चैप्टर 25 गुनाहों का देवता धर्मवीर भारती का उपन्यास | Chapter 25 Gunahon Ka Devta Novel By Dharmveer Bharti Read Online

चैप्टर 25 गुनाहों का देवता धर्मवीर भारती का उपन्यास | Chapter 25 Gunahon Ka Devta Novel By Dharmveer Bharti Read Online

Chapter 25 Gunahon Ka Devta Novel By Dharmveer BhartiChapter 25 Gunahon Ka Devta Novel By Dharmveer Bharti

गर्मियों की छुट्टियाँ हो गयी थीं और चंदर छुट्टियाँ बिताने दिल्ली गया था। सुधा भी आयी हुई थी। लेकिन चंदर और सुधा में बोलचाल नहीं थी। 

एक दिन शाम के वक्त डॉक्टर साहब ने चंदर से कहा, चंदर, सुधा इधर बहुत अनमनी रहती है, जाओ इसे कहीं घुमा लाओ।” 

चंदर बड़ी मुश्किल से राजी हुआ। दोनों पहले कनॉट प्लेस पहुँचे। सुधा ने बहुत फीकी और टूटती हुई आवाज में कहा, ”यहाँ बहुत भीड़ है, मेरी तबीयत घबराती है।” 

चंदर ने कार घुमा दी शहर से बाहर रोहतक की सड़क पर, दिल्ली से पन्द्रह मील दूर। चंदर ने एक बहुत हरी-भरी जगह में कार रोक दी। किसी बहुत पुराने पीर का टूटा-फूटा मजार था और कब्र के चबूतरे को फोड़ कर एक नीम का पेड़ उग आया था। चबूतरे के दो-तीन पत्थर गिर गये थे। चार-पाँच नीम के पेड़ लगे थे और कब्र के पत्थर के पास एक चिराग बुझा हुआ पड़ा था और कई एक सूखी हुई फूल-मालाएँ हवा से उड़कर नीचे गिर गयी थीं। कब्र के आस-पास ढेरों नीम के तिनके और सूखे हुए नीम के फूल जमा थे।

सुधा जाकर चबूतरे पर बैठ गयी। दूर-दूर तक सन्नाटा था। न आदमी न आदमजाद। सिर्फ गोधूलि के अलसाते हुए झोंकों में नीम चरमरा उठते थे। चंदर आकर सुधा की दूसरी ओर बैठ गया। चबूतरे पर इस ओर सुधा और उस ओर चंदर बीच में चिर-नीरव कब्र…

सुधा थोड़ी देर बाद मुड़ी और चंदर की ओर देखा। चंदर एकटक कब्र की ओर देख रहा था। सुधा ने एक सूखा हार उठाया और चंदर पर फेंककर कहा, चंदर, क्या हमेशा मुझे इसी भयानक नरक में रखोगे? क्या सचमुच हमेशा के लिए तुम्हारा प्यार खो दिया है मैंने?”

”मेरा प्यार?” चंदर हँसा, उसकी हँसी उस सन्नाटे से भी ज्यादा भयंकर थी…”मेरा प्यार! अच्छी याद दिलायी तुमने! मैं आज प्यार में विश्वास नहीं करता। या यह कहूँ कि प्यार के उस रूप में विश्वास नहीं करता!”

”फिर?”

”फिर क्या, उस समय मेरे मन में प्यार का मतलब था त्याग, कल्पना, आदर्श। आज मैं समझ चुका हूँ कि यह सब झूठी बातें हैं, खोखले सपने हैं!”

”तब?”

”तब! आज मैं विश्वास करता हूँ कि प्यार के माने सिर्फ एक है; शरीर का सम्बन्ध! कम-से-कम औरत के लिए। औरत बड़ी बातें करेगी, आत्मा, पुनर्जन्म, परलोक का मिलन, लेकिन उसकी सिद्धि सिर्फ शरीर में है और वह अपने प्यार की मंजिलें पार कर पुरुष को अन्त में एक ही चीज देती है-अपना शरीर। मैं तो अब यह विश्वास करता हूँ सुधा कि वही औरत मुझे प्यार करती है, जो मुझे शरीर दे सकती है। बस, इसके अलावा प्यार का कोई रूप अब मेरे भाग्य में नहीं।” चंदर की आँख में कुछ धधक रहा था…सुधा उठी, और चंदर के पास खड़ी हो गयी-”चंदर, तुम भी एक दिन ऐसे हो जाओगे, इसकी मुझे कभी उम्मीद नहीं थी। काश कि तुम समझ पाते कि…” सुधा ने बहुत दर्द भरे स्वर में कहा।

”स्नेह है!” चंदर ठठाकर हँस पड़ा-और उसने सुधा की ओर मुड़कर कहा, ”और अगर मैं उस स्नेह का प्रमाण माँगूँ तो? सुधा!” दाँत पीसकर चंदर बोला, ”अगर तुमसे तुम्हारा शरीर माँगूँ तो?”

चंदर!” सुधा चीखकर पीछे हट गयी। चंदर उठा और पागलों की तरह उसने सुधा को पकड़ लिया, ”यहाँ कोई नहीं है-सिवा इस कब्र के। तुम क्या कर सकती हो? बहुत दिन से मन में एक आग सुलग रही है। आज तुम्हें बर्बाद कर दूँ, तो मन की नारकीय वेदना बुझ जाए….बोलो!” उसने अपनी आँख की पिघली हुई आग सुधा की आँखों में भरकर कहा।

सुधा क्षण-भर सहमी-पथरायी दृष्टि से चंदर की ओर देखती रही, फिर सहसा शिथिल पड़ गयी और बोली, चंदर! मैं किसी की पत्नी हूँ। यह जन्म उनका है। यह माँग का सिन्दूर उनका है। इस शरीर का श्रृंगार उनका है। मुझ गला घोंटकर मार डालो। मैंने तुम्हें बहुत तकलीफ दी है। लेकिन…”

”लेकिन…” चंदर हँसा और सुधा को छोड़ दिया, ”मैं तुम्हें स्नेह करती हूँ, लेकिन यह जन्म उनका है। यह शरीर उनका है-ह:! ह:! क्या अन्दाज हैं प्रवंचना के। जाओ सुधा…मैं तुमसे मजाक कर रहा था। तुम्हारे इस जूठे तन में रखा क्या है?”

सुधा अलग हटकर खड़ी हो गयी। उसकी आँखों से चिनगारियाँ झरने लगीं, चंदर! तुम जानवर हो गये; मैं आज कितनी शर्मिन्दा हूँ। इसमें मेरा कसूर है, चंदर! मैं अपने को दंड दूँगी, चंदर! मैं मर जाऊँगी! लेकिन तुम्हें इंसान बनना पड़ेगा, चंदर!” और सुधा ने अपना सिर एक टूटे हुए खम्भे पर पटक दिया।

चंदर की आँख खुल गयी, वह थोड़ी देर तक सपने पर सोचता रहा। फिर उठा। बहुत अजब-सा मन था उसका। बहुत पराजित, बहुत खोया हुआ-सा, बेहद खिसियाहट से भरा हुआ था। उसके मन में एकाएक खयाल आया कि वह किसी मनोरंजन में जाकर अपने को डुबो दे-बहुत दिनों से उसने सिनेमा नहीं देखा था। उन दिनों बर्नार्ड शॉ का ‘सीजर ऐंड क्लियोपेट्रा’ लगा हुआ था, उसने सोचा कि पम्मी की मित्रता का परिपाक सिनेमा में हुआ था, उसका अन्त भी वह सिनेमा देखकर मनाएगा। उसने कपड़े पहने, चार बजे से मैटिनी थी, और वक्त हो रहा था। कपड़े पहनकर वह शीशे के सामने आकर बाल सँवारने लगा। उसे लगा, शीशे में पड़ती हुई उसकी छाया उससे कुछ भिन्न है, उसने और गौर से देखा-छाया रहस्यमय ढंग से मुस्करा रही थी; वह सहसा बोली-

”क्या देख रहा है?” ‘मुखड़ा क्या देखे दरपन में।’ एक लड़की से पराजित और दूसरी से सपने में प्रतिहिंसा लेने का कलंक नहीं दिख पड़ता तुझे? अपनी छवि निरख रहा है? पापी! पतित!”

कमरे की दीवारों ने दोहराया-”पापी! पतित!”

चंदर तड़प उठा, पागल-सा हो उठा। कंघा फेंककर बोला, ”कौन है पापी? मैं हूँ पापी? मैं हूँ पतित? मुझे तुम नहीं समझते। मैं चिर-पवित्र हूँ। मुझे कोई नहीं जानता।”

”कोई नहीं जानता! हा, हा!” प्रतिबिम्ब हँसा, ”मैं तुम्हारी नस-नस जानता हूँ। तुम वही हो न जिसने आज से डेढ़ साल पहले सपना देखा सुधा के हाथ से लेकर अमृत बाँटने का, दुनिया को नया सन्देश देकर पैगम्बर बनने का। नया सन्देश! खूब नया सन्देश दिया मसीहा! पम्मी…बिनती…सुधा…कुछ और छोकरियाँ बटोर ले। चरित्रहीन!”

”मैंने किसी को नहीं बटोरा! जो मेरी जिंदगी में आया, अपने-आप आया, जो चला गया, उसे मैंने रोका नहीं। मेरे मन में कहीं भी अहम की प्यास नहीं थी, कभी भी स्वार्थ नहीं था। क्या मैं चाहता तो सुधा को अपने एक इशारे से अपनी बाँहों में नहीं बाँध सकता था!”

”शाबाश! और नहीं बाँध पाये, तो सुधा से भी जी भरकर बदला निकाल रहा है। वह मर रही है और तू उस पर नमक छिड़कने से बाज नहीं आया। और आज तो उसे एकान्त में भ्रष्ट करने का सपना देख अपनी पलकों को देवमन्दिर की तरह पवित्र बना लिया तूने! कितनी उन्नति की है तेरी आत्मा ने! इधर आ, तेरा हाथ चूम लूँ।”

”चुप रहो! पराजय की इस वेला में कोई भी व्यंग्य करने से बाज नहीं आता। मैं पागल हो जाऊँगा।”

”और अभी क्या पागलों से कम है तू? अहंकारी पशु! तू बर्टी से भी गया-गुजरा है। बर्टी पागल था, लेकिन पागल कुत्तों की तरह काटना नहीं जानता था। तू काटना भी जानता है और अपने भयानक पागलपन को साधना और त्याग भी साबित करता रहता है। दम्भी!”

”बस करो, अब तुम सीमा लाँघ रहे हो।” चंदर ने मुठ्ठियाँ कसकर जवाब दिया।

”क्यों, गुस्सा हो गये, मेरे दोस्त! अहंवादी इतने बड़े हो और अपनी तस्वीर देखकर नाराज होते हो! आओ, तुम्हें आहिस्ते से समझाऊँ, अभागे! तू कहता है तूने स्वार्थ नहीं किया। विकलांग देवता! वही स्वार्थी है, जो अपने से ऊपर नहीं उठ पाता! तेरे लिए अपनी एक साँस भी दूसरे के मन के तूफान से भी ज्यादा महत्वपूर्ण रही है। तूने अपने मन की उपेक्षा के पीछे सुधा को भट्टी में झोंक दिया। पम्मी के अस्वस्थ मन को पहचानकर भी उसके रूप का उपभोग करने में नहीं हिचका, बिनती को प्यार न करते हुए भी बिनती को तूने स्वीकार किया, फिर सबों का तिरस्कार करता गया…और कहता है तू स्वार्थी नहीं। बर्टी पागल हो, लेकिन स्वार्थी नहीं है।”

”ठहरो, गालियाँ मत दो, मुझे समझाओ न कि मेरे जीवन-दर्शन में कहाँ पर गलती रही है! गालियों से मेरा कोई समझौता नहीं।”

”अच्छा, समझो! देखो, मैं यह नहीं कहता कि तुम ईमानदार नहीं हो, तुम शक्तिशाली नहीं हो, लेकिन तुम अन्तर्मुखी रहे, घोर व्यक्तिवादी रहे, अहंकारग्रस्त रहे। अपने मन की विकृतियों को भी तुमने अपनी ताकत समझने की कोशिश की। कोई भी जीवन-दर्शन सफल नहीं होता, अगर उसमें बाह्य यथार्थ और व्यापक सत्य धूप-छाँह की तरह न मिला हो। मैं मानता हूँ कि तूने सुधा के साथ ऊँचाई निभायी, लेकिन अगर तेरे व्यक्तित्व को, तेरे मन को, जरा-सी ठेस पहुँचती, तो तू गुमराह हो गया होता। तूने सुधा के स्नेह का निषेध कर दिया। तूने बिनती की श्रद्धा का तिरस्कार किया। तूने पम्मी की पवित्रता भ्रष्ट की…और इसे अपनी साधना समझता है? तू याद कर; कहाँ था तू एक वर्ष पहले और अब कहाँ है?”

चंदर ने बड़ी कातरता से प्रतिबिम्ब की ओर देखा और बोला, ”मैं जानता हूँ, मैं गुमराह हूँ लेकिन बेईमान नहीं! तुम मुझे क्यों धिक्कार रहे हो! तुम कोई रास्ता बता दो न! एक बार उसे भी आजमा लूँ।”

”रास्ता बताऊँ! जो रास्ता तुमने एक बार बनाया था, उसी पर तुम मजबूत रह पाये? फिर क्या एक के बाद दूसरे रास्ते पर चहलदमी करना चाहते हो? देखो कपूर, ध्यान से सुनो। तुमसे शायद किसी ने कभी कहा था, शायद बर्टी ने कहा था कि आदमी तभी तक बड़ा रहता है जब तक वह निषेध करता चलता है। पता नहीं किस मानसिक आवेश में एक के बाद दूसरे तत्व का विध्वंस और विनाश करता चलता है। हर चट्टान को उखाड़क फेंकता रहता है और तुमने यही जीवन-दर्शन अपना लिया था, भूल से या अपने अनजाने में ही। तुम्हारी आत्मा में एक शक्ति थी, एक तूफान था। लेकिन यह लक्ष्य भ्रष्ट था। तुम्हारी जिंदगी में लहरें उठने लगीं, लेकिन गहराई नहीं। और याद रखो चंदर, सत्य उसे मिलता है जिसकी आत्मा शान्त और गहरी होती है समुद्र की गहराई की तरह। समुद्र की ऊपरी सतह की तरह जो विक्षुब्ध और तूफानी होता है, उसके अंतर्द्वंद्व में चाहे कितनी गरज हो लेकिन सत्य की शान्त अमृतमयी आवाज नहीं होती।”

”लेकिन वह गहराई मुझे मिली नहीं?”

”बताता हूँ-घबराते क्यों हो! देखो, तुममें बहुत बड़ा अधैर्य रहा है। शक्ति रही, पर धैर्य और दृढ़ता बिल्कुल नहीं। तुम गम्भीर समुद्रतल न बनकर एक सशक्त लेकिन अशान्त लहर बन गये, जो हर किनारे से टकराकर उसे तोड़ने के लिए व्यग्र हो उठी। तुममें ठहराव नहीं था। साधना नहीं थी! जानते हो क्यों? तुम्हें जहाँ से जरा भी तकलीफ मिली, अवरोध मिला वहीं से तुमने अपना हाथ खींच लिया! वहीं तुम भाग खड़े हुए। तुमने हमेशा उसका निषेध किया-पहले तुमने समाज का निषेध किया, व्यक्ति को साधना का केन्द्र बनाया; फिर व्यक्ति का भी निषेध किया। अपने विचारों में, अन्तर्मुखी भावनाओं में डूब गये, कर्म का निषेध किया। फिर तो कर्म में ऐसी भागदौड़, ऐसी विमुखता शुरू हुई कि बस! न मानवता का प्यार जीवन में प्रतिफलित कर सका, न सुधा का। पम्मी हो या बिनती, हरेक से तू निष्क्रिय खिलौने की तरह खेलता गया। काश कि तूने समाज के लिए कुछ किया होता! सुधा के लिए कुछ किया होता, लेकिन तू कुछ न कर पाया। जिसने तुझे जिधर चाहा, उधर उत्प्रेरित कर दिया और तू अंधे और इच्छाविहीन परतंत्र अंधड़ की तरह उधर ही हू-हू करता हुआ दौड़ गया। माना मैंने कि समाज के आधार पर बने जीवन-दर्शन में कुछ कमियाँ हैं: लेकिन अंशत: ही उसे स्वीकार कर कुछ काम करता, माना कि सुधा के प्यार से तुझे तकलीफ हुई, पर उसकी महत्ता के ही आधार पर तू कुछ निर्माण कर ले जाता। लेकिन तू तो जरा-से अवरोध के बहाने सम्पूर्ण का निषेध करता गया। तेरा जीवन निषेधों की निष्क्रियता की मानसिक प्रतिक्रियाओं की श्रृंखला रहा है। अभागे, तूने हमेशा जिंदगी का निषेध किया है। दुनिया को स्वीकार करता, यथार्थ को स्वीकार करता, जिंदगी को स्वीकार करता और उसके आधार पर अपने मन को, अपने मन के प्यार को, अपने जीवन को सन्तुलित करता, आगे बढ़ता, लेकिन तूने अपनी मन की गंगा को व्यक्ति की छोटी-सी सीमा में बाँध लिया, उसे एक पोखरा बना दिया, पानी सड़ गया, उसमें गंध आने लगी, सुधा के प्यार की सीपी जिसमें सत्य और सफलता का मोती बन सकता था, वह मर गयी और रुके हुए पानी में विकृति और वासना के कीड़े कुलबुलाने लगे। शाबाश! क्या अमृत पाया है तूने! धन्य है, अमृत-पुत्र!”

”बस करो! यह व्यंग्य मैं नहीं सह सकता! मैं क्या करता!”

”कैसी लाचारी का स्वर है! छिह, असफल पैगम्बर! साधना यथार्थ को स्वीकार करके चलती है, उसका निषेध करके नहीं। हमारे यहाँ ईश्वर को कहा गया है नेति नेति, इसका मतलब यह नहीं कि ईश्वर परम निषेध स्वरूप है। गलत, नेति में ‘न’ तो केवल एक वर्ण है। ‘इति’ दो वर्ण हैं। एक निषेध तो कम-से-कम दो स्वीकृतियाँ। इसी अनुपात में कल्पना और यथार्थ का समन्वय क्यों नहीं किया तूने?”

”मैं नहीं समझ पाता-यह दर्शन मेरी समझ में नहीं आता!”

”देखो, इसको ऐसे समझो। घबराओ मत! कैलाश ने अगर नारी के व्यक्तित्व को नहीं समझा, सुधा की पवित्रता को तिरस्कृत किया, लेकिन उसने समाज के लिए कुछ तो किया। गेसू ने अपने विवाह का निषेध किया, लेकिन अख्तर के प्रति अपने प्यार का निषेध तो नहीं किया। अपने व्यक्तित्व का निर्माण किया। अपने चरित्र का निर्माण किया। यानी गेसू, एक लड़की से तुम हार गये, छिह!”

”लेकिन मैं कितना थक गया था, यह तो सोचो। मन को कितनी ऊँची-नीची घाटियों से, मौत से भी भयानक रास्तों से गुजरने में और कोई होता तो मर गया होगा। मैं जिंदा तो हूँ!”

”वाह, क्या जिंदगी है!”

”तो क्या करूँ, यह रास्ता छोड़ दूँ? यह व्यक्तित्व तोड़ डालूँ?”

”फिर वही निषेध और विध्वंस की बातें। छिह देखो, चलने को तो गाड़ी का बैल भी रास्ते पर चलता है! लेकिन सैकड़ों मील चलने के बाद भी वह गाड़ी का बैल ही बना रहता है। क्या तुम गाड़ी के बैल बनना चाहते हो? नहीं कपूर! आदमी जिंदगी का सफर तय करता है। राह की ठोकरें और मुसीबतें उसके व्यक्तित्व को पुख्ता बनाती चलती हैं, उसकी आत्मा को परिपक्व बनाती चलती हैं। क्या तुममें परिपक्वता आयी? नहीं। मैं जानता हूँ, तुम अब मेरा भी निषेध करना चाहते हो। तुम मेरी आवाज को भी चुप करना चाहते हो। आत्म-प्रवंचना तो तेरा पेशा हो गया है। कितना खतरनाक है तू अब…तू मेरा भी…तिरस्कार…करना…चाहता…है।” और छाया, धीरे-धीरे एक वह बिन्दु बनकर अदृश्य हो गयी।

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