चैप्टर 16 नीलकंठ गुलशन नंदा का उपन्यास, Chapter 16 Neelkanth Gulshan Nanda Novel In Hindi Read Online, Neelkanth Gulshan Nanda Ka Upanyas
Chapter 16 Neelkanth Gulshan Nanda Ka Upanyas
रायसाहब के घर आज ब्याह की तैयारियाँ हो रही थीं। बारात आने में तीन घंटे बाकी थे। रायसाहब बाहर लॉन में शामियाने लगवा रहे थे। उन्हें संध्या की प्रतीक्षा थी-भीतर से हर आने वाले व्यक्ति से वह थोड़े समय पश्चात् उसके विषय में पूछ लेते-बार-बार उनकी दृष्टि बाहर फाटक पर जाती। क्या उसका मन इतना बदल गया कि बहन के विवाह पर भी न आएगी।
निशा की गाड़ी में से संध्या बाहर निकली और सामने रायसाहब को देख उनकी ओर बढ़ी-
‘पापा! मैं आ गई।’
संध्या ने बारीक स्वर में भोलेपन से कहा। इस स्वर में वही मिठास थी, जो आज से वर्षों पहले रायसाहब उसके मुँह से सुना करते थे। उनके चिंतित मुख पर अब प्रसन्नता की मुस्कान थी। संध्या को गले लगाते हुए बोले-
‘मैं तो डर गया था।’
‘क्यों पापा?’
‘सोचता था शायद तुम न आओ।’
‘यह कैसे हो सकता है? इस घर की प्रसन्नता तो मेरी प्रसन्नता है।’
स्नेह से पीठ थपथपाते हुए रायसाहब ने उसे भीतर जाने को कहा और स्वयं दालान में आकर नौकरों को समझाने लगे, उन्हें उसके आंतरिक सुख का पूरा आभास था, परंतु उसे व्यक्त न करना चाहते थे।
हर ओर चहल-पहल थी, लॉन में खुला शामियाना, तीन-चार सौ आदमियों का खाने-पीने का प्रबंध, गेट पर बिजली के कुमकुमों से लिखा ‘स्वागतम’, सड़क पर झड़ियां और फानूश, बैंड वालों की धुनें-कितना सुहावना दृश्य था जो इंसान जीवन में हजार बार देखता है, परंतु उसके अपने जीवन में वह अवसर एक ही बार आता है-केवल एक बार।
संध्या के मन में इस दृश्य की कल्पना से सदा गुदगुदी-सी होती-आज भी यह दृश्य देखकर उसके उदास मन में हल्की-सी गुदगुदी उठी, परंतु दूसरे क्षण ही किसी भय ने उस पर अपनी छाया डाल दी। जीवन के इस नाटक में हर अभिनेता, हर दृश्य पूर्ण था, परंतु उसका अभिनय आज भाग्य ने बेला को दे दिया था, जब आनंद उसे ब्याहने आएगा तो उसके मन पर क्या बीतेगी-क्या उसने पल-भर के लिए भी कभी अनुभव किया होगा कि उसकी डगमगाती नाव के लिए भावना के उमड़ते तूफान में वही एक किनारा है। यह सोचकर उसकी आँखों में आँसू छलक आए।
अंदर से ढोलक और गीतों की आवाज आई। वह उस भीड़ में सम्मिलित होने से डर रही थी। मन की जलन कम करने के लिए वह बाहर ही से पिछवाड़े की ओर हो ली।
एकांत में दीवार से लगकर उसने दालान में बने मंडप को देखा, जो ब्याह के लिए सजा हुआ था। उसे लगा जैसे वह स्वयं चौकी पर दुल्हन बनी बैठी है, पंडित अग्नि में घी की आहुति देते हुए मंत्र पढ़ रहा है और पास में आनंद बैठा उसे देख रहा है-वह लजाई और सिमटी-सी नीचे रखे तेल के कटोरे में देखने लगी, जिसमें आनंद का प्रतिबिम्ब पड़ रहा था। कितनी घबराहट थी उसके चेहरे पर। एकाएक किसी ने कटोरे में कुछ डाल दिया, झिलमिलाता हुआ आनंद का प्रतिबिम्ब गुम हो गया और उसका स्थान बेला ने ले लिया-संध्या के विचारों का तांता टूट गया। मंडप के पास खड़ी रेनु चिल्लाई-‘दीदी’ और उसकी बांहों में आकर लिपट गई और उसे खींचते हुए साथ ले गई।
कमरे में प्रवेश करते ही उसने बेला को देखा, जो संकोच और लज्जा से सिमटी हुई सहेलियों के झुंड में घिरी बैठी थी। संध्या को देखते ही क्षण-भर के लिए बेला का रंग सफेद पड़ गया, उसे लगा जैसे उसने बलपूर्वक संध्या की कामनाओं का कत्ल करके अपनी मेंहदी रचाई हो।
‘कहो बेला, कैसा लग रहा है?’ संध्या ने उसके निकट स्थान बनाते हुए पूछा।
‘क्या दीदी?’ बड़ी कठिनाई से वह कह पाई।
‘यह ब्याह, दुल्हन बनना, यह श्रृंगार…?’
‘कुछ भी तो नहीं, मुझे तो कुछ नहीं लग रहा। मन वैसे ही है- कोई विचित्र बात नहीं।’
‘नहीं बेला-यह तुम्हारा मन नहीं कह रहा था, जबान कह रही है। सोचो तो कितनी बदल गई हो एक ही दिन में तुम।’
‘मैं!’ वह फीकी हंसी हंसते हुए बोली-‘दीदी! तुम्हारी दृष्टि बदल गई है।’
‘तो कहाँ गई तुम्हारी चंचलता-अब आँखों में यह संकोच और लज्जा क्यों?’ संध्या ने कोमल भाव में धीमे स्वर में कहा और पास रखा दर्पण उसके सामने रखती हुई बोली-‘देख तो जिन नयनों की पुतलियों में सदा चैन और निद्रा रहती थी, आज वहाँ प्रतीक्षा की व्याकुलता का वास है।’
‘किसकी प्रतीक्षा, दीदी!’ सामने खड़ी रेनु ने ऊँचे स्वर में पूछा। इस पर सब मिलकर खिलखिलाकर हंस पड़े, बेला भी हंसी रोक न सकी।
सांझ की घड़ियों ने जैसे ही रात के अंधेरे से मिलन किया कि बेला की कामनाओं की बारात आ पहुँची। चारों ओर सुंदर वस्त्रों में सुसज्जित लोग कोठी से बाहर बारात के स्वागत का प्रबंध करने लगे।
बाजे की झंकार पर सहेलियों ने बेला को खींचकर बाहर वाले बरामदे में ले जाना चाहा, परंतु उसने उनके संग जाने से इंकार कर दिया। बारात को देखने के लिए सब लड़कियाँ बेला और संध्या को अकेले छोड़कर बाहर भाग गईं। भीतर दोनों बैठीं बाजे की धुनें सुन रही थीं-दोनों के मन में एक ही कसक थी-परंतु कितना अंतर था दोनों के आंतरिक अनुभव का-एक के मन की धड़कन में भय के साथ उल्लास की तरंगें भी थीं और दूसरे के मन में धड़कन घटनाओं के उमड़ते हुए तूफानों में दबी थी।
‘दूल्हे को देखने चलोगी?’ मौन तोड़ते हुए संध्या ने बेला से कहा।
‘ऊँ हूँ-क्या लेना है मुझे देखकर।’ उसने असावधानी से उत्तर दिया।
‘पगली! ऐसा नहीं कहते-चल मेरे साथ।’
‘दीदी! नहीं ऐसा भी क्या-भला मैंने कभी देखा नहीं उन्हें।’
‘हाँ देखा है अवश्य, पर प्यार की दृष्टि से, दुल्हन बनकर कभी नहीं, चल आज चलकर उस दृष्टि से उनकी छवि देख।’
बेला के हठ को संध्या ने तोड़ ही दिया। संध्या ने बालकनी पर झुके लड़कियों के झुंड को एक ओर करने को हाथ बढ़ाया। उनमें से एक कह उठी-
‘अरी तू रोज ही देखेगी इन्हें, हमें तो देख लेने दे।’
इस पर सब खिलखिलाकर हंसने लगीं। बारात उसी समय कोठी के फाटक पर आकर रुकी और दोनों ओर से समधी फूलों के हार लिए बढ़े। जैसे ही आनंद दूल्हा बना चबूतरे के नीचे से गुजरा, ऊपर से सबने फूलों की वर्षा कर दी।
दूल्हे के स्वागत के लिए बेला को भी कमरे की दहलीज तक जाना पड़ा। संध्या उसे सहारा दिए वहाँ तक साथ लाई। बेला ने देखा उसकी पलकों में छिपे आंसू किसी भी समय बरस जाना चाहते थे। उसे लगा जैसे सहारा देने वाला स्वयं डूब रहा है।
दुल्हन को सबने घेरे में ले लिया। आनंद के भारी पांव की दाब के साथ ही दोनों के मन की धड़कन तेज होती गई-दो नन्हें से दिल-जैसे पिंजरे की सलाखों से दो पक्षी टकरा रहे हों। एक भूख और प्यास से और दूसरा स्वतंत्रता के लिए।
आनंद ने बेला को देखा। आज उसमें अद्भुत मोहिनी थी, उल्लास से आनंद का मुख चमक उठा। फिर घूमती हुई उसकी दृष्टि संध्या पर पड़ी, जो निराशा और उदासी को मुस्कराहट के पर्दे में ढांपने का व्यर्थ प्रयत्न कर रही थी। क्षण-भर के लिए वह टकटकी लगाए उसे देखता रहा और फिर आँखें नीची करके धरती को देखने लगा। संध्या ने बेला को जयमाला पहनाने को कहा और उसने बढ़कर फूलों की माला आनंद के गले में डाल दी। आनंद ने भी मुस्कराते हुए फूलों का हार बेला को पहना दिया और दोनों ओर से बधाई की बौछारें होने लगीं।
संध्या एक ओर अलग होकर खड़ी हो गई। कभी-कभी भीड़ को चीरती उसकी दृष्टि आनंद को छू जाती और हृदय के तारों में वह एक अजीब कंपन-सा अनुभव करती-उसने भी अपने लिए कुछ ऐसे ही सपने सजाए थे जो अधूरे रह गए, वह अपने आपको समझाने का प्रयत्न करती, पर भरा हुआ प्याला छलक ही पड़ा और उसकी आँखों से आंसू ढुलककर गालों पर आ गए।
‘यह क्या हुआ, तुम रो रही हो?’ पास बैठी निशा ने प्रश्न किया।
आनंद और बेला दोनों ने उसे देखा। निशा उसके मन की गहराई से उतरते धुएं को भांप गई और उसे अपने साथ बाहर ले गई।
‘इतनी शीघ्र होश खो बैठीं, अभी तो तुम्हें तूफानों से टक्कर लेना है।’ निशा ने बाहर आकर संध्या को समझाते हुए कहा।
‘ठीक कहती हो। मस्तिष्क मान गया पर मूर्ख मन को कौन समझाए।’
बेला को मंडप में ले जाया गया। आज वह हमेशा के लिए आनंद की हो जाएगी और फिर दोनों आँखों से दूर हो जाएँगे-कितना कठिन होगा फिर उसके लिए कभी आनंद से दो घड़ी बैठकर बातें करना भी-वह वहीं बैठी खिड़की के नीचे आंगन में देख रही थी, जहाँ सजे हुए मंडप में दूल्हा-दुल्हन अग्नि के सामने सदा के लिए एक-दूसरे के साथ रहने की शपथ ले रहे थे।
संध्या के मन पर चोटें तो लगीं, पर हर चोट से उसका आत्मविश्वास बढ़ता गया। आँखों से ढुलके हुए आंसू गालों पर अपने चिह्न छोड़कर सूख गए थे। उसका मन राख होने के बदले कुंदन बनता जा रहा था।
बाहर द्वार पर किसी के आने की आहट हुई और वह झट से संभल गई। द्वार खुलते ही वह सिर से पाँव तक कांप गई-सामने फूलों का सेहरा पहने आनंद खड़ा था।
‘आप’ वह घबराहट में उठते हुए बोली।
‘हाँ संध्या, लगन-मंडप से उठकर यहाँ आया हूँ।’
‘क्यों?’
‘जीवन की बाजी लगाने।’
‘कैसी बाजी?’
‘चलो भाग चलें।’ उसने फूलों का सेहरा हाथों में मसलते हुए कहा।
‘नहीं आनंद, यह संभव नहीं-बेला का अधिकार छीनकर मैं…’
‘अधिकार-कैसा अधिकार, कहाँ का न्याय-तुम यही ढिंढोरा पीटती रहोगी, चाहे तुम्हारे प्राण ही क्यों न चले जाएं, यदि यह निर्बलता तुम में न होती तो बेला की क्या मजाल थी कि यों तुम्हारी अभिलाषाओं को लूटकर ले जाती?’ यह कहते हुए आनंद बाहर निकल गया। संध्या उसे पुकारती हुई सिर निकालकर खिड़की से नीचे देखने लगी।
आनंद और बेला अग्नि के गिर्द फेरे ले रहे थे-तो क्या ये उसके अपने ही विचार थे-कल्पना थी जो उसे वहाँ ले गई-क्या उसने जागते हुए स्वप्न देखा था-वह स्वप्न में भी अपनी मानसिक निर्बलता को न छोड़ सकी-वे दोनों तो शहनाई के मधुर स्वर में जीवन की रंगीन यात्रा की तैयारी कर रहे थे-आंसुओं की एक और धारा उसकी आँखों से बह निकली, एक नया सोता उबल पड़ा।
पौ फटते ही आकाश में चमकते हुए तारों को अपना मुँह छिपाना पड़ा-साथ ही संध्या के मन के अंधकार में चमकते हुए आकाश के कण मद्धिम हो गए-आँखों से बहती हुई जल-धारा सूख चुकी थी, रात के अंधकार के साथ चेहरे की रौनक जा चुकी थी-जाने कब तक मूर्ति बनी वह इस कमरे की दीवारों को देखती रही, जहाँ उसने बचपन से जवानी के वर्ष व्यतीत किए थे।
घरवाले उसे ढूँढते हुए कमरे में आ पहुँचे और संध्या को खींचकर नीचे ले जाने लगे।
‘कहाँ जाना है मुझे?’
‘नीचे बेला को विदा करने।’ उसकी चाची बोली।
‘ओह! तो वह जा रही है-इतनी शीघ्र।’
‘होश में तो हो संध्या।’ निशा ने उसे सहारा देते हुए कहा-‘यह समय मूर्ति बनकर बैठने का नहीं, चलो सब तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहे हैं-और हाँ, चलते समय बेला की हथेली पर भी कुछ रखना होगा, वह तुम्हारी छोटी बहन है।’
धीरे-धीरे पांव उठाती जब संध्या फाटक तक पहुँची तो सब रिश्तेदार और दूसरे मिलने वाले बेला को विदा कर रहे थे। डोली के लिए एक नई सुंदर कार सजाई गई थी। संध्या कार की दूसरी ओर के द्वार के पास खड़ी हो गई, जहाँ कोई न था। लड़की को विदा करते हुए सबकी आँखों में आँसू थे-केवल संध्या की आँखें खुश्क थीं-वह एकांत में इतना रो चुकी थी कि अब उनमें जल की बूंद भी न थी।
भीतर झांकते हुए संध्या ने आनंद से कहा-
‘ब्याह के दिन तो दुल्हन शरमाती है दूल्हा नहीं-फिर आप क्यों शरमा रहे हैं जीजाजी।’
‘नहीं तो’ आनंद ने आँखें ऊपर उठाकर घबराहट को मुस्कान में छिपाते हुए कहा। जीजाजी का शब्द उसने कुछ ऐसे ढंग से कहा था कि वह विषैले नाग के विष की भांति उसके भीतर में उतर गया।
बेला ने मुँह मोड़कर संध्या की ओर देखा और भर्राई हुई आवाज में बोली-
‘दीदी!’
‘बेला! तुम जा रही हो, इन आँखों में पानी ही नहीं कि शगुन के दो-चार आँसू तुम्हारी जुदाई में अर्पण कर सकती, भगवान करे तुम दोनों सदा प्रसन्न और आबाद रहो।’
यह कहते हुए उसने चांदी की एक डिबिया बेला के हाथ में रख दी और बोली-
‘मेरी छोटी सी भेंट-इसे सदा अपने पास रखना, कहीं खो न देना और हाँ ध्यान रखना बड़ा चंचल है इनका मन; एक छोटी सी भूल के कारण मैं इन्हें खो बैठी, कहीं तुम्हारे हाथों से भी न निकल जाएँ।’
संध्या के ये शब्द उस समय आनंद को अच्छे न लगे, परंतु उसके मन की गहराईयों में करवटें लेता हुआ दर्द वह अवश्य अनुभव कर पाया।
बेला बात का पहलू बदलते हुए झट बोली-
‘दीदी, आओगी न हमारे घर।’
‘क्यों नहीं-एक बार बुलाना तो दौड़ी आऊँगी।’
‘देखना तो जाते ही पहला पत्र तुम्हें लिखूंगी।’
‘कहीं उस युद्ध के दो सिपाहियों की-सी बात न करना।’
‘कैसी बात?’ आनंद से पूछा।
‘रणभूमि में दो सिपाही भागे जा रहे थे। उनमें से एक घायल हो गया। दूसरे ने उसे एक घने पेड़ के नीचे लिटा दिया और दिलासा देते हुए बोला-‘मुझे जाने दो, जाते ही पहला काम यह करूँगा कि डॉक्टर और गाड़ी लाऊँ।’
‘फिर क्या हुआ?’
‘वह चला गया-उसकी सहायता को कोई न पहुँचा-यहाँ तक कि मृत्यु तक को उस पर तरस न आया।’
वे चले गए। रायसाहब और मालकिन भी भीतर चले गए। संध्या ने दूर तक बेला और आनंद की गाड़ी को जाते देखा और जब वह दृष्टि से ओझल हो गई तो एक गंभीर मुस्कान उसके होंठों पर खेल गई और वह स्वयं बोल उठी-‘लो यह खेल भी समाप्त हुआ।’
‘कौन-सा खेल?’ पास खड़ी निशा ने पूछा।
‘यह मुआ दिल और दर्द का खेल।’
‘सच, कितनी अच्छी हो तुम!’
‘इसलिए न कि दिल को पत्थर बना लिया है।’
निशा चुप हो गई, जैसे उसने संध्या का उपहास उड़ाया हो। घर में हर ओर उदासी और चुप्पी छाई थी।
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