चैप्टर 19 नीलकंठ गुलशन नंदा का उपन्यास | Chapter 19 Neelkanth Gulshan Nanda Novel In Hindi Read Online

चैप्टर 19 नीलकंठ गुलशन नंदा का उपन्यास | Chapter 19 Neelkanth Gulshan Nanda Novel In Hindi Read Online, Neelkanth Gulshan Nanda Ka Upanyas

Chapter 19 Neelkanth Gulshan Nanda 

Chapter 19 Neelkanth Gulshan Nanda Novel In Hindi

जीवन के सुंदर क्षण यों बीतने लगे जैसे धरती की चाल के साथ ऋतुएं-आनंद और बेला का जीवन भी एक नए दौर में भागा जा रहा है। वह अपने छोटे-से घर में सब रंगीनियां भरने का दिन-रात प्रयत्न करती, जिससे आनंद को उसके निकट कोई अभाव अनुभव न होने पाए-वह भूल से कभी ऐसा न सोच सके कि बेला में कोई ऐसी कमी है जिसकी पूर्ति संध्या ही कर सकती है।

इन सब सुविधाओं के होते हुए भी आनंद कभी-कभी बहुत उदास हो जाता और अकेला बैठा घंटों सोचता रहता। प्रायः ऐसा तभी होता है, जब कभी भूले से बातों में संध्या का वर्णन आ जाता।

बेला ने इसी विचार को दूर रखने के लिए रायसाहब के यहाँ आना भी छोड़ रखा था। वह दिन-रात कोई ऐसी विधि सोचती रहती, जो संध्या और आनंद के मध्य ऐसी दीवार खड़ी कर दे कि वह उसे सदा के लिए भुला दे। वह आनंद की तड़प को भली प्रकार समझ रही थी। जबसे उसे इस बात का ज्ञान हुआ था कि बेला ने उससे झूठ कहा था कि वह उसके बच्चे की माँ बनने वाली है, वह अधिक बेचैन रहने लगा। बेला ने लाख अपनी सच्चाई का प्रमाण देना चाहा, पर वह वास्तविकता को न छिपा सकी।

आनंद को बेला की अदाओं पर प्रायः झुकना पड़ता। वह इस लड़खड़ाती बेचैन जवानी को संभालने का ढंग जानती थी। दफ्तर के बाद शाम के समय को और रंगीन बनाने के लिए उसने समाज के बड़े लोगों से मेल-जोल बढ़ाने के लिए परामर्श दिया। पहले तो आनंद न माना, परंतु अंत में बेला अपनी योजना में सफल हो गई। आनंद इस छोटी-सी हार को अनुभव न कर पाया, पर बेला के लिए यह बहुत बड़ी जीत थी।

मिलने वालों में उसका पहला निशाना मिस्टर हुमायूं था, जो आनंद का मित्र होने के अतिरिक्त एक विनोदप्रिय व्यक्ति भी था, जो इस भाग्यवान दंपत्ती को देखकर कभी-कभी ईर्ष्या से कह उठता-

‘मिस्टर आनंद! कितने खुशनसीब हो कि तुम्हें बेला जैसी जीवनसाथी मिली।’

हुमायूं प्रायः उन्हें फिल्मी जगत में ले जाता। यहाँ थोड़े ही दिनों में उनके कई मित्र बन गए।

हर संगत, हर सभा में बेला आनंद के साथ छाया की भांति लगी रहती, उसे कहीं भी डगमगाने न देती। आनंद भी दिन-ब-दिन उसका दीवाना बनाता जा रहा था। वह समझती थी कि यह दीवानापन धीरे-धीरे आनंद को उसी का बना देगा। इसी प्यार और प्रेम-भाव में कभी उसे भूल जाता तो वह उससे रूठ भी जाती। वह झुंझलाता, तर्क करता और अंत में हारकर झुक जाता।

बेला उसकी हार देखकर मुस्करा पड़ती। वह उसे प्रेम की बेड़ियों में ऐसे जकड़ लेना चाहती थी कि वह कभी भागने का साहस न कर सके। उसकी यह दशा देखकर कभी-कभी उसे संध्या के उस वाक्य पर हंसी आ जाती, ‘देखना बड़ा चंचल मन पाया है, कहीं तुम्हें छोड़कर उड़ न जाएँ।’

एक सायंकाल जब दोनों रेनु के जन्मदिन पर रायसाहब के यहाँ गए हुए थे तो संध्या भी वहाँ बैठी थी। संध्या ने दोनों को अपने कारखाने के खुलने के अवसर पर निमंत्रण दिया। आनंद ने स्वीकार करते हुए कहा-‘प्रयत्न करूँगा।’

‘प्रयत्न कैसा, आप लोगों को अवश्य आना होगा।’

‘बहुत अच्छा, यदि तुम्हारी यही प्रसन्नता है तो हम अवश्य आएँगे।’

‘परंतु उसी दिन तो हमें बाहर जाना है।’ बेला बात काटते हुए बोली।

‘कहाँ?’

‘मिस्टर हुमायूं के साथ पिकनिक का प्रोग्राम जो बनाया था।’

‘उसे देख लेंगे।’, आनंद ने असावधानी से कहा और संध्या की ओर देखकर मुस्कराने लगा-जैसे कह रहा हो कि तुम्हारा अधिकार पहला है हम अवश्य आएँगे। संध्या उसके मन की बात भांप गई और बेला के कंधों पर हाथ फेरते हुए बोली-

‘देखिए, बेला की बात पहले मानिएगा। हमारा प्रोग्राम तो होकर ही रहेगा, कहीं मेरी लाड़ली बहन के प्रोग्राम में बाधा न पड़ जाए।’

संध्या की बात में व्यंग्य था। जिसने एक नश्तर-सा बेला के मन में चुभो दिया और वह उठकर खिड़की से बाहर झांकने लगी। उसी समय उसके कानों में संध्या और आनंद की हंसी की आवाज गूंजी। बेला को अनुभव हुआ जैसे वे उसकी बेबसी पर हंस रहे हों। वह मन-ही-मन तिलमिला उठी।

वह दिन भी आ पहुँचा। संध्या ने टेलीफोन पर यह याद दिलाया और आनंद ने आने का वचन दिया। संध्या चाहती थी कि वह स्वयं आकर देखे कि उजड़ जाने के पश्चात् उसके मन से कितना खरा कुंदन निकला है। आनंद भी उसकी बात न टाल सका, जैसे वह उसके निराश मन को अपने हाथों से कोई ठेस न पहुँचाना चाहता था।

जब उसने बेला को भी दूसरे दिन संध्या के यहाँ जाने का आदेश सुनाया तो वह सिटपिटाकर बोली-

‘तो हुमायूं साहब की पिकनिक का क्या होगा?’

‘विवश हूँ। यह दिन तो जीवन में एक ही है, पिकनिक तो किसी और दिन भी हो सकती है।’

‘तो प्रोग्राम बनाना ही न था।’

‘मुझे क्या पता था, परंतु बेला…’

‘क्या?’

‘संध्या की ओर से तुम्हें यह मिथ्या संदेह कैसा है?’

‘मुझे क्यों होने लगा, वह मेरी बहन है, पर छोड़िए इन बातों को, आप जहाँ चाहे जा सकते हैं।’

‘और तुम?’

‘मैं कभी नहीं जाऊँगी।’

आनंद उसकी इस विमुखता पर हंसकर चुप हो गया। वह जानता था कि थोड़े समय पश्चात् उसका क्रोध ढल जाएगा और वह स्वयं उसके संग चलने को तैयार हो जाएगी, परंतु हुआ उसके विपरीत-विवाह के पश्चात् आज पहली बार बेला ने रूठ जाने की ठान ली। रात उसने खाना भी न खाया और चुपचाप बिस्तर में लेटकर पढ़ती रही।

रात को सोते समय आनंद ने पूछा-‘आज कौन-सा दिन है?’

‘सामने कैलेण्डर लटक रहा है।’

‘ओह आई सी।’

उसी समय उनका नौकर विष्णु पानी की सुराही रखने भीतर आया तो आनंद ने उसे पुकारा-

‘विष्णु!’

‘जी सरकार!’

‘आज मंगल है?’

‘नहीं सरकार आज तो शनिचर है।’

‘आज ही तो पूर्णिमा है न।’

‘नहीं साहब, आज तो अमावस है।’

‘तो आज यह व्रत कैसा?’

आनंद का यह प्रश्न सुनकर बेला की हंसी छूट गई। विष्णु मियां-बीवी का झगड़ा देख मुँह फेरकर हंसने लगा। आनंद ने उसे शीघ्र मेम साहब के लिए खाना लाने को कहा।

‘मैंने कह जो दिया कि आज मुझे भूख नहीं है।’ बेला ने गंभीर स्वर में कहा।

‘वह तो मैं जानता हूँ, भूखा तो मैं हूँ, तुम्हारे प्यार का।’ आनंद ने हाथ बढ़ाकर उसे खींचते हुए कहा।

‘छोड़िए भी विष्णु आता होगा।’

‘तो क्या हुआ?’

‘जैसे कुछ हुआ ही नहीं।’ उसने झुंझलाते हुए अपना हाथ छुड़ाने का व्यर्थ प्रयत्न किया।

‘डरती क्यों हो, ब्याह करके लाया हूँ भगाकर नहीं।’

इतने में विष्णु थाली में खाना परोसे भीतर आया। दोनों ठिठककर रह गए और एक-दूसरे से थोड़ा दूर हटने का प्रयत्न करने लगे। विष्णु ने पीठ मोड़ ली और बाहर जाने लगा। आनंद ने आवाज देकर खाना उसके हाथों से ले लिया। विष्णु के बाहर जाते ही वह बेला से बोला-‘आओ मेम साहब, तुम्हारा व्रत तोड़ दूँ।’

‘ऊँ हूँ! मेरा भी हठ है-आज न खाऊँगी।’

‘तो मेरा भी यही-तुम्हें आज खिलाकर ही छोड़ूँगा।’

‘दोनों ओर हठ आ ठहरा तो निर्णय कैसे होगा।’

‘फिफ्टी-फिफ्टी।’

‘अर्थात्।’

‘कुछ तुम झुको और कुछ…’

‘आप।’ बेला झट से बात पूरी करते बोली, ‘आप कल पिकनिक पर अवश्य चलेंगे।’

‘परंतु एक शर्त पर।’

‘वह क्या?’

‘तुम्हें संध्या दीदी के यहाँ चलना होगा।’

‘पर कैसे-इतना थोड़ा समय और इतनी दूर।’

‘मैं मैनेजर की गाड़ी मांग लाऊँगा।’

‘तो ठीक है, किंतु अधिक समय वहाँ न ठहरेंगे।’

आनंद ने हाथ बढ़ाकर रोटी का ग्रास उसके मुँह में ठूंस दिया। बेला खिलखिला उठी और उसने अपने हाथों से एक ग्रास आनंद के मुँह में डाल दिया।

दूसरे दिन इतवार था। इसलिए सवेरे ही दोनों तैयार होकर कंपनी के दफ्तर जा पहुँचे, परंतु दुर्भाग्य से मैनेजर अपनी गाड़ी लेकर रात ही कहीं चला गया था।

आनंद उलझन में पड़ गया। उसे विश्वास था कि बेला इसी बहाने संध्या के यहाँ जाने से इंकार कर देगी। फासला बहुत था और पूरे दिन के लिए टैक्सी ले जाना भी कठिन था। वह इसी समस्या को सुलझाने की सोच रहा था कि बेला बोली-

‘शो-रूम में इतनी गाड़ियाँ जो रखी हैं, उनमें से एक क्यों नहीं ले चलते?’

‘ये सब नई हैं, बाहर नहीं ले जाई जा सकतीं।’

‘तो क्या हुआ-एक दिन में कोई घिस थोड़े ही जाएँगी।’

‘नहीं बेला, किसी को ट्राई के लिए देनी हो तो थोड़ी दूर ले भी जाएं-पर हमें तो शहर से बाहर जाना है।’

‘कौन देखता है।’

‘मेरी आत्मा।’

‘सुला दो थोड़ी देर के लिए अपनी इस आत्मा को, रंग में भंग डालने से लाभ, आप बीसवीं शताब्दी में महाभारत के काल की बातें करते हैं-इस नई गाड़ी से जाने से हमारी कितनी शान होगी।’

आखिर आनंद को झुकना ही पड़ा। आज पहली बार उसने बेला के लिए अपने जीवन के नियमों को भी बदल डाला।

कंपनी के रजिस्टर में लिख दिया कि आई-20 का नया मॉडल भूपाल को दिखाना है और गाड़ी को निकालकर बेला को आगे बैठने का संकेत किया।

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