चैप्टर 4 रेबेका उपन्यास डेफ्ने ड्यू मौरिएर | Chapter 4 Rebecca Novel In Hindi Daphne du Maurier

Chapter 4 Rebecca Novel In Hindi Daphne du Maurier

Chapter 4 Rebecca Novel In Hindi

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हवा इतनी तेज चल रही थी कि मैं रेखाचित्र न बना सकी। मस्त पवन ने कागज के टुकड़े-टुकड़े कर दिए। इसलिए हम फिर कार में लौट गए और पता नहीं वे किस ओर ले चले। लंबी सड़क को पार कर हम पहाड़ी की ओर बढ़े और इस ऊँचाई पर कार इस तरह चक्कर काटकर चलने लगी, जैसे हवा में चिड़िया चक्कर काटते हुए ऊपर को उड़ती है। यह कार श्रीमती हॉपर की उस पुराने ढंग की किराये की कार से कितनी भिन्न थी, जिसमें एक बार हम गाँव गए थे और जिसमें ड्राइवर की पीठ के पीछे बैठकर बाहर की तरफ देखने के लिए मुझे अपनी गर्दन बिल्कुल मोड़ लेनी पड़ती थी। उसकी तुलना में यह कार परी की तरह उड़ती हुई लग रही थी। हम ऊँचाई पर बहुत तेजी से चढ़ रहे थे, जिसमें खतरा था, लेकिन उस समय वह खतरा भी मुझे बड़ा आनंदमय लग रहा था, क्योंकि मैं छोटी थी और वह मेरे लिए एक बिल्कुल नया अनुभव था।

मैंने देखा कि अब और उसे चढ़ने की गुंजाइश नहीं रह गई थी, क्योंकि हम चोटी पर पहुँच चुके थे। जिस सड़क से होकर हम आए थे, वह हमारे नीचे सांप जैसी फैली हुई थी और उसके इधर-उधर भयानक ढलाव तथा खड्ड थे। श्री द विंतर ने कार रोक ली और मैंने देखा कि सड़क के किनारे-किनारे करीब-करीब दो हजार फुट की नीचाई तक एक सीधी ढलान चली गई थी। कार से बाहर निकलकर हमने नीचे की ओर देखा और मैंने संतोष की सांस ली क्योंकि हमारे और ढलान के बीच की दूरी केवल कार की आधी लंबाई के बराबर रह गई। वहाँ से समुद्र एक बल खाए हुए मानचित्र सा दिखाई देता था, जो क्षितिज तक फैला चला गया था। मकान सफेद घोंघे जैसे लग रहे थे और उनके बीच कहीं-कहीं नारंगी धूप झलक रही थी। हवा रुक गई थी और एकाएक ठंड बढ़ गई थी।

जब मैं बोली, तो मेरी आवाज में कुछ घबराहट और बेचैनी सी थी। मैंने पूछा, “क्या आप इस स्थान को जानते हैं? क्या आप यहाँ पहले भी आ चुके हैं?”

कुछ बोले नहीं और मेरी ओर ऐसी शून्य-दृष्टि से देखते रहे, मानो काफ़ी देर से मुझको बिल्कुल भूल हुए हों। अपने विचारों में कुछ इस तरह खोये हुए थे कि उन्हें मेरे अस्तित्व का ध्यान ही नहीं रह गया था। उस समय उनका चेहरा उस आदमी जैसा लग रहा था जो सोते-सोते चलता रहता है। क्षण भर को मुझे ऐसा लगा जैसे उनकी हालत अच्छी नहीं है और शायद वे अपने होशो हवास में नहीं है। मैंने सुन रखा था कि कुछ आदमियों को कभी कभी इस तरह के दौरे पड़ते हैं और वे अजीब अजीब सी बातें कर बैठते हैं, जिनका कोई कारण बताना असंभव होता है और जो मस्तिष्क के किसी कोने में छिपी हुई प्रेरणा से संचालित होते हैं। वह भी शायद एक ऐसे ही आदमी थे और हमारे और मौत के बीच के केवल छः फुट का अंतर था।

“देर हो रही है अब घर चलेंगे ना।” मैंने कहा। मेरी घबराई आवाज और निष्फल मुस्कुराहट से कोई भी मेरी उस समय की मनोदशा को ताड़ सकता था।

मेरा ख़याल गलत निकला, क्योंकि जैसे ही मैंने यह बात दूसरी बार कही, वैसे ही उनका सपना टूट गया और वह मुझसे क्षमा याचना करने लगे। डर के मारे मेरा रंग सफेद पड़ गया था और उन्होंने यह देख लिया था।

“ओह मेरा यह व्यवहार बिल्कुल असभ्य है।” उन्होंने कहा और मेरा हाथ पकड़कर मुझे कार की तरफ खींच लिया। हम कार में बैठ गए और उन्होंने दरवाजा बंद कर लिया।

“डरो मत, उतरना उतना खतरनाक नहीं है जितना दिखाई देता है।” वह बोले और कार को बहुत धीरे-धीरे उतार कर नीचे ले आये। मेरी दशा यह थी कि मैं दोनों हाथों से गद्दी पकड़े बैठी थी और मुझे चक्कर आ रहे थे।

जब कार रेंगती हुई तंग सड़क पर चलने लगी, तब मैंने कुछ हल्कापन अनुभव किया और पूछा, “तो आप यहाँ पहले भी आ चुके हैं?”

“हाँ!” उन्होंने उत्तर दिया और फिर कुछ देर रुककर कहा, “लेकिन कितने ही बरस पहले। मैं देखना चाहता था कि यहाँ कुछ परिवर्तन हुआ है क्या?”

“हुआ है?”

“नहीं कुछ भी नहीं!”

और इसके बाद कुछ क्षणों तक हम बिल्कुल मौन रहे और कार बलखाती हुई सड़क पर बिना किसी रोक-टोक के आगे बढ़ती रही। एकाएक वे मैंदरले के बारे में बातें करने लगे। अपने विषय में या वहाँ के अपने जीवन के संबंध में उन्होंने एक शब्द भी नहीं कहा। उन्होंने बताया कि शरद ऋतु में सूर्यास्त का दृश्य वहाँ बड़ा सुहावना लगता है और बरामदे में से समुद्र की लहरों का शब्द साफ सुनाई पड़ता है। उन्होंने उन भांति-भांति के फूलों के बारे में भी बताया, जो दूर-दूर से लाकर वहाँ लगाए गए थे और जिनमें से कुछ तो इतनी अधिक संख्या में थे कि कितने ही तोड़े कम ही नहीं होते थे। गुलाब तो मैंदरले में साल में आठ महीने खिले रहते थे। लॉन के किनारे पर रात की रानी का एक वृक्ष था, जिसकी सुगंध सोने के कमरे की खिड़की में आती रहती थी। उनकी बहन को, जो कुछ कठोर और व्यवहारिक प्रकृति की थी, सदा यही शिकायत रहती थी कि मैंदरले में बहुत तरह की खुशबुयें मिली रहती है। श्री द विंतर को सबसे पुरानी याद नरगिस की उन लंबी टहनियों की थी, जो सफेद गुलदस्तों में लगी रहती थी और मकान को तेज खुशबू से भरे रखती थी।

बातें करते-करते हमारी कार दूसरी बहुत ही कारों में मिल गई और हमें पता नहीं चला कि कब संध्या हो गई। हम मोंटीकार्लो की सड़कों पर शोरगुल और रोशनी के बीच चल रहे थे। उस चीख पुकार का मेरे स्नायुओं पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ रहा था और रोशनी बहुत तेज तथा पीली दिखाई दे रही थी। उस शांत नि:शब्द वातावरण के बाद इस आकस्मिक परिवर्तन का अप्रिय प्रतीत होना स्वभाविक था।

हम जल्दी ही होटल पहुँचने वाले थे, इसलिए मैंने के की जेब में अपने दस्ताने टटोले। वे मिल तो गए, लेकिन उनके साथ ही साथ मेरे उंगलियों का स्पर्श एक पुस्तक से हुआ, जिसकी पतली जिल्द से मैं अनुमान लगा सकती थी कि वह निश्चय ही कविता की पुस्तक है। होटल के दरवाजे के पास जब कार दाखिल हुई, तब मैंने जाकर उस किताब का नाम पढ़ना चाहा।

“तुम इसे पढ़ना चाहो, तो ले जाओ।” श्री द विंतर ने कहा। उनकी आवाज एक बार फिर पहले ही जैसी उपेक्षापूर्ण हो गई थी। हम वापस आ गए थे और मैंदरले हम से सैकड़ों मीलों की दूरी पर था।

मुझे बड़ी ख़ुशी हुई और मैंने उस पुस्तक को अपने दस्तानों के साथ कस कर पकड़ लिया। मुझे ऐसा लगा जैसे इतनी देर उनके साथ रहने के बाद मुझे उनकी कोई वस्तु अपने पास रखने की आवश्यकता है।

“अच्छा अब कूदकर बाहर चली जाओ।” उन्होंने कहा, “मैं कार को गैराज में रख आऊं और हाँ शाम को खाने के समय मैं तुम्हें रेस्टोरेंट में नहीं मिल सकूंगा, क्योंकि मुझे दूसरी जगह भोजन करने जाना है। आज के लिए तुम्हें बहुत-बहुत धन्यवाद!”

मैं होटल की सीढ़ियों पर अकेली उस निराश बच्चे की तरह चढ़ने लगी, जिसका खेल खत्म हो चुका हो। आज की मेरी संध्या संध्या ने मेरे आने वाले घंटों को नीरस बना दिया था और मुझे लगा कि मेरे सोने तक का समय पहाड़ जैसा कटेगा और रात का खाना भी अकेले-अकेले अच्छा नहीं लगेगा। ऊपर जाकर नर्स और श्रीमती हॉपर के सवालों का सामना करने का साहस भी मुझ में नहीं था। इसलिए मैं आराम करने वाले कमरे में कोने के एक सोफे पर बैठ गई और मैंने बैरे को चाय लाने को कहा।

कुछ अकेलापन और असंतोष का अनुभव करती हुई मैं अपनी कुर्सी पर पीछे की ओर झुक गई और कविता की किताब उठाकर पढ़ने लगी।

तभी मुझे ऐसा लगा जैसे कोई बंद दरवाजे के ताले के सुराख के अंदर की तरफ झांक रहा है। खीझकर मैंने पुस्तक एक तरफ रख दी और एक बार फिर वह पहाड़ी, वह कार, वह बातचीत – ये सब चीजें मेरी आँखों के सामने घूमने लगी।

बैरा चाय ले आया। मैंने पुस्तक फिर से उठा ली। इस बार उसका पहला पृष्ठ खुल गया, जिस पर ये शब्द एक विचित्र तिरछी लिपि में लिखे हुए थे –

“मैक्स को रेबेका की भेंट – 17 मई।”

स्याही के धब्बे से साथ वाला पन्ना कुछ खराब हो गया था। ऐसा लगता था कि लिखने वाली ने जल्दी से स्याही बाहर निकालने के लिए कलम को झटक दिया था और निब पर ज्यादा स्याही आ जाने के कारण रेबेका कुछ गहरा लिखा गया था। टेढ़े और लंबे ‘आर’ के सामने दूसरे शब्द बौने से लग रहे थे।

मैंने झटके से पुस्तक बंद करके एक ओर अपने दस्तानों के नीचे रख दी और मैं पास पड़ी एक सचित्र मासिक पत्रिका की पुरानी प्रति उठाकर पढ़ने लगी। उसमें एक बहुत ही सुंदर सचित्र लेख था। उसे मैंने बड़ी सावधानी से पढ़ने की चेष्टा की, लेकिन मेरी समझ में एक शब्द भी नहीं आया। मेरी आँखों के सामने रेस्टोरेंट में बैठी श्रीमती हॉपर का एक दिन पहले का चेहरा घूम रहा था, जब अपनी तेज निगाह से पास वाली मेज़ को देख रही थी और उन्होंने पुलाव से भरी हुई अपनी चम्मच को बीच में ही रोककर मुझसे कहा था –

“एक भयानक दुर्घटना थी वह। उसकी खबर से समाचार पत्र भरे पड़े थे। कहते हैं कि वह कभी इस विषय में बातचीत नहीं करते। कभी उसका नाम नहीं देते। वह मैंदरले के पास ही एक खाड़ी में डूब गई थी।”

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