चैप्टर 4 कायाकल्प मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास

चैप्टर 4 कायाकल्प मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास | Chapter 4 Kayakalp Novel By Munshi Premchand

Chapter 4 Kayakalp Novel By Munshi Premchand

Chapter 4 Kayakalp Novel By Munshi Premchand

चक्रधर डरते हुए घर पहुंचे, तो क्या देखते हैं कि द्वार पर चारपाई पड़ी हुई है; उस पर कालीन बिछी हुई है और एक अधेड़ उम्र के महाशय उस पर बैठे हुए हैं। उनके सामने ही एक कुर्सी पर मुंशी वज्रधर बैठे फर्शी पी रहे थे और नाई खड़ा पंखा झल रहा था। चक्रधर के प्राण सूख गए। अनुमान से ताड़ गए कि यह महाशय वर की खोज में आए हैं। निश्चय करने के लिए घर में जाकर माता से पूछा, तो अनुमान सच्चा निकला। बोले-दादाजी ने इनसे क्या कहा?

निर्मला ने मुस्कराकर कहा-नानी क्यों मरी जाती है, क्या जन्म भर क्वारे ही रहोगे ! जाओ; बाहर बैठो; तुम्हारी तो बड़ी देर से जोहाई हो रही है। आज क्यों इतनी देर लगाई?

चक्रधर-यह हैं कौन?

निर्मला-आगरे के कोई वकील हैं, मुंशी यशोदानंदन !

चक्रधर-मैं तो घूमने जाता हूँ। जब यह यमदूत चला जाएगा, तो आऊंगा।

निर्मला-वाह रे शर्मीले! तेरा-सा लड़का तो देखा ही नहीं। आ, जरा सिर में तेल डाल दूं, बाल न जाने कैसे बिखरे हुए हैं। साफ कपड़े पहनकर जरा देर के लिए बाहर जाकर बैठ।

चक्रधर-घर में भोजन भी है कि ब्याह ही कर देने का जी चाहता है? मैं कहे देता हूँ, विवाह न करूंगा, चाहे इधर की दुनिया उधर हो जाए।

किंतु स्नेहमयी माता कब सुनने वाली थी। उसने उन्हें जबर्दस्ती पकड़कर सिर में तेल डाल दिया, संदूक से एक धुला हुआ कुर्ता निकाल लाई और यों पहनाने लगी, जैसे कोई बच्चे को पहनाए। चक्रधर ने गर्दन फेर ली।

निर्मला-मुझसे शरारत करेगा, तो मार बैलूंगी। इधर ला सिर ! क्या जन्म भर छूटे सांड़ बने रहने का जी चाहता है? क्या मुझसे मरते दम तक चूल्हा-चक्की कराता रहेगा? कुछ दिनों तो बहू का सुख उठा लेने दे।

चक्रधर-तुमसे कौन कहता है भोजन बनाने को? मैं कल से बना दिया करूंगा। मंगला को क्यों छोड़ रखा है?

निर्मला-अब मैं मारनेवाली ही हूँ। आज तक कभी न मारा पर आज पीट दूंगी, नहीं तो जाकर चुपके से बाहर बैठ।

इतने में मुंशीजी ने पुकारा-नन्हें, क्या कर रहे हो? जरा यहां तो आओ।

चक्रधर के रहे-सहे होश भी उड़ गए। बोले-जाता तो हूँ, लेकिन कहे देता हूँ, मैं यह जुआ गले में न डालूंगा। जीवन में मनुष्य का यही काम नहीं है कि विवाह कर ले, बच्चों का बाप बन जाए और कोल्हू के बैल की तरह आंखों पर पट्टी बांधकर गृहस्थी में जुत जाए।

निर्मला-सारी दुनिया जो करती है, वही तुम्हें भी करना पड़ेगा। मनुष्य का जन्म होता ही किसलिए है?

चक्रधर-हजारों काम हैं?

निर्मला-रुपए आज भी नहीं लाए क्या? कैसे आदमी हैं कि चार-चार महीने हो गए, रुपए देने का नाम नहीं लेते ! जाकर अपने दादा को किसी बहाने से भेज दो। कहीं से जाकर रुपए लाएं। कुछ दावत-आवत का सामान करना ही पड़ेगा, नहीं तो कहेंगे कि नाम बड़े और दर्शन थोड़े।

चक्रधर बाहर आए तो मुंशी यशोदानंदन ने खड़े होकर उन्हें छाती से लगा लिया और कुर्सी पर बैठाते हुए बोले-अबकी ‘सरस्वती’ में आपका लेख देखकर चित्त बहुत प्रसन्न हुआ। इस वैषम्य को मिटाने के लिए आपने जो उपाय बताए हैं, वे बहुत ही विचारपूर्ण हैं।

इस स्नेह-मृदुल आलिंगन और सहृदयपूर्ण आलोचना ने चक्रधर को मोहित कर लिया ! वह कुछ जवाब देना ही चाहते थे कि मुंशी वज्रधर बोल उठे-आज बहुत देर लगा दी? राजा साहब से कुछ बातचीत होने लगी क्या? (यशोदानंदन से) राजा साहब की इनके ऊपर बड़ी कृपा है। बिल्कुल लड़कों की तरह मानते हैं। इनकी बातें सुनने से उनका जी ही नहीं भरता। (नाई से) देख, चिलम बदल दे और जाकर झिनकू से कह दे, सितार-वितार लेकर थोड़ी देर के लिए यहां आ जाए। इधर ही से गणेश के घर जाकर कहना कि तहसीलदार साहब ने एक हांड़ी अच्छा दही मांगा है। देखना, दही खराब हुआ, तो दाम न मिलेंगे।

यह हुक्म देकर मुंशीजी घर में चले गए। उधर की फिक्र थी; पर मेहमान को छोड़कर न जा सकते थे। आज उनका ठाट-बाट देखते ही बनता था। अपना अल्पकालीन तहसीलदारी के समय का अलापाके का चोंगा निकाला था। उसी जमाने की मंदील भी सिर पर थी। आंखों में सुरमा भी था, बालों में तेल भी, मानो उन्हीं का ब्याह होने वाला है। चक्रधर शरमा रहे थे, यह महाशय इनके वेश पर दिल में क्या कहते होंगे। राजा साहब की बात सुनकर तो वह गड़-से गए।

मुंशीजी चले गये, तो यशोदानंदन बोले-अब आपका क्या काम करने का इरादा है?

चक्रधर–अभी तो कुछ निश्चय नहीं किया है। हां, यह इरादा है कि कुछ दिनों आजाद रहकर सेवाकार्य करूं।

यशोदानंदन-इससे बढ़कर क्या हो सकता है ! आप जितने उत्साह से समिति को चला रहे हैं, उसकी तारीफ नहीं की जा सकती। आप जैसे उत्साही युवकों का ऊंचे आदर्शों के साथ सेवाक्षेत्र में आना जाति के लिए सौभाग्य की बात है। आपके इन्हीं गुणों ने मुझे आपकी ओर खींचा है। यह तो आपको मालूम ही होगा कि मैं किस इरादे से आया हूँ। अगर मुझे धन या जायदादकी परवाह होती, तो यहां न आता ! मेरी दृष्टि में चरित्र का जो मूल्य है, वह और किसी वस्तु का नहीं।

चक्रधर ने आंखें नीची करके कहा-लेकिन मैं तो अभी गृहस्थी के बंधन में नहीं पड़ना चाहता। मेरा विचार है कि गृहस्थी में फंसकर कोई तन-मन से सेवाकार्य नहीं कर सकता।

यशोदानंदन-ऐसी बात तो नहीं। इस वक्त भी जितने आदमी सेवा-कार्य कर रहे हैं वे प्रायः सभी बाल-बच्चों वाले आदमी हैं।

चक्रधर-इसी से तो सेवा-कार्य इतना शिथिल है।

यशोदानंदन-मैं समझता हूँ कि यदि स्त्री और पुरुष के विचार और आदर्श एक-से हों, तो पुरुष के कामों में बाधक होने के बदले स्त्री सहायक हो सकती है। मेरी पुत्री का स्वभाव, विचार, सिद्धांत सभी आपसे मिलते हैं और मुझे पूरा विश्वास है कि आप दोनों एक साथ रहकर सुखी होंगे। उसे कपड़े का शौक नहीं, गहने का शौक नहीं, अपनी हैसियत को बढ़ाकर दिखाने की धुन नहीं। आपके साथ वह मोटे-से-मोटे वस्त्र और मोटे-से-मोटे भोजन में संतुष्ट रहेगी। अगर आप इसे अत्युक्ति न समझें, तो मैं यहां तक कह सकता हूँ कि ईश्वर ने आपको उसके लिए बनाया है और उसको आपके लिए। सेवा-कार्य में वह हमेशा आपसे एक कदम आगे रहेगी। अंगरेजी. हिन्दी, उर्दू, संस्कृत पढ़ी हुई है; घर के कामों में इतनी कुशल है कि मैं नहीं समझता, उसके बिना मेरी गृहस्थी कैसे चलेगी? मेरी दो बहुएं हैं, लड़की की मां है; किंतु सब-की-सब फूहड़, किसी में भी वह तमीज नहीं। रही शक्ल-सूरत, वह भी आपको इस तस्वीर से मालूम हो जाएगी।

यह कहकर यशोदानंदन ने कहार से तस्वीर मंगवाई और चक्रधर के सामने रखते हुए बोले-मैं तो इसमें कोई हरज नहीं समझता। लड़के को क्या खबर है कि मुझे बहू कैसी मिलेगी। स्त्री में कितने ही गुण हों, लेकिन यदि उसकी सूरत पुरुष को पसंद न आई, तो वह उसकी नजरों से गिर जाती है और उनका दांपत्य-जीवन दुःखमय हो जाता है। मैं तो यहां तक कहता हूँ कि वर और कन्या में दो-चार बार मुलाकात भी हो जानी चाहिए। कन्या के लिए तो यह अनिवार्य है। पुरुष को स्त्री पसंद न आई, तो वह और शादियां कर सकता है। स्त्री को पुरुष पसंद न आया, तो उसकी सारी उम्र रोते ही गुजरेगी।

चक्रधर के पेट में चूहे दौड़ने लगे कि तस्वीर क्योंकर ध्यान से देखू। वहां देखते शरम आती थी, मेहमान को अकेला छोड़कर घर में न जाते बनता था। कई मिनट तक तो सब्र किए बैठे रहे, लेकिन न रहा गया। पान की तश्तरी और तसवीर लिए हुए घर में चले आए। चाहते थे कि अपने कमरे में जाकर देखें कि निर्मला ने पूछा-क्या बातचीत हुई? कुछ देंगे-दिलाएंगे कि वही इक्यावन रुपए वालों में हैं?

चक्रधर ने उग्र होकर कहा-अगर तुम मेरे सामने देने-दिलाने का नाम लोगी, तो जहर खा लूंगा।

निर्मला-वाह रे ! तो क्या पचीस बरस तक यों ही पाला-पोसा है क्या? मुंह धो रखें! चक्रधर-तो बाजार में खड़ा करके बेच क्यों नहीं लेती? देखो के टके मिलते हैं!

निर्मला-तुम तो अभी से ससुर के पक्ष में मुझसे लड़ने लगे। ब्याह के नाम ही में कुछ जादू है क्या?

इतने में चक्रधर की छोटी बहन मंगला तश्तरी में पान रखकर उनको देने लगी, तो कागज में लिपटी हुई तसवीर उसे नजर आई। उसने तसवीर ले ली और लालटेन के सामने ले जाकर बोली-यह बहू की तसवीर है। देखो, कितनी सुंदर है!

निर्मला ने जाकर तसवीर देखी, तो चकित रह गई। उसकी आंखें आनंद से चमक उठीं। बोली-बेटा, तेरे भाग्य जाग गए। मुझे तो कुछ भी न मिले, तो भी इससे तेरा ब्याह कर दूं। कितनी बड़ी-बड़ी आम की फांक-सी आंखें हैं, मैंने ऐसी सुंदर लड़की नहीं देखी।

चक्रधर ने समीप जाकर उड़ती हुई नजरों से तसवीर देखी और हंसकर बोले-लखावरी ईंट की-सी मोटी तो नाक है, उस पर कहती हो, कितनी सुंदर है!

निर्मला-चल, दिल में तो फूला न समाता होगा, ऊपर से बातें बनाता है।

चक्रधर-इसी मारे मैं यहां न लाता था। लाओ लौटा दूं।

निर्मला-तुझे मेरी ही कसम है, जो भांजी मारे। मुझे तो इस लड़की ने मोह लिया।

चक्रधर पान की तश्तरी और तसवीर लेकर चले; पर बाहर न जाकर अपने कमरे में गए और बड़ी उत्सुकता से चित्र पर आंखें जमा दीं। उन्हें ऐसा मालूम हुआ मानो चित्र ने लज्जा से आंखें नीची कर ली हैं, मानो वह उनसे कुछ कह रही है। उन्होंने तसवीर उठा ली और देखने लगे। आंखों को तृप्ति ही न होती थी। उन्होंने अब तक जितनी सूरतें देखी थीं, उनसे मन में तुलना करने लगे। मनोरमा ही इससे मिलती थी। आंखें दोनों की एक-सी हैं, बाल नेत्रों के समान विहंसते। वर्ण भी एक-से हैं, नख-शिख बिल्कुल मिलता-जुलता ! किंतु यह कितनी लज्जाशील है, वह कितनी चपल ! यह किसी साधु की शांति-कुटीर की भांति लताओं और फूलों से सज्जित है, वह किसी गगनस्पर्शी शैल की भाति विशाल। यह चित्त को मोहित करती है, वह पराभूत करती है। यह किसी पालतू पक्षी की भांति पिंजरे में गाने वाली, वह किसी वन्य-पक्षी की भांति आकाश में उड़ने वाली; यह किसी कवि कल्पना की भांति मधुर और रसमयी, वह किसी दार्शनिक तत्त्व की भांति दुर्बोध और जटिल!

चित्र हाथ में लिए हुए चक्रधर भावी जीवन के मधुर स्वप्न देखने लगे। यह ध्यान ही न रहा कि मुंशी यशोदानंदन बाहर अकेले बैठे हुए हैं। अपना व्रत भूल गए, सेवा सिद्धांत भूल गए, आदर्श भूल गए, भूत और भविष्य भूल वर्तमान में लीन हो गए, केवल एक ही सत्य था और वह इस चित्र की मधुर कल्पना थी।

सहसा तबले की थाप ने उनकी समाधि भंग की। बाहर संगीत-समाज जमा था। मुंशी वज्रधर को गाने-बजाने का शौक था। गला तो रसीला न था; पर ताल-स्वर के ज्ञाता थे। चक्रधर डरे कि दादा इस समय कहीं गाने लगे तो नाहक भद्द हो। जाकर उनके कान में कहा-आप न गाइएगा। संगीत से रुचि थी; पर यह असह्य था कि मेरे पिताजी कत्थकों के सामने बैठकर एक प्रतिष्ठित मेहमान के सामने गाएं।

जब साज मिल गया, तो झिनकू ने कहा-तहसीलदार साहब, पहले आप ही की हो जाए।

चक्रधर का दिल धड़कने लगा; लेकिन मुंशीजी ने उनकी ओर आश्वासन की दृष्टि से देखकर कहा-तुम लोग अपना गाना सुनाओ, मैं क्या गाऊं!

झिनकू-वाह मालिक, वाह ! आपके सामने हम क्या गाएंगे। अच्छे-अच्छे उस्तादों की तो हिम्मत नहीं पड़ती!

वज्रधर अपनी प्रशंसा सुनकर फूल उठते थे। दो-चार बार तो नहीं-नहीं की, फिर ध्रुपद की एक गत छेड़ ही तो दी। पंचम स्वर था, आवाज फटी हुई, सांस उखड़ जाती थी, बार-बार खांसकर गला साफ करते थे, लोच का नाम न था, कभी-कभी बेसुरे भी हो जाते थे; पर साजिंदे वाह-वाह की धूम मचाए हुए थे-क्या कहना है, तहसीलदार साहब ! ओ हो!

मुंशीजी को गाने की धुन सवार होती थी तो जब तक गला न पड़ जाए, चुप न होते थे। गत समाप्त होते ही आपने ‘सूर’ का पद छेड़ दिया और ‘देश’ की धुन में गाने लगे।

झिनकू-यह पुराने गले की बहार है। ओ हो !

वज्रधर-नैन नीर छीजत नहिं कबहूँ, निस-दिन बहत पनारे।

झिनकू-जरा बता दीजिएगा, कैसे?

वज्रधर ने दोनों आंखों पर हाथ रखकर बताया।

चक्रधर से अब न सहा गया। नाहक अपनी हंसी करा रहे हैं। इस बेसुरेपन पर मुंशी यशोदानंदन दिल में कितना हंस रहे होंगे ! शर्म के मारे वह वहां खड़े न रह सके। घर में चले गए, लेकिन यशोदानंदन बड़े ध्यान से गाना सुन रहे थे। बीच-बीच में सिर भी हिला देते थे। जब गीत समाप्त हुआ, तो बोले-तहसीलदार साहब आप इस फन के उस्ताद हैं।

वज्रधर-यह आपकी कृपा है, मैं गाना क्या जानूं, इन्हीं लोगों की संगति में कुछ शुद-बुद आ गया।

झिनकू-ऐसा न कहिए मालिक, हम सब तो आप ही के सिखाए-पढ़ाए हैं।

यशोदानंदन-मेरा तो जी चाहता है कि आपका शिष्य हो जाऊं।

वज्रधर-क्या कहूँ, आपने मेरे स्वर्गीय पिताजी का गाना नहीं सुना। बड़ा कमाल था ! कोई उस्ताद उनके सामने मुंह न खोल सकता था। लाखों की जायदादउसी के पीछे लुटा दी। अब तो उसकी चर्चा ही उठती जाती है।

यशोदानंदन-अब की न कहिए। आजकल के युवकों में तो गाने की रुचि ही नहीं रही। न गा सकते हैं, न समझ सकते हैं। उन्हें गाते शर्म आती है।

वज्रधर-रईसों में भी इसका शौक उठता जाता है।

यशोदानंदन-पेट के धंधे से किसी को छुट्टी ही नहीं मिलती, गाए-बजाए कौन ?

झिनक-(यशोदानंदन से) हुजूर को गाने का शौक मालूम होता है!

यशोदानंदन-अजी, जब था तब था ! सितार-वितार की दो-चार गतें बजा लेता था। अब सब छोड़-छाड़ दिया।

झिनकू-कितना ही छोड़-छाड़ दिया है, लेकिन आजकल के नौसिखियों से अच्छे ही होंगे। अबकी आप ही की हो।

यशोदानंदन ने भी दो-चार बार इंकार करने के बाद काफी की धुन में एक ठुमरी छेड़ दी। उनका गला मंजा हुआ था, इस कला में निपुण थे, ऐसा मस्त होकर गाया कि सुनने वाले झूमझूम गए। उनकी सुरीली तान साज में मिल जाती थी। वज्रधर ने तो वाह-वाह का तार बांध दिया। झिनकू के भी छक्के छूट गए। मजा यह कि साथ-ही-साथ सितार भी बजाते थे। आसपास के लोग आकर जमा हो गए। समां बंध गया। चक्रधर ने यह आवाज सुनी तो दिल में कहा, यह महाशय भी उसी टुकरी के लोगों में हैं, उसी रंग में रंगे हुए। अब झेंप जाती रही। बाहर आकर बैठ गए।

वज्रधर ने कहा-भाई साहब, आपने तो कमाल कर दिया। बहुत दिनों से ऐसा गाना न सुना था। कैसी रही, झिनकू?

झिनकू-हुजूर, कुछ न पूछिए, सिर धुन रहा हूँ। मेरी तो अब गाने की हिम्मत ही नहीं पड़ती। आपने हम सबों का रंग फीका कर दिया। पुराने जमाने के रईसों की क्या बातें हैं।

यशोदानंदन-कभी-कभी जी बहला लिया करता हूँ, वह भी लुक-छिपकर। लड़के सुनते हैं तो कानों पर हाथ रख लेते हैं। मैं समझता हूँ, जिसमें यह रस नहीं, वह किसी सोहबत में बैठने लायक नहीं। क्यों बाबू चक्रधर, आपको तो शौक होगा?

वज्रधर-जी छू नहीं गया। बस, अपने लड़कों का हाल समझिए।

चक्रधर ने झेंपते हुए कहा-मैं गाने को बुरा नहीं समझता। हां, इतना जरूर चाहता हूँ कि शरीफ लोग शरीफों में ही गाएं-बजाएं।

यशोदानंदन-गुणियों की जात-पांत नहीं देखी जाती। हमने तो बरसों एक अंधे फकीर की गुलामी की, तब जाके सितार बजाना आया।

आधी रात के करीब गाना बंद हुआ। लोगों ने भोजन किया। जब मुंशी यशोदानंदन बाहर आकर बैठे, तो वज्रधर ने पूछा-आपसे कुछ बातचीत हुई?

यशोदानंदन-जी हां, हुई लेकिन साफ नहीं खुले।

वज्रधर-विवाह के नाम से चिढ़ता है।

यशोदानंदन-अब शायद राजी हो जाएं।

वज्रधर-अजी, सैकड़ों आदमी आ-आकर लौट गए। कई आदमी तो दस-दस हजार तक देने को तैयार थे। एक साहब तो अपनी रियासत ही लिखे देते थे; लेकिन इसने हामी न भरी।

दोनों आदमी सोए। प्रात:काल यशोदानंदन ने चक्रधर से पूछा-क्यों बेटा, एक दिन के लिए मेरे साथ आगरे चलोगे?

चक्रधर-मुझे तो आप इस जंजाल में न फंसाएं तो बहुत अच्छा हो।

यशोदानंदन-तुम्हें जंजाल में नहीं फंसाता बेटा, तुम्हें ऐसा सच्चा मंत्री, ऐसा सच्चा सहायक और ऐसा सच्चा मित्र दे रहा हूँ, जो तुम्हारे उद्देश्यों को पूरा करना अपने जीवन का मुख्य कर्त्तव्य समझेगी। मैं स्वार्थवश ऐसा नहीं कह रहा हूँ। मैं स्वयं आगरे की हिंदू -सभा का मंत्री हूँ और सेवाकार्य का महत्त्व समझता हूँ। अगर मैं समझता कि यह संबंध आपके काम में बाधक होगा, तो कभी आग्रह न करता। मैं चाहता हूँ कि आप एक बार अहिल्या से मिल लें। यों मैं मन से आपको अपना दामाद बना चुका; पर अहिल्या की अनुमति ले लेनी आवश्यक समझता हूँ! आप भी शायद यह पसंद न करेंगे कि मैं इस विषय में स्वेच्छा से काम लूं। आप शरमाएं नहीं, यों समझ लीजिए कि आप मेरे दामाद हो चुके; केवल मेरे साथ सैर करने चल रहे हैं। आपको देखकर आपकी सास, साले-सभी खुश होंगे।

चक्रधर बड़े संकट में पड़े। सिद्धांत-रूप से वह विवाह के विषय में स्त्रियों को पूरी स्वाधीनता देने के पक्ष में थे; पर इस समय आगरे जाते हुए बड़ा संकोच हो रहा था, कहीं उसकी इच्छा न हुई तो? कौन बड़ा सजीला जवान हूँ, बातचीत करने में भी तो चतुर नहीं और उसके सामने तो शायद मेरा मुंह ही न खुले। कहीं उसने मन फीका कर लिया, तो मेरे लिए डूब मरने की जगह न होगी। फिर कपड़े-लत्ते भी नहीं हैं, बस, यह दो कुर्तों की पूंजी है। बहुत हैस-वैस के बाद बोले-मैं आपसे सच कहता हूँ, मैं अपने को ऐसी…ऐसी सुयोग्य स्त्री के योग्य नहीं समझता।

यशोदानंदन-इन हीलों से मैं आपका दामन छोड़ने वाला नहीं हूँ। मैं आपके मनोभावों को समझ रहा हूँ। आप संकोच के कारण ऐसा कह रहे हैं; पर अहिल्या उन चंचल लडकियों में नहीं है, जिसके सामने जाते हुए आपको शरमाना पड़े। आप उसकी सरलता देखकर प्रसन्न होंगे। हां, मैं इतना कर सकता हूँ कि आपकी खातिर से पहले यह कहूँ कि आप परदेशी आदमी हैं, यहां सैर करने आए हैं। स्टेशन पर होटल पूछ रहे थे। मैंने समझा, सीधे आदमी हैं, होटल में लुट जाएंगे, साथ लेता आया। क्यों, कैसी रहेगी?

चक्रधर ने अपनी प्रसन्नता को छिपाकर कहा-क्या यह नहीं हो सकता कि मैं और किसी समय आ जाऊं?

यशोदानंदन-नहीं, मैं इस काम में विलंब नहीं करना चाहता। मैं तो उसी को लाकर दो-चार दिन के लिए यहां ठहरा सकता हूँ; पर शायद आपके घर के लोग यह पसंद न करेंगे।

चक्रधर ने सोचा, अगर मैंने और ज्यादा टालमटोल की, तो कहीं यह महाशय सचमुच ही अहिल्या को यहां न पहुंचा दें। तब तो सारा पर्दा ही खुल जाएगा। घर की दशा देखकर अवश्य ही उनका दिल फिर जाएगा। एक तो जरा-सा घर, कहीं बैठने की जगह नहीं, उस पर न कोई साज, न सामान। विवाह हो जाने के बाद दूसरी बात हो जाती है। लड़की कितने ही बड़े घराने की हो, समझ लेती है, अब तो यही मेरा घर है-अच्छा हो या बुरा। दो-चार दिन अपनी तकदीर को रोकर शांत हो जाती है। बोले-जी हां, यह मुनासिब नहीं मालूम होता। मैं ही चला चलूंगा।

घर में विद्या का प्रचार होने से प्रायः सभी प्राणी कुछ-न-कुछ उदार हो जाते हैं। निर्मला तो खुशी से राजी हो गई। हां, मुंशी वज्रधर को कुछ संकोच हुआ; लेकिन यह समझकर कि यह महाशय लड़के पर लट्टू हो रहे हैं, कोई अच्छी रकम दे मरेंगे, उन्होंने भी कोई आपत्ति न की। अब केवल ठाकुर हरिसेवकसिंह को सूचना देनी थी। चक्रधर यों तो तीसरे पहर पढ़ाने जाया करते थे, पर आज नौ बजते-बजते जा पहुंचे।

ठाकुर साहब इस वक्त अपनी प्राणेश्वरी लौंगी से कुछ बातें कर रहे थे। मनोरमा की माता का देहांत हो चुका था। लौंगी उस वक्त लौंडी थी। उसने इतनी कुशलता से घर संभाला कि ठाकुर साहब उस पर रीझ गए और उसे गृहिणी के रिक्त स्थान पर अभिषिक्त कर दिया। नाम और गुण में इतना प्रत्यक्ष विरोध बहुत कम होगा। लोग कहते हैं, पहले वह इतनी दुबली थी कि फूंक दो तो उड़ जाए; पर गृहिणी का पद पाते ही उसकी प्रतिमा स्थूल रूप धारण करने लगी।

क्षीण जलधारा बरसात की नदी की भांति बढ़ने लगी और इस समय तो स्थूल प्रतिमा की विशाल मूर्ति थी, अचल और अपार। बरसाती नदी का जल गड़हों और गड़हियों में भर गया था। बस, जल-ही-जल दिखाई देता था। न आंखों का पता था, न नाक का, न मुंह का, सभी जगह स्थूलता व्याप्त हो रही थी; पर बाहर की स्थूलता ने अंदर की कोमलता को अक्षुण्ण रखा था। सरल, सदय, हंसमुख, सहनशील स्त्री थी, जिसने सारे घर को वशीभूत कर लिया था। यह उसी की सज्जनता थी, जो नौकरों को वेतन न मिलने पर भी जाने न देती। मनोरमा पर तो वह प्राण देती थी। ईर्ष्या, क्रोध, मत्सर उसे छू भी न गया था। वह उदार न हो पर कृपण न थी। ठाकुर साहब कभी-कभी उस पर भी बिगड़ जाते थे, मारने दौड़ते थे, दो-एक बार मारा भी था; पर उसके माथे पर जरा भी बल न आता। ठाकुर साहब का सिर भी दुखे, तो उसकी जान निकल जाती थी। वह उसकी स्नेहमयी सेवा ही थी, जिसने ऐसे हिंसक जीव को जकड़ रखा था।

इस वक्त दोनों प्राणियों में कोई बहस छिड़ी हुई थी। ठाकुर साहब झल्ला-झल्ला कर बोल रहे थे और लौंगी अपराधियों की भांति सिर झुकाए खड़ी थी कि मनोरमा ने आकर कहा-बाबूजी आए हैं, आपसे कुछ कहना चाहते हैं।

ठाकुर साहब की भौंहें तन गईं। बोले-कहना क्या चाहते होंगे, रुपए मांगने आए होंगे। अच्छा, जाकर कह दो कि आते हैं, बैठिए।

लौंगी-इनके रुपए दे क्यों नहीं देते? बेचारे गरीब आदमी हैं; संकोच के मारे नहीं मांगते, कई महीने तो चढ़ गए?

ठाकुर-यह भी तुम्हारी मूर्खता थी, जिसकी बदौलत मुझे यह तावान देना पड़ता है। कहता था कि कोई ईसाइन रख लो; दो-चार रुपए में काम चल जाएगा। तुमने कहा-नहीं, कोई लायक आदमी होना चाहिए। इनके लायक होने में शक नहीं, पर यह तो बुरा मालूम होता है कि जब देखो, रुपए के लिए सिर पर सवार। अभी कल कह दिया कि घबराइए नहीं, दस-पांच दिनों में मिल जाएंगे तब फिर भूत की तरह सवार हो गए।

लौंगी-कोई ऐसी ही जरूरत आ पड़ी होगी, तभी आए होंगे। एक सौ बीस रुपए हुए न? मैं लाए देती हूँ।

ठाकुर-हां, संदूक खोलकर लाना तो कोई कठिन काम नहीं। अखर तो उसे होती है, जिसे कुआं खोदना पड़ता है।

लौंगी-वही कुआं तो उन्होंने भी खोदा है। तुम्हें चार महीने तक कुछ न मिले, तो क्या हाल होगा, सोचो। मुझे तो बेचारे पर दया आती है।

यह कहकर लौंगी गई और रुपए लाकर ठाकुर साहब से बोली-लो, दे आओ। सुन लेना, शायद कुछ कहना भी चाहते हों।

ठाकुर-लाई भी तो रुपए, नोट न थे क्या?

लौंगी-जैसे नोट वैसे रुपए, इसमें भी कुछ भेद है?

ठाकुर-अब तुमसे क्या कहूँ। अच्छा रख दो, जाता हूँ। पानी तो नहीं बरस रहा है कि भोग रहे होंगे।

ठाकुर साहब ने झुंझलाकर रुपए उठा लिए और बाहर चले, लेकिन रास्ते में क्रोध शांत हो गया। चक्रधर के पास पहुंचे, तो विनय के देवता बने हुए थे।

चक्रधर-आपको कष्ट देने……

ठाकुर-नहीं-नहीं, मुझे कोई कष्ट नहीं हुआ। मैंने आपसे दस-पांच दिन में देने का वादा किया था। मेरे पास रुपए न थे; पर स्त्रियों को तो आप जानते हैं, कितनी चतुर होती हैं। घर में रुपए निकल आए। यह लीजिए।

चक्रधर-मैं इस वक्त एक दूसरे ही काम से आया हूँ। मुझे एक काम से आगरे जाना है। शायद दो-तीन दिन लगेंगे। इसके लिए क्षमा चाहता हूँ।

ठाकुर-हां-हां, शौक से जाइए, मुझसे पूछने की जरूरत न थी।

ठाकुर साहब अंदर चले गए तब मनोरमा ने पूछा-आप आगरे क्या करने जा रहे हैं? चक्रधर-एक जरूरी काम से जाता हूँ।

मनोरमा-कोई बीमारी है क्या? चक्रधर-नहीं, बीमारी कोई नहीं है।

मनोरमा-फिर क्या काम है, बताते क्यों नहीं? जब तक न बतलाइएगा, मैं जाने न दंगी। चक्रधर-लौटकर बता दूंगा।

मनोरमा-आप मुस्करा रहे हैं ! मैं समझ गई, नौकरी की तलाश में जाते हैं।

चक्रधर-नहीं मनोरमा, यह बात नहीं है। मेरी नौकरी करने की इच्छा नहीं है।

मनोरमा-तो क्या आप हमेशा इसी तरह देहातों में घूमा करेंगे?

चक्रधर-विचार तो ऐसा ही है, फिर जैसी ईश्वर की इच्छा!

मनोरमा-आप रुपए कहाँ से लाएंगे? उन कामों के लिए भी तो रुपयों की जरूरत होती होगी?

चक्रधर-भिक्षा मांगूंगा। पुण्य-कार्य भिक्षा पर ही चलते हैं।

मनोरमा-तो आजकल भी आप भिक्षा मांगते होंगे?

चक्रधर-हां, मांगता क्यों नहीं। न मांगू, तो काम कैसे चले!

मनोरमा-मुझसे तो आपने नहीं मांगा।

चक्रधर-तुम्हारे ऊपर तो विश्वास है कि जब मांगूंगा, तब दे दोगी; इसीलिए कोई विशेष काम आ पड़ने पर मांगूंगा।

मनोरमा-और जो उस वक्त मेरे पास न हुए तो?

चक्रधर-तो फिर कभी मांगूगा!

मनोरमा-तो आप मुझसे अभी मांग लीजिए, अभी मेरे पास रुपए हैं, दे दूंगी। फिर आप न जाने किस वक्त मांग बैठे?

यह कहकर मनोरमा अंदर गई और कल वाले एक सौ बीस रुपए लाकर चक्रधर के सामने रख दिए।

चक्रधर-इस वक्त तो मुझे जरूरत नहीं। फिर कभी ले लूंगा।

मनोरमा-जी नहीं, लेते जाइए। मेरे पास खर्च हो जाएंगे। एक दफे भी बाजार गई तो यह गायब हो जाएंगे। इसी डर के मारे मैं बाजार नहीं जाती।

चक्रधर-तुमने ठाकुर साहब से पूछ लिया है?

मनोरमा- उनसे क्यों पूंछू? गुड़िया लाती हूँ, तो उनसे नहीं पूछती; तो फिर इसके लिए उनसे क्यों पूछू?

चक्रधर-तो फिर यों मैं न लूंगा। यह स्थिति और ही है। यह खयाल हो सकता है कि मैंने तुमसे रुपए ठग लिए। तुम्हीं सोचो, हो सकता है या नहीं?

मनोरमा-अच्छा, आप अमानत समझकर अपने पास रखे रहिए।

इतने में सामने से मुश्की घोड़ों की फिटन जाती हुई दिखाई दी। घोड़ों के साजों पर गंगाजमुनी काम किया हुआ था। चार सवार भाले उठाए पीछे दौड़ते चले आते थे।

चक्रधर-कोई रानी मालूम होती हैं।

मनोरमा-जगदीशपुर की महारानी हैं। जब उनके यहां जाती हूँ, मुझे एक गिनी देती हैं। ये आठों गिनियां उन्हीं की दी हुई हैं। न जाने क्यों मुझे बहुत मानती हैं।

चक्रधर-इनकी कोठी दुर्गाकुंड की तरफ है न ! मैं एक दिन इनके यहां भिक्षा मांगने जाऊंगा।

मनोरमा-मैं जगदीशपुर की रानी होती, तो आपको बिना मांगे ही बहुत-सा धन दे देती। चक्रधर ने मुस्कराकर कहा-तब भूल जाती।

मनोरमा-जी नहीं; मैं कभी न भूलती।

चक्रधर-अच्छा, कभी याद दिलाऊंगा। इस वक्त यह रुपए अपने ही पास रहने दो।

मनोरमा-आपको इन्हें लेते संकोच क्यों होता है? रुपए मेरे हैं, महारानी ने मुझे दिए हैं। मैं इन्हें पानी में डाल सकती हूँ, किसी को मुझे रोकने का क्या अधिकार है ! आप न लेंगे तो मैं सच कहती हूँ, आज ही जाकर इन्हें गंगा में फेंक आऊंगी।

चक्रधर ने धर्म-संकट में पड़कर कहा-तुम इतना आग्रह करती हो, तो मैं लिए लेता हूँ लेकिन इसे अमानत समझूगा।

मनोरमा प्रसन्न होकर बोली-हां, अमानत ही समझ लीजिए।

चक्रधर-तो मैं जाता हूँ। किताब देखती रहना।

मनोरमा-आप अगर मुझसे बिना बताए चले जाएंगे, तो मैं कुछ न पढूंगी।

चक्रधर-यह तो बड़ी टेढ़ी शर्त है। बतला ही दूं। अच्छा, हंसना मत। तुम जरा भी मुस्कराई और मैं चला।

मनोरमा-मैं दोनों हाथों से मुंह बंद किए लेती हूँ।

चक्रधर ने झेंपते हुए कहा-मेरे विवाह की कुछ बातचीत है। मेरी तो इच्छा नहीं है, पर एक महाशय जबरदस्ती खींचे लिए चले जाते हैं।

यह कहकर चक्रधर उठ खड़े हुए। मनोरमा भी उनके साथ-साथ आई। जब वह बरामदे से नीचे उतरे, तो प्रणाम किया और तुरंत अपने कमरे में लौट आई। उसकी आंखें डबडबाई हुई थीं और बार-बार रुलाई आती थी; मानो चक्रधर किसी दूर देश जा रहे हों।

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