैसे वह आपस में पूछ रही हों कि अब इस प्रश्न का जवाब क्या दिया जाएगा। वह इसको गूंगा, गंवार और निरा देहाती ही समझती थीं। मगर उसके इस प्रश्न ने उनको इस समझ का जवाब दे दिया था। फिर भी स्वतन्त्र हवा में विचरने वाली लड़कियों ने खुले दिल से जवाब दिया – “हाँ, करेगी।’

सखीचंद ने ऊपर पेड़ की ओर देखा । वह आम का पेड़ था । उसी समय एक पका हुग्रा आम उसके पास ही था गिरा। उसने उसको उठा लिया और ध्यान से देखने लगा ।

सविता ने पूछा – “तुम किसके साथ शादी करोगे ? मेरे साथ या फिर सावित्री के साथ ?”

उसने दोनों की ओर देखा। मगर निर्णय नहीं कर सका कि वह किसके साथ शादी करेगा। अतः उसने कहा- “दोनों के साथ ।’ वह एक के साथ शादी की बात कहकर दूसरे को नाराज भी तो नहीं न करना चाहता था।

“कहीं एक पुरुष दो स्त्रियों के साथ एक ही बार विवाह कर सकता है ?” साविता ने पूछा – “तुम्हारे गांव में ऐसा होता था, क्या ?”

“नहीं, ऐसा तो कभी नहीं हुआ ?”

“फिर ?” सावित्री ने कहा- “तुम ही बताओ कि तुम हम दोनों में से किसके साथ विवाह करना चाहते हो ।” मैं इस बारे में कुछ नहीं कह सकता।” और सखीचंद पका हुआ आम मुंह में डालकर चूसने लगा ।

“साफ-साफ कहते हुए क्या तुम्हें शरम लगती है ?” सावित्री बोली और सखीचंद के हाथ से आम छीन कर दूर फेंक दिया।

अन्दर ही अन्दर सखीचंद काफी प्रसन्न दिखाई दे रहा था । शायद उसे मी आनन्द आने लगा था। जीवन में कभी भी इस तरह की सुन्दर लड़कियों के सम्पर्क में इस तरह नहीं आया था, आज उसके रोयें खड़े हो गए थे। शरीर पुलकित हो रहा था, उसका। उसने कहा “आप ही लोग निर्णय करें कि यदि एक के होगी, तो कौन शादी करेगा ।” 

“में? ” और सविता ने अपने हाथ से अपनी ओर इशारा किया ।

“नहीं, मैं !” तभी सावित्री ने भी कहा। और वह भी सखीचंद की दूसरी जांघ पर सिर रख कर घास पर लेट गयी । दोपहर मौन था। हवा ‘साथ-साथ’ कर बह रही थी। चारों ओर का वातावरण शांत था, मरघट की तरह रेगिस्तान की भांति, कभी-कभी कौवों की ‘कांव-कांव की कर्कश ध्वनि वातावरण की शांति को झकझोर रही थी। धूप तेज थी।

“तुम शांत क्यों रहते हो, सखीचंद ?”

“शांत ?” सखीचंद ने अपनी उंगलियां सविता के बालों में डाल दी और एक लम्बी सांस लेकर कहने लगा – ” “हम गरीबों को शांत रहना चाहिए। हम कभी भी चंचल नहीं हुए, क्योंकि रोटी- कपड़े की चिंता में ही सारे दिन और रात गुजर जाते हैं। इसके सिवा कुछ भी सोचना हमारे वश की बात नहीं होती।’

“तुमसे हमारा इस तरह लगे रहना, क्या तुम्हें अच्छा लगता है ?”

सावित्री के बाल पकड़कर खींचता हुआ वह कहने लगा- “यह तो मैं नहीं जानता । किन्तु पहले या अब भी मैं चाहता हूं कि आप दोनों बहनें मेरे पास न आएं। पर कुछ दिनों से मन का एक कोना आप लोगों को देखने को आतुर रहता है। आप मेरे पास रहती, तो न जाने मुझे कैसा कैसा ख्याल आने लगता है। इससे फुरसत पाते ही एक भय-सा छा जाता है, मेरे मस्तिष्क पर । डरता हूं कि यदि रामपूजन मईया या मालकिन या मालिक बाबू ने ऐसा करते देख लिया, तो हमारी खैर नहीं। मैं गरीब कहीं का नहीं रह जाऊंगा। मालिक बाबू मुझे यहाँ से निकाल देंगे।” और वह अधिक गम्भीर हो गया। उसने सविता का सिर अपनी जांघ से हटाकर जमीन पर रख दिया, फिर सावित्री का सिर भी अपनी जांघ पर से हटा दिया और दोनों पैर समेट तथा शरीर को सिकुड़ा कर कहा – “आप लोग मेरे पास न आवें तो अच्छा है। मैं गरीब हूं। गांव में मेरा कोई नहीं है। मालिक बाबू ने कभी ऐसा करते देख लिया, तो मैं भूखों मरने लगूंगा । आप लोग बड़े घर की प्यारी लड़कियां हैं, कोई कुछ न कहेगा । आप लोग ही तो मेरे पास आकर मुझे काफी परेशान करती हैं।’

सविता उठकर बैठ गयी और सखीचंद के कन्धे पर हाथ धरती हुई बोली – “कोई कुछ नहीं कहेगा, तुम्हें। तुम हमको बहुत ही अच्छे लगते हो ।” और वह मुस्कुराई ।

तभी सावित्री ने कहा—”तुम इतने सुन्दर कैसे हो गए, सखीचंद ! तुमको एक औरत होना चाहिये था, बस हमारी तरह ।”

‘आप लोग अब जाइएगा, समय काफी हो गया है ।” सखी- चंद ने कहा और चारों ओर देखने लगा । जैसे उसे आशंका हो रही हो कि यदि अब ये दोनों बहनें यहां से न गई तो कोई-न-कोई आ ही टपकेगा और वह मुझ पर ही बिगड़ेगा। इन लड़कियों को कोई कुछ न कहेगा ।

“यदि तुम इस तरह कहोगे तो हम नहीं जायेंगी ।” सविता ने कहा और सखीचंद की ओर सरक आई।

सखीचंद ने सावित्री की ओर देखा ।

सविता का इशारा पाकर सावित्री भी दूसरी ओर से सखीचंद की ओर खिसकी। दोनों बहनों के बीच सखीचंद दुबककर बैठा था। वह पसीने-पसीने हो रहा था। दिल कुछ और चाहता था और सांसारिक वातावरण कुछ और ही कह रहा था। अंत में उसने कहा — “आप लोग मुझे यहाँ से निकाल कर ही दम लेंगी।”

“तुम्हें कोई नहीं निकाल सकता!” सविता उठती हुई बोली – “तुम हमारे मन के राजा हो ।”

सावित्री भी उठती हुई बोली – “तुम हमको बहुत ही अच्छे लगते हो ।”

सखीचंद ने दोनों को देखा, जो उसके सामने खड़ी थीं। दोनों कुछ-कुछ सयानी होती दिख पड़ी, उसे शरीर दोनों का भरा हुआ लगा उसे ।

“अच्छा हम फिर आयेंगी।” इतना कहती हुई दोनों बहनें घर की ओर दौड़ गयीं।

सखीचंद गंवार और सीधा उनको जाते हुए देखता रहा। सोचा, क्या यह मुझे प्यार करती है ? एक कथा सुनी थी, इसने कि एक परी ने एक लड़के से प्यार किया था। परी ही उसको खिलाती थी और अपने साथ रखती थी। वह जो भी चाहता, परी उसे लाकर देखी थी। उसे किसी बात की चिंता न थी। मगर यहां तो मालिक और मालकिन से ज्यादा डर उसे रामपूजन भईया से लगता था। वह रामपूजन को भईया कहा करता था । मन ही मन वह भय खाता था कि रामपूजन भईया को लड़कियों का मेरे साथ इस तरह मिलना कभी अच्छा नहीं लगेगा और वह मुझे जरूर डाटेंगे। इधर काफी दिनों से वह रामपूजन का स्वभाव कुछ-कुछ बदला हुआ देख रहा था। उसकी आवाज में कड़वाहट आने लगी थी। मगर मालिक बाबू के कारण वह ज्यादा कुछ नहीं कर सका था, अब तक ।

उसकी बगल में रामपूजन कब से आकर खड़ा था, शांत । सखीचंद का मन स्थिर होते ही वह पलटा और अपने भईया को पास ही खड़ा देखकर स्तब्ध रह गया। वह खड़ा हो गया। उसने सिर थोड़ा सा झुका लिया लेकिन मुंह से कुछ नहीं कहा।

“सखीचंद !”

सखी चंद का शरीर कांप गया -“हां!”

“यह तुम क्या कर रहे हो?”

उसने कुछ भी जवाब नहीं दिया। रामपूजन ने कहा- “सरकार यदि यह सब अपनी आंखों से देख लेंगे, तो तुम्हें जरूर गोली से उड़ा देगे ।”

उसने हिम्मत बांधकर कहा “मेरा क्या दोष है भईया ?”

“दोष तो तुम्हारा कुछ भी नहीं है, सखीचंद ! ” रामपूजन माली ने कहा “तुम जिस स्थिति में हो, एक पुरुष वही करता जो तुम कर रहे हो। शायद तुमसे उसका पग आगे ही जा चुका होता, यह मैं जानता हूँ कि तुम्हारी सिधाई और खूबसूरती ने उन दोनों को आकर्षित किया है, फिर भी परिस्थिति को समझते हुए तुम्हें सावधान रहना चाहिये ।”

मैंने अपनी ओर से आज तक कुछ भी नहीं किया है, भईया।” सखीचंद सच्चाई को उगल रहा था- -“जब देखो, वह मेरे पास आकर मुझे परेशान करती हैं। तंग करती हैं। कहती हैं, यह क्या है ‘ वह क्या है ?” उसने रामपूजन की ओर दया की दृष्टि से देखा।

“तुम्हारी मजबूरियों को मैं अच्छी तरह समझता हूं।” राम- पूजन उसकी दशा पर पिघल गया था। उसने अपना दाहिना हाथ सखीचंद के कंधे पर रख दिया और कहने लगा- “मगर तुम कौन हो, लड़कियां कौन हैं, यह भी तो समझो। अमीर लड़कियां चाहे जो भी कर्म क्यों न करें, उन्हें कोई दोषी नहीं ठहरा सकता, मगर गरीब लड़कों ने जरा कोई बात की कि लोग उसे ही दोष देने लगते हैं। अतः न चाहते हुए भी तुम्हें ही सावधान रहना होगा । वह लड़कियां आजाद हैं, उनकी जो तबियत होगी, अच्छा या बुरा सब करेंगी। उन्हें कोई नहीं रोक सकता ।”

“अब मुझे क्या करना चाहिए, भईया ?” अपनत्व की भावना और सच्चाई को प्रकट करने के कारण सखीचंद का मोह रामपूजन के प्रति बढ़ गया था । उसने कहा- “यह लड़कियां मेरा पिंड ही नहीं छोड़ती।”

“यह तो ठीक है मैं तुम्हें दोषी करार नहीं कर रहा हूँ। फिर भी अब तुम्हें ही उनसे दूर रहना चाहिए ।” रामपूजन ने कहा- “तुमको पहले ही उनको फटकार देना चाहिये था, ताकि वह कभी तुम्हारे पास ना सकें । “

“मुझसे कहा नहीं गया ।” सखीचंद ने कहा – “डर रहा था कि सरकार की लड़कियां हैं, कहीं बुरा मान गई, तो गजब हो जाएगा ।”

“गजब तो नहीं होता, परन्तु आज गजब होने की पूरी संभावना है ।” व्यंग्य मिश्रित शब्दों में माली रामपूजन ने कहा- “मैं तुमको आगाह कर दे रहा हूं । आगे तुम जानो और तुम्हारा काम जाने ।” और इतना कहकर वह वहां से चला गया। 

दोपहर ढल चुका था, शाम का अवसान आ रहा था और सखीचंद अकेला खड़ा था। चुपचाप वह आगे बढ़कर पेड़ की जड़ के पास ही बैठ गया और सोचने लगा-बड़े घरों के लोग चाहे जो भी करें, उन्हें कोई दोषी नहीं ठहराता । क्यों ? क्योंकि उनके पास दौलत होती है और दौलत के ही कारण उन्हें लोग सम्मान देते हैं । शायद लोग सोचते होंगे कि बुरा करें या भला, यदि अपना मन इनकी ओर से फिरा लिया जाता है, तो शायद इससे कुछ स्वार्थं नहीं सध सकेगा और यदि इसको यों ही छोड़ दिया जाये, तो यह हमारी मदद धन से करता रहेगा । तो गरीब देश में धनी लोगों से गलतियां होती ही नहीं । यह भी एक विवशता ही है। गरीबी से जो भी फायदा न उठा लिया जाए । सखीचंद को एक घटना याद आ गई। उसके गांव के मुखिया की एक मात्र बेटी सुधिया एक चमार के छोकरे के साथ, जो उनका हल जोतता था, भाग गई थी दस दिनों बाद तो सुधिया गाँव आई थी, मगर उसका कहीं पता नहीं चल सका । उसी साल सुधिया की शादी घूमधाम से कर दी गई। मगर वह चमार का लड़का कभी गांव में नहीं दीखा । सुधिया की शादी के समय भी किसी ने कोई अफवाह या बात ही नहीं फैलाई। शायद मुखिया के प्रभाव का कारण था यह । चमार का वह छोकरा डर के कारण अपना गांव ही छोड़ गया। सोचा होगा कि गांव में जायेगा, तो लोग उसको पीटेंगे ।

सखीचंद को ऐसा लगा जैसे सबकी जड़ गरीबी ही है। गरीब होना ही शायद पाप है। गरीब पर कोई एतबार नहीं करेगा, गरीबों की बातों पर कोई ध्यान नहीं देगा । गरीब हमेशा दुबका हुआ शायद इसी कारण रहता है कि कहीं कोई खरोंच न लग जाए। वह हमेशा सजग रहने की चेष्टा करता है ।

सखीचंद उठकर खड़ा हो गया। उसने एक लम्बी सांस ली और आप ही आप कहने लगा- “जो होगा, देखा जाएगा । अब तो जो होना था, वह तो हो चुका। पीछे पैर हटाना कठिन है और आगे बढ़ने में खतरा है । दोनों ओर खाई ही खाई नजर आ रही है । तब क्यों न आगे ही बढ़ा जाए ।” उसने मन ही मन ऐसा दृढ़ संकल्प किया और वहाँ से अपने कमरे की ओर चल दिया ।

शाम को पौधों में पानी डाला। जो व्यर्थ के घास जम गये थे, उन्हें उखाड़कर फेंक दिया। आम के जो पल्लव लॉन पर गिरकर गंदगी बिखेर रहे थे, उन्हें उठाकर फेंक दिया और रात को भोजन करने के बाद सो रहा ।

दूसरे दिन समय पाते ही फिर लड़कियां आई और सखीचंद के साथ छेड़खानी करने लगी। किन्तु अप्रत्यक्ष रूप से उन पर इस बार एक बिजली गिरी, जिससे उनका एक अंग समाप्त हो गया।

सवेरे ही रामपूजन ने श्रीमती स्वरूपादेवी से सारा हाल कह दिया था। असल में सखीचंद से उसको ईर्ष्या हो गई थी। सबसे प्रथम तो वह काम खूब मन लगाकर करता था, जिसके कारण सरकार उस पर प्रसन्न रहते थे। धीरे-धीरे रामपूजन की ओर से सरकार ( गौरी बाबू) का ध्यान हट गया था। दूसरे कि ये दोनों लड़कियाँ उस पर जान देती थीं। इससे सखीचंद को हर तरह की सुविधाएं प्राप्त थीं। खाने को भी अच्छी-अच्छी चीजें मिलती थी और कभी पैसा भी उसके हाथ लग जाता था । लड़कियों की सुधरता, सुन्दरता और जवानी देखकर उसका भी जी ललचं उठा था। उसने सोचा था कि मालकिन से कहने पर अवश्य ही सखीचंद निकाल बाहर किया जाएगा और तब उसकी चांदी हो चांदी होगी। अतः लड़कियों के सखीचंद के पास पहुंचते हो वह मालकिन के पास गया और साथ लाकर सारा नजारा उनको दिखा दिया। स्वरूपादेवी ने अपनी आँखों से सब कुछ देखा मगर वह शान्त थीं ।

उन्होंने ऐसे मौके पर कुछ भी नहीं कहा और उलटे पांव वापस कोठी में चली गयीं।

रामपूजन मन ही मन प्रसन्न था और कह रहा था कि अब सखीचंद निकाल बाहर किया जायेगा। तब बच्चू को याद आयेगा कि यह कैसा मजा था। खूब छककर आराम किया है, इसने। अब तक मजा ही मजा लूटता आ रहा है और वह भी वहाँ से चला गया।

कुछ देर सखीचंद के पास ठहरने के बाद लड़कियाँ भी चली गई। जैसे ही सावित्री मां के कमरे में पहुंची, मां ने पूछा- “सावित्री ! सखीचंद के साथ यह कैसा नाटक खेला जा रहा है ?”

“जी!” और उसने अपना सिर झुका लिया ।

“तुम्हारा नाटक में अपनी आंखों से देख आई हूँ ।” उसकी मां श्रीमती स्वरूपादेवी ने कहा- “मेरी कोख को इस तरह कलंकित न कर, वर्ना मुझे अपनी ही ममता का अपने ही हाथों गला घोंटना पड़ेगा। आज से तेरा नाटक समाप्त । तू अपना कमर छोड़कर कहीं नहीं जायेगी। यहां तक कि सविता से भी नहीं मिल सकेगी।”

सावित्री के साथ सविता भी आई थी। सावित्री को मां ने जैसे ही सम्बोधित किया था, सविता खिड़की के पास ही खड़ी रह गयी थी और मां का कहना सब कुछ सुन लिया था। वह डर रही थी कि मां उसको भी न मना कर दें, मगर ऐसा कुछ नहीं हुआ।

इस तरह सावित्री पर प्रतिबन्ध लग गया । स्वरूपादेवी ने सविता से शायद इसलिए नहीं कहा कि एक तो वह उसकी लड़की नहीं थी, दूसरे कि गौरी बाबू उसको अधिक प्यार करते थे, चाहते थे। वह चाहती थी कि इस तरहे आगे चलकर सविता की बदनामी हो जायेगी, तो उसके पति को भी होश हो जायेगा और बखेड़ा भी खत्म हो जाएगा।

अगले दिन सखीचंद के पास अकेली सविता ही पहुंच सकी। सखीचंद को आश्चर्य हुम्रा । उसने पूछा – “सावित्री कहाँ है ?”

“सावित्री अब माँ के घेरे में है और अब यहां कभी नहीं आ सकती ।” उदास भाव से सविता बोली – “और शायद मैं भी रोक ली जाऊँगी। लेकिन यह सब माताजी को कैसे पता चला ? “

“रामपूजन भईया ने तो परसों मुझसे मना किया था कि लड़कियों को अपने पास आने मत देना ।” सखीचंद ने कहा- “शायद उन्होंने यह सब देख लिया था ।”

“ओह ! ” सविता ने कहा – “कहीं यह बात पिताजी को मालूम हो गयी…”

“अब क्या होगा ?” सखीचंद ने पूछा ।

सविता बोली – “तुम्हें ही कोई उपाय ढूंढ़ निकालना चाहिए।” 

“कल से मैं यहां की नौकरी छोड़ देता हूँ ।” उसने कहा- “एक पत्थर की दुकान पर काम मिल गया है। यदि मैं यहाँ से नहीं होंगा, तो परिणाम कुछ अच्छा नहीं होगा ।”

“हम लोगों को भूल तो नहीं जानोगे ?” सविता की आंखों के कण साफ झलक रहे थे। जीवन में प्रथम बार सविता होश खोने के बाद रोई थी। वह भी एक गरीब के लिए ।

“मुझे तुम लोगों को यदि भूलना ही होता, तो मैं इतना सब नहीं करता । ” सखीचंद ने कहा – “उसी की खातिर तो मैं कल से पत्थर का काम सीखने जा रहा हूँ ।” और उसने सविता को प्रथम बार अपने अंक में भर लिया।

सविता भी निढाल होकर उसकी गोद में पड़ी रही । आज दोनों का मिलन जो था ।

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