चैप्टर 26 गुनाहों का देवता धर्मवीर भारती का उपन्यास | Chapter 26 Gunahon Ka Devta Novel By Dharmveer Bharti Read Online
Chapter 26 Gunahon Ka Devta Novel By Dharmveer Bharti
चंदर चुपचाप शीशे के सामने खड़ा रहा। फिर वह सिनेमा नहीं गया।
चंदर सहसा बहुत शान्त हो गया। एक ऐसे भोले बच्चे की तरह जिसने अपराध कम किया, जिससे नुकसान ज्यादा हो गया था, और जिस पर डाँट बहुत पड़ी थी। अपने अपराध की चेतना से वह बोल भी नहीं पाता था। अपना सारा दुख अपने ऊपर उतार लेना चाहता था। वहाँ एक ऐसा सन्नाटा था, जो न किसी को आने के लिए आमन्त्रित कर सकता था, न किसी को जाने से रोक सकता था। वह एक ऐसा मैदान था, जिस पर की सारी पगडंडियाँ तक मिट गयी हों; एक ऐसी डाल थी, जिस पर के सारे फूल झर गये हों, सारे घोंसले उजड़ गये हों। मन में उसके असीम कुंठा और वेदना थी, ऐसा था कि कोई उसके घाव छू ले, तो वह आँसुओं में बिखर पड़े। वह चाहता था, वह सबसे क्षमा माँग ले, बिनती से, पम्मी से, सुधा से और फिर हमेशा के लिए उनकी दुनिया से चला जाए। कितना दुख दिया था उसने सबको!
इसी मन:स्थिति में एक दिन गेसू ने उसे बुलाया। वह गया। गेसू की अम्मीजान तो सामने आयीं, पर गेसू ने परदे में से ही बातें कीं। गेसू ने बताया कि सुधा का खत आया है कि वह जल्दी ही आएगी, गेसू से मिलने। गेसू को बहुत ताज्जुब हुआ कि चंदर के पास कोई खबर क्यों नहीं आयी!
चंदर जब घर पहुँचा, तो कैलाश का एक खत मिला-
”प्रिय चंदर,
बहुत दिन से तुम्हारा कोई खत नहीं आया, न मेरे पास न इनके पास। क्या नाराज हो हम दोनों से? अच्छा तो लो, तुम्हें एक खुशखबरी सुना दूँ। मैं सांस्कृतिक मिशन में शायद ऑस्ट्रेलिया जाऊँ। डॉक्टर साहब ने कोशिश कर दी है। आधा रुपया मेरा, आधा सरकार का।
तुम्हें भला क्या फुरसत मिलेगी यहाँ आने की! मैं ही इन्हें लेकर दो रोज के लिए आऊँगा। इनकी कोई मुसलमान सखी है वहाँ, उससे ये भी मिलना चाहती हैं। हमारी खातिर का इंतजाम6 रखना-मैं 11 मई को सुबह की गाड़ी से पहुँचूँगा।
तुम्हारा-कैलाश।”
सुधा के आने के पहले चंदर ने घर की ओर नजर दौड़ायी। सिवा ड्राइंगरूम और लॉन के सचमुच बाकी घर इतना गन्दा पड़ा था कि गेसू सच ही कह रही थी कि जैसे घर में प्रेत रहते हों। आदमी चाहे जितना सफाई-पसन्द और सुरुचिपूर्ण क्यों न हो, लेकिन औरत के हाथ में जाने क्या जादू है कि वह घर को छूकर ही चमका देती है। औरत के बिना घर की व्यवस्था सँभल ही नहीं सकती। सुधा और बिनती कोई भी नहीं थी और तीन ही महीने में बँगले का रूप बिगड़ गया था।
उसने सारा बँगला साफ कराया। हालाँकि दो ही दिन के लिए सुधा और कैलाश आ रहे थे, लेकिन उसने इस तरह बँगले की सफाई करायी, जैसे कोई नया समारोह हो। सुधा का कमरा बहुत सजा दिया था और सुधा की छत पर दो पलँग डलवा दिये थे। लेकिन इन सब इंतजामों के पीछे उतनी ही निष्क्रिय भावहीनता थी जैसे कि वह एक होटल का मैनेजर हो और दो आगन्तुकों का इन्तजाम कर रहा हो। बस।
मानसून के दिनों में अगर कभी किसी ने गौर किया हो तो बारिश होने के पहले ही हवा में एक नमी, पत्तियों पर एक हरियाली और मन में एक उमंग-सी छा जाती है। आसमान का रंग बतला देता है कि बादल छानेवाले हैं, बूँदें रिमझिमाने वाली हैं। जब बादल बहुत नजदीक आ जाते हैं, बूँदें पड़ने के पहले ही दूर पर गिरती हुई बूँदों की आवाज वातावरण पर छा जाती है, जिसे धुरवा कहते हैं।
ज्यों-ज्यों सुधा के आने का दिन नजदीक आ रहा था, चंदर के मन में हवाएँ करवटें बदलने लग गयी थीं। मन में उदास सुनसान में धुरवा उमड़ने-घुमड़ने लगा था। मन उदास सुनसान आकुल प्रतीक्षा में बेचैन हो उठा था। चंदर अपने को समझ नहीं पा रहा था। नसों में एक अजीब-सी घबराहट मचलने लगी थी, जिसका वह विश्लेषण नहीं करना चाहता था। उसका व्यक्तित्व अब पता नहीं क्यों कुछ भयभीत-सा था।
इम्तहान खत्म हो रहे थे, और जब मन की बेचैनी बहुत बढ़ जाती थी तो परीक्षकों की आदत के मुताबिक वह कापियाँ जाँचने बैठ जाता था। जिस समय परीक्षकों के घर में पारिवारिक कलह हो, मन में अंतर्द्वंद्व हो या दिमाग में फितूर हो, उस समय उन्हें कॉपियाँ जाँचने से अच्छा शरणस्थल नहीं मिलता। अपने जीवन की परीक्षा में फेल हो जाने की खीझ उतारने के लिए लडक़ों को फेल करने के अलावा कोई अच्छा रास्ता ही नहीं है। चंदर जब बेहद दु:खी होता तो वह कॉपियाँ जाँचता।
जिस दिन सुबह सुधा आ रही थी, उस रात को तो चंदर का मन बिल्कुल बेकाबू-सा हो गया। लगता था जैसे उसने सोचने-विचाने से ही इंकार कर दिया हो। उस दिन चंदर एक क्षण को भी अकेला न रहकर भीड़-भाड़ में खो जाना चाहता था। सुबह वह गंगा नहाने गया, कार लेकर। कॉलेज से लौटकर दोपहर को अपने एक मित्र के यहाँ चला गया। लौटकर आया तो नहाकर एक किताब की दुकान पर चला गया और शाम होने तक वहीं खड़ा-खड़ा किताबें उलटता और खरीदता रहा। वहाँ उसने बिसरिया का गीत-संग्रह देखा जो ‘बिनती’ नाम बदल उसने ‘विप्लव’ नाम से छपवा लिया था और प्रमुख प्रगतिशील कवि बन गया था। उसने वह संग्रह भी खरीद लिया।
अब सुधा के आने में मुश्किल से बारह घंटे की देर थी। उसकी तबीयत बहुत घबराने लगी थी और वह बिसरिया के काव्य-संग्रह में डूब गया। उन सड़े हुए गीतों में ही अपने को भुलाने की कोशिश करने लगा और अन्त में उसने अपने को इतना थका डाला कि तीन बजे का अलार्म लगाकर वह सो गया। सुधा की गाड़ी साढ़े चार बजे आती थी।
जब वह जागा, तो रात अपने मखमली पंख पसारे नींद में डूबी हुई दुनिया पर शान्ति का आशीर्वाद बिखेर रही थी। ठंडे झोंके लहरा रहे थे और उन झोंकों पर पवित्रता छायी हुई थी। यह पछुआ के झोंके थे। ब्राह्म मुहूर्त में प्राचीन आर्यों ने जो रहस्य पाया था, वह धीरे-धीरे चंदर की आँखों के सामने खुलने-सा लगा। उसे लगा, जैसे यह उसके व्यक्तित्व की नयी सुबह है। एक बड़ा शान्त संगीत उसकी पलकों पर ओस की तरह थिरकने लगा।
क्षितिज के पास एक बड़ा-सा सितारा जगमगा रहा था! चंदर को लगा, जैसे यह उसके प्यार का सितारा है जो जाने किस अज्ञात पाताल में डूब गया था और आज से वह फिर उग गया है। उसने एक अन्धविश्वासी भोले बच्चे की तरह उस सितारे को हाथ जोड़कर कहा, ”मेरी कंचन जैसी सुधा रानी के प्यार, तुम कहाँ खो गये थे? तुम मेरे सामने नहीं रहे, मैं जाने किन तूफानों में उलझ गया था। मेरी आत्मा में सारी गुरुता सुधा के प्यार की थी। उसे मैंने खो दिया। उसके बाद मेरी आत्मा पीले पत्ते की तरह तूफान में उड़कर जाने किस कीचड़ में फँस गयी थी। तुम मेरी सुधा के प्यार हो न! मैंने तुम्हें सुधा की भोली आँखों में जगमगाते हुए देखा था। वेदमंत्रों-जैसे इस पवित्र सुबह में आज फिर मेरे पाप में लिप्त तन को अमृत से धोने आये हो। मैं विश्वास दिलाता हूँ कि आज सुधा के चरणों पर अपने जीवन के सारे गुनाहों को चढ़ाकर हमेशा के लिए क्षमा माँग लूँगा। लेकिन मेरी साँसों की साँस सुधा! मुझे क्षमा कर दोगी न?” और विचित्र-से भावावेश और पुलक से उसकी आँख में आँसू आ गये। उसे याद आया कि एक दिन सुधा ने उसकी हथेलियों को होठों से लगाकर कहा था-जाओ, आज तुम सुधा के स्पर्श से पवित्र हो…काश कि आज भी सुधा अपने मिसरी-जैसे होठों से चंदर की आत्मा को चूमकर कहे-जाओ चंदर, अभी तक जिंदगी के तूफान ने तुम्हारी आत्मा को बीमार, अपवित्र कर दिया था…आज से तुम वही चंदर हो। अपनी सुधा के चंदर। हरिणी-जैसी भोली-भाली सुधा के महान पवित्र चंदर…
तैयार होकर चंदर जब स्टेशन पहुँचा, तो वह जैसे मोहाविष्ट-सा था। जैसे वह किसी जादू या टोना पढ़ा-हुआ-सा घूम रहा था और वह जादू था सुधा के प्यार का पुनरावर्तन।
गाड़ी घंटा-भर लेट थी। चंदर को एक पल काटना मुश्किल हो रहा था। अन्त में सिगनल डाउन हुआ। कुलियों में हलचल मची और चंदर पटरी पर झुककर देखने लगा। सुबह हो गयी थी और इंजन दूर पर एक काले दाग-सा दिखाई पड़ रहा था, धीरे-धीरे वह दाग बड़ा होने लगा और लम्बी-सी हरी पूँछ की तरह लहराती हुई ट्रेन आती दिखाई पड़ी। चंदर के मन में आया, वह पागल की तरह दौड़कर वहाँ पहुँच जाए। जिस दिन एक घोर अविश्वासी में विश्वास जाग जाता है, उस दिन वह पागल-सा हो उठता है। उसे लग रहा था जैसे इस गाड़ी में सभी डिब्बे खाली हैं। सिर्फ एक डिब्बे में अकेली सुधा होगी। जो आते ही चंदर को अपनी प्यार-भरी निगाहों में समेट लेगी।
गाड़ी के प्लेटफार्म पर आते ही हलचल बढ़ गयी। कुलियों की दौड़धूप, मुसाफिरों की हड़बड़ी, सामान की उठा-धरी से प्लेटफॉर्म भर गया। चंदर पागलों-सा इस सब भीड़ को चीरकर डिब्बे देखने लगा। एक दफे पूरी गाड़ी का चक्कर लगा गया। कहीं भी सुधा नहीं दिखाई दी। जैसे आँसू से उसका गला रुँधने लगा। क्या आये नहीं ये लोग! किस्मत कितना व्यंग्य करती है उससे! आज जब वह किसी के चरणों पर अपनी आत्मा उत्सर्ग कर फिर पवित्र होना चाहता था, तो सुधा ही नहीं आयी। उसने एक चक्कर और लगाया और निराश होकर लौट पड़ा। सहसा सेकेंड क्लास के एक छोटे-से डिब्बे में से कैलाश ने झाँककर कहा, ”कपूर!’
चंदर मुड़ा, देखा कि कैलाश झाँक रहा है। एक कुली सामान उतारकर खड़ा है। सुधा नहीं है।
जैसे किसी ने झोंके से उसके मन का दीप बुझा दिया। सामान बहुत थोड़ा-सा था। वह डिब्बे में चढ़ कर बोला, ”सुधा नहीं आयी?”
”आयी हैं, देखो न! कुछ तबीयत खराब हो गयी है। जी मितला रहा है।” और उसने बाथरूम की ओर इशारा कर दिया। सुधा बाथरूम में बगल में लोटा रखे सिर झुकाये बैठी थी-”देखो! देखती हो?” कैलाश बोला, ”देखो, कपूर आ गया।”
सुधा ने देखा और मुश्किल से हाथ जोड़ पायी होगी कि उसे मितली आ गयी…कैलाश दौड़ा और उसकी पीठ पर हाथ फेरने लगा और चंदर से बोला-”पंखा लाओ!”
चंदर हतप्रभ था। उसके मन ने सपना देखा था…सुधा सितारों की तरह जगमगा रही होगी और अपनी रोशनी की बाँहों में चंदर के प्राणों को सुला देगी। जादूगरनी की तरह अपने प्यार के पंखों से चंदर की आत्मा के दाग पोंछ देगी। लेकिन यथार्थ कुछ और था। सुधा जादूगरनी, आत्मा की रानी, पवित्रता की साम्राज्ञी सुधा, बाथरूम में बैठी है और उसका पति उसे सान्त्वना दे रहा था।
”क्या कर रहे हो, चंदर!…पंखा उठाओ जल्दी से।” कैलाश ने व्यग्रता से कहा। चंदर चौंक उठा और जाकर पंखा झलने लगा। थोड़ी देर बाद मुँह धोकर सुधा उठी और कराहती हुई-सी जाकर सीट पर बैठ गयी। कैलाश ने एक तकिया पीछे लगा दिया और वह आँख बन्द करके लेट गयी।
चंदर ने अब सुधा को देखा। सुधा उजड़ चुकी थी। उसका रस मर चुका था। वह अपने यौवन और रूप, चंचलता और मिठास की एक जर्द छाया मात्र रह गयी थी। चेहरा दुबला पड़ गया था और हड्डियाँ निकल आयी थीं। चेहरा दुबला होने से लगता था, आँखें फटी पड़ती हैं। वह चुपचाप आँख बन्द किये पड़ी थी। चंदर पंखा हाँक रहा था, कैलाश एक सूटकेस खोलकर दवा निकाल रहा था। गाड़ी यहीं आकर रुक जाती है, इसलिए कोई जल्दी नहीं थी। कैलाश ने दवा दी। सुधा ने दवा पी और फिर उदास, बहुत बारीक, बहुत बीमार स्वर में बोली, चंदर, अच्छे तो हो! इतने दुबले कैसे लगते हो? अब कौन तुम्हारे खाने-पीने की परवाह करता होगा!” सुधा ने एक गहरी साँस ली। कैलाश बिस्तर लपेट रहा था।
”तुम्हें क्या हो गया है, सुधा?”
”मुझे सुख-रोग हो गया है!” सुधा बहुत क्षीण हँसी हँसकर बोली, ”बहुत सुख में रहने से ऐसा ही हो जाता है।”
चंदर चुप हो गया। कैलाश ने बिस्तर कुली को देते हुए कहा, ”इन्होंने तो बीमारी के मारे हम लोगों को परेशान कर रखा है। जाने बीमारियों को क्या मुहब्बत है इनसे! चलो उठो।” सुधा उठी।
कार पर सुधा के साथ पीछे सामान रख दिया गया और आगे कैलाश और चन्दर बैठे। कैलाश बोला, चंदर तुम बहुत धीमे ड्राइव करना वरना इन्हें चक्कर आने लगेगा…”
कार चल दी। चंदर कैलाश की विदेश-यात्रा और कैलाश चन्दर के कॉलेज के बारे में बात करते रहे। मुश्किल से घर तक कार पहुँची होगी कि कैलाश बोला, ”यार चंदर, तुम्हें तकलीफ तो होगी लेकिन एक दिन के लिए कार तुम मुझे दे सकते हो?”
”क्यों?”
”मुझे जरा रीवाँ तक बहुत जरूरी काम से जाना है, वहाँ कुछ लोगों से मिलना है, कल दोपहर तक मैं चला आऊँगा।”
”इसके मतलब मेरे पास नहीं रहोगे एक दिन भी?”
”नहीं, इन्हें छोड़ जाऊँगा। लौटकर दिन-भर रहूँगा।”
”इन्हें छोड़ जाओगे? नहीं भाई, तुम जानते हो कि आजकल घर में कोई नहीं है।” चंदर ने कुछ घबराकर कहा।
”तो क्या हुआ, तुम तो हो!” कैलाश बोला और चंदर के चेहरे की घबराहट देखकर हँसकर बोला, ”अरे यार, अब तुम पर इतना अविश्वास नहीं है। अविश्वास करना होता, तो ब्याह के पहले ही कर लेते।”
चंदर मुस्करा उठा, कैलाश ने चंदर के कन्धे पर हाथ रखकर धीमे से कहा, ताकि सुधा न सुन पाये-”वैसे चाहे मुझे कुछ भी असन्तोष क्यों न हो, लेकिन इनका चरित्र तो सोने का है, यह मैं खूब परख चुका हूँ। इनका ऐसा चरित्र बनाने के लिए तो मैं तुम्हें बधाई दूँगा, चंदर! और फिर आज के युग में!”
चंदर ने कुछ जवाब नहीं दिया।
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सूरज का सातवां घोड़ा धर्मवीर भारती का उपन्यास