चैप्टर 20 नीलकंठ गुलशन नंदा का उपन्यास | Chapter 20 Neelkanth Gulshan Nanda Novel In Hindi Read Online

चैप्टर 20 नीलकंठ गुलशन नंदा का उपन्यास, Chapter 20 Neelkanth Gulshan Nanda Novel In Hindi Read Online, Neelkanth Gulshan Nanda Ka Upanyas 

Chapter 20 Neelkanth Gulshan Nanda Novel

Chapter 20 Neelkanth Gulshan Nanda Novel In Hindi

आज वह नई गाड़ी में बैठकर ऐसा अनुभव कर रही थी मानो कोई महारानी अपने महाराज के साथ प्रजा को दर्शन देने निकली हो। जहाँ आनंद का मन नियम को तोड़कर अप्रसन्न था, वहाँ बेला का मन हर्ष से फूला न समाता था कि आज आनंद ने उसके लिए अपना जीवन मार्ग बदल डाला।

संध्या की बस्ती में आज एक अच्छी-खासी भीड़ थी-बेला के ब्याह से भी कहीं अधिक रौनक थी। इस अवसर पर मिलने-जुलने और सगे-संबंधियों के अतिरिक्त शहर के चुने हुए व्यक्ति भी सम्मिलित थे। संध्या उत्साह और उल्लास से भरपूर कभी-कभी दृष्टि उठाकर आनंद की ओर देख लेती, मानो उससे पूछ रही हो-क्यों कैसा रहा मेरा ब्याह? उधर बेला को यह भीड़ अच्छी न लग रही थी और वह सबसे अलग एक कोने में जा बैठी।

फीता कटा, तालियों का शोर उठा और लोग कारखाने के भीतर प्रवेश करने लगे। हर ओर बड़ी-बड़ी मशीनों के साथ मजदूर एक जैसी वर्दी पहने खड़े थे। भीड़ के आगे-आगे नन्हें पाशा उजले कपड़ों में लड़खड़ाती हुई टांग को खींचते बढ़ रहा था। जिस मशीनमैन को वह संकेत करता, मशीन चलने लग जाती और फिर वह लोगों को उस मशीन का काम और उसके चलने का ढंग समझाता।

मशीन का निरीक्षण करते हुए सब नीलकंठ पर जा रुके-सबने सामने दीवार पर खुदा हुआ यह शब्द दोहराया। आनंद को लगा मानो कोई जीवन के पन्ने पलटकर बीती हुई बातों को दोहरा रहा हो।

देखने वाले इस सादी और सुंदर कुटिया की प्रशंसा कर रहे थे।

‘कैसी लगी यह कुटिया’, संध्या ने आनंद को संबोधित करते हुए पूछा।

अपने विचारों में खोया वह चौंक-सा उठा, उसके माथे पर पसीने के दो-एक कतरे झलक आए, पर सहसा ही वह अपने पर अधिकार पाते हुए बोला-

‘सुंदर-बहुत सुंदर।’

‘क्या सुंदर?’ पास खड़ी बेला ने बीच में बोलते हुए पूछा।

‘यह घर-नीलकंठ। काश! मैं भी एकांत में ऐसा घर बना सकता।’ आनंद ने संध्या की ओर देखते हुए बेला को उत्तर दिया।

‘तो निःश्वास क्यों भरते हैं? एक हम भी बनवा लेंगे।’

संध्या ने अनुभव किया, जैसे आनंद की यह बात बेला को नहीं भाई। अवसर को समझते हुए उसने नम्रता से कहा-

‘घर की सुंदरता में क्या रखा है, सुंदरता तो मन में होनी चाहिए।’

अभी पार्टी समाप्त भी न हुई थी कि बेला और आनंद ने जाने की अनुमति चाही। उन्हें किसी और पार्टी में सम्मिलित होने जाना था।

वहाँ से दोनों सीधे कल्याण की ओर चल पड़े, जहाँ हुमायूं और दूसरे साथियों ने पिकनिक का प्रोग्राम बना रखा था-एक रंगीन सभा, प्रकृति की गोद में नृत्य और संगीत-फिल्मी लोगों का निजी जीवन भी इन्हीं रंगीनियों से भरपूर रहता है। बेला को ऐसी सभाएँ बहुत प्रिय थीं।

हंसते-खेलते इन्हीं बातों में दोनों पूरी गति से उड़े जा रहे थे, जैसे धरती से दूर किसी और मन-भावनी मंजिल की खोज में हों। नई गाड़ी, नई बीवी और जवान उमंगें। जब तीनों का मेल होता है तो खलबली-सी मच जाती है-यह दशा थी उसकी-मन में भावनाओं का तूफान बढ़ता गया और उसके साथ गाड़ी की गति भी।

अब वह बस्ती से बहुत दूर निकल चुके थे। गाड़ी की गति से बेला का हृदय बल्लियों उछलने लगा, आसपास भागती हुई हर वस्तु यों लगने लगी मानो उसकी कामनाओं की बारात सड़क के दोनों ओर उसके स्वागत में फूल बरसा रही है।

सहसा वह उछल पड़ी और चीख निकल गई।

सामने से आते हुए ट्रक ने तेजी से मोड़ काटा। आनंद अभी संभल भी न पाया था कि दोनों एक-दूसरे को बचाते सड़क से नीचे उतरकर आपस में टकरा गए। धमाके के साथ ही आनंद ने ब्रेक लगाई, परंतु गहराई न होने से गाड़ी न रुक सकी। उसने शीघ्र बेला को कूद जाने का संकेत किया, उसके साथ ट्रक एक पेड़ के साथ जा रुका और कार उलट गई। आनंद ने फुर्ती से ब्रेक छोड़ दिया और दरवाजा खोलकर जमीन पर उगी झाड़ियों को मजबूती से पकड़ लिया और गाड़ी को नीचे जाने दिया।

बोझ अधिक होने से झाड़ियाँ उखड़ गईं और वह लड़खड़ाता हुआ एक गड्ढे में जा गिरा। बेला भागी-भागी आनंद के पास आई, जो पीड़ा से कराह रहा था।

ट्रक का ड्राइवर और सड़क पर काम करने वाले कुछ मजदूर भी उधर भागे। बेला ने उनकी सहायता से आनंद को खड़ा करना चाहा, परंतु वह उठ न सका। बेला ने अपने घुटने पर उसका सिर रख लिया और उसके माथे पर आई चोट को अपने आंचल से साफ करने लगी। दूसरे आदमियों ने दौड़कर एक कार को रोका और आनंद को उसमें डालकर अस्पताल ले गए।

निरीक्षण हुआ तो पता चला कि आनंद की दाईं टांग में फ्रेक्चर हो गया है।

‘अब क्या होगा?’

घबराओ नहीं।’ सांत्वना देते हुए डॉक्टर ने कहा और भीतर ऑपरेशन हॉल में चला गया। बेला ने भी भीतर आने की इच्छा प्रकट की, परंतु डॉक्टरों ने मनाही कर दी और एक नर्स ने उसे बाहर बैठने को कहा।

थोड़ी देर में रायसाहब, मालकिन तथा कुछ और मित्र भी आ पहुँचे और उसी कमरे में बैठकर प्रतीक्षा करने लगे। कंपनी के जनरल मैनेजर ने जब बेला से घटना का हाल पूछा तो वह रोने लगी, कुछ न कह सकी।

तीन घंटे लगातार प्रयत्न करने के बाद आनंद को पट्टियाँ बाँधी गईं और उसकी टांग को पलस्तर में बंद कर दिया। डॉक्टरों के कहने पर बेला के सिवा सब मिलने वालों को लौटा दिया गया।

रात का अंधकार खिड़कियों से झांक रहा था। नर्स ने कमरे में प्रवेश करते ही बत्ती जला दी। उजाला होते ही आनंद के पास बैठी बेला ने उदास चेहरा ऊपर उठाया। आनंद अभी तक सो रहा था। नर्स ने दवा का प्याला मेज पर रख दिया और धीमे स्वर में बेला से कहने लगी-

‘नींद खुलते ही दे देना।’

बेला ने सिर हिलाया और आनंद की ओर देखने लगी, जो आराम से नींद में डूबा हुआ था। वह एक अज्ञात भय से डर रही थी। उसी का हठ इस घटना का कारण बना था। वह कुछ ऐसी ही उलझनों में खोई हुई थी कि बाहर द्वार पर आहट हुई। पर्दा उठा और सफेद साड़ी पहने संध्या ने दबे पांव कमरे में प्रवेश किया। उसे देखते ही बेला उठ खड़ी हुई और दबी आवाज से बोली-

‘दीदी!’

संध्या ने होंठों पर उंगली रखते हुए चुप रहने का संकेत किया और उसे थोड़ी दूर ले जाकर पूछने लगी-

‘यह सब क्योंकर हुआ?’

‘भाग्य का चक्कर।’ बेला की आँखों में आंसू टपक पड़े। संध्या ने अधिक पूछताछ उचित न समझी और उसे ढाढस बंधाते हुए बोली-‘तुम आराम करो, मैं यहाँ बैठती हूँ।’

‘नहीं दीदी, अभी होश आते ही यह दवा…’

‘मैं पिला दूँगी-जाओ थोड़ा आराम कर लो।’

संध्या के बहुत कहने पर वह सामने की आरामकुर्सी पर बैठ गई और टकटकी बांधकर संध्या को देखने लगी, जो धुंधली रोशनी में सफेद वस्त्र पहने शांति की देवी लग रही थी।

नींद में लेटे-लेटे आनंद ने हरकत की तो संध्या झट से उसके पास आकर खड़ी हो गई। बेला भी कुर्सी से उठकर आ गई।

जैसे ही आनंद ने आँखें खोलीं, बेला हटकर अंधेेरे में हो गई। अंदर से उसका मन धक्-धक् करने लगा। उसने संध्या को दवाई पिलाने का संकेत किया, परंतु उसने देखा कि संध्या के हाथ भी कांप रहे थे। शीघ्र ही संध्या ने अपने पर अधिकार पा लिया और आनंद के सामने जाकर धीरे से बोली-

‘मैं हूँ संध्या।’

‘तुम!’ उसने विस्मित दृष्टि को कमरे की दीवारों पर दौड़ाया और कठिनाई से होंठ खोलते हुए बोला-‘मैं कहाँ हूँ?’

‘हमारे पास।’

‘नीलकंठ में।’ उसके स्वर में कंपन था।

वह शब्द सुनते ही दोनों बहनें सिर से पांव तक कांप गईं और मौन खड़ी उसे देखती रहीं।

‘अच्छा आप पहले यह दवाई पी लें।’ कहते हुए संध्या ने चम्मच से दवाई आनंद के गले में उतार दी।

‘बेला कहाँ है? उसे तो…’

‘कुछ नहीं हुआ, बिलकुल ठीक है, अभी बुलाती हूँ।’

‘रहने दो।’ आनंद ने वहीं काट दिया। उसकी बात सुनकर बेला पीछे हट गई और संध्या की ओर देखने लगी, जो उसे निकट आने का संकेत कर रही थी।

आनंद थोड़ा रुककर फिर बोला-‘बेचारी सो रही होगी, उसे नींद में न जगाना-बहुत ही लाड़ली है अपने माँ-बाप की, इसलिए तो तुम्हें नर्स बनाकर स्वयं सो गई।’

‘नहीं, ऐसा नहीं-वह तो बैठी आपकी प्रतीक्षा कर रही थी।’

संध्या ने लपककर बेला को खींचकर आनंद के सामने खड़ा कर दिया। वह उसकी भीगी उदास आँखों को देखकर कुछ गंभीर हो गया और धीरे से बोला-

‘बेला तुम ठीक हो।’

‘हाँ बिलकुल ठीक। भाग्य को मेरी मृत्यु स्वीकार न थी।’

‘यह क्या बक रही हो तुम?’ संध्या ने झट से कहा।

‘सुना नहीं तुमने-मैं लाड़ली हूँ-इनकी सेवा नहीं कर सकती। इन्हें तुम्हारी असीसों की आवश्यकता है-मेरी नहीं। मैंने ही इन्हें तुम्हारे नीलकंठ से दूर जाने को उकसाया और उसका परिणाम…’ वह फूट-फूटकर रोने लगी।

संध्या ने उसे प्यार से अपनी बांहों में ले लिया और बोली-‘पागल न बनो देखो तो उनकी हालत, रही मैं-दो क्षण के लिए आई थी, जा रही हूँ मुझे कहीं शीघ्र पहुँचना है। इनकी बातों का बुरा मान गईं, यह तो जिसे सामने देखते हैं उसी की प्रशंसा करने लग जाते हैं, यह तो इनका पुराना स्वभाव है।’

संध्या की आँखों से आंसू टपक पड़े और वह उन्हें आंचल से पोंछती बेला को सांत्वना देते हुए बाहर चली गई। आनंद ने उसे पुकारने का एक व्यर्थ प्रयत्न किया, पर पीड़ा से कराह कर रह गया।

रात आधी से अधिक बीत गई थी और आनंद नींद की दवा पीकर सो गया था, परंतु बेला की आँखों में नींद न आई। कई प्रकार के भयानक और उलझे हुए विचार उसके मस्तिष्क के पर्दे पर आकर चोटें लगाते रहें।

उसे अपने यौवन और अपनी सुंदरता पर घमण्ड था, पर आनंद का चंचल मन फिर संध्या की सराहना करने लगा। आखिर उसमें कौन-सी ऐसी आकर्षण- शक्ति है, जो हर थोड़े समय बाद आनंद को उधर ले जाती है।

उसे यों अनुभव होने लगा जैसे आनंद किसी समय भी उसे छोड़कर चला जाएगा-पर यह उसका भ्रम था, उसी के मन का चोर उसे भय की जंजीरों में जकड़े हुए था, वरना आनंद वह तो स्वयं उसका बंदी था।

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