चैप्टर 3 बदनाम गुलशन नंदा का उपन्यास | Chapter 3 Badnaam Gulshan Nanda Novel Read Online

चैप्टर 3 बदनाम गुलशन नंदा का उपन्यास | Chapter 3 Badnaam Gulshan Nanda Novel Read Online

Chapter 3 Badnaam Gulshan Nanda Novel

Chapter 3 Badnaam Gulshan Nanda Novel

आधा घंटा बाद वह वहाँ से उठकर अन्दर चली गई । मैंने सोचा – हो न हो, इस बुढ़िया के जीवन की कहानी लंबी तो होगी ही, साथ ही दिलचस्प और करुण भी। आज तक किसी मूर्ति या तस्वीर के समक्ष इतनी श्रद्धा से पूजा करते मैंने किसी को नहीं देखा था । यह एक मेरे लिए अद्भुत बात थी, अचंभे की, आश्चर्य की !!

“अब कहिये, आप लोग…” कमरे में प्रवेश करती हुई बुढ़िया बोली – “आप लोगों को तकलीफ तो अवश्य हुई होगी ?” वह इस समय सादा फीता, कोर की साड़ी पहने थी और ब्लाउज भी सफेद ही था । उसके खुले बाल गौरवर्ण शरीर पर खूब फब रहे थे, हालांकि उसकी गोरी चमड़ी काफी ढीली पड़ गई थी, तब भी सीधी लग रही थी और काफी सुन्दर भी । इससे मैंने अनुमान लगाया कि अपनी जवानी के दिनों में वह काफी आकर्षक और खूबसूरत रही होगी ।

” इसके लिए धन्यवाद !” मैंने धीरे से मुस्कराने की असफल चेष्टा की, क्योंकि बुढ़िया की बात सोचते-सोचते में काफी गम्भीर हो गया था। मैं बोला- “हम लोग तो आपको ही तकलीफ देने चले हैं।”

“बहुत अच्छा किया है, आपने ।” वह एक कुर्सी पर बैठती हुई बोली- “अपनी बेटी को तो मैं पहचान गई, परन्तु वह पूरा वाक्य न कह सकी, न जाने क्यों ? पर वह मेरा परिचय जानना चाहती थी। वैसे भी कोई आदमी यह सब जो हो रहा था, देखकर अनुमान लगा सकता था कि मैं इन श्रीमती और बच्चे का कौन हो सकता हूँ ? फिर भी मन की तसल्ली के लिए उसने पूछ ही लिया।

तभी तपाक से श्रीमतीजी ने उत्तर दिया- “आप इस मुन्ने के पिताजी हैं।”

” बहुत अच्छा ! ” श्रौर बुढिया ने अपने दोनों हाथ जोड़ दिये। “नमस्ते !” वह काफी खुश नजर आ रही थी, उस समय ।

“नमस्ते !” मैंने भी कह दिया।

“किधर चले हैं, आप लोग सवेरे-सवेरे ?”

बुढ़िया की इस बात से हमें अचम्भे के साथ ही खुशी भी हुई, क्योंकि उसने मेरे मन की बात कही थी, मेरा उद्देश्य जानना चाहा था और मैं यही चाहता भी था। मैंने श्रीमतीजी की ओर देखा और श्रीमतीजी ने मेरी ओर। विजय को, जो काफी परेशान कर रहा था, अपनी मां को, अपनी ओर खींचते हुए मैंने धीरे से कहा- “सच पूछिये तो हम लोग मूर्ति को देखने चले हैं और ..”

“मूर्ति को ?” बीच में ही टोककर उसने आश्चर्य से पूछा- “कैसी मूर्ति ? कौन मूर्ति ? मैं समझी नहीं ।’

“एक पत्थर की मूर्ति जो शायद आपके पास है ।” मैंने सहज- भाव से कह दिया। मुझे उनके मूर्ति के बारे में जानने की इच्छा से आश्चर्य नहीं हुआ। प्रायः ऐसा होता ही है।

“ओह!” कदाचित वह मेरा आशय समझ गयी थी। बुढ़िया ने एक लंबी सांस लेकर कहा – “उस मूर्ति को तो आप लोग अभी- अभी देख ही चुके हैं। वह एक मामूली पत्थर की मूर्ति के सिवा और कुछ भी नहीं है ।”

“किन्तु..” और मुन्ना मेरी गोद से नीचे उतर गया ।

“मैं देखती हूं कि एक साधारण-सी वस्तु को भी लोग कमी- कभी ज्यादा महत्व देने लगते हैं और इसी सिलसिले में, जैसा कि आपने भी कहा है, मेरे पास यही एक पत्थर की बड़ी मूर्ति है।” बुढ़िया काफी गम्भीर हो गई थी। वह कहने लगी- “आये दिन कोई न कोई मेरे पास पहुंचा ही रहता है, इस मूर्ति को देखने के लिए। कोई यह सवाल लेकर आता है कि इसे बेच दो। कोई कहता है – इसकी तस्वीर खींचूंगा । कोई जिज्ञासा प्रकट करता है – इस को देखूंगा, इत्यादि इत्यादि । मेरी समझ में नहीं प्राता कि इस पत्थर की बेजान मूर्ति में कौन-सी ऐसी खूबी है, जिसके लिए लोग उमड़ते चले आते हैं।”

“तो लगता है, आप इस पत्थर की मूर्ति को ज्यादा पसन्द नहीं करती।” मैंने श्रीमतीजी की ओर देखा। में मन-ही-मन अपने इस प्रश्न पर अचरज से भर गया। हालांकि हो सकता है इस प्रश्न से उनको थोड़ी तकलीफ हुई होगी, परन्तु किस उद्देश्य से में यहाँ इन के पास प्राया था, वह उगलवाना भी तो था इनसे। मैंने इसकी प्रतिक्रिया के लिए उनकी ओर कनखियों से देखा ।

“नहीं, ऐसा नहीं है ।” बुढ़िया ने जरा देर से जवाब दिया- “यह प्राणों से अधिक प्यारी है, मेरे लिए। असल में पूछिए तो इस मूर्ति में ही मेरा एक इतिहास छिपा है। नहीं, नहीं, बल्कि यों कहिए कि मेरे जीवन का इतिहास छिपा है। इसी कारण मैं इस मूर्ति को अपने पास इतनी सावधानी से रखती हूं किन्तु क्या आप बता सकते हैं कि लोग इस मूर्ति की ओर क्यों आकर्षित हो रहे हैं ? “

उनके इस प्रश्न का उत्तर मैंने सोच-समझकर इस तरह दिया, “इसकी असली खूबी तो एक पारखी ही बता सकता है।”

मैंने इतना ही कहा था कि बुढ़िया का वही चिर-परिचित नौकर उसी समय कमरे में आया और उनकी ओर देखते हुए पूछा – “मालकिन !”

बुढ़िया शायद उसका मतलब समझ गई थी, बोली – “हां, आप लोगों के खाने का भी प्रबन्ध करो।”

अपने लिये भोजन का प्रबन्ध होता देख, मैं कुछ खुश हुआ । क्योंकि इन्हीं अवसरों पर काम की बातें जानी जा सकती हैं। भोजन के समय चित्त शांत रहता है और सहज ही मन के भाव सामने आ जाते हैं। फिर भी मैंने कहा – “नहीं, नहीं, प्राप हमारे लिये इतनी तकलीफ न करें। हम लोग…”

” तकलीफ क्या होगी, बेटा ?” बुढ़िया ने मेरी बात छीन ली और कहने लगी- “घर वापस लौटने में आप लोगों को काफी देर हो जायेगी और फिर भोजन होटल में ही तो करने पड़ेंगे, क्योंकि घर के भोजन का समय तो रहेगा नहीं। फिर मेरा नाती भी आया हुआ है आज । वह क्या मेरे दरवाजे से बिन खाये ही अपने घर को वापस लौट जायगा ?”

उसके इस तरह के सद्व्यवहार से में काफी प्रभावित हुआ । मैंने सोचा – यह कुलीन घराने की सभ्य नारी रही हैं और इनका आचारण काफी अच्छा रहा होगा, क्योंकि हम लोगों को अपना मान लेने में तनिक भी झिझक नहीं हुई इन्हें। और किस सफाई से श्रीमती और मुन्ना से अपना रिश्ता जोड़ लिया, इन्होंने। मैं काफी हैरान और बहुत-बहुत प्रसन्न था कि हमको यहां काफी देर ठहरने का मौका मिल गया ।

कमरे में सन्नाटा छाया रहा।

थोड़ी देर खामोश रहने के बाद वह बोली – ” तो आप उस बेजान पत्थर की मूर्ति को देखियेगा ?” और वह कुर्सी से उठकर खड़ी हो गई। मैंने समझा, शायद वह भीतर जा रही हैं, लेकिन वह अन्दर न जाकर उस कोने की ओर बढ़ गयी, जहां मूर्ति रखी हुई थी और उस पर परदा टंगा था। वहाँ पहुंचकर उसने परदा एक ओर सरका दिया – “वही वह पत्थर की बेजान मूर्ति है, जिसके लिये न जाने क्यों, लोगों को बेचैनी समाई रहती है ।”

मैं काफी नजदीक से उस विलक्षण मूर्ति को देखना चाहता था, अतः वहां जाने के लिए में उठकर खड़ा हो गया। मेरी देखा-देखी मेरी पत्नी भी मुन्ने को गोद में लिए उठी और हम मूर्ति के पास कोने में गए। हम दोनों पति-पत्नी मूर्ति के पास ही बैठ गए और मैं ध्यान से उसमें बनी चारों मूर्तियों को देखने लगा । जैसा कि कुछ देर पहले मेरी श्रीमतीजी ने कहा था कि मूर्ति में बनी एक युवती के चेहरे से इस बुढ़िया का चेहरा काफी मिलता-जुलता है। गौर से देखने पर साफ पता चल गया कि मेरी पत्नी का कहना अक्षरशः सत्य था। चारों में से एक बुढ़िया का चित्र था, हूबहू ।

मैंने अपनी श्रीमती जी की ओर देखा और तब मूर्तियों की ओर नजरें गड़ा दीं। दूसरी युवती को में पहचान न सका और न मैंने उसमें बने बच्चे को ही पहचाना। हां, मूर्ति में जो एक गरीब युवक दिखलाया गया था, जो आधी बांह की कमीज पहने था, घुटनों तक धोती थी उसकी और कंधे पर गमछा लटक रहा था, मुझे कुछ-कुछ परिचित-सा लगा। मुझे ऐसा भास हो रहा था कि मूर्ति में बने इस पुरुष को कही न कहीं मैंने अवश्य देखा है – मुझे याद नहीं आया। कुछ दिमाग पर जोर दे रहा था, ताकि कुछ याद आए । परन्तु साफ और विश्वास लायक याद नहीं आया ।

काफी देर तक उन मूर्तियों को देखने के बाद मैं उठा और वापस अपने स्थान पर आ गया और कुर्सी पर बैठते हुए पूछा – ” आपके पास इस मूर्ति को कितने दिन हो गए ?”

मेरे साथ ही मेरी पत्नी भी वहां से मुन्ने को लेकर अपनी कुर्सी पर बैठ ही रही थी । बुढ़िया परदा सरका रही थी, उसने मेरी ओर देखा और वहां से चलकर अपनी कुर्सी तक आई और एक और फूल, गुलाब का फूल मुन्ना को पकड़ा कर बोली – “लगभग बीस- बाईस साल । “

“कितने में खरीदा था, ग्रापने इसे ?”

मेरे इस प्रश्न से बुढ़िया ने अपनी भौंहें सिकोड़ी। उसके चेहरे का रंग कुछ लाल-सा हो गया। मैं डरा । कहीं यह बुरा न मान जाए। कहीं मेरा ऐसा कहना मूर्ति का अपमान न समझ जाय । अपने पूछे हुए प्रश्न पर मैंने गौर किया, तो पाया कि मेरा प्रश्न कुछ कड़वाहट से भरा है। मुझे पूछना चाहिए था – आपने इसको कहां पाया या आपके हाथ यह किस तरह लगी। लेकिन मुंह की कही हुई बात को मैं वापस कर नहीं सकता था । कनखियों से उसको देखता हुआ अपने प्रश्न के जवाब का इन्तजार करने लगा ।

“भला ऐसी मूर्ति कहां पा सकती थी, मैं” एक ठंडी साँस ली और बुढ़िया कहने लगी- “एक नुमाइश में मैंने इस मूर्ति को पहले-पहल देखा था और उसके व्यवस्थापक ने दया करके यह मूर्ति मुझे दे दी थी। और वह भी मुझे यह मूर्ति नहीं देता, , लेकिन… ..” इतना कहते ही वह चुप हो गयी, मैं उसके चेहरे को लक्ष्य किए था।

उनके बनते-बिगड़ते भावों को देख रहा था। और देख रहा या कि उनका चेहरा उदासी से भर गया है। उनकी आंखों में जल भर गया है। काफी देर तक न जाने वह किस विचार में मग्न रही। फिर उसने वहाँ से उठते हुए कहा- “मैं अभी आ रही हूं । तब तक आप लोग बैठे रहियेगा ।” और वह अन्दर घर में चली गई।

कुछ देर बाद वह बुढ़िया कमरे में आयी और जिस कुर्सी पर वह पहले बैठी थी, बैठ गई ।

“कारीगर ने अपनी सारी कला को जैसे निचोड़कर रख दिया हो, वैसे ही यह मूर्तियां लग रही हैं।” मैंने एकाएक बात का रुव मोड़ दिया। इस कारण कि मैं विषयान्तर नहीं होना चाहता था । मेरी इच्छा थी कि मैं इन मूर्ति की पूरी कहानी किसी तरह जान जाऊं, ताकि उसको किताब का रूप दे सकू और साहित्य जगत में एक नयी चीज रख सकूं। मैंने अपनी इच्छा प्रकट की— “न जाने यह कितने दिनों में तैयार हुई होगी।”

“यह तो हम लोगों के लिए एक कल्पना ही हो सकती है।” बुढ़िया ने भी मेरे प्रश्न का उत्तर जल्दी दिया। वह भी शायद इस विषय पर बातें करना ही चाहती थी। वह कहने लगी- “क्योंकि हम लोग तो इस कला के ज्ञाता हैं नहीं। नजरों से देखने में जो अच्छा लगा, सुन्दर लगा, बस उसी की हम लोग तारीफ करने लगते हैं।”

“मैंने सुना है कि शायद सरकार इस मूर्ति को खरीदना चाहती हैं ? ” मैंने पत्नी से सुनी हुई बात यहाँ कह दी ताकि और कुछ, जो रहस्य छिपा हो, पता लग सके ।

“जी, हाँ !” उसने कहना जारी रखा – ” कभी-कभी सुनी हुई बातें भी सत्य हो जाती हैं और आपने भी जो सुना है, वह अक्ष- रशः सत्य है । भारत सरकार के कुछ आदमी मेरे पास आये थे और इच्छा व्यक्त की थी कि अनुसंधान विभाग के डायरेक्टर साहब इस मूर्ति को पाना चाहते हैं।”

“आपने क्या उचित सनझा?” मैंने प्रश्न किया, ताकि इस बारे में इस बुढ़िया का विचार जान सकूं।

“समझती क्या मैं?” बुढ़िया के चेहरे का रंग बदल गया । गोरे बदन ने लाली का रूप ले लिया। वह आवेश में तथा कुछ तेज आवाज में कहने लगी- -” इन लोगों के पास पैसा है। तो क्या किसी का जीवन कागजों के नोटों से खरीद लेंगे ? खरीद भी सकते हैं किसी की जिन्दगी ये लोग, किन्तु मैं उन आदमियों में से नहीं हूँ, जो अपनी जिन्दगी को देते हैं। हां, यदि वे लोग इस मूर्ति को वैसे ही मांगते, तो मैं दे मौदेती। लेकिन रुपयों के बल पर तो मैं इस घर का एक तिनका भी किसी को नहीं दे सकती ।”

उसने कहा- -“यह मूर्ति मेरी जिन्दगी है और मैं अपनी जिन्दगी, एक मात्र यादों की जिन्दगी को मूल्य लेकर कभी नहीं बेच सकती, कभी नहीं बेच सकती ।” वह चुप हो गई लेकिन उसका चेहरा तमतमाया हुआ-सा लगा मुझे। शायद वह थोड़ा क्रोध में थी ।

फिर भी साहस करके झेंपते झेंपते मैंने इतना कह ही दिया – “लेकिन मैं तो इसी मूर्ति के लिए चला था।”

मैंने सोचा था कि मेरी इस बात से वह थोड़ा नाराज हो जायेगी। फिर साफ इन्कार कर देगी। लेकिन तभी उसने कहा- “आप अपना पूरा परिचय दें। “

मेरा साहस बढ़ा। हिम्मत हुई कि शायद काम हो जाए । लगता है मैं इस विशाल और कला से पूर्ण मूर्ति को पा जाऊंगा । मैंने कहा – “मेरा नाम ‘लाल’ है और मैं एक लेखक की हैसियत से जीवनयापन कर रहा दूं। और मैं अपने परिचय में क्या कहूँ, मेरी समझ में तो नहीं आता।” और में चुप हो गया ।

मेरी नजरें बुढ़िया के चेहरे पर गड़ी थीं। मैं देख रहा था कि शयाद इनके चेहरे का भाव बदले, रंग उड़े। परन्तु ऐसा कुछ हुआ नहीं। वह शांत थी। उसका चित्त शांत लगता था । उसी वक्त उसने कहा – “मेरे कहने के अनुसार आप इस मूर्ति को आज ही ले जा सकते हैं, क्योंकि मुझसे ज्यादा सावधानी से आप इसको रखियेगा, ऐसा मुझे लगता है। मैं तो केवल इसको अपना इष्ट मान कर पूजती ही हूँ, किन्तु आपके यहां रहने पर इसकी खातिर में चार चांद लग सकते है, संभवतः। किंतु एक साध है, मेरी ।… क्या आप उसे पूरा कर सकियेगा ?”

मैं गदगद हो गया। अब मुझे विश्वास हो गया कि यह मूर्ति मुझे मिल जायेगी। मैं इसे पा जाऊंगा। मेरे घर की शोभा दुगुनी हो जायेगी। अब लोग मेरे पास आकर इस मूर्ति को देखना चाहेंगे। परन्तु इनकी एक साथ की शर्त भी है, यहां पर । ‘साध’ ही तो है । ‘साध’ कभी रुपया या धन-दौलत नहीं हो सकती। यदि होगी भी तो एक ‘ इच्छा’ । और मन को ‘इच्छा’ को सहज ही पूरा किया जा सकता है। मैने कहा- – ” मैं कब इन्कार कर सकता हूँ! “

“आप मेरी सारी कहानी को लिख देते, तो अच्छा…”

“क्यों नहीं ? क्यों नहीं ? यह तो अपने बस की बात है।” हर्षातिरेक में मैं पागल हुआ जा रहा था। मेरी खुशी का पारावार न था। मैं आपे से बाहर होता जा रहा था। लेकिन क्या लिखूंगा, मैं ! कहानी क्या है इसकी ! किस तरह बीता है, इनका जीवन ! यह सब जानना तो जरूरी था। मैं बोला – “लेकिन जब तक पूरा इतिहास नहीं जाना जा सकता तब तक…”

बीच से बात काटकर वह कहने लगी- “भोजन के पश्चात् मैं अपने जीवन की सारी घटना, पूरी कहानी आपको सुनाऊँगी।” और विजय को पकड़ कर उसने अपनी गोद में बिठा लिया । मुझे महसूस हुआ कि वह भी काफी प्रसन्न है ।

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