चैप्टर 4 प्यासा सावन गुलशन नंदा का उपन्यास | Chapter 4 Pyasa Sawan Gulshan Nanda Novel

चैप्टर 4 प्यासा सावन गुलशन नंदा का उपन्यास | Chapter 4 Pyasa Sawan Gulshan Nanda Novel, Gulshan Nanda Ka Upanyas 

Chapter 4 Pyasa Sawan Gulshan Nanda

Chapter 4 Pyasa Sawan Gulshan Nanda

कुछ क्षणों तक मौन छाया रहा। राकेश मधुर कल्पना में खोया हुआ सड़क को और अर्चना राकेश को देखती रही।

” आपका नाम?” वह एकाएक पूछ बैठा।

“अर्चना!”

“मेरा नाम राकेश है।”

“मैं जानती हूं।”

“मैंने सोचा शायद रजिस्टर में नाम लिखने के बाद आप भुला देती h9n।”

“जी नहीं! चेहरे भले ही याद ना रहे, किंतु नाम इतना शीघ्र नहीं भूलती।”

“किंतु अपनी बात इसके विपरीत है। नाम प्रायः भूल जाता हूं, किंतु एक बार देखी छवि नहीं भूलती और कुछ की तो मन मस्तिष्क में अंकित होकर रह जाती है।”

 अर्चना को कनखियों से देखता हुआ वह मुस्कुराया

” अपने-अपने धंधे की बात है। कहिए आप क्या करते हैं?”

“ऐश करता हूं अर्थात कुछ दिन पहले विद्यार्थी था। परीक्षा समाप्त हुई और सीधा चला आया कश्मीर मनोरंजन के लिए।”

“सुंदर! कब तक रहिएगा यहां?”

“जब तक यहां का मौसम सुहावना रहेगा।”

“वह तो संसार रहने तक रहेगा ऐसे ही यूं ही सुहाना और सुंदर।”

“तो ठीक है! जब तक संसार है हम भी यही रहेंगे।”

“अकेले ही?”

“जी!” वह चौंका।

“मेरा मतलब है यह सुंदर दृश्य, यह मोहक घाटी और मनोहर वातावरण कभी-कभी भयानक भी लगने लगता है, जब आदमी अकेला हो।” अर्चना मुस्कुराते हुए बोली।

“यह अकेलापन ही मेरा सबसे अच्छा साथी है।” राकेश ने उत्तर दिया।

अर्चना पलटकर राकेश के चेहरे को देखने लगी, जिस पर चंचलता झलक रही थी। राकेश ने भी उस बड़ी-बड़ी मद भरी आंखों में देखा और धीमे स्वर में बोला, ” शायद आप भी तो इस घाटी में अकेली है।”

“नहीं तो! जैसे मैंने कहा है, अपना तो काम ही ऐसा है कि अकेलापन अनुभव नहीं होता। भांति भांति के लोग मिलते हैं नित नए कैरेक्टर्स।”

“किंतु कभी सैकड़ों परिचितों के होते हुए भी इंसान किसी एक को भी अपना नहीं समझ पाता।”

अर्चना चुप हो गई। वह इस विषय को बढ़ाना नहीं चाहती थी। कार अब भरे बाजार में पहुंच गई थी।

“कृपया मुझे यही उतार दीजिए।” अर्चना ने प्रार्थना की।

राकेश ने कार रोक दी। अर्चना द्वार खोलकर नीचे उतर गई।

“क्या मैं आपकी कोई सहायता नहीं कर सकता?”

“नहीं धन्यवाद!” अर्चना ने कहा, ” हां मैं भूल ही गई, आज हमारे होटल स्नो लैंड की वर्षगांठ है। आज के दिन कमला जी अपने कस्टमर को बहुत बड़ी पार्टी देती हैं। मैं पार्टी के लिए कुछ सामान खरीद कर तुरंत वापस पहुंचना चाहती हूं।”

” मैं आपकी प्रतीक्षा करूं?”

“दो काम एक साथ नहीं हो सकते। आप मनोरंजन के लिए निकले हैं। अच्छा, तो शाम को फिर भेंट होगी।” यह कहते हुए अर्चना आगे बढ़ गई।

कार स्टार्ट करने के पूर्व राकेश की दृष्टि अपने साथ की सीट पर पड़ी। अर्चना अपनी ऐनक वहीं भूल गई थी। राकेश ने ऐनक उठा ली और खिड़की के बीच से ही उसकी दृष्टि अर्चना को खोजने लगी। परंतु वह कहीं भीड़ में खो चुकी थी। वह कार का द्वार खोल कर तेजी से बाहर निकल आया और अर्चना को ढूंढने का प्रयत्न करने लगा। दो एक बार उसका नाम लेकर पुकारा भी, किंतु व्यर्थ। वह बहुत आगे निकल गई थी। न जाने कहां चली गई थी? 

सड़क पर एक स्थान पर पानी भरा था। राकेश का पैर किसी चीज से टकराया और वह पानी में जा गिरा। उसके कपड़े पानी और कीचड़ में सन गए। कुछ जाने वाले उसे गिरता देख कर जोर से हंसने लगे। हंसने की आवाज सुनकर अर्चना एकाएक पलटी। राकेश को इस दशा में देखकर वह घबरा गई और उसके पास जाते हुए बोली, “राकेश तुम?”

हंसते हुए लोग सहसा चुप हो गए। उन्होंने पहले सुंदर मुखड़े को देखा और फिर राकेश की असहाय विवश सूरत को। वह अर्चना की ओर बेबसी से देखे जा रहा था। अभी तक उसके हाथ में अर्चना की ऐनक थी। दोनों कुछ देर तक एक दूसरे को देखते रहे। फिर अर्चना उसकी समीप आई और हाथ बढ़ाकर सहारा दिए हुए उसे कार तक ले आई। राकेश ने कहा –

“लो! आप की नजर लग गई हमें!”

“वह कैसे?”

“हमारा मनोरंजन तो यहीं समाप्त हो गया। अब तो हमें बस होटल ही लौटना होगा। इसलिए यही ठीक होगा कि हम आपकी प्रतीक्षा करें।”

“किंतु मुझे तो यहां लगभग एक डेढ़ घंटा लग जाएगा।” अर्चना ने घबराकर कहा।

“बस सिर्फ एक घंटा।” राकेश मुस्कुराया। अर्चना कुछ शर्मा गई।

राकेश ने उसकी बड़ी-बड़ी रतनार आंखों में जाते हुए कहा, ” इसी बहाने आने जाने वालों की कुछ रौनक ही देख लूंगा।”

अर्चना लजा सी गई। फिर वह पलटी और धीरे-धीरे बाजार की भीड़ में खो गई। राकेश उसे जाते हुए कुछ देर तक देखता रहा और फिर अपनी विचारधारा में खो गया।

स्नो लैंड होटल का हॉल अतिथियों से खचाखच भरा हुआ था। प्रत्येक व्यक्ति अपनी सुंदरतम वस्त्रों में था। विशेषत: स्त्रियों की वेशभूषा तो अत्यंत भड़कीली थी। हॉल को चीनी ढंग की कंदीली झंडियों और झालरों से सजाया गया था। छत से लटकते झाड़ फानूस और रंग-बिरंगे जगमगाते बिजली के बल्बों ने समा बांध दिया था। अतिथियों में संसार के विभिन्न प्रदेशों के लोग उपस्थित थे। स्त्रियों ने अपने अपने प्रदेशों के पहनावे धारण कर रखे थे। कुछ स्त्रियां अपने प्रदेश के उत्कृष्ट सौंदर्य का प्रतिनिधित्व कर रही थी। एक अंतरराष्ट्रीय मनोरंजन का समारोह सा लग रहा था। कमला जी हॉल के एक सिरे पर एक ऊंची सुनारी कुर्सी पर विराजमान थी। होटल का फाउंडेशन डे मनाते हुए वह एक विशेष गौरव का अनुभव कर रही थी, मानो वह कोई रानी हो और उन्हें अभी राजमुकुट पहनाया जाने वाला हो। उनके एक हाथ में कोमल जापानी पंखा था। आने वाले अतिथियों का स्वागत वह बड़े सुंदर ढंग से इसी पंखे द्वारा करती बड़ी अदा से पंखे को आंखों तक ले जाती है और फिर थोड़ा सा झुक कर किसी ओर बैठने का संकेत करती।

जब बाहर से आए हुए अतिथि और होटल में ठहरे हुए यात्री हॉल में एकत्रित हो गए, तो कमला जी ने उठकर एक संक्षिप्त सा भाषण दिया उस स्वागत भाषण का प्रत्येक शब्द समयानुकूल नपा तुला और प्रभावित करने वाला था। भाषण समाप्त करके तालियों की गूंज में कमला जी अपनी सुनहरी कुर्सी पर बैठी ही थी कि राकेश ने हाल में प्रवेश किया। उसके हाथ में लाल गुलाबों का एक गुच्छा था, जिसे बड़े-बड़े मोहक ढंग से रेवान की डोरी से बांधा गया था। राकेश बड़ी सौम्यता से धीरे-धीरे कमला जी की कुर्सी की ओर बढ़ा और सम्मान सहित लाल गुलाब का उपहार उन्हें भेंट किया। कमला जी ने राकेश को विविध दृष्टि से देखा। हल्की सी मुस्कान उनके होठों पर थिरकी और फिर जाने क्यों की उनकी आंखों में आंसू छलछला आए। गुलाबों के गुच्छों को लेकर करुण भाव से उन्होंने वक्ष से लगा लिया। और फिर अनायास खिले हुए गुलाब को चूम लिया क्षण भर के लिए ना जाने वह किस कल्पना में खो गई।

राकेश मुड़ा और एक खाली कुर्सी पर जा बैठा। उसकी दृष्टि हॉल में चारों ओर अर्चना को खोज रही थी अर्चना ने उसे कमला जी को लाल गुलाब भेंट करते हुए देख लिया था और अब उसकी ओर देखकर मुस्कुरा रही थी। वह मुस्कान अर्थपूर्ण थी। मन ही मन वह राकेश की सूझबूझ और अवसरवादिता की प्रशंसा कर रही थी।

अर्चना शुद्ध राजस्थानी वेशभूषा में थी। काली मखमल की कसी हुई चोली, चोली में दोनों और वक्ष के स्थान पर रूपहली तारे, सिर पर ऊंचा चौक चौक की नोक से लिपटा कमर तक का लहराता हुआ सफेद रेशमी दुपट्टा, गले में बड़े-बड़े मोतियों की जगमगाती माला, कमर में टखनों तक गिरा हुआ सुनहरे तारों से कढ़ा गहरे लाल रंग का लहरदार लहंगा, नंगा दूधिया पेट जो उसके आभूषणों की चमक में भी दर्शकों को अपनी ओर आकर्षित कर रहा था, गोरी गोरी बाहों में सोने के चमकते बाजूबंद, लहंगे के नीचे कमल फूल से किंतु बेचैन पांव, जैसे किसी ने फरी पर दो फाख्ताएं छोड़ दी हों। यह थी अर्चना और उसका हार सिंगार। संपूर्ण हॉल का केंद्र बिंदु बनी हुई थी वह। राकेश इस अप्सरा को देखता ही रहा। उसे मालूम नहीं था कि वस्त्राभूषण नारी के सौंदर्य में कितना जादू भर देते हैं।

अर्चना हॉल के कोने में बैठी उसी को नहीं आ रही थी। एक ओर साजिदे बैठे थे। उन्होंने नृत्य की धुन छेड़ी और अर्चना छन छन करती थिरकती हुई कालीन पर आ गई। उसके पैरों में बंधे हुए घुंघरू पहले धीरे और फिर तेजी से चमकने लगे। सुरताल के साथ उसने थोड़े ही समय में एक-एक अंग की विभिन्न मुद्राओं का प्रदर्शन कर डाला। ऐसे लग रहा था, जैसे कोई ज्वाला हो – तड़पना, बल खाता, लोटता, झूमता, लहराता प्रचंड शोला भी और धीमी मधुर सौम्य, दीपक की लौ भी देखने वाले नृत्य के प्रत्येक भाव पर वाह वाह कर उठे। उसके घुंघरुओं की छनक पर दर्शकों के हृदय की धड़कन तीव्र हो रही थी।

राकेश बड़ी एकाग्रता से अर्चना का नृत्य देख रहा था। उसे इस बात का ज्ञान न था कि यह रिसेप्शनिस्त्र लड़की नृत्य कला में भी इतनी प्रवीण थी। कितनी लचक थी उसके अंग अंग में, कितना लोच था उसके शरीर में। धनुष के समान झुक जाती थी वह और तीर के समान खड़ी हो जाती थी। एक शरीर में कई शरीर समाए हुए दिखाई दे रहे थे। सागर तल पर एक समय नाचती हुई कई लहरें दिन के अंधकार में रंगारंग आतिशबाजियां! राकेश इस तन्मयता से उस थिरकते हुए शोले को देख रहा था, जैसे उसका समूचे व्यक्तित्व उसकी आंखों में सिमट आया हो।

छम छम छमा छम छम ध्वनि थम गई। साज मौन हो गए। नृत्य समाप्त हो गया। अर्चना विनय से हाथ जोड़े सिर झुकाए खड़ी थी और दर्शकों की तालियों से हाल गुंजायमान था। राकेश पर जैसे किसी ने जादू कर दिया हो। कोई विचित्र नशा पिला दिया हो। वह बड़ी देर तक मौन, आंखें खोले, विभोर हुआ आनंद लेता रहा।

कमला जी ने जापानी पंखे को झुका कर अर्चना को समीप आने का संकेत किया और फिर अपने गले में पड़ी हुई मोतियों की माला बड़े स्नेह से अर्चना के गले में डाल दी। अर्चना ने झुककर अभिवादन किया और उन्हें पावों को धीरे-धीरे पीछे हटाती हुई अपने स्थान पर आ खड़ी हुई। अब उसने अनुभव किया कि राकेश निरंतर उसे निहारे जा रहा था। वह लजा गई, घबरा गई।

थोड़ी देर बाद अतिथियों को भोजन के लिए खाने वाले कमरे में बुलाया गया। लंबी मेज पर कई प्रकार के स्वादिष्ट खाने चुने हुए थे। अर्चना उसी वेशभूषा में चुपचाप अतिथियों के साथ मेज के कोने पर खड़ी हो गई। कमला जी दूसरी ओर खड़ी मुस्कुराती हुई कुछ भद्र पुरुषों से बातों में व्यस्त थी। राकेश सबसे पीछे चलता हुआ कमला जी की दृष्टि बचाकर धीरे से खिसकता हुआ पीछे से अर्चना के पास जा पहुंचा। न जाने क्यों कमला जी के सम्मुख उसे अर्चना के पास जाते हुए भी संकोच लग रहा था। अभी वह कुछ ऐसे कोण में खड़ा हुआ था कि दूर से देखने पर भी कमला जी की नजर उस पर ना पड़ सके।

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