चैप्टर 18 नीलकंठ गुलशन नंदा का उपन्यास | Chapter 18 Neelkanth Gulshan Nanda Novel In Hindi Read Online

चैप्टर 18 नीलकंठ गुलशन नंदा का उपन्यास | Chapter 18 Neelkanth Gulshan Nanda Novel In Hindi Read Online, Neelkanth Gulshan Nanda Ka Upanyas

Chapter 18 Neelkanth Gulshan Nanda

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Chapter 18 Neelkanth Gulshan Nanda Novel In Hindi

खाने पर फिल्मी जगत के और व्यक्ति भी सम्मिलित थे। बेला का सौंदर्य, उसकी चंचलता और उसकी बातें सबको प्रभावित कर रही थीं। बातों-ही-बातों में बेला ने बताया कि उसे कॉलेज के दिनों में ड्रामा खेलने का बहुत चाव था। उसकी बातों पर सबसे अधिक सेठ मखनलाल मोहित हुए, जो कंपनी के मालिक थे। सेठजी ने ‘अपनी दुकान’ फिल्म के लिए बेला को हीरोइन की की भूमिका का ऑफर दिया।

‘नहीं, क्षमा कीजिए। बेला को यह जीवन बिलकुल पसंद नहीं।’ झट से आनंद कह उठा।

बेला आनंद की इस जल्दबाजी पर उसकी ओर देखने लगी और बातचीत का तांता जारी रखने के लिए बोली-

‘आप ठीक कहते हैं-हम घर-गृहस्थी की जंजीरों में जकड़ी हुई स्त्रियों के लिए वही तो स्टेज चाहिए, जहाँ हम अपने जीवन को ऊँचा उठा सकें।’

जब खाने के बाद दोनों अपने ठिकाने पर लौटे तो बेला से न रहा गया और अप्रसन्नता प्रकट करते हुए बोली-

‘सेठ मखनलाल की बात में बुरा मानने वाला क्या था कि आपने उसे बीच में ही टोक दिया।’

‘बेला! तुम नहीं जानतीं इन फिल्मी सेठों को-फिल्म कांट्रेक्ट तो यह जेब में उठाए घूमते हैं-जहाँ कोई सुंदर मुखड़ा देखा झट दांत निकालकर सामने रख दिया।’

‘ओह! तब हम भी उन सुंदर मुखड़ों की गिनती में आते हैं। ‘बेला ने घमंड से गर्दन उठाते हुए कहा।

आनंद उसका यह भाव देख मुस्कुरा पड़ा।

अवकाश के दिन यों उड़ते गए, जैसे हवा के साथ डाली के फूल। बम्बई लौटने से पहले आनंद को खंडाला में अपने माता-पिता से मिलने आना था। इसलिए वे एक दिन पूर्व ही वहाँ से खंडाला चले आए।

ससुराल वालों से मिल-जुलकर रहने का बेला का यह पहला ही अवसर था। सारे घराने में उसे कोई भी अच्छा न लगा। आनंद जितने नए विचारों का था, उतने ही उसके घरवाले रूढ़िवादी थे।

घर में श्वसुर और सास के अतिरिक्त उसकी एक ननद और देवर भी था। ननद पंजाब में किसी पुलिस इंस्पेक्टर से ब्याही थी और देवर देवलाली में मिशन स्कूल में पढ़ता था। ब्याह के अवसर पर सब इकट्ठे थे और बड़े चाव से भाभी की प्रतीक्षा कर रहे थे। बेला ने पहले ही दिन से अपने आपको एक अलग कमरे में बंद रखा। वह किसी से भी अधिक लगाव बढ़ाना न चाहती थी। वह तो हर समय अपने आसपास आनंद को ही देखना चाहती थी और उससे भी यह आशा रखती थी कि वह सबको छोड़कर उसी के पांव में पड़ा प्रेम की भिक्षा मांगता रहे।

नई-नवेली दुल्हन थी, इसलिए उसका यह ढंग किसी को बुरा न लगा। सब यही समझे कि शायद नए स्थान पर आकर उदास हो गई होगी।

छुट्टी समाप्त होते ही दोनों बम्बई लौट आए। आनंद को अपने फ्लैट में कुछ परिवर्तन करना था, इसलिए वह रायसाहब के यहाँ ही ठहरा।

दोनों को दोबारा देखकर घर में फिर चहल-पहल हो गई। घर आकर बेला की दृष्टि ने सबसे पहले यह जानना चाहा कि कहीं संध्या तो वहाँ नहीं, और उसे यह जानकर प्रसन्नता हुई कि वह वहाँ नहीं है। वास्तविक प्रसन्नता तो उसे तब हुई, जब उसने देखा कि आनंद ने पूरे दिन संध्या के विषय में कुछ न पूछा और जब कभी उसका नाम आया तो उसने ध्यान नहीं दिया।

बेला को न जाने क्यों संध्या से हर समय भय-सा लगा रहता, जैसे चोर को पुलिस वाले से-कई बार तो वह अपने आपको चोर ही अनुभव करती-इसमें झूठ ही क्या था-उसने भी तो संध्या का प्यार चुराया था-धोखे से, छल-कपट से-ये बातें सोच प्रायः वह कांप उठती।

दूसरे दिन जब आनंद दफ्तर चला गया तो बेला ने संध्या के विषय में घरवालों से कुछ जानने के लिए सोचा, परंतु साहस न कर सकी। उसका नाम भी होंठों पर लाते हुए उसे भय लगता-आखिर साहस बटोरकर उसने रेनु से पूछ ही लिया।

‘कभी-कभी आ जाती है।’ इससे अधिक रेनु कुछ न बता सकी

बातों-ही-बातों में माँ ने संध्या का नाम लिया तो बेला ने उत्साह दिखाते हुए पूछा-

‘कहाँ है वह अब मम्मी?’

‘नीलकंठ में।’

नीलकंठ का नाम सुनते ही वह सोच में पड़ गई। ऐसा ही नाम उस लॉकेट पर खुदा था, जो आनंद ने उसे उपहार में दिया था। दो क्षण मौन रहने के पश्चात् वह फिर बोली-

‘नीलकंठ? यह क्या है मम्मी?’

‘एक छोटी-सी बस्ती है, जो तुम्हारी दीदी ने गरीबों के लिए बनाई है। सुना है कोई बड़ा कारखाना लगा रही है।

‘अच्छा।’

अपनी मानसिक उलझनों को इस एक शब्द में समेटते हुए वह चुप हो गई।

दूसरे दिन वह अकेले ही खोज लगाती वहाँ जा पहुँची, जहाँ संध्या ने नीलकंठ की बस्ती बसाई थी। वह छोटी-सी बस्ती बेला के अनुमान से कहीं बड़ी थी। घाटकोपर से गुजरती आगरा रोड के किनारे एक खुलेे मैदान को घेरकर वह अपने सपने को वास्तविकता का रूप दे रही थी। कितने ही मजदूर परिश्रम करते हुए उसे बना रहे थे।

मजदूरों की भीड़ को चीरते हुए वह मध्य में बनी कुटिया के समान एक कोठी के पास जा रुकी। जिसके सामने बड़े शब्दों में लिखा था ‘नीलकंठ’। यही संध्या के रहने का स्थान था और वह इस समय भीतर ही थी। बेला ने बाहर के बरामदे में से भीतर झांकने का प्रयत्न किया, पर किसी की आवाज ने उसे चौंका दिया।

‘बाहर लगी हुई घंटी बजाइए, मेम साहब।’ पास ही क्यारियों को खोदते हुए एक माली ने कहा।

बेला ने घंटी का बटन दबाया और द्वार खुलते ही संध्या सामने आ खड़ी हुई। कुछ क्षण दोनों बहनें मूर्ति बनी एक-दूसरे को देखती रहीं और फिर एक-दूसरे से लिपट गईं। दोनों की भीगी आँखें एक-दूसरे को धन्यवाद करने लगीं। एक किसी के उपकारों का और दूसरी किसी के अनोखे बलिदान का।

‘कब आई बेला?’ संध्या ने खींचकर उसे कमरे में लाते हुए पूछा।

‘कल आते ही तुम्हें घर में न देखा तो यहाँ चली आई।’

‘ओह! कैसे धन्यवाद करूँ तुम्हारे इस उपकार का।’

‘इसमें उपकार कैसा दीदी? यह तो मेरा कर्त्तव्य था।’

‘कैसे हैं अब वह-मिस्टर आनंद-तुम्हारे पति…’ संध्या ने बात बदलते हुए जरा रुककर पूछा।

क्षण भर के लिए बेला अस्थिर हो गई। आनंद के विषय में सुनते ही वह चौंक-सी गई, पर सहसा संभलकर बोली-‘अच्छे हैं।’

‘उन्हें भी ले आई होती।’

‘बहुत कहा, पर माने नहीं।’

‘क्या बोले?’ उत्साह भरी दृष्टि से देखते हुए संध्या ने पूछा।

‘कहने लगे-तुम जाओ। मैं न जाऊँगा अब उसके यहाँ।’

बेला की इस बात ने संध्या के मन को ठेस-सी लगाई, पर वह संभलकर और मुस्कराते हुए बोली-

‘उनकी इच्छा, तुम तो आया करोगी न।’

‘क्यों नहीं! कहो तो उन्हें भी खींचकर ले आऊँ।’

‘नहीं बेला, वह जहाँ भी रहें प्रसन्न रहें, मेरी तो यही प्रार्थना है भगवान से। तुम क्यों खींच के लाओ उन्हें-एक दिन वह स्वयं खिंचे चले आएँगे।’

संध्या की इस साधारण बात में कितना दृढ़-विश्वास था। बेला के मन पर यह बात हथौड़े की-सी चोट कर गई। वह कुर्सी से उठी और खिड़की से झांकती हुई बोली-

‘दीदी! यह सब क्या है?’

‘एक नई बस्ती- एक नया संसार-मेरी अधूरी कल्पना, जो वास्तविकता का रूप धारण कर रही है।’

‘तुम तो हर बात कविता में कहने लगी हो।’

‘पगली! तूने तो अभी जीवन में पांव रखा है हम तो जीवन लुटा बैठे। अब हम उस मोड़ पर खड़े हैं, जहाँ संसार की हर वस्तु अपने नग्न और बिखरे स्वरूप में दिखाई देती है।’

‘छोड़ो ये दार्शनिक बातें और कहो कि यह सब क्या बन रहा है।’

‘कह तो दिया कि नया संसार बसा रही हूँ। गरीबों और बेकारों के पसीने से रत्न निकालने के स्वप्न देख रही हूँ-यह सामान देखती हो-मोटर गाड़ी के पुर्जे बनाने का कारखाना लग रहा है-बम्बई के एक करोड़पति सेठ की साझीदारी में-इस कारखाने का हर मजदूर इस काम में अपनी पत्ती रखता है।’

‘तो यह है, विचार तो बड़े ऊँचे हैं। पर यह पुर्जे बनाने की क्या सूझी? कुछ करना था तो मोटर बनाने का कारखाना लगा लेना था।’

‘नहीं बेला, वह तुम्हीं बड़े लोगों को शोभा देता है। हम तो यही बना सकते हैं ताकि जब कभी तुम बड़े लोगों की गाड़ी चलते-चलते रुक जाए तो उसका कोई टूटा-पुराना पुर्जा बदलने को हम गरीब लोग कंधे दे सकें।’

संध्या की यह साधारण-सी बात बेला के मन पर जलते अंगारों का काम कर गई। इसके बाद वह कोई और प्रश्न न कर सकी और चुपके से उठकर वहाँ आ बैठी, जहाँ संध्या उसके लिए चाय बना रही थी।

बेला चली गई और संध्या बैठी उसके विषय में सोचने लगी-एक नन्हीं-सी बच्ची उसी के संग प्यार और स्नेह में बड़ी हुई और आज यह भी न हो पाया कि उसके मन का हाल उससे कह सकें। वह बीते जीवन की स्मृति में इतना खो गई कि उसे यह भी ध्यान न रहा कि सामने रखी हुई चाय बर्फ हो रही है।

‘चाय ठंडी हो रही है।’

किसी के इस वाक्य ने उसे जगा-सा दिया। उसने चौंककर सामने देखा। दरवाजे के पास खड़ा आनंद मुस्करा रहा था। थोड़ी देर के लिए तो उसे विश्वास ही न आया कि वह जो कुछ देख रही है क्या यह सच है।

उसे आश्चर्य में देखकर आनंद पांव उठाता स्वयं उसके पास आ गया। वह वैसे ही मौन उसे देखती रही-आने वाले अतिथि के स्वागत में उसके मुँह से एक भी शब्द न निकल सका।

‘आप’- बड़ी कठिनाई से आखिर उसके होंठों से निकला। वह उठी और अपनी साड़ी का आंचल ठीक करते हुए अपनी घबराहट को उसमें लपेटने लगी।

‘कहिए अवकाश मिल गया?’

‘तो तुम्हें पता चल गया कि हम आ गए!’

‘जी, थोड़ी देर पहले बेला आई थी।’

‘बेला! यहाँ आई थी? कब?’

‘जैसे आपको कुछ खबर नहीं, यह भी किसी और ने उसे कह दिया होगा कि मैं संध्या से मिलना नहीं चाहता।’

आनंद समझ गया कि बेला ने उसके विषय में यह कह दिया होगा। वह झट उसकी बात छिपाने के लिए मुस्कराते हुए बोला-

‘ओह! इसमें भी कोई भेद था।’

‘क्या भेद?’ संध्या ने उसी गंभीर मुद्रा में पूछा।

‘उसके सामने मैं तुमसे खुलकर बात न कर सकता।’

‘परंतु यह बात आपको शोभा नहीं देती।’

‘क्या?’

‘अपनी पत्नी को धोखा देना, आपके एक तनिक से छल ने मुझे तो कहीं का न रखा। अब बेला के जीवन का तो ध्यान रखिए।’

‘संध्या…! तुम्हारा भ्रम मैं क्योंकर दूर करूँ-कभी तो सोच-समझ से काम लिया होता। मैं इतना बुरा नहीं, जितना तुमने समझ रखा है।’

‘मेरी समझ से क्या होता है।’

तभी द्वार पर आहट हुई और दोनों चुप हो गए। सुंदर भीतर आया।

‘यह हैं मिस्टर आनंद-बम्बई की एक मोटर कंपनी के मैनेजर।’

‘नमस्ते! शायद पुर्जों के विषय में कोई एग्रीमेंट करने आए हैं।’

‘यह अपनी गाड़ी में कोई देशी पुर्जा लगाना पसंद नहीं करते, अपना जीवन-साथी भी तो ‘फॉरेन मेक’ चुना है।’

संध्या की इस बात पर सुंदर जोर से खिलखिला उठा और फिर उसे एक ओर ले जाकर उसके कानों में कोई बात कही, जिसे सुनकर संध्या आनंद से बोली-‘मुझे किसी आवश्यक काम से अभी जाना है। यदि समय हो तो थोड़ी देर प्रतीक्षा कीजिए, मैं शीघ्र लौट आऊँगी।’

‘फिर कभी सही, अभी मैं चलता हूँ।’ यह कहकर आनंद बाहर चला गया।

जब आनंद घर पहुँचा तो बेला ने सबसे पहला प्रश्न यही किया-

‘कहाँ रहे इतनी देर?’

‘एक मित्र से मिलने चला गया था, पर तुम भी तो अभी आई हो।’

‘यह आपने कैसे जाना?’

‘मेरे मन ने मुझसे कहा। क्यों झूठ है?’

‘नहीं तो, मैं भी एक सहेली से मिलने गई थी।’

दोनों चुप हो गए-दोनों अपनी आत्मा के अपराधी थे। दोनों के मन में चोर थे-इसलिए एक-दूसरे से और प्रश्न करने का साहस न कर सकें।

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