Chapter 3 Rebecca Novel In Hindi
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अगले दिन सुबह जब श्रीमती हॉपर जागी, तब उनके हलक में दर्द था और उन्हें 102 डिग्री बुखार चढ़ा हुआ था। मैंने उनके डॉक्टर को फोन किया। उसने फौरन आकर उनकी परीक्षा की और बताया कि सदा की भांति उन्हें इनफ्लुएंजा हो गया है। उसने श्रीमती हॉपर से कहा, “जब तक मैं आप को इजाजत ना दूं, तब तक आपको बिस्तर पर ही पड़े रहना होगा। मुझे आपके हृदय की धड़कन ठीक नहीं मालूम दे रही है और यह तब तक नहीं ठीक होगी, जब तक आप बिल्कुल चुपचाप नहीं पड़े रहेंगे।” फिर मेरी ओर देखते हुए वह कहने लगी, “श्रीमती हॉपर को एक होशियार नर्स की ज़रूरत है। इनको उठाना बैठाना तुम्हारे लिए मुश्किल होगा। ज्यादा नहीं, सिर्फ 15 दिन की बात है।“
डॉक्टर की हिदायतें मुझे बेतुकी सी लगी और मैंने उनका विरोध भी किया। किंतु मुझे यह देख कर बड़ा आश्चर्य हुआ कि श्रीमती हॉपर डॉक्टर का कहना मान गई। मैं समझती हूँ कि उन्हें यह सोचकर ही आनंद आने लगा कि किस तरह उनकी बीमारी की चर्चा फैलेगी, किस तरह लोग-बाग उनसे हमदर्दी जाहिर करेंगे, किस तरह मित्र मिलने आयेंगे और फूल व संदेश भेजेंगे। मोंटीकार्लो से श्रीमती हॉपर का मन उकताने लगा था। इस थोड़ी-सी बीमारी से उनका ध्यान निश्चय ही कुछ और बातों की ओर जाने की संभावना थी।
डॉक्टर कह गई थी कि नर्स श्रीमती हॉपर के इंजेक्शन लगाएगी और हल्के-हल्के मालिश करेगी। वह उन्हें पथ्य देने को भी कह गई थी। नर्स आ गई और जब मैं श्रीमती हॉपर के पास से गई, तब उनका बुखार उतर रहा था और वह तकिये के सहारे बैठी हुई बड़ी प्रसन्न दिख रही थीं। उन्होंने सोते समय पहनने वाली अपनी सबसे बढ़िया जैकेट कंधों पर डाल रखी थी और वह रिबन लगा कनटोप ओढ़े हुए थीं। मैंने टेलीफोन करके उनके मित्रों को सूचना दे दी कि संध्या समय जो छोटी-सी पार्टी दी जाने वाली थी वह स्थगित कर दी गई है। उसके बाद निश्चय समय से आधे घंटे पहले ही मैं रेस्टोरेंट में बना खाना खाने चली गई। मुझे पूरी उम्मीद थी कि खाने का कमरा बिल्कुल खाली मिलेगा, क्योंकि एक बजे से पहले साधारणतः कोई भी खाना खाना पसंद नहीं करता। सच पूछिए तो कमरा खाली था भी, सिर्फ हमारी मेज़ के पास वाली मेज़ भरी हुई थी। यह एक आकस्मिक संयोग था, जिसके लिए मैं बिल्कुल तैयार नहीं थी। मुझे ख़याल था कि श्री द विंतर सॉस्पल चले गए होंगे। उन्हें देखकर मैं फौरन समझ गई कि हमसे बचने के लिए ही वह समय से पहले ही भोजन करने आ गए थे। मैं कमरे में आधी दूर तक पहुँच चुकी थी, इसलिए अब लौटना नामुमकिन था। कल सवेरे के बाद से उनसे मुलाक़ात भी नहीं हुई थी, क्योंकि जिस कारण से वह दोपहर का खाना जल्दी खा रहे थे, शायद उसी कारण से उन्होंने रात का खाना रेस्टोरेंट से बाहर खाया था।
ऐसी स्थिति का सामना करना मैंने बिल्कुल नहीं सीखा था। बिना इधर-उधर देखे मैं अपनी मेज़ की ओर सीधी चलती गई और फौरन ही मुझे अपनी इस बेवकूफी की सजा मिल गई, क्योंकि जैसे ही मैंने मेज़ पर रखे नैपकिन की तह खोली, फूलदान को धक्का लगा और वह गिर गया। मेज़पोश को भिगोता हुआ पानी मेरी गोद में गिरने लगा।
बैरा कमरे के दूसरे कोने पर था, इसलिए उसे कुछ दिखाई नहीं दिया। लेकिन क्षण भर में ही श्री द विंतर हाथ में सूखा तौलिया लिए मेरे पास आ खड़े हुए और कहने लगे, “भीगी हुई मेज़ पर खाना कैसे खाओगी! इससे तुम्हें खाने में मज़ा नहीं आयेगा। तुम इधर निकल आओ।”
वह मेज़पोश को सिकोड़ने लगे। इस बीच गोलमाल देखकर बैरा भागा हुआ आता और बिखरे हुए फूलों को समेटने लगा।
तभी श्री द विंतर ने उससे कहा, “उसे छोड़ दो और मेरी ही मेज़ पर दूसरा खाना भी लगा दो। मैडम आज मेरे ही साथ भोजन करेंगी।”
मैंने परेशान होकर ऊपर देखते हुए कहा, “नहीं..नहीं, मैंने नहीं खा सकूंगी।”
“क्यों नहीं खा सकोगी?” उन्होंने पूछा।
मैंने बहाना बनाने की कोशिश की, क्योंकि मैं जानती थी कि श्री द विंतर ने केवल मुझे निमंत्रित कर लिया है, वास्तव में वह मेरे साथ खाना नहीं चाहते। मैंने साहस बटोरकर सत्य बात कह डालने का निश्चय किया। मैं बोली, “धन्यवाद! बड़ी कृपा है आपकी। इतना शिष्टाचार न दिखाइए, बैरा मेज़ साफ कर देगा और मुझे कोई परेशानी नहीं होगी।” मैंने विनयपूर्वक कहा।
“लेकिन मैं शिष्टाचार बिल्कुल नहीं दिखा रहा हूँ।” श्री द विंतर ने कहा, “मैं चाहता हूँ कि तुम मेरे साथ भोजन करो। अगर तुमने इतने फूहड़पन से वह फूलदान न भी गिराया होता, तब भी मैं तुम्हें अपने साथ खाने के लिए कहता।”
मेरे मुँह के भाव से शायद वह मेरी शंका को भांप गए और मुस्कुराते हुए बोले, “ऐसा लगता है कि तुम्हें मुझ पर विश्वास नहीं आ रहा है। खैर, कोई बात नहीं, आओ बैठो। हम एक दूसरे से तब तक बातचीत नहीं करेंगे, जब तक हमें इसकी आवश्यकता ही न अनुभव हो।”
हम बैठ गये। श्री द विंतर ने भी भोजन की सूची मेरे हाथ में पकड़ा दी कि मैं अपनी पसंद की चीजें चुन लूं। इसके बाद वह अख़बार लेकर बैठ गए, जैसे कुछ हुआ ही न हो।
“तुम्हारी सहेली का क्या हुआ?” कुछ ठहरकर उन्होंने पूछा।
मैंने बता दिया कि उन्हें इनफ्लुएंजा हो गया है।
“बड़ा अफ़सोस है। उम्मीद है तुम्हें मेरा पर्चा मिल गया होगा। मैं कल की अपनी अशिष्टता के लिए बहुत लज्जित हूँ। बस इतनी सफाई दे सकता हूँ कि अकेले रहने के कारण मैं कुछ असभ्य हो गया हूँ। आज मेरे साथ खाना खाना स्वीकार करके तुमने मेरे ऊपर बड़ी कृपा की है।”
“आपने तो कोई असभ्यता नहीं दिखाई। कम से कम ऐसी तो बिल्कुल नहीं, जो श्रीमती हॉपर की समझ में आ सके। उनकी यह उत्सुकता की आदत…लेकिन वह किसी को तंग करना नहीं चाहती। ऐसा वह सब के साथ करती है यानी उन लोगों के साथ, जो महत्वपूर्ण व्यक्ति होते हैं।”
“तब तो मुझे फूल कर कुप्पा हो जाना चाहिए। लेकिन वह मुझे महत्वपूर्ण व्यक्ति क्यों समझती हैं?”
उत्तर देने से पहले मैं ज़रा झिझकी, फिर बोली, “मेरी समझ से, शायद मैंदरले के कारण।”
उन्होंने उत्तर नहीं दिया और मुझे ऐसा लगा जैसे मैंने फिर किसी वर्जित स्थान पर पांव रख दिया है। मेरी समझ में नहीं आया कि जिस मैंदरले को लोगबाग दूसरों से सुन-सुनकर ही इतनी अच्छी तरह जान गए हैं, उसकी चर्चा आते ही वह इस तरह क्यों चुप हो जाते हैं, मानो वह उनके और दूसरों के बीच की दीवार हो।
कुछ देर तक हम चुपचाप खाना खाते रहे। अचानक मुझे उस पोस्टकार्ड का ध्यान आया, जो मैंने अपने बचपन में किसी छुट्टी के दिन एक गाँव की दुकान से खरीदा था। उस पोस्टकार्ड पर एक भवन बना हुआ था। उसकी चित्रकारी भी तो बड़े मोटे ढंग की और रंग भी बहुत तेज थे, किंतु इससे भवन का प्राकृतिक सौंदर्य नष्ट नहीं हुआ था। मुझे वह अच्छा लगा था और मैंने उसके लिए बूढ़ी दुकानदारिन को दो पैसे देते हुए पूछा, “यह क्या है?”
उसे मेरी अज्ञानता बड़ा आश्चर्य हुआ था और उसने कहा था, “अरे इतना भी नहीं जानती। उस मैंदेरले है।” मुझे याद है कि इस तरह मुँह की खाकर मैं दुकान से बाहर चली आई थी। वह पोस्टकार्ड कभी का किसी पुस्तक में गुम हो चुका था, लेकिन शायद यह उसी की याद थी, जिसने मेरे हृदय में श्री द विंतर के लिए सहानुभूति उत्पन्न कर दी थी।
स्पष्ट है कि श्री द विंतर को श्रीमती हॉपर की बातें अच्छी नहीं लगी थी। उन्होंने कहा – “तुम्हारी सहेली तुमसे उम्र में कुछ बड़ी है। क्या वह तुम्हारी रिश्तेदार है। तुम उन्हें बहुत समय से जानती हो क्या?”
“नहीं वह मेरी सहेली नहीं, बल्कि मेरी मालकिन है। वह मुझे अपना साथी बनाने के लिए काम सिखा रही है और 90 पौंड प्रतिवर्ष देती है।”
“ओह! मुझे पता नहीं था कि किसी का साथ भी खरीदा जा सकता है। यह तो बहुत ही पुराने जमाने की बात है, जैसे दास प्रथा।”
“मैंने एक बार डिक्शनरी देखी थी। उसमें साथी का अर्थ लिखा था – दिली दोस्त।”
“लेकिन तुममें और उनमें कोई बात ख़ास मिलती-जुलती तो दिखाई नहीं देती।”
यह कहकर वह हँसे और उस समय मुझे ऐसा लगा, जैसे वह कम अवस्था के हैं और अब इतने विरक्त भी नहीं रह गए हैं।
“लेकिन यह सब तुम किसलिए करती हो?” उन्होंने फिर पूछा।
“90 पौंड के लिए। एक बड़ी रकम है।” मैं बोली।
“क्या तुम्हारे माँ-बाप नहीं है?”
“नहीं उनकी मृत्यु हो चुकी है।”
“तुम्हारा नाम बहुत ही सुंदर और असाधारण है।”
“मेरे पिताजी बहुत ही सुंदर और असाधारण थे।”
“उनके बारे में मुझे भी तो कुछ बताओ।”
शरबत पीते-पीते मैंने अपने गिलास के ऊपर से उनकी ओर देखा। पिताजी के बारे में कुछ बताना मेरे लिए सरल नहीं था। साधारणतः मैं उनके विषय में कभी कोई बात नहीं करती थी। एक होटल की मेज़ पर बैठकर उनके बारे में इस तरह अललटप बातचीत करना मुझे उचित भी नहीं लग रहा था। लेकिन श्री द विंतर की आँखों में अपने लिए सहानुभूति की झलक देखकर मैं अपने को रोक न सकी। मेरी झिझक दूर हो गई और मुँह से बचपन के सुख-दुख की वे सभी बातें, जो अब तक मेरे अंतर में छिपी हुई थी, अनायास ही एक धारा की नाईं बह निकली और मैंने देखा किसी द विंतर से जान पहचान होने के चौबीस घंटे के भीतर ही भीतर मैं अपने परिवार का सारा रहस्य इस अज्ञात व्यक्ति को बता चुकी थी। मैंने यह भी अनुभव किया कि मेरे गाथारण से विवरण से ही उन्हें मेरे पिता के तेजस्वी व्यक्तित्व का कुछ कुछ आभास हो गया है और वह यह भी जान गए हैं कि मेरी माँ को मेरे पिता से इतना प्रेम था कि उनकी निमोनिया से मृत्यु हो जाने के पांच सप्ताह बाद ही वह भी उनके पथ के अनुगामिनी बन गई थी।
इस बीच रेस्टोरेंट में आदमी की चहल-पहल बढ़ गई थी और जब मेरी दृष्टि घड़ी पर पड़ी, तब मैंने देखा कि दो बज चुके हैं। हम लोगों को वहाँ बैठे-बैठे घंटा बीत गया था और उस बीच मैं ही मैं बोलती रही थी। स्थिति का भान होते ही मुझे बड़ी लज्जा आई और टूटे-फूटे शब्दों में मैं उनसे क्षमा मांगने लगी, किंतु उन्होंने मेरी बात पर ध्यान नहीं दिया और कहा, “तुमसे एक घंटे बातचीत करके आज मुझे जितना आनंद मिला है, उतना बहुत दिनों से नहीं मिला था। तुमने मुझे निराशा और अंतर की घुटन से कुछ समय के लिए निकाल लिया है, जिसका मैं एक साल से शिकार हूँ।“
मैंने उनकी ओर देखा और मुझे विश्वास हो गया कि वह जो कुछ कह रहे हैं, उसमें कपट अथवा झूठ नहीं है। उस समय वह पहले से भी अधिक उन्मुक्त, अधिक आधुनिक और अधिक मानवीय प्रतीत हो रहे थे। उनके मुँह पर चिंता की कोई छाया नहीं थी।
वह फिर बोले, “तुम जानती हो कि एक बात में हम और तुम एक जैसे हैं। हम दोनों इस दुनिया में अकेले हैं। कहने को तो मेरी एक बहन है, लेकिन मुझे उससे मिले महीनों हो जाते हैं। एक बूढ़ी दादी भी है, जिससे के पास साल में तीन-बार मैं केवल अपना कर्तव्य समझकर जाता हूँ। लेकिन दोनों में से एक भी मेरे साथी का स्थान नहीं ले सकती। मैं श्रीमती हॉपर को बधाई देता हूँ कि 90 पौंड प्रतिवर्ष खर्च करके उन्हें तुम जैसे साथी मिल गया है।”
“लेकिन एक बात आप भूल रहे हैं।” मैंने कहा, “आप का एक घर है। मेरा तो वह भी नहीं है।”
कहने को मैं कह तो गई, लेकिन फौरन ही मैंने अनुभव किया कि मैंने ठीक नहीं किया। मैंने देखा कि श्री द विंतर के मुख पर एक बार फिर रहस्यमय गंभीरता छा गई है। मुझे अपनी इस नासमझी पर बड़ी ग्लानि हुई।
उन्होंने सिगरेट जलाने के लिए अपना सिर झुका लिया और कुछ क्षण तक वह चुप रहे। फिर बोले, “खाली घर एक भरे हुए होटल जैसा निर्जन हो सकता है, जब तक कि वहाँ अपना कोई आदमी न हो।” यह कहकर वश फिर रूके और क्षण भर के मुझे ऐसा लगा, जैसे वह मैंदरले के बारे में कुछ कहने जा रहे हैं। लेकिन कोई बात थी, जिसने उन्हें ऐसा करने से रोक दिया। कोई धुंध था, जो उन पर छा गया और उन्हें दबोच बैठा। उन्होंने अपनी दियासलाई बुझा दी और उसके साथ ही साथ उनके मुँह पर विश्वास की जो क्षणिक भावना आई थी, वह भी लुप्त हो गई।
कुछ क्षणों के बाद वह सहज आत्मीयता से बोले, “हाँ तो आज दिली दोस्त की छुट्टी है। क्या मैं जान सकता हूँ कि वह छुट्टी को कैसे मनाना चाहती है?”
सहसा मुझे एक प्राकृतिक स्थल का ध्यान हो आया और मैंने कुछ झिझकते हुए कह दिया कि वहाँ मैं अपनी पेंसिल और ड्राइंग की कॉपी लेकर तीन बजे तक रह सकती हूँ।
“तुम्हें तुम्हें वहाँ अपनी कार में पहुँचाये देता हूँ।” उन्होंने कहा और मेरे आनाकानी करने पर कोई ध्यान नहीं दिया।
श्री द विंतर के साथ भोजन करने से मेरी प्रतिष्ठा बढ़ चुकी थी। जैसे हम खाना खाकर उठे, होटल का छोटा मैनेजर झट मेरी कुर्सी हटाने के लिए झपटा। उसने मुस्कुराकर तुझे सलाम झुकाया। सदा की तरह उसके मुँह पर उपेक्षा का भाव नहीं था। फर्श पर गिरे हुए मेरे रुमाल को उठाकर मुझे देते हुए उसने बड़े तपाक से कहा, “उम्मीद है मैडम को भोजन पसंद आया होगा। दरवाजे के पीछे से छोकरे तक ने मुझे इज्ज़त की नज़र से देखा। श्री द विंतर को यह परिवर्तन स्वभाविक लगा, किंतु मेरे मन में उसने ग्लानि उत्पन्न कर दी और मुझे अपने आपसे कुछ घृणा सी होने लगी।
“तुम क्या सोच रही हो।” गैलरी में से होकर आराम करने की कमरे में जाते हुए वह अचानक पूछ बैठे और जब मैंने दृष्टि उठाई, तो देखा कि उनकी आँखें मुझ पर बड़ी उत्सुकता के साथ गड़ी हुई है।
“क्या तुम किसी बात से नाराज़ हो?” उन्होंने फिर पूछा।
होटल के मैनेजर ने आज मेरी ओर जो ध्यान दिया था, उससे मेरे सामने विचारों के एक श्रृंखला खुल पड़ी थी। कॉफी पीते-पीते मैंने श्री द विंतर को बताया कि एक बार श्रीमती हॉपर ने मुसीबत में फंसी हुई एक दरजिन से तीन फ्रॉक खरीदी थी और वह इस बात से इतनी प्रसन्न हुई कि उसने चुपके से मेरी ओर सौ फ्रैंक का एक नोट बढ़ाते हुए कहा था, “धन्यवाद है तुम्हें, जो अपनी मालकिन को मेरी दुकान पर लाई।” और जब अपमान और लज्जा से पानी-पानी होते हुए मैंने वह नोट उसे वापस किया, तो वह बोली, “यह तो दस्तूर होता है। तुम शायद रुपये नहीं फ्रॉक लेना चाहती हो। तो कभी अकेले में आना, मैं तुम्हें फ्रॉक भी दे दूंगी।” उस समय में ठीक वैसे ही भावना उत्पन्न हुई, जैसे एक बार बचपन में एक वर्जित पुस्तक के पन्ने उलटते समय हुई थी।
मैंने सोचा था कि इस मूर्खतापूर्ण घटना को सुनकर वह ठठाकर हँसेंगे, लेकिन अपनी कार चलाते हुए उन्होंने मुझे बड़े गौर से देखा और एक मिनट रुक कर कहा, “मैं समझता हूँ तुमने बहुत बड़ी गलती की।”
“सौ फैंक का नोट वापस करके?”
“नहीं नहीं! आखिर तुम मुझे क्या समझती हो। मेरे कहने का मतलब यह है कि श्रीमती हॉपर के साथ रहना मंजूर करके तुमने बड़ी भारी भूल की है। तुम अभी बिल्कुल बच्ची हो, भोली हो। दर्जिन का दस्तूरी देना तो मामूली सी बात है। तुम्हें इस तरह के न मालूम कितने प्रलोभनों का सामना करना पड़ेगा और फिर या तो तुम यह सब मंजूर करने लगोगी या अपना जीवन इसी तरह नष्ट कर डालोगी। तुम्हें यह नौकरी करने की सलाह दी किसने?”
उनका प्रभावित था और मुझे भी उसमें कोई आपत्ति की बात नहीं दिखाई दी; क्योंकि मुझे ऐसा लगने लगा था, मानो हम एक दूसरे को बहुत पहले से जानते हैं और वर्षों तक को अलग रहने के बाद एक बार फिर मिले हैं।
“क्या तुमने कभी अपने भविष्य के बारे में भी सोचा है? क्या कभी तुमने यह भी समझने की चेष्टा की है कि इस तरह रहने से तुम्हारा जीवन कैसा बन जायेगा। अगर कभी श्रीमती हॉपर का दिली दोस्त से जी ऊब गया, तब क्या होगा?”
मैंने मुस्कुराते हुए जवाब दिया कि इसकी मुझे अभी चिंता नहीं है, क्योंकि श्रीमती हॉपर जैसे कितनी ही और मिल जायेंगी और मुझे अपने ऊपर पूरा विश्वास है।
इस पर उन्होंने पूछा, “तुम्हारी उम्र क्या है?” और जब मैंने उन्हें अपनी आयु बताई, तो वह हँसे और कुर्सी पर से उठते हुए बोले, “मैं जानता हूँ, यह उम्र बड़ी हठीली होती है और हजारों हौए भी उसे नहीं डरा सकते। अच्छा, अब कपड़े बदलने का समय तो रह नहीं गया, तुम जल्दी से कार जाकर अपना टॉप ओढ़ ली, इतने में मैं कार लाता हूँ।”
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