चैप्टर 27 गुनाहों का देवता धर्मवीर भारती का उपन्यास | Chapter 27 Gunahon Ka Devta Novel By Dharmveer Bharti Read Online

चैप्टर 27 गुनाहों का देवता धर्मवीर भारती का उपन्यास | Chapter 27 Gunahon Ka Devta Novel By Dharmveer Bharti Read Online

Chapter 27 Gunahon Ka Devta Novel By Dharmveer Bharti

Chapter 27 Gunahon Ka Devta Novel By Dharmveer Bharti

कार पोर्टिको में लगी। सुधा, कैलाश, चंदर उतरे। माली और नौकर दौड़ आये, सुधा ने उन सबसे उनका हाल पूछा। अन्दर जाते ही महराजिन दौडक़र सुधा से लिपट गयी। सुधा को बहुत दुलार किया।

कैलाश मुँह-हाथ धो चुका था, नहाने चला गया। महराजिन चाय बनाने लगी। सुधा भी मुँह-हाथ धोने और नहाने चली गयी। कैलाश तौलिया लपेटे नहाकर आया और बैठ गया। बोला, ”आज और कल की छुट्टी ले लो, चंदर! इनकी तबीयत ठीक नहीं है और मुझे जाना जरूरी है!”

”अच्छा, लेकिन आज तो जाकर हाजिरी देना जरूरी होगा। फिर लौट आऊँगा!” महराजिन चाय और नाश्ता ले आयी। कैलाश ने नाश्ता लौटा दिया, तो महराजिन बोली, ”वाह, दामाद हुइके अकेली चाय पीबो भइया, अबहिन डॉक्टर साहब सुनिहैं तो का कहिहैं।”

”नहीं माँजी, मेरा पेट ठीक नहीं है। दो दिन के जागरण से आ रहा हूँ। फिर लौटकर खाऊँगा। लो चंदर, चाय पियो।”

”सुधा को आने दो!” चंदर बोला।

”वह पूजा-पाठ करके खाती हैं।”

”पूजा-पाठ!” चंदर दंग रह गया, ”सुधा पूजा-पाठ करने लगी?”

”हाँ भाई, तभी तो हमारी माताजी अपनी बहू पर मरती हैं। असल में वह पूजा-पाठ करती थीं। शुरुआत की इन्होंने पूजा के बरतन धोने से और अब तो उनसे भी ज्यादा पक्की पुजारिन बन गयी हैं।” कैलाश ने इधर-उधर देखा और बोला, ”यार, यह मत समझना मैं सुधा की शिकायत कर रहा हूँ, लेकिन तुम लोगों ने मुझे ठीक नहीं चुना!”

”क्यों?” चंदर कैलाश के व्यवहार पर मुग्ध था।

”इन जैसी लड़कियों के लिए तुम कोई कवि या कलाकार या भावुक लड़का ढूँढ़ते तो ठीक था। मेरे जैसा व्यावहारिक और नीरस राजनीतिक इनके उपयुक्त नहीं है। घर भर इनसे बेहद खुश है। जब से ये गयी हैं, माँ और शंकर भइया दोनों ने मुझे नालायक करार दे दिया है। इन्हीं से पूछकर सब करते हैं, लेकिन मैंने जो सोच रखा था, वह मुझे नहीं मिल पाया!”

”क्यों, क्या बात है?” चंदर ने पूछा, ”गलती बताओ तो हम इन्हें समझाएँ।”

”नहीं, देखो गलत मत समझो। मैं यह नहीं कहता कि इनकी गलती है। यह तो गलत चुनाव की बात है।” कैलाश बोला, ”न इसमें मेरा कसूर, न इनका! मैं चाहता था कोई लड़की जो मेरे साथ राजनीति का काम करती, मेरी सबलता और दुर्बलता दोनों की संगिनी होती। इसीलिए इतनी पढ़ी-लिखी लड़की से शादी की। लेकिन इन्हें धर्म और साहित्य में जितनी रुचि है, उतनी राजनीति से नहीं। इसलिए मेरे व्यक्तित्व को ग्रहण भी नहीं कर पायीं। वैसे मेरी शारीरिक प्यास को इन्होंने चाहे समर्पण किया, वह भी एक बेमनी से, उससे तन की प्यास भले ही बुझ जाती हो कपूर, लेकिन मन तो प्यासा ही रहता है…बुरा न मानना। मैं बहुत स्पष्ट बातें करता हूँ। तुमसे छिपाना क्या?…और स्वास्थ्य के मामले में ये इतनी लापरवाह हैं कि मैं बहुत दु:खी रहता हूँ।” इतने में सुधा नहाकर आती हुई दिख पड़ी। कैलाश चुप हो गया। सुधा की ओर देखकर बोला, ”मेरी अटैची भी ठीक कर दो। मैं अभी चला जाऊँ, वरना दोपहर में तपना होगा।” 

सुधा चली गयी। सुधा के जाते ही कैलाश बोला, ”भरसक मैं इन्हें दु:खी नहीं होने देता, हाँ, अक्सर ये दुखी हो जाती हैं; लेकिन मैं क्या करूँ, यह मेरी मजबूरी है, वैसे मैं इन्हें भरसक सुखी रखने का प्रयास करता हूँ…और ये भी जायज-नाजायज हर इच्छा के सामने झुक जाती हैं, लेकिन इनके दिल में मेरे लिए कोई जगह नहीं है, वह जो एक पत्नी के मन में होती है। लेकिन खैर, जिंदगी चलती जा रही है। अब तो जैसे हो निभाना ही है!”

इतने में सुधा आयी और बोली, ”देखिए, अटैची सँवार दी है, आप भी देख लीजिए…” कैलाश उठकर चला गया। चंदर बैठा-बैठा सोचने लगा-कैलाश कितना अच्छा है, कितना साफ और स्वच्छ दिल का है! लेकिन सुधा ने अपने को किस तरह मिटा डाला…

इतने में सुधा आयी और चंदर से बोली, चंदर! चलो, वो बुला रहे हैं!’

चंदर चुपचाप उठा और अन्दर गया। कैलाश ने तब तक यात्रा के कपड़े पहन लिये थे। देखते ही बोला, ”अच्छा चंदर, मैं चलता हूँ। कल शाम तक आ जाने की कोशिश करूँगा। हाँ देखो, ज्यादा घुमाना मत। इनकी सखी को यहाँ बुलवा लो तो अच्छा।” फिर बाहर निकलता हुआ बोला, ”इनकी जिद थी आने की, वरना इनकी हालत आने लायक नहीं थी। माताजी से मैं कह आया हूँ कि लखनऊ मेडिकल कॉलेज ले जा रहा हूँ।”

कैलाश कार पर बैठ गया। फिर बोला, ”देखो चंदर, दवा इन्हें दे देना याद से, वहीं रखी है।” कार स्टार्ट हो गयी।

चंदर लौटा। बरामदे में सुधा खड़ी थी। चुपचाप बुझी हुई-सी। चंदर ने उसकी ओर देखा, उसने चंदर की ओर देखा, फिर दोनों ने निगाहें झुका लीं। सुधा वहीं खड़ी रही। चंदर ड्राइंग-रूम में जाकर किताबें वगैरह उठा लाया और कॉलेज जाने के लिए निकला। सुधा अब भी बरामदे में खड़ी थी। गुमसुम…चंदर कुछ कहना चाहता था…लेकिन क्या? कुछ था, जो न जाने कब से संचित होता आ रहा था, जो वह व्यक्त करना चाहता था, लेकिन सुधा कैसी हो गयी है! यह वह सुधा तो नहीं, जिसके सामने वह अपने को सदा व्यक्त कर देता था। कभी संकोच नहीं करता था, लेकिन यह सुधा कैसी है अपने में सिमटी-सकुची, अपने में बँधी-बँधायी, अपने में इतनी छिपी हुई कि लगता था दुनिया के प्रति इसमें कहीं कोई खुलाव ही नहीं। चंदर के मन में जाने कितनी आवाजें तड़प उठीं लेकिन…कुछ नहीं बोल पाया। वह बरामदे में ठिठक गया, निरुद्देश्य। वहाँ अपनी किताबें खोलकर देखने लगा, जैसे वह याद करना चाहता था कि कहीं भूल तो नहीं आया है कुछ लेकिन उसके अन्तर्मन में केवल एक ही बात थी। सुधा कुछ तो बोले। यह इतना गहरा, इतनी घुटनवाला मौन, यह तो जैसे चंदर के प्राणों पर घुटन की तरह बैठता जा रहा था। सुधा…निर्वात निवास में दीपशिखा-सी अचल, निस्पन्द, थमे हुए तूफान की तरह मौन। चंदर ने अन्त में नोट्स लिए, घड़ी देखी और चल दिया। जब वह सीढ़ी तक पहुँचा, तो सहसा सुधा की छायामूर्ति में हरकत हुई। सुधा ने पाँव के अँगूठे से फर्श पर एक लकीर खींचते हुए नीचे निगाह झुकाये हुए कहा, ”कितनी देर में आओगे?” चंदर रुक गया। जैसे चंदर को सितारों का राज मिल गया हो। सुधा भला बोली तो! लेकिन, फिर भी अपने मन का उल्लास उसने जाहिर नहीं होने दिया, बोला, ”कम-से-कम दो घंटे तो लगेंगे ही।”

सुधा कुछ नहीं बोली, चुपचाप रह गयी। चंदर ने दो क्षण प्रतीक्षा की कि सुधा अब कुछ बोले, लेकिन सुधा फिर भी चुप। चंदर फिर मुड़ा। क्षण-भर बाद सुधा ने पूछा, चंदर, और जल्दी नहीं लौट सकते?”

जल्दी! सुधा अगर कहे, तो चंदर जाये भी न, चाहे उसे इस्तीफा देना पड़े। क्या सुधा भूल गयी कि चंदर के व्यक्तित्व पर अगर किसी का शासन है तो सुधा का! वह जो अपनी जिद से, उछलकर, लादकर, रूठकर चंदर से हमेशा मनचाहा काम करवाती रही है…आज वह इतनी दीनता से, इतनी विनय से, इतने अन्तर और इतनी दूरी से क्यों कह रही है कि जल्दी नहीं लौट सकते? क्यों नहीं वह पहले की तरह दौडक़र चंदर का कॉलर पकड़ लेती और मचलकर कहती, ‘ए, अगर जल्दी नहीं लौटे तो…’ लेकिन अब तो सुधा बरामदे में खड़ी होकर गम्भीर-सी, डूबती हुई-सी आवाज में पूछ रही है-जल्दी नहीं लौट सकते! चंदर का मन टूट गया। चंदर की उमंग चट्टान से टकराकर बिखर गयी…उसने बहुत भारी-सी आवाज में पूछा, ”क्यों?”

”जल्दी लौट आते, तो पूजा करके तुम्हारे साथ नाश्ता कर लेते! लेकिन अगर ज्यादा काम हो तो रहने दो, मेरी वजह से हरज मत करना!” उसने उसे ठण्डे, शिष्ट और भावहीन स्वर में कहा।

हाय सुधा! अगर तुम जानती होती कि महीनों उद्भ्रान्त चंदर का टूटा और प्यासा मन तुमसे पुराने स्नेह की एक बूँद के लिए तरस उठा है, तो भी क्या तुम इसी दूरी से बातें करती! काश, कि तुम समझ पाती कि चंदर ने अगर तुमसे कुछ दूरी भी निभायी है, तो उससे खुद चंदर कितना बिखर गया है। चंदर ने अपना देवत्व खो दिया है, अपना सुख खो दिया है, अपने को बर्बाद कर दिया है और फिर भी चंदर के बाहर से शान्त और सुगठित दिखने वाले हृदय के अन्दर तुम्हारे प्यार की कितनी गहरी प्यास धधक रही है, उसके रोम-रोम में कितनी जहरीली तृष्णा की बिजलियाँ कौंध रही हैं, तुमसे अलग होने के बाद अतृप्ति का कितना बड़ा रास्ता उसने आग की लपटों में झुलसते हुए बिताया है। अगर तुम इसे समझ लेती तो तुम चंदर को एक बार दुलारकर उसके जलते हुए प्राणों पर अमृत की चाँदनी बिखेरने के लिए व्यग्र हो उठती; लेकिन सुधा, तुमने अपने बाह्य विद्रोह को ही समझा, तुमने उस गम्भीर प्यार को समझा ही नहीं जो इस बाहरी विद्रोह, इस बाहरी विध्वंस के मूल में पयस्विनी की पावन धारा की तरह बहता जा रहा है। सुधा, अगर तुम एक क्षण के लिए इसे समझ लो…एक क्षण-भर के लिए चंदर को पहले की तरह दुलार लो, बहला लो, रूठ लो, मना लो तो सुधा चंदर की जलती हुई आत्मा, नरक चिताओं में फिर से अपना गौरव पा ले, फिर से अपनी खोयी हुई पवित्रता जीत ले, फिर से अपना विस्मृत देवत्व लौटा ले…लेकिन सुधा, तुम बरामदे में चुपचाप खड़ी इस तरह की बातें कर रही हो जैसे चंदर कोई अपरिचित हो। सुधा, यह क्या हो गया है तुम्हें? चंदर, बिनती, पम्मी सभी की जिंदगी में जो भयंकर तूफान आ गया है, जिसने सभी को झकझोर कर थका डाला है, इसका समाधान सिर्फ तुम्हारे प्यार में था, सिर्फ तुम्हारी आत्मा में था, लेकिन अगर तुमने इनके चरित्रों का अन्तर्निहित सत्य न देखकर बाहरी विध्वंस से ही अपना आगे का व्यवहार निश्चित कर लिया, तो कौन इन्हें इस चक्रवात से खींच निकालेगा! क्या ये अभागे इसी चक्रवात में फँसकर चूर हो जाएँगे…सुधा…

लेकिन सुधा और कुछ नहीं बोली। चंदर चल दिया। जाकर लगा, जैसे कॉलेज के परीक्षा भवन में जाना भी भारी मालूम दे रहा था। वह जल्दी ही भाग आया।

हालाँकि सुधा के व्यवहार ने उसका मन जैसे तोड़-सा दिया था, फिर भी जाने क्यों वह अब आज सुधा को एक प्रकाशवृत्त बनकर लपेट लेना चाहता था।

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