चैप्टर 39 आँख की किरकिरी उपन्यास (चोखेर बाली उपन्यास) रवींद्रनाथ टैगोर | Chapter 39 Aankh Ki Kirkiri (Chokher Bali) Novel By Rabindranath Tagore

चैप्टर 39 आँख की किरकिरी उपन्यास (चोखेर बाली उपन्यास) रवींद्रनाथ टैगोर | Chapter 39 Aankh Ki Kirkiri (Chokher Bali) Novel By Rabindranath Tagore

Chapter 39 Aankh Ki Kirkiri (Chokher Bali) Novel

Chapter 39 Aankh Ki Kirkiri

टोले में एक हलचल-सी मच गई। देवी थान में इकट्ठे हो कर बड़े-बूढ़ों ने कहा – ‘अब तो बर्दाशत के बाहर है। कलकत्ता के कारनामों को अनसुना भी किया जा सकता था – मगर इसकी यह हिम्मत! लगातार महेंद्र को चिट्ठी लिख-लिख कर उसे बुला कर यहाँ ऐसा खुल कर खेलना, यह बेहयाई! ऐसी पापिन को गाँव में नहीं रहने दिया जा सकता।’

विनोदिनी को विश्वास था कि बिहारी का जवाब आज जरूर आएगा। लेकिन न आया। अपने मन में वह कहने लगी – ‘बिहारी का मुझ पर अधिकार कैसा! मैं उसका हुक्म मानने क्यों गई? मैंने उसे यह क्यों समझने दिया कि वह जैसा कहेगा, सिर झुका कर मैं वही मान लूंगी। उससे तो मेरा महज उतने ही भर का नाता है, जितना-भर उसकी प्यारी आशा को बचाने की जरूरत है। मेरा अपना कोई पावना नहीं, दावा नहीं, मामूली दो पंक्तियों की चिट्ठी भी नहीं – मैं इतनी तुच्छ हूँ?’ डाह के जहर से विनोदिनी का कलेजा भर गया।

काठ की मूरत-जैसी सख्त बनी विनोदिनी जब कमरे में बैठी थी, उसकी ददिया सास दामाद के यहाँ से लौटीं और आते ही उससे बोलीं – ‘अरी मुँहजली, यह सब क्या सुन रही हूँ?’

विनोदिनी ने कहा – ‘जो सुन रही हो, सब सच है।’

ददिया सास बोलीं – ‘तो फिर इस कलंक का बोझा लिए यहाँ आने की क्या पड़ी थी – आई क्यों यहाँ?’

रुंधे क्रोध से विनोदिनी चुप बैठी रही।

वह बोलीं – ‘मैं कहे देती हूँ, यहाँ तुम नहीं रह सकतीं। अपनी खोटी तकदीर, सब तो मर ही गए – वह दु:ख सह कर भी मैं जिंदा हूँ – तुमने हमारा सिर झुका दिया। तुम तुरंत यहाँ से चली जाओ।’

इतने में बिना नहाया-खाया महेंद्र रूखे-बिखरे बालों से वहाँ आ पहुँचा। तमाम रात जागता रहा था – आँखें लाल-लाल, चेहरा सूखा पड़ा। उसने संकल्प किया था कि मुँह अंधेरे ही आ कर वह विनोदिनी को साथ ले जाने की फिर से कोशिश करेगा। लेकिन पहले दिन विनोदिनी में अभूतपूर्व घृणा देख उसके मन में तरह-तरह की दुविधा होने लगी। धीरे-धीरे जब वेला चढ़ आई, गाड़ी का समय हो आया, तो स्टेशन के मुसाफिरखाने से निकल कर, मन से सारे तर्क-वितर्क दूर करके वह गाड़ी से सीधा विनोदिनी के यहाँ पहुँचा। हया-शर्म छोड़ कर दुस्साहस का काम करने पर आमादा होने से जो एक स्पर्धापूर्ण बल पैदा हो आता है, उसी बल के आवेश में महेंद्र ने एक उद्भ्रांत आनंद का अनुभव किया – उसका सारा अवसाद और दुविधा जाती रही। गाँव के कौतूहल वाले लोग उस उन्मत्त दृष्टि में उसे कागज के निर्जीव पुतले-से लगे। महेंद्र ने किसी तरफ नहीं देखा, सीधा विनोदिनी के पास जा कर बोला – ‘विनोद, इस लोक निंदा के खुले मुँह में तुम्हें अकेला छोड़ जाऊँ, ऐसा कायर मैं नहीं हूँ। जैसे भी हो, तुम्हें यहाँ से ले ही जाना पड़ेगा। बाद में तुम मुझे छोड़ देना चाहो, छोड़ देना! मैं कुछ भी न कहूँगा। तुम्हारा बदन छू कर मैं कसम खाता हूँ, तुम जैसा चाहोगी, वही होगा। दया कर सको, तो जीऊँगा और न कर सको, तो तुम्हारी राह से दूर हट जाऊँगा। दुनिया में अविश्वास के काम मैंने बहुतेरे किए हैं। पर आज तुम मुझ पर अविश्वास न करो। अभी हम कयामत के मुँह पर खड़े हैं, यह धोखे का समय नहीं।’

विनोदिनी ने बड़े ही सहज भाव से दृढ़ हो कर कहा – ‘मुझे अपने साथ ले चलो। गाड़ी है?’

महेंद्र ने कहा – ‘है।’

विनोदिनी की सास ने बाहर आ कर कहा – ‘महेंद्र, तुम मुझे नहीं पहचानते, मगर तुम हम लोगों के बिराने नहीं हो। तुम्हारी माँ राजलक्ष्मी हमारे ही गाँव की लड़की है, गाँव के रिश्ते से मैं उसकी मामी होती हूँ। मैं तुमसे पूछती हूँ, यह तुम्हारा क्या रवैया है! घर में तुम्हारी स्त्री है, माँ है और तुम ऐसे बेहया पागल बने फिरते हो? भले समाज में तुम मुँह कैसे दिखाओगे?’

महेंद्र निरुत्तर हो गया तो बुढ़िया बोली – ‘जाना ही हो तो अभी चल दो, तुरंत। मेरे घर के बरामदे पर खड़े न रहो – पल-भर की भी देर न करो। अब।’

कह कर बुढ़िया भीतर गई और अंदर से दरवाजा बंद कर लिया। बे-नहाई, भूखी, गंदे कपड़े पहने विनोदिनी खाली हाथों गाड़ी पर जा सवार हुई। जब महेंद्र भी चढ़ने लगा तो वह बोली – ‘नहीं, स्टेशन बहुत करीब है, तुम पैदल चलो।’

महेंद्र ने कहा – ‘फिर तो गाँव के सब लोग मुझे देखेंगे।’

विनोदिनी ने कहा – ‘अब भी लाज रह गई है क्या?’

और गाड़ी का दरवाजा बंद करके विनोदिनी ने गाड़ीवान से कहा – ‘स्टेशन चलो!’

गाड़ीवान ने पूछा – ‘बाबू नहीं चलेंगे?’

महेंद्र जरा आगा-पीछा करने के बाद जाने की हिम्मत न कर सका। गाड़ी चल दी। गाँव की गैल छोड़ कर महेंद्र सिर झुकाए खेतों के रास्ते चला।

गाँव की बहुओं का नहाना-खाना हो चुका था। जिन प्रौढ़ाओं को देर से फुरसत मिली, केवल वही अँगोछा और तेल का कटोरा लिए बौराए आम के महमह बगीचे की राह घाट को जा रही थीं।

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