चैप्टर 3 कायाकल्प मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास

चैप्टर 3 कायाकल्प मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास | Chapter 3 Kayakalp Novel By Munshi Premchand

Chapter 3 Kayakalp Novel By Munshi Premchand

Chapter 3 Kayakalp Novel By Munshi Premchand

कई महीने बीत गए। चक्रधर महीने के अंत में रुपए लाते और माता के हाथ पर रख देते। अपने लिए उन्हें रुपए की कोई जरूरत न थी। दो मोटे कुर्तों पर साल काट देते थे। हां, पुस्तकों से उन्हें रुचि थी, पर इसके लिए कॉलेज का पुस्तकालय खुला हुआ था, सेवा-कार्य के लिए चंदों से रुपए आ जाते थे। मुंशी वज्रधर का मुंह भी कुछ सीधा हो गया। डरे कि इससे ज्यादा दबाऊं, तो शायद यह भी हाथ से जाए। समझ गए कि जब तक विवाह की बेड़ी पांव में न पड़ेगी, यह महाशय काबू में नहीं आएंगे । वह बेड़ी बनवाने का विचार करने लगे।

मनोरमा की उम्र अभी तेरह वर्ष से अधिक न थी, लेकिन चक्रधर को पढ़ाते हुए बड़ी झेंप होती थी। वह यही प्रयत्न करते थे कि ठाकुर साहब की उपस्थिति ही में उसे पढ़ाएं। यदि कभी ठाकुर साहब कहीं चले जाते, तो चक्रधर को महान् संकट का सामना करना पड़ता।

एक दिन चक्रधर इसी संकट में जा फंसे। ठाकुर साहब कहीं गए हुए थे। चक्रधर कुर्सी पर बैठे; पर मनोरमा की ओर न ताककर द्वार की ओर ताक रहे थे, मानो वहां बैठते डरते हों। मनोरमा वाल्मीकीय रामायण पढ़ रही थी। उसने दो-तीन बार चक्रधर की ओर ताका, पर उन्हें द्वार की ओर ताकते देखकर फिर किताब देखने लगी। उसके मन में सीता वनवास पर शंका हुई थी और वह इसका समाधान करना चाहती थी। चक्रधर ने द्वार की ओर ताकते हुए पूछा-चुप क्यों बैठी हो, आज का पाठ क्यों नहीं पढ़ती?

मनोरमा-मैं आपसे एक बात पूछना चाहती हूँ, आज्ञा हो तो पूछूं?

चक्रधर ने कातर भाव से कहा-क्या बात है?

मनोरमा-रामचन्द्र ने सीताजी को घर से निकाला तो वह चली क्यों गईं?

चक्रधर-और क्या करती?

मनोरमा-वह जाने से इंकार कर सकती थीं। एक तो राज्य पर उनका अधिकार भी रामचन्द्र ही के समान था, दूसरे वह निर्दोष थीं। अगर वह यह अन्याय न स्वीकार करतीं, तो क्या उन पर कोई आपत्ति हो सकती थी?

चक्रधर-हमारे यहां पुरुषों की आज्ञा मानना स्त्रियों का परम धर्म माना गया है। यदि सीताजी पति की आज्ञा न मानतीं, तो वह भारतीय सती के आदर्श से गिर जातीं।

मनोरमा-यह तो मैं जानती हूँ कि स्त्री को पुरुष की आज्ञा माननी चाहिए लेकिन क्या सभी दशा में? जब राजा से साधारण प्रजा न्याय का दावा कर सकती है, तो क्या उसकी स्त्री नहीं कर सकती? जब रामचन्द्र ने सीता की परीक्षा ले ली थी और अंत:करण से उन्हें पवित्र समझते थे, तो केवल झूठी निंदा से बचने के लिए उन्हें घर से निकाल देना कहाँ का न्याय था?

चक्रधर-राजधर्म का आदर्श पालन करना था।

मनोरमा-तो क्या दोनों प्राणी जानते थे कि हम संसार के लिए आदर्श खड़ा कर रहे हैं? इससे तो यह सिद्ध होता है कि वे कोई अभिनय कर रहे थे। अगर आदर्श भी मान लें तो यह ऐसा आदर्श है, जो सत्य की हत्या करके पाला गया है। यह आदर्श नहीं है, चरित्र की दुर्बलता है। मैं आपसे पूछती हूँ, आप रामचन्द्र की जगह होते, तो क्या आप भी सीता को घर से निकाल देते?

चक्रधर बड़े असमंजस में पड़ गए। उनके मन में स्वयं यही शंका और लगभग इसी उम्र में पैदा हुई थी; पर वह इसका समाधान न कर सके थे। अब साफ-साफ जवाब देने की जरूरत पड़ी तो, बगलें झांकने लगे।

मनोरमा ने उन्हें चुप देखकर फिर पूछा-क्या आप भी उन्हें घर से निकाल देते?

चक्रधर-नहीं, मैं तो शायद नहीं निकालता।

मनोरमा-आप निंदा की जरा भी परवाह न करते?

चक्रधर-नहीं, मैं झूठी निंदा की परवाह न करता।

मनोरमा की आंखें खुशी से चमक उठीं, प्रफुल्लित होकर बोली-यही बात मेरे मन में भी थी। मैंने दादाजी से, भाइयों से, पंडितजी से, लौंगी अम्मां से, भाभी से यही शंका की, पर सब लोग यही कहते थे कि रामचन्द्र तो भगवान हैं, उनके विषय में कोई शंका हो ही नहीं सकती। आपने आज मेरे मन की बात कही। मैं जानती थी कि आप यही जवाब देंगे। इसीलिए मैंने आपसे पूछा था। अब मैं उन लोगों को खूब आड़े हाथों लूंगी।

उस दिन से मनोरमा को चक्रधर से कुछ स्नेह हो गया। पढ़ने-लिखने में उसे विशेष रुचि हो गई। चक्रधर उसे जो काम करने को दे जाते, वह उसे अवश्य पूरा करती। पहले की भांति अब हीले-हवाले न करती। जब उनके आने का समय होता, तो वह पहले ही से आकर बैठ जाती और उनका इंतजार करती। अब उसे उनसे अपने मन के भाव प्रकट करते हुए संकोच न होता। वह जानती थी कि कम-से-कम यहां उनका निरादर न होगा, उनकी हंसी न उड़ाई जाएगी ।

ठाकुर हरिसेवकसिंह की आदत थी कि पहले दो-चार महीने तक तो नौकरों को वेतन ठीक समय पर दे देते, पर ज्यों-ज्यों नौकर पुराना होता जाता था, उन्हें उसके वेतन की याद भूलती जाती थी। उनके यहां कई नौकर ऐसे भी पड़े थे, जिन्होंने बरसों से अपने वेतन नहीं पाए थे, चक्रधर को भी इधर चार महीनों से कुछ न मिला था। न वह आप-ही-आप देते थे, न चक्रधर संकोचवश मांगते थे। उधर घर में रोज तकरार होती थी। मुंशी वज्रधर बार-बार तकाजे करते, झुंझलाते-मांगते क्यों नहीं? क्या मुंह में दही जमाया हुआ है, या काम नहीं करते? लिहाज भले आदमी का किया जाता है। ऐसे लुच्चों का लिहाज नहीं किया जाता, जो मुफ्त में काम कराना चाहते हैं।

आखिर एक दिन चक्रधर ने विवश हो ठाकुर साहब को एक पुरजा लिखकर अपना वेतन मांगा। ठाकुर साहब ने पुरजा लौटा दिया-व्यर्थ की लिखा-पढ़ी करने की उन्हें फुर्सत न थी और कहा-उनको जो कुछ कहना हो, खुद आकर कहें। चक्रधर शरमाते हुए गए और बहुत-कुछ शिष्टाचार के बाद रुपए मांगे। ठाकुर साहब हंसकर बोले-वाह ! बाबूजी, वाह ! आप भी अच्छे मौजी जीव हैं। चार महीनों से वेतन नहीं मिला और आपने एक बार भी न मांगा ! अब तो आपके परे एक-सौ बीस रुपए हो गए। मेरा हाथ इस वक्त तंग है। दस-पांच दिन ठहरिए। आपको महीने-महीने अपना वेतन ले लेना चाहिए था। सोचिए, मुझे एकमुश्त देने में कितनी असुविधा होगी ! खैर, जाइए, दस-पांच दिन में रुपए मिल जाएंगे।

चक्रधर कुछ न कह सके। लौटे, तो मुंह पर घोर निराशा छायी हुई थी। आज दादाजी शायद जीता न छोड़ेंगे। इस ख्याल से उनका दिल कांपने लगा। मनोरमा ने उनका पुरजा अपने पिता के पास ले जाते हुए राह में पढ़ लिया था। उन्हें उदास देखकर पूछा-दादाजी ने आपसे क्या कहा?

चक्रधर उसके सामने रुपए-पैसे का जिक्र न करना चाहते थे। झेंपते हुए बोले-कुछ तो नहीं।

मनोरमा-आपको रुपए नहीं दिए?

चक्रधर का मुंह लाल हो गया। बोले-मिल जाएंगे।

मनोरमा-आपको एक-सौ बीस रुपए चाहिए न?

चक्रधर-इस वक्त कोई जरूरत नहीं है।

मनोरमा-जरूरत न होती तो आप मांगते ही नहीं। दादाजी में बड़ा ऐब है कि किसी के रुपए देते हुए उन्हें मोह लगता है। देखिए, मैं जाकर–

चक्रधर ने रोककर कहा-नहीं-नहीं, कोई जरूरत नहीं।

मनोरमा ने न माना। तुरंत घर में गई और एक क्षण में पूरे रुपए लाकर मेज पर रख दिए, मानो कहीं गिने-गिनाए रखे हुए थे।

चक्रधर-तुमने ठाकुर साहब को व्यर्थ कष्ट दिया।

मनोरमा-मैंने उन्हें कष्ट नहीं दिया ! उनसे तो कहा भी नहीं। दादाजी किसी की जरूरत नहीं समझते। अगर अपने लिए कभी मोटर मंगवानी हो, तो तुरंत मंगवा लेंगे ! पहाड़ों पर जाना हो, तो तुरंत चले जाएंगे, पर जिसके रुपए आते हैं, उसको न देंगे।

वह तो पढ़ने बैठ गई, लेकिन चक्रधर के सामने यह समस्या आ पड़ी कि रुपए लूं या न लूं। उन्होंने निश्चय किया कि न लेना चाहिए। पाठ हो चुकने पर वह उठ खड़े हुए और बिना रुपए लिए बाहर निकल आए। मनोरमा रुपए लिए हुए पीछे-पीछे बरामदे तक आई। बार-बार कहती रही-इसे आप लेते जाइए। जब दादाजी दें तो मुझे लौटा दीजिएगा। पर चक्रधर ने एक न सुनी और जल्दी से बाहर निकल गए।

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