चैप्टर 17 नीलकंठ गुलशन नंदा का उपन्यास | Chapter 17 Neelkanth Gulshan Nanda Novel In Hindi Read Online

चैप्टर 17 नीलकंठ गुलशन नंदा का उपन्यास, Chapter 17 Neelkanth Gulshan Nanda Novel In Hindi Read Online, Neelkanth Gulshan Nanda Ka Upanyas 

Chapter 17 Neelkanth Gulshan Nanda 

Chapter 17 Neelkanth Gulshan Nanda Novel In Hindi

चिड़ियों के चहचहाने के साथ ही बेला की आँख खुल गई। उसने अपनी कोमल उंगलियों से पलकों को मसला-वातावरण में हर ओर सुगंध फैल रही थी-उसने एक लंबी साँस लेते हुए कमरे की छत की ओर देखा-कबूतरों का एक जोड़ा ऊपर बैठा गुटर-गूँ कर रहा था।

साथ के बिस्तर पर आनंद अभी तक सुख की नींद सो रहा था। उसने नाक सिकोड़कर मुस्कराते हुए देखा और अंगड़ाई लेकर बिस्तर से उठ बैठी।

बाहर की खिड़की खुलते ही किरणों ने कमरे की दीवारों का चुंबन लिया। बेला ने झांककर देखा तो प्राकृतिक दृश्य से उसके मन में गुदगुदी-सी होने लगी। ऊँचे पर्वत, सुंदर झीलें, झरनों से झरता हुआ हर ओर हरियाली का ठाठें मारता हुआ समुद्र-उसके जवान हृदय ने अंगड़ाई ली-उसने फिर मुड़कर आनंद को देखा-वह अभी तक सो रहा था-शायद उसे आज बड़े समय पश्चात् ऐसी निद्रा मिली थी।

द्वार पर आहट हुई और नौकर चाय की ट्रे लिए भीतर आया। बेला ने होंठों पर उंगली रखते हुए चुप रहने का संकेत किया और प्याला लेकर दबे पांव आनंद के बिस्तर पर बैठ गई। वह गहरी निद्रा में डूबा हुआ था। बेला धीरे-धीरे उसके मुख पर फूंकें मारने लगी। गर्म-गर्म साँस से दो-एक बार आनंद ने आँखें झपकीं-जैसे ही उसने बेला को अपने निकट बैठे देखा, झट से आँखें बंद कर लीं, मानो उसने उसे देखा ही न था।

बेला झुकी और उसके बालों से खेलने लगी। आनंद ने वैसे ही नींद का बहाना करते हुए हाथ बाहर निकालकर उसे कमर से पकड़ लिया और उसे सीने से लगा लिया। बेला की सिहरन एक मधुर आनंद में परिवर्तित हो गई। उसने अपने शरीर को आनंद के हाथों में ढीला छोड़ दिया। आनंद के होंठों का उसके कोमल कपोलों से खिलवाड़ उसके मन में गुदगुदी करने लगा-बेला ने आँखें बंद कर लीं।

‘बेला!’ आनंद के होंठों ने उसके गालों को गुदगुदाते हुए कहा।

‘जी!’

‘दोनों इस मंजिल तक आ पहुँचे-इसे तुम्हारी जीत समझें या अपनी

हार…’

‘मेरी जीत…’

‘वह कैसे?’

‘आप तो भटके हुए यात्री थे, जिसे अपनी मंजिल का ज्ञान न था।’

‘नहीं बेला, ऐसा नहीं, मंजिल भी सामने थी और रास्ता भी साफ।’

‘तो…’

‘चलते-चलते एक सहयात्री से जान-पहचान हो गई, जिसने किसी और मंजिल का रास्ता दिखा दिया, जो पहली से कहीं आकर्षक, सुंदर और मोहक थी।’

‘सच मेरे देवता?’ बेला ने अपने गाल जोर से आनंद के होंठों से भींचते हुए पूछा।

‘हाँ बेला-तुम में कुछ अछूती मोहिनी थी-हर भाव में एक आकर्षण-हर बात मन में उतर जाने वाली।’

अचानक बेला को चाय का ध्यान आया, जो साइड-टेबल पर रखी ठंडी हो चुकी थी। वह प्याला उठाकर बाहर चली गई।

आनंद तकिए का सहारा लेकर बिस्तर पर बैठ गया और खुली हुई खिड़की में से पहाड़ियों की चोटियों को देखने लगा। ऊँचाई से गिरते हुए झरने की आवाज स्पष्ट सुनाई दे रही थी, यह स्थान उन्होंने मधुमास के लिए चुना था।

उसकी बेला भी तो वैसा ही एक झरना थी-यौवन का सुंदर झरना-उसके हाव-भाव में शराफत थी-उसकी गति में उमड़ती मस्ती-उसकी बातों में हलचल-नदी और झरना-संध्या और बेला।

आहट हुई और वह संभल गया। बेला चाय का प्याला लिए उसकी ओर बढ़ रही थी। वह अपने विचारों में खोया-खोया-सा उसे देखने लगा।

‘किस दुनिया में खो गए?’ बेला पास आते हुए बोली।

‘नहीं तो…सोच रहा था यह चाय से उठता हुआ धुआं तुम्हारे मुखड़े को चूमकर कहाँ लुप्त हो जाता है।’

‘ओह तो आप कविता करने लगे।’

‘मेरी कविता तो अब तुम हो, जिसे पढ़ने का प्रयत्न कर रहा हूँ।’ आनंद ने चाय का प्याला पकड़ते हुए कहा।

बेला उसके पास बैठ गई और ध्यानपूर्वक उसके चेहरे को निहारने लगी, जिस पर सूर्य की किरणें खेल रही थीं।

थोड़े समय पश्चात् दोनों तैयार होकर निकले। आज उनका घुड़सवारी का कार्यक्रम था। दोनों सवार होकर पर्वतों में जाती एक पगडंडी पर हो लिए… घुड़सवारी में दोनों अनाड़ी थे।

घोड़े सड़क पर पांव-से-पांव मिलाकर चले जा रहे थे मानो फौज के दो सिपाही बढ़े जा रहे हों। ज्यों-ज्यों घोड़ों की चाल बढ़ती, उनके दिल की धड़कन तेज हो जाती।

चलते-चलते बेला कुछ गुनगुनाने लगती, उसका हर भाव आनंद के अतृप्त भाव की कसक को बढ़ा देता, वह लपककर उसका हाथ पकड़ने का प्रयत्न करता तो झटककर उसका हाथ परे कर देती और घोड़े को आगे बढ़ा ले जाती। उसके बढ़ते हुए उत्साह में उसे एक आनंद अनुभव होता, यह भूख आनंद को उसके लिए पागल बनाए रखेगी और वास्तव में आनंद के लिए इस प्यार की अतृप्ति में भी आनंद था-उसके कान बेला की मधुर तान का रसपान कर रहे थे-यह जीवन, यह यौवन, यह उल्लास फिर कहाँ?

बेला के घोड़े ने एड़ियों पर उछलते हुए हिनहिनाना आरंभ कर दिया और सरपट भागने लगा। संतुलन बिगड़ जाने से बेला नीचे लटकने लगी। उसकी चीख-पुकार सुनकर आनंद खिलखिलाकर हंसने लगा और अपने घोड़े को उसके पीछे डाल दिया।

कुछ दूर जाकर घोड़े ने बेला को जमीन पर फेंक दिया और स्वयं गर्दन मोड़कर दूसरे घोड़े को देखने लगा। आनंद ने झट से बाग खींचा और उछलकर अपने घोड़े से नीचे उतर आया।

धरती पर बेला पीड़ा से कराह रही थी। उसकी बांह पर चोट आ गई थी और वह लहू के कतरे ब्लास्टिंग-पेपर की भांति उसके खिंचे तंग ब्लाउज पर फैल गए थे। आनंद ने उसका सिर उठाकर अपनी गोद में रख लिया और झट जेब से रूमाल निकालकर कसकर उसकी बांह पर बाँध दिया और उसके गले में बंधा रूमाल खोलकर जल लाने के लिए पास बहती नदी की ओर भागा। उसका यह उल्लास देखकर पीड़ा में कराहते हुए भी बेला के मन में गुदगुदी-सी होने लगी। उसे चोट की इतनी चिंता न थी जितनी कि यह जानकर उसे प्रसन्नता हुई कि उसकी साधारण-सी चोट आनंद के लिए कितनी बड़ी चिंता का कारण बन गई।

आनंद के लौटते ही बेला गंभीर हो गई। उसने भीगा हुआ रूमाल चोट पर बांध दिया और माथे पर से पसीना पोंछते हुए पूछा-

‘कहीं चोट अधिक तो नहीं आई?’

‘चोट तो साधारण है, परंतु पीड़ा न जाने क्यों बढ़ती जा रही है।’

‘वह क्यों?’

‘आप जैसे डॉक्टर हों तो पीड़ा क्यों नहीं बढ़ेगी?’

‘कैसी पीड़ा?’ आनंद ने उसकी बांह को मलते हुए पूछा।

‘मीठी-मीठी।’ वह मुस्कराते हुए बोली।

‘कहाँ?’ आनंद ने बनते हुए पूछा।

‘दिल में।’

‘लाओ तो कम कर दूँ।’ आनंद ने अपना हाथ उसके जलते हुए सीने पर रख दिया और उसके हृदय की धड़कन का अनुभव करने लगा-धड़कन की हर ताल उसकी नसों में बिजली-सी भरने लगी।

‘दिल की धड़कन जांच रहे हैं क्या?’

‘तुम्हारी पीड़ा बाँट रहा हूँ-ऐसा अनुभव होता है वह पीड़ा बिजली बनकर मेरे दिल में भी उतर रही है।’

‘लाओ देखूँ तो’-बेला ने अपना हाथ आनंद के दिल पर रखते हुए कहा-आनंद उसके कुछ और समीप हो गया-दोनों यह बच्चों का-सा खेल देखकर मुस्कराने लगे। आनंद ने उसे अपनी बांहों में जकड़ लिया-बेला भी उसकी चौड़ी और खुली छाती से लिपटकर अपनी पीड़ा को कम करने लगी। दोनों के शरीर में ज्वाला-सी धधक रही थी, जिसे बुझाने के लिए वह अंगारों में ठंडक ढूंढ रहे थे।

दोनों को तब सुध आई, जब पास ही खड़े एक बालक चरवाहे ने घोड़े की दुम पकड़कर झटके से उसके बाल खींचे। घोड़ा बिदककर जोर से हिनहिनाया और दोनों चौंककर उठ बैठे। लड़का खिलखिलाकर हंसता हुआ नीचे ढलान की ओर भागने लगा।

दोनों मुस्कराते हुए उठे और अपने-अपने घोड़े की बाग संभाल पैदल ही उन टीलों पर जाने लगे। झरने की आवाज समीप होती जा रही थी।

थोड़े ही समय में वह उस ऊँचे स्थान पर जा खड़े हुए, जहाँ से आस-पास का सारा दृश्य स्पष्ट दिखाई दे रहा था-दूर दृष्टि तक फैली हुई हरियाली आँखों में ठंडक भर रही थी। ऊँचाई से गिरता हुआ जल झरने का रूप धारण करके पिघली हुई चांदी की एक मोटी तह ज्ञात होता था।

‘कितना सुंदर दृश्य है, मन चाहता है इस बहती चांदी में कूद पडूँ।’ बेला ने मौन तोड़ते हुए कहा।

‘न न ऐसा न करना।’ आनंद झट बोला।

‘खो ही तो जाऊँगी, नीचे आकर ढूंढ निकालना।’

‘नहीं बेला-यह इतना सरल न होगा। स्त्री भी इस झरने के समान ऊँचाई पर ही अच्छी लगती है, एक बार नीचे गिर जाने से वह अपना सब कुछ खो बैठती है। जैसे-यह जल-देखो तो नीचे गिरते ही छोटी-छोटी नालियों में बंट गया और बस्ती का कूड़ा अपने साथ ले जाएगा।’

बेला आनंद की दार्शनिक बात सुनकर चुप हो गई। उसे ऐसे समय में यह तुलना अच्छी न लगी, परंतु उसे जतलाकर प्रसन्नता को फीका करना उसने उचित न समझा और उसे हाथ से खींचते हुए टीले के दूसरी ओर ले जाने लगी-वह इस रमणीक दृश्य की भांति आनंद के मस्तिष्क पर छा जाना चाहती थी। वह कभी भी आनंद के मन में संध्या या किसी और का विचार नहीं सह सकती थी। वह चाहती थी कि उसकी हर तड़प, हर याद और मुस्कुराहट के पीछे केवल उसकी छवि हो।

आनंद भी उसके हाव-भाव में खोया उस रसपूर्ण सुंदर दुनिया की ओर खिंचता जाता। संध्या के साथ बीते हुए दिन उसे चंद अधूरे सपनों के समान लगे, जिन्हें मन-बहलाव के लिए कभी-कभी याद कर लिया करता था। वह सपनों को अधूरा क्यों छोड़ दे-क्यों न उनकी डोरी बेला से मिला दे। संध्या तो एक सपना थी, जो समाप्त हो गई और बेला एक वास्तविकता है, जो भाग्य ने स्वयं उसके जीवन को रसमय बनाने के लिए भेज दी हो।

उन्हीं पहाड़ियों पर यौवन की तरंगों पर नाचते-कूदते उनकी भेंट बम्बई की एक प्रसिद्ध फिल्म कंपनी के मालिक से हो गई, जो उन दिनों अपनी पार्टी के साथ किसी फिल्म की शूटिंग के लिए वहाँ आया था। वहीं यह मुलाकात उनकी आर्ट डायरेक्टर मिस्टर हुमायूं द्वारा हुई, जो फिल्म जगत का माना हुआ मेकअपमैन था और आनंद का मित्र था। हुमायूं जीवन लोगों को नए-नए रूपों और ढंगों में प्रस्तुत करते बीत चुका था।

दिल्लगी-ही-दिल्लगी में हुमायूं ने बेला से कहा कि उसका चेहरा फोटोग्राफिक एंगल्स से बहुत अच्छा है। बेला अपनी इस प्रशंसा पर फूली न समाई और उसी मुद्रा में बोली-

‘क्या यह संभव हो सकता है कि आप हम दोनों की तस्वीर इस फिल्म में उतार लें।’

‘क्यों नहीं?’ यह कहते हुए हुमायूं ने उन्हें अलग-अलग खड़ा कर दिया और थोड़े ही समय में उन्हें भी शूटिंग के उस दृश्य में ले लिया, जिसमें बहुत से आदमी पिकनिक करते हुए दिखाए गए थे। आनंद के विवाह के पश्चात् हुमायूं की यह उससे पहली भेंट थी और उसने दोनों को रात के खाने पर आमंत्रित किया।

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