प्रायश्चित मुंशी प्रेमचंद की कहानी | Prayashchit Short Story By Munshi Premchand

प्रस्तुत है – प्रायश्चित मुंशी प्रेमचंद की कहानी (Prayashchit Munshi Premchand Ki Kahani) Prayashchit Short Story By Munshi Premchand  ईर्ष्यावश अपने बचपन के मित्र और तत्कालीन अफसर के साथ किये गए विश्वासघात और फिर उसके प्रायश्चित की कहानी.

Prayashchit Munshi Premchand Ki Kahani

Prayashchit Munshi Premchand Ki Kahani

दफ्तर में ज़रा देर से आना अफसरों की शान है। जितना ही बड़ा अधिकारी होता है, उत्तरी ही देर में आता है; और उतने ही सबेरे जाता भी है। चपरासी की हाजिरी चौबीसों घंटे की। वह छुट्टी पर भी नहीं जा सकता। अपना एवज़ देना पड़ता है। खैर, जब बरेली जिला-बोर्ड़ के हेड क्लर्क बाबू मदारीलाल ग्यारह बजे दफ्तर आये, तब मानो दफ्तर नींद से जाग उठा। चपरासी ने दौड़ कर पैर-गाड़ी ली, अरदली ने दौड़कर कमरे की चिक उठा दी और जमादार ने डाक की किश्त मेज पर लाकर रख दी।

मदारीलाल ने पहला ही सरकारी लिफाफा खोला था कि उनका रंग फक हो गया। वे कई मिनट तक आश्चर्यान्वित हालत में खड़े रहे, मानो सारी ज्ञानेन्द्रियाँ शिथिल हो गयी हों। उन पर बड़े-बड़े आघात हो चुके थे; पर इतने बहदवास वे कभी न हुए थे। बात यह थी कि बोर्ड़ के सेक्रेटरी की जो जगह एक महीने से खाली थी, सरकार ने सुबोधचंद्र को वह जगह दी थी और सुबोधचंद्र वह व्यक्ति था, जिसके नाम ही से मदारीलाल को घृणा थी। वह सुबोधचंद्र, जो उनका सहपाठी था, जिस जक देने को उन्होंने कितनी ही चेष्टा की; पर कभी सफ़ल न हुए थे। वही सुबोध आज उनका अफ़सर होकर आ रहा था।

सुबोध की इधर कई सालों से कोई खबर न थी। इतना मालूम था कि वह फौज में भरती हो गया था। मदारीलाल ने समझा—वहीं मर गया होगा; पर आज वह मानो जी उठा और सेक्रेटरी होकर आ रहा था। मदारीलाल को उसकी मातहती में काम करना पड़ेगा। इस अपमान से तो मर जाना कहीं अच्छा था। सुबोध को स्कूल और कालेज की सारी बातें अवश्य ही याद होंगी। मदारीलाल ने उसे कालेज से निकलवा देने के लिए कई बार मंत्र चलाए, झूठे आरोप किये, बदनाम किया। क्या सुबोध सब कुछ भूल गया होगा? नहीं, कभी नहीं। वह आते ही पुरानी कसर निकालेगा। मदारी बाबू को अपनी प्राणरक्षा का कोई उपाय न सूझता था।

मदारी और सुबोध के ग्रहों में ही विरोध था। दोनों एक ही दिन, एक ही शाला में भरती हुए थे, और पहले ही दिन से दिल में ईर्ष्या और द्वेष की वह चिंगारी पड़ गयी, जो आज बीस वर्ष बीतने पर भी न बुझी थी। सुबोध का अपराध यही था कि वह मदारीलाल से हर एक बात में बढ़ा हुआ था। डील-डौल, रंग-रूप, रीति-व्यवहार, विद्या-बुद्धि ये सारे मैदान उसके हाथ थे। मदारीलाल ने उसका यह अपराध कभी क्षमा नहीं किया। सुबोध बीस वर्ष तक निरंतर उनके हृदय का कांटा बना रहा। जब सुबोध डिग्री लेकर अपने घर चला गया और मदारी फेल होकर इस दफ्तर में नौकर हो गये, तब उनका चित्त शांत हुआ। किन्तु जब यह मालूम हुआ कि सुबोध बसरे जा रहा है, जब तो मदारीलाल का चेहरा खिल उठा। उनके दिल से वह पुरानी फांस निकल गयी। पर हा हतभाग्य! आज वह पुराना नासूर शतगुण टीस और जलन के साथ खुल गया। आज उनकी किस्मत सुबोध के हाथ में थी। ईश्वर इतना अन्यायी है! विधि इतना कठोर!

जब जरा चित्त शांत हुआ, तब मदारी ने दफ्तर के क्लर्को को सरकारी हुक्म सुनाते हुए कहा — “अब आप लोग जरा हाथ-पांव संभाल कर रहियेगा। सुबोधचंद्र वे आदमी नहीं हें, जो भूलो को क्षमा कर दें?”

एक क्लर्क ने पूछा — “क्या बहुत सख्त है।“

मदारीलाल ने मुस्करा कर कहा — “वह तो आप लोगों को दो-चार दिन ही में मालूम हो जायेगा। मैं अपने मुँह से किसी की क्यों शिकायत करूं? बस, चेतावनी दे दी कि जरा हाथ-पांव संभाल कर रहियेगा। आदमी योग्य है, पर बड़ा ही क्रोधी, बड़ा दंभी। गुस्सा तो उसकी नाक पर रहता है। खुद हजारों हज़म कर जाये और डकार तक न ले; पर क्या मजाल कि कोइ मातहत एक कौड़ी भी हज़म करने जाये। ऐसे आदमी से ईश्वर ही बचाये! मैं तो सोच रहा हूँ कि छुट्टी लेकर घर चला जाऊं। दोनों वक्त घर पर हाजिरी बजानी होगी। आप लोग आज से सरकार के नौकर नहीं, सेक्रटरी साहब के नौकर हैं। कोई उनके लड़के को पढ़ायेगा। कोई बाजार से सौदा-सुलुफ लायेगा और कोई उन्हें अखबार सुनायेगा। और चपरासियों के तो शायद दफ्तर में दर्शन ही न हों।”

इस प्रकार सारे दफ्तर को सुबोधचंद्र की तरफ से भड़का कर मदारीलाल ने अपना कलेजा ठंडा किया।

(2)

इसके एक सप्ताह बाद सुबोधचंद्र गाड़ी से उतरे, तब स्टेशन पर दफ्तर के सब कर्मचारियों को हाजिर पाया। सब उनका स्वागत करने आये थे। मदारीलाल को देखते ही सुबोध लपककर उनके गले से लिपट गये और बोले — “तुम खूब मिले भाई। यहाँ कैसे आये? ओह! आज एक युग के बाद भेंट हुई!”

मदारीलाल बोले — “यहाँ जिला-बोर्ड़ के दफ्तर में हेड-क्लर्क हूँ। आप तो कुशल से हैं?”

सुबोध — “अजी, मेरी न पूछो। बसरा, फ्रांस, मिश्र और न-जाने कहाँ-कहाँ मारा-मारा फिरा। तुम दफ्तर में हो, यह बहुत ही अच्छा हुआ। मेरी तो समझ ही में न आता था कि कैसे काम चलेगा। मैं तो बिल्कुल कोरा हूँ; मगर जहाँ जाता हूँ, मेरा सौभाग्य ही मेरे साथ जाता है। बसरे में सभी अफ़सर खुश थे। फांस में भी खूब चैन किये। दो साल में कोई पचीस हजार रूपये बना लाया और सब उड़ा दिया। वहाँ से आकर कुछ दिनों को-आपरेशन दफ्तर में मटरगश्त करता रहा। यहाँ आया, तब तुम मिल गये। (क्लर्को को देख कर) – “ये लोग कौन हैं?”

मदारीलाल के हृदय में बछिया-सी चल रही थीं। दुष्ट पच्चीस हजार रूपये बसरे में कमा लाया! यहाँ कलम घिसते-घिसते मर गये और पाँच सौ भी न जमा कर सके। बोले — “कर्मचारी हैं। सलाम करने आये है।“

सबोध ने उन सब लोगों से बारी-बारी से हाथ मिलाया और बोला — “आप लोगों ने व्यर्थ यह कष्ट किया। बहुत आभारी हूँ। मुझे आशा हे कि आप सब सज्जनों को मुझसे कोई शिकायत न होगी। मुझे अपना अफ़सर नहीं, अपना भाई समझिये। आप सब लोग मिलकर इस तरह काम कीजिए कि बोर्ड की नेकनामी हो और मैं भी सुख रहूं। आपके हेड क्लर्क साहब तो मेरे पुराने मित्र और लंगोटिया यार है।“

एक वाकचतुर क्लर्क ने कहा — “हम सब हुजूर के ताबेदार हैं। यथाशक्ति आपको असंतुष्ट न करेंगे; लेकिन आदमी ही है, अगर कोई भूल हो भी जाय, तो हुजूर उसे क्षमा करेंगे।“

सुबोध ने नम्रता से कहा — “यही मेरा सिद्धांत है और हमेशा से यही सिद्धांत रहा है। जहाँ रहा, मातहतों से मित्रों का-सा बर्ताव किया। हम और आज दोनों ही किसी तीसरे के गुलाम हैं। फिर रौब कैसा और अफ़सरी कैसी? हाँ, हमें नेकनीयत के साथ अपना कर्तव्य-पालन करना चाहिए।“

जब सुबोध से विदा होकर कर्मचारी लोग चले, तब आपस में बातें होनी लगीं —

“आदमी तो अच्छा मालूम होता है।“

“हेड क्लर्क के कहने से तो ऐसा मालूम होता था कि सबको कच्चा ही खा जायेगा।“

“पहले सभी ऐसे ही बातें करते है।“

“ये दिखाने के दांत है।“

(3)

सुबोध को आये एक महीना गुजर गया। बोर्ड के क्लर्क, अरदली, चपरासी सभी उसके बर्ताव से खुश हैं। वह इतना प्रसन्नचित है, इतना नम्र है कि जो उससे एक बार मिला है, सदैव के लिए उसका मित्र हो जाता है। कठोर शब्द तो उनकी ज़बान पर आता ही नहीं। इंकार को भी वह अप्रिय नहीं होने देता; लेकिन द्वेष की आँखों में गुण और भी भयंकर हो जाता है।

सुबोध के ये सारे सदगुण मदारीलाल की आँखों में खटकते रहते हैं। उसके विरूद्ध कोई न कोई गुप्त षड्यंत्र रचते ही रहते हैं। पहले कर्मचारियों को भड़काना चाहा, सफल न हुए। बोर्ड के मेम्बरों को भड़काना चाहा, मुँह की खायी। ठेकेदारों को उभारने का बीड़ा उठाया, लज्जित होना पड़ा। वे चाहते थे कि भूस में आग लगाकर दूर से तमाशा देखें। सुबोध से यों हँस कर मिलते, यों चिकनी-चुपड़ी बातें करते, मानो उसके सच्चे मित्र है, पर घात में लगे रहते। सुबोध में सब गुण थे, पर आदमी पहचानना न जानते थे। वे मदारीलाल को अब भी अपना दोस्त समझते हैं।

एक दिन मदारीलाल सेक्रटरी साहब के कमरे में गए, तब कुर्सी खाली देखी। वे किसी काम से बाहर चले गए थे। उनकी मेज पर पाँच हजार के नोट पुलिदों में बंधे हुए रखे थे। बोर्ड के मदरसों के लिए कुछ लकड़ी के सामान बनवाये गये थे। उसी के दाम थे। ठेकेदार वसूली के लिए बुलाया गया था। आज ही सेक्रेटरी साहब ने चेक भेज कर खजाने से रूपये मंगवाये थे। मदारीलाल ने बरामदे में झांककर देखा, सुबोध कहीं नज़र आता नहीं। उनकी नीयत बदल गयी। ईर्ष्या में लोभ का सम्मिश्रण हो गया। कांपते हुए हाथों से पुलिंदे उठाये; पतलून की दोनों जेबों में भर कर तुरन्त कमरे से निकले ओर चपरासी को पुकार कर बोले — “बाबू जी भीतर है?”

चपरासी आप ठेकेदार से कुछ वसूल करने की खुशी में फूला हुआ था। सामने वाले तमोली के दुकान से आकर बोला — “जी नहीं, कचहरी में किसी से बातें कर रहे है। अभी-अभी तो गये हैं।“

मदारीलाल ने दफ्तर में आकर एक क्लर्क से कहा — “यह मिसिल ले जाकर सेक्रेटरी साहब को दिखाओ।“

क्लर्क मिसिल लेकर चला गया। ज़रा देर में लौट कर बोला — “सेक्रेटरी साहब कमरे में न थे। फाइल मेज पर रख आया हूँ।“

मदारीलाल ने मुँह सिकोड़ कर कहा — “कमरा छोड़ कर कहाँ चले जाया करते हैं? किसी दिन धोखा उठायेंगे।“

क्लर्क ने कहा — “उनके कमरे में दफ्तवालों के सिवा और जाता ही कौन है?”

मदारीलाल ने तीव्र स्वर में कहा — “तो क्या दफ्तरवाले सब के सब देवता हैं? कब किसकी नीयत बदल जाये, कोई नहीं कह सकता। मैंने छोटी-छोटी रकमों पर अच्छों-अच्छों की नीयतें बदलते देखी हैं। इस वक्त हम सभी साह हैं; लेकिन अवसर पाकर शायद ही कोई चूके। मनुष्य की यही प्रकृति है। आप जाकर उनके कमरे के दोनों दरवाजे बंद कर दीजिये।“

क्लर्क ने टाल कर कहा — “चपरासी तो दरवाजे पर बैठा हुआ है।“

मदारीलाल ने झुंझला कर कहा — “आप से मैं जो कहता हूँ, वह कीजिये। कहने लगे, चपरासी बैठा हुआ है। चपरासी कोई ऋषि है, मुनि है? चपरासी ही कुछ उड़ा दे, तो आप उसका क्या कर लेंगे? जमानत भी है तो तीन सौ की। यहाँ एक-एक कागज लाखों का है।“

यह कह कर मदारीलाल खुद उठे और दफ्तर के द्वार दोनों तरफ से बंद कर दिये। जब चित्त शांत हुआ, तब नोटों के पुलिंदे जेब से निकाल कर एक आलमारी में कागजों के नीचे छिपा कर रख दिये। फिर आकर अपने काम में व्यस्त हो गये।

सुबोधचंद्र कोई घंटे-भर में लौटे। तब उनके कमरे का द्वार बंद था। दफ्तर में आकर मुस्कराते हुए बोले — “मेरा कमरा किसने बंद कर दिया है, भाई क्या मेरी बेदखली हो गयी?”

मदारीलाल ने खड़े होकर मृदु तिरस्कार दिखाते हुए कहा —“साहब, गुस्ताखी माफ हो, आप जब कभी बाहर जायें, चाहे एक ही मिनट के लिए क्यों न हो, तब दरवाजा बंद कर दिया करें। आपकी मेज पर रूपये-पैसे और सरकारी कागज-पत्र बिखरे पड़े रहते हैं, न जाने किस वक्त किसकी नीयत बदल जाये। मैंने अभी सुना कि आप कहीं गये हैं, जब दरवाजे बंद कर दिये।“

सुबोधचंद्र द्वार खोल कर कमरे में गये और सिगार पीने लगे। मेज पर नोट रखे हुए है, इसकी खबर ही न थी।

सहसा ठेकेदार ने आकर सलाम किया। सुबोध कुर्सी से उठ बैठे और बोले — “तुमने बहुत देर कर दी, तुम्हारा ही इंतज़ार कर रहा था। दस ही बजे रूपये मंगवा लिये थे। रसीद लिखवा लाये हो न?”

ठेकेदार — “हुजूर रसीद लिखवा लाया हूँ।“

सुबोध — “तो अपने रूपये ले जाओ। तुम्हारे काम से मैं बहुत खुश नहीं हूँ। लकड़ी तुमने अच्छी नहीं लगायी और काम में सफाई भी नहीं हैं। अगर ऐसा काम फिर करोंगे, तो ठेकेदारों के रजिस्टर से तुम्हारा नाम निकाल दिया जायेगा।“

यह कहकर सुबोध ने मेज पर निगाह डाली, तब नोटों के पुलिंदे न थे। सोचा, शायद किसी फाइल के नीचे दब गये हों। कुरसी के समीप के सब कागज उलट-पुलट डाले; मगर नोटो का कहीं पता नहीं। ये नोट कहाँ गये! अभी तो यही मैंने रख दिये थे। जा कहाँ सकते हें। फिर फाइलों को उलटने-पुलटने लगे। दिल में ज़रा-ज़रा धड़कन होने लगी। सारी मेज़ के कागज छान डाले, पुलिंदों का पता नहीं।

तब वे कुरसी पर बैठकर इस आधे घंटे में होने वाली घटनाओं की मन में आलोचना करने लगे—‘चपरासी ने नोटों के पुलिंदे लाकर मुझे दिये, खूब याद है। भला, यह भी भूलने की बात है और इतनी जल्द! मैने नोटों को लेकर यहीं मेज पर रख दिया, गिना तक नहीं। फिर वकील साहब आ गये, पुराने मुलाकाती हैं। उनसे बातें करता ज़रा उस पेड़ तक चला गया। उन्होंने पान मंगवाये, बस इतनी ही देर रहुई। जब गया हूँ, तब पुलिंदे रखे हुए थे। खूब अच्छी तरह याद है। तब ये नोट कहाँ गायब हो गये? मैंने किसी संदूक, दराज या आलमारी में नहीं रखे। फिर गये तो कहाँ? शायद दफ्तर में किसी ने सावधानी के लिए उठाकर रख दिये हों, यही बात है। मैं व्यर्थ ही इतना घबरा गया। छि:!”

तुरन्त दफ्तर में आकर मदारीलाल से बोले — “आपने मेरी मेज पर से नोट तो उठा कर नहीं रख दिये?”

मदारीलाल ने भौंचक्के होकर कहा — “क्या आपकी मेज पर नोट रखे हुए थे? मुझे तो खबर ही नहीं। अभी पंडित सोहनलाल एक फाइल लेकर गये थे, तब आपको कमरे में न देखा। जब मुझे मालूम हुआ कि आप किसी से बातें करने चले गये हैं, तब दरवाजे बंद करा दिये। क्या कुछ नोट नहीं मिल रहे हैं?”

सुबोध आँखें फैलाकर बोले — “अरे साहब, पूरे पाँच हजार के है। अभी-अभी चेक भुनाया है।“

मदारीलाल ने सिर पीट कर कहा — “पूरे पाँच हजार! हे भगवान! आपने मेज़ पर खूब देख लिया है?”

“अजी पंद्रह मिनट से तलाश कर रहा हूँ।“

“चपरासी से पूछ लिया कि कौन-कौन आया था?”

“आइए, ज़रा आप लोग भी तलाश कीजिये। मेरे तो होश उड़े हुए है।“

सारा दफ्तर सेक्रेटरी साहब के कमरे की तलाशी लेने लगा। मेज, आलमारियाँ, संदूक सब देखे गये। रजिस्टरों के वर्क उलट-पुलट कर देंखे गये; मगर नोटों का कहीं पता नहीं। कोई उड़ा ले गया, अब इसमें कोई शुबहा न था। सुबोध ने एक लंबी सांस ली और कुर्सी पर बैठ गये। चेहरे का रंग फक हो गया। ज़रा-सा मुँह निकल आया। इस समय कोई उन्हें देखता, तो समझता कि महीनों से बीमार है।

मदारीलाल ने सहानुभूति दिखाते हुए कहा — “गजब हो गया और क्या! आज तक कभी ऐसा अंधेर न हुआ था। मुझे यहाँ काम करते दस साल हो गये, कभी धेले की चीज भी गायब न हुई। मैं आपको पहले दिन सावधान कर देना चाहता था कि रूपये-पैसे के विषय में होशियार रहियेगा; मगर सुध न थी, ख़याल न रहा। ज़रूर बाहर से कोई आदमी आया और नोट उड़ाकर गायब हो गया। चपरासी का यही अपराध है कि उसने किसी को कमरे में जोने ही क्यों दिया? वह लाख कसम खाये कि बाहर से कोई नहीं आया; लेकिन में इसे मान नहीं सकता। यहाँ से तो केवल पण्डित सोहनलाल एक फाइल लेकर गये थे; मगर दरवाजे ही से झांककर चले आये।“

सोहनलाल ने सफाई दी — “मैंने तो अंदर कदम ही नहीं रखा, साहब! अपने जवान बेटे की कसम खाता हूँ, जो अंदरर कदम रखा भी हो”।

मदारीलाल ने माथा सिकोड़कर कहा — “आप व्यर्थ में कसम क्यों खाते हैं। कोई आपसे कुछ कहता? (सुबोध के कान में) बैंक में कुछ रूपये हों, तो निकाल कर ठेकेदार को दे लिये जाये, वरना बड़ी बदनामी होगी। नुकसान तो हो ही गया, अब उसके साथ अपमान क्यों हो?”

सुबोध ने करूण-स्वर में कहा — “बैंक में मुश्किल से दो-चार सौ रूपये होंगे, भाईजान! रूपये होते तो क्या चिंता थी। समझ लेता, जैसे पच्चीस हजार उड़ गये, वैसे ही तीस हजार भी उड़ गये। यहाँ तो कफ़न को भी कौड़ी नहीं।“

उसी रात को सुबोधचंद्र ने आत्महत्या कर ली। इतने रूपयों का प्रबंध करना उनके लिए कठिन था। मृत्यु के परदे के सिवा उन्हें अपनी वेदना, अपनी विवशता को छिपाने की और कोई आड़ न थी।

(4)

दूसरे दिन प्रात: चपरासी ने मदारीलाल के घर पहुँचकर आवाज दी। मदारी को रात-भर नींद न आयी थी। घबरा कर बाहर आये। चपरासी उन्हें देखते ही बोला — “हुजूर! बड़ा गजब हो गया, सेक्रेटरी साहब ने रात को गर्दन पर छुरी फेर ली।“

मदारीलाल की आँखें ऊपर चढ़ गयीं, मुँह फैल गया ओर सारी देह सिहर उठी, मानो उनका हाथ बिजली के तार पर पड़ गया हो।

“छुरी फेर ली?”

“जी हाँ, आज सबेरे मालूम हुआ। पुलिसवाले जमा हैं। आपको बुलाया है।“

“लाश अभी पड़ी हुई हैं?”

“जी हाँ, अभी डाक्टरी होने वाली हैं।“

“बहुत से लोग जमा हैं?”

“सब बड़े-बड़े अफ़सर जमा हैं। हुजूर, लाश की ओर ताकते नहीं बनता। कैसा भलामानुष हीरा आदमी था! सब लोग रो रहे हैं। छोटे-छोटे दो बच्चे हैं, एक सयानी लड़की हे ब्याहने लायक। बहूजी को लोग कितना रोक रहे हैं, पर बार-बार दौड़ कर लाश के पास आ जाती हैं। कोई ऐसा नहीं हे, जो रूमाल से आँखें न पोछ रहा हो। अभी इतने ही दिन आये हुए, पर सबसे कितना मेल-जोल हो गया था। रूपये की तो कभी परवाह ही नहीं थी। दिल दरिया था!”

मदारीलाल के सिर में चक्कर आने लगा। द्वारा की चौखट पकड़ कर अपने को संभाल न लेते, तो शायद गिर पड़ते। पूछा — “बहूजी बहुत रो रही थीं?”

“कुछ न पूछिए, हुजूर। पेड़ की पत्तियाँ झड़ी जाती हैं। आँख फूलकर गूलर हो गयी है।“

“कितने लड़के बतलाये तुमने?”

“हुजूर, दो लड़के हैं और एक लड़की।“

“‘नोटों के बारे में भी बातचीत हो रही होगी?”

“जी हाँ, सब लोग यही कहते हें कि दफ्तर के किसी आदमी का काम है। दारोगा जी तो सोहनलाल को गिरफ्तार करना चाहते थे; पर शायद आपसे सलाह लेकर करेंगे। सेक्रेटरी साहब तो लिख गए हैं कि मेरा किसी पर शक नहीं है।“

“‘क्या सेक्रेटरी साहब कोई खत लिखकर छोड़ गये है?”

“हाँ, मालूम होता है, छुरी चलाते बखत याद आयी कि शुबहे में दफ्तर के सब लोग पकड़ लिए जायेंगे। बस, कलक्टर साहब के नाम चिट्ठी लिख दी।“

“चिट्ठी में मेरे बारे में भी कुछ लिखा है? तुम्हें कुछ क्या मालूम होगा?”

“हुजूर, अब मैं क्या जानूं, मगर इतना सब लोग कहते थे कि आपकी बड़ी तारीफ लिखी है।“

मदारीलाल की सांस और तेज हो गयी। आँखों से आँसू की दो बड़ी-बड़ी बूंदे गिर पड़ी। आँखें पोंछते हुए बोले — “वे ओर मैं एक साथ के पढ़े थे, नंदू! आठ-दस साल साथ रहा। साथ उठते-बैठते, साथ खाते, साथ खेलते। बस, इसी तरह रहते थे, जैसे दो सगे भाई रहते हों। खत में मेरी क्या तरीफ लिखी है? मगर तुम्हें क्या मालूम होगा?”

“आप तो चल ही रहे है, देख लीजियेगा।“

“कफन का इंतज़ाम हो गया है?”

“नहीं हुजूर, कहा न कि अभी लाश की डाक्टरी होगी। मगर अब जल्दी चलिए। ऐसा न हो, कोई दूसरा आदमी बुलाने आता हो।“

“हमारे दफ्तर के सब लोग आ गये होंगे?”

‘जी हाँ; इस मुहल्लेवाले तो सभी थे।“

“मदारीलाल जब सुबोधचंद्र के घर पहुँचे, तब उन्हें ऐसा मालूम हुआ कि सब लोग उनकी तरफ संदेह की आँखों से देख रहे हैं। पुलिस इंस्पेक्टर ने तुरन्त उन्हें बुला कर कहा — “आप भी अपना बयान लिखा दें और सबके बयान तो लिख चुका हूँ।“

मदारीलाल ने ऐसी सावधानी से अपना बयान लिखाया कि पुलिस के अफ़सर भी दंग रह गये। उन्हें मदारीलाल पर शुबहा होता था, पर इस बयान ने उसका अंकुर भी निकाल डाला।

इसी वक्त सुबोध के दोनों बालक रोते हुए मदारीलाल के पास आये और कहा — “चलिए, आपको अम्मा बुलाती हैं। दोनों मदारीलाल से परिचित थे। मदारीलाल यहाँ तो रोज ही आते थे; पर घर में कभी नहीं गये थे। सुबोध की स्त्री उनसे पर्दा करती थी। यह बुलावा सुनकर उनका दिल धड़क उठा—कही इसका मुझ पर शुबहा न हो। कहीं सुबोध ने मेरे विषय में कोई संदेह न प्रकट किया हो। कुछ झिझकते और कुछ डरते हुए भीतर गए, तब विधवा का करुण-विलाप सुन कर कलेजा कांप उठा। इन्हें देखते ही उस अबला के आँसुओं का कोई दूसरा स्रोत खुल गया और लड़की तो दौड़कर इनके पैरों से लिपट गई। दोनों लड़को ने भी घेर लिया। मदारीलाल को उन तीनों की आँखों में ऐसी अथाह वेदना, ऐसी विदारक याचना भरी हुई मालूम हुई कि वे उनकी ओर देख न सके। उनकी आत्मा अन्हें धिक्कारने लगी। जिन बेचारों को उन पर इतना विश्वास, इतना भरोसा, इतनी अत्मीयता, इतना स्नेह था, उन्हीं की गर्दन पर उन्होंने छुरी फेरी! उन्हीं के हाथों यह भरा-पूरा परिवार धूल में मिल गया! इन असहायों का अब क्या हाल होगा? लड़की का विवाह करना है; कौन करेगा? बच्चों के लालन-पालन का भार कौन उठाएगा? मदारीलाल को इतनी आत्मग्लानि हुई कि उनके मुँह से तसल्ली का एक शब्द भी न निकला। उन्हें ऐसा जान पड़ा कि मेरे मुख में कालिख पुती है, मेरा कद कुछ छोटा हो गया है। उन्होंने जिस वक्त नोट उड़ाये थे, उन्हें गुमान भी न था कि उसका यह फल होगा। वे केवल सुबोध की जांच करना चाहते थे, उनका सर्वनाश करने की इच्छा न थी।

शोकातुर विधवा ने सिसकते हुए कहा – “भैया जी, हम लोगों को वे मझधार में छोड़ गये। अगर मुझे मालूम होता कि मन में यह बात ठान चुके हैं, तो अपने पास जो कुछ था; वह सब उनके चरणों पर रख देती। मुझसे तो वे यही कहते रहे कि कोई न कोई उपाय हो जायेगा। आप ही के मार्फत वे कोई महाजन ठीक करना चाहते थे। आपके ऊपर उन्हें कितना भरोसा था कि कह नहीं सकती।“

मदारीलाल को ऐसा मालूम हुआ कि कोई उनके हृदय पर नश्तर चला रहा है। उन्हें अपने कंठ में कोई चीज फंसी हुई जान पड़ती थी।

रामेश्वरी ने फिर कहा — “रात सोये, तब खूब हँस रहे थे। रोज की तरह दूध पिया, बच्चो को प्यार किया, थोड़ी देर हारमोनियम बजाया और तब कुल्ला करके लेटे। कोई ऐसी बात न थी, जिससे लेश्मात्र भी संदेह होता। मुझे चिंतित देखकर बोले—तुम व्यर्थ घबराती हों, बाबू मदारीलाल से मेरी पुरानी दोस्ती है। आखिर वह किस दिन काम आयेगी? मेरे साथ के खेले हुए हैं। इन नगर में उनका सबसे परिचय है। रूपयों का प्रबंध आसानी से हो जायेगा। फिर न जाने कब मन में यह बात समायी। मैं नसीबों-जली ऐसी सोयी कि रात को मिनकी तक नहीं। क्या जानती थी कि वे अपनी जान पर खेले जायेंगे?

मदारीलाल को सारा विश्व आँखों में तैरता हुआ मालूम हुआ। उन्होंने बहुत जब्त किया; मगर आँसुओं के प्रभाव को न रोक सके।

रामेश्वरी ने आँखें पोंछकर फिर कहा — “भैया जी, जो कुछ होना था, वह तो हो चुका; लेकिन आप उस दुष्ट का पता ज़रूर लगाइए, जिसने हमारा सर्वनाश कर दिया है। यह दफ्तर ही के किसी आदमी का काम है। वे तो देवता थे। मुझसे यही कहते रहे कि मेरा किसी पर संदेह नहीं है, पर है यह किसी दफ्तरवाले का ही काम। आप से केवल इतनी विनती करती हूँ कि उस पापी को बचकर न जाने दीजियेगा। पुलिसवाले शायद कुछ रिश्वत लेकर उसे छोड़ दें। आपको देखकर उनका यह हौसला न होगा। अब हमारे सिर पर आपके सिवा कौन है। किससे अपना दु:ख कहें? लाश की यह दुर्गति होनी भी लिखी थी।“

मदारीलाल के मन में एक बार ऐसा उबाल उठा कि सब कुछ खोल दें। साफ कह दें, मैं ही वह दुष्ट, वह अधम, वह पापी हूँ। विधवा के पैरों पर गिर पड़ें और कहें, वही छुरी इस हत्यारे की गर्दन पर फेर दो। पर ज़बान न खुली; इसी दशा में बैठे-बैठे उनके सिर में ऐसा चक्कर आया कि वे जमीन पर गिर पड़े।

(5)

तीसरे पहर लाश की परीक्षा समाप्त हुई। अर्थी जलाशय की ओर चली। सारा दफ्तर, सारे हुक्काम और हजारों आदमी साथ थे। दाह-संस्कार लड़कों को करना चाहिए था, पर लड़के नाबालिग थे। इसलिए विधवा चलने को तैयार हो रही थी कि मदारीलाल ने जाकर कहा — “बहूजी, यह संस्कार मुझे करने दो। तुम क्रिया पर बैठ जाओगी, तो बच्चों को कौन संभालेगा। सुबोध मेरे भाई थे। ज़िन्दगी में उनके साथ कुछ सलूक न कर सका, अब ज़िन्दगी के बाद मुझे दोस्ती का कुछ हक अदा कर लेने दो। आखिर मेरा भी तो उन पर कुछ हक था।“

रामेश्वरी ने रोकर कहा — “आपको भगवान ने बड़ा उदार हृदय दिया है भैया जी, नहीं तो मरने पर कौन किसको पूछता है। दफ्तर के ओर लोग जो आधी-आधी रात तक हाथ बांधे खड़े रहते थे, झूठी बात पूछने न आये कि ज़रा ढाढ़स होता।“

मदारीलाल ने दाह-संस्कार किया। तेरह दिन तक क्रिया पर बैठे रहे। तेरहवें दिन पिंडदान हुआ; ब्रहामणों ने भोजन किया, भिखरियों को अन्न-दान दिया गया, मित्रों की दावत हुई, और यह सब कुछ मदारीलाल ने अपने खर्च से किया। रामेश्वरी ने बहुत कहा कि आपने जितना किया उतना ही बहुत है। अब मैं आपको और ज़ेरबार (अहसानमंद, आभारी) नहीं करना चाहती। दोस्ती का हक इससे ज्यादा और कोई क्या अदा करेगा, मगर मदारीलाल ने एक न सुनी। सारे शहर में उनके यश की धूम मच गयीं, मित्र हो तो ऐसा हो।

सोलहवें दिन विधवा ने मदारीलाल से कहा — “भैया जी, आपने हमारे साथ जो उपकार और अनुग्रह किये हें, उनसे हम मरते दम तक उऋण नहीं हो सकते। आपने हमारी पीठ पर हाथ न रखा होता, तो न-जाने हमारी क्या गति होती। कहीं रूख की भी छांह तो नहीं थी। अब हमें घर जाने दीजिये। वहाँ देहात में खर्च भी कम होगा और कुछ खेती बारी का सिलसिला भी कर लूंगी। किसी न किसी तरह विपत्ति के दिन कट ही जायेंगे। इसी तरह हमारे ऊपर दया रखियेगा।“

मदारीलाल ने पूछा — “घर पर कितनी जायदाद है?”

रामेश्वरी — “जायदाद क्या है, एक कच्चा मकान है और दस-बारह बीघे की काश्तकारी है। पक्का मकान बनवाना शुरू किया था; मगर रूपये पूरे न पड़े। अभी अधूरा पड़ा हुआ है। दस-बारह हजार खर्च हो गये और अभी छत पड़ने की नौबत नहीं आयी।“

मदारीलाल — “कुछ रूपये बैंक में जमा हैं, या बस खेती ही का सहारा है?”

विधवा — “जमा तो एक पाई भी नहीं हैं, भैया जी! उनके हाथ में रूपये रहने ही नहीं पाते थे। बस, वही खेती का सहारा है।“

मदारीलाल — “तो उन खेतों में इतनी पैदावार हो जायेगी कि लगान भी अदा हो जाये ओर तुम लोगो की गुज़र-बसर भी हो?”

रामेश्वरी — “और कर ही क्या सकते हैं, भैया जी! किसी न किसी तरह ज़िन्दगी तो काटनी ही है। बच्चे न होते तो मैं ज़हर खा लेती।“

मदारीलाल — “और अभी बेटी का विवाह भी तो करना है।“

विधवा — “उसके विवाह की अब कोई चिंता नहीं। किसानों में ऐसे बहुत से मिल जायेंगे, जो बिना कुछ लिये-दिये विवाह कर लेंगे।“

मदारीलाल ने एक क्षण सोचकर कहा — “अगर में कुछ सलाह दूं, तो उसे मानेंगी आप?”

रामेश्वरी — “भैया जी, आपकी सलाह न मानूंगी, तो किसकी सलाह मानूंगी और दूसरा है ही कौन?”

मदारीलाल — “तो आप अपने घर जाने के बदले मेरे घर चलिये। जैसे मेरे बाल-बच्चे रहेंगें, वैसे ही आप के भी रहेंगे। आपको कष्ट न होगा। ईश्वर ने चाहा तो कन्या का विवाह भी किसी अच्छे कुल में हो जायेगा।“

विधवा की आँखें सजल हो गयीं। बोली — “मगर भैया जी, सोचिये…..”

मदारीलाल ने बात काट कर कहा — “मैं कुछ न सोचूंगा और न कोई उज्र सुनूंगा। क्या दो भाइयों के परिवार एक साथ नहीं रहते? सुबोध को मैं अपना भाई समझता था और हमेशा समझूंगा।“

विधवा का कोई उज्र न सुना गया। मदारीलाल सबको अपने साथ ले गये और आज दस साल से उनका पालन कर रहे है। दोनों बच्चे कालेज में पढ़ते है और कन्या का एक प्रतिष्ठित कुल में विवाह हो गया है। मदारीलाल और उनकी स्त्री तन-मन से रामेश्वरी की सेवा करते हैं और उनके इशारों पर चलते हैं। मदारीलाल सेवा से अपने पाप का प्रायश्चित कर रहे हैं।

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